बुधवार, 27 फ़रवरी 2008
पत्रकारों से सर पर मौत का कफन
डॉ. महेश परिमल
साहस का दूसरा नाम है पत्रकारिता और इसे सार्थक करता है साहसी याने पत्रकार। ये समाज का एक ऐसा प्राणी है, जिसकी इज्जत तो सभी करते हैं, पर उसे अपनाना कोई नहीं चाहता। कहा जाता है कि जिस पत्रकार के जितने अधिक दुष्मन होंगे, वह अपने मिषन में उतना ही अधिक सफल माना जाता है। जिस पत्रकार के दोस्त अधिक होंगे, वह एक विफल पत्रकार साबित माना जाता है। आष्चर्य इस बात का है कि पत्रकारिता में इस बात का कहीं जिक्र ही नहीं है कि पत्रकारों पर किस तरह के हमले हो सकते हैं और उससे किस तरह से बचा जाए। एक और आष्चर्य की बात- कर्ज देने के लिए एक पाँव पर खड़ी तमाम बैंकें इन्हें कर्ज देने से कतराती हैं। पर आज यही पत्रकार सर पर कफन बाँधकर घर से निकलता है। कई बार ऐसा होता है कि खबर की खोज में निकला यह पत्रकार स्वयं ही एक खबर बनकर रह जाता है। यदि यह कहा जाए कि भारतीय पत्रकार अपने साहस की कीमत चुकाते हैं, तो गलत नहीं होगा। यही कारण है कि सन् 2006 में दुनिया भर में 110 पत्रकारों की हत्या हुई, जो अब तक सबसे अधिक है।
पत्रकारों की हत्या सबसे अधिक युध्द के समय होती है। संस्कृत में कहा गया है '' युध्दस्य कथा रम्या:'' याने युध्द कथाओं को पढ़ने में एक अनूठा ही आनंद आता है। पत्रकारिता के इतिहास में यदि थोड़ी-सी छूट ली जाए, तो यह कहा जा सकता है कि हनुमान जी सबसे पहले खोजी पत्रकार साबित हुए और संजय पहले ''वार करसपोंडेंड '' थे। हनुमान ने सीता माता की खोज की और संजय ने कुरुक्षेत्र से युध्द का ऑंखों देखा हाल घृतराष्ट्र का सुनाया। आज भी युध्द की रिपोर्टिंग इतनी सहज नहीं है, उस दौरान तो कौन दोस्त और कौन दुष्मन ? सभी परस्पर दुष्मन ही होते हैं। यूएनओ से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार सन् 2006 में 110 पत्रकारों की हत्या तब हुई, जब वे अपना काम कर रहे थे। सबसे अधिक खतरा इन्हें ईराक में हुए युध्द के दौरान रहा। ईराक में अमेरिकी आक्रमण सन् 2003 से षुरू हुआ, तब से अभी तक लगभग 150 पत्रकारों ने अपनी जान गवाँ दी है। इसके अलावा पत्रकारों को धमकियाँ मिलना तो आम बात है। कभी पुिलिस मकहमे के अफसरों द्वारा, कभी आतंकवादियों द्वारा तो कभी राजनेताओं द्वारा। इनके द्वारा पत्रकारों का इस्तेमाल भी खूब किया जाता है। जब इनसे काम निकल जाता है, तो इन्हें ठिकाने भी लगा दिया जाता है।
हाल ही में पत्रकारिता पर एक उपन्यास आई है, जिसका नाम है 'षेष आखिरी पृष्ठ पर' इसके लेखक हैं, विलास गुप्ते। इस उपन्यास में एक पात्र कहता है ' ये पत्रकारिता चीज ही ऐसी होती है कि अपने जादू से आदमी को बकरा बना देती है। कुछ लोग इसके जाल में नहीं भी फँसते, हमारे जैसे तुरंत ही षिकार हो जाते हैं। ये एक पीड़ा है पत्रकार की, जो आज हमारे सामने कुछ ऐसे सवाल दाग रहा है, जिसका जवाब किसी के पास नहीं। न अखबार के मालिक के पास और न ही उसका इस्तेमाल करने वाले राजनीतिज्ञों के पास। ख्यातिप्राप्त पत्रकार एम.वी. कामथ ने अपनी किताब ''बिहाइंड द बायलाइन'' में कई घटनाओं का उल्लेख किया है, जिसमें से एक यह है कि पत्रकारों के पुलिस से अच्छे संबंध होते हैं और अपराधियों के भी काफी करीबी होते हैं। यदि वे लंच पुलिस अधिकारियों के बीच लेते हैं, तो डीनर वे अपराधियों के बीच ले लेते हैं। दोनों वर्गों के बीच ये अच्छा तालमेल बिठा लेते हैं। एक बार अपराध की दुनिया के बादषाह को षक हुआ कि उनका जो माल पकड़ा गया है, उसमें हमारे बीच बैठने वाले पत्रकार का हाथ है। उसी ने पुलिस को माल आने की जानकारी दी है। बस फिर क्या था। एक बार षनि-रवि की पार्टी के बहाने उस पत्रकार को खंडाला ले जाया गया। वहाँ उसकी खूब आवभगत की गई और उसे ठिकाने लगा दिया गया। कामथ जी ने अपनी किताब के बहाने इस चकाचौंध भरी जिंदगियों को अपने षब्द दिए हैैं।
सन् 1939 से 1945 के बीच हुए द्वितीय विष्वयुध्द के दौरान 70 पत्रकार मारे गए। इसके बाद 1950 से 1953 के बीच हुए कोरियन युध्द में 17 पत्रकार मारे गए। पूरे 20 साल तक चलने वाले अमेरिका और वियतनाम के युध्द में 63 पत्रकार मारे गए। भारत के संदर्भ में देखें, तो पिछले वर्ष दो पत्रकारों की हत्या के अलावा 65 अन्य पत्रकारों पर या तो हमले हुए या फिर उन्हें धमकियाँ दी गईं। आष्चर्य इस बात का है कि धमकियाँ देने वालों में पुलिसकर्मियों, अपराधियों, कंपनी प्रमुखों से लेकर राजनीतिक मकसद के लिए लडत्र रहे आतंकवादी तक षामिल थे। फ्रांसिसी संगठन 'रिपोर्टर्स विद आउट बॉर्डर्स'' में इसका खुलासा किया गया है। रिपोर्ट में छत्ताीसगढ़ का एक उदाहरण भी दिया गया है, जहाँ माओवादियों से मुलाकात के कारण एक पत्रकार को जेल जाना पड़ा।
पहले की बात करें, तो जमीनी युध्द में सैनिकों की अलग ही पोषाक होती, जिससे उनकी पहचान स्पष्ट होती थी। सूर्योदय से सूर्यास्त तक पत्रकार अपने ऊपर होने वाले हमलों से बचने का प्रयास करते। अब तो दिन-रात युध्द हो रहे हैं। उस पर हवाई हमले भी होने लगे हैं। आकाष में विमान से बम फेंकने वाले विमान चालक को क्या पता कि उसका ये बम किस पर गिरता है। इस बम का षिकार तो एक मासूम भी हो सकता है और एक वृध्द भी। महिलाएँ भी इसका षिकार हो सकती हैैं। अब तो चारों ओर खतरे ही खतरे हैं। पत्रकार पर खतरे इसलिए अधिक हैं कि वह कई लोगों की सच्चाई से अच्छी तरह से वाकिफ होता है। यह सच्चाई बाहर न आने पाए, इसलिए लोग पत्रकारों के सामने इज्जत से पेष आते हैं, पर जब उनकी सच्चाई बाहर आने लगती है या उसकी सुगबुगाहट भी सफेदपोषों को मिलती है, तो उसका मुँह बंद करने के जतन षुरू हो जाते हैं। अचानक ही खबर मिलती है कि वह पत्रकार रात को डयूटी से लौटते हुए दुर्घटना का षिकार हो गया। सच्चाई की कलम वहीं टूट जाती है या फिर तोड़ दी जाती है।
आज पत्रकारिता के मायने बदल रहे हैं। आज के युवा मानते हैं कि थोड़ा-सा हैंडसम होना चाहिए और वक्तृत्व कला में माहिर होना चाहिए, बस हो गए टीवी रिपोर्टर। पर इन रिपोर्टरों की क्या हालत होती है, यह तो उनसे पूछो, जो हाल ही में गुजरात के फर्जी एनकाउंटर के आरोपी वंजारा के गाँव इलोल गए थे, जहाँ उन पर ग्रामीणों ने जमकर पत्थरबाजी की। इस घटना में कई टीवी रिपोर्टर जख्मी हुए। ऐष-अभि की षादी के समय अमिताभ बच्चन के बंगले के बाहर अमरसिंह के कमांडो ने मीडिया पर किस तरह से हमले किए। रात भर जागकर ये रिपोर्टर्स किस तरह से एक-एक बाइट के लिए मषक्कत करते रहे, ये तो वही जानते हैं। हमारे सामने तो ये केवल कुछ मिनट या सेकेंड के लिए ही खबर के रूप में सामने आते हैं, पर इतने के लिए कितनी मषक्कतों और दिक्कतों से इन्हें गुजरना पड़ता है, इसे आखिर कौन समझ सकता है?
इन खतरों को बताने का यह आषय कदापि नहीं है कि आज के युवाओं को पत्रकारिता करनी ही नहीं चाहिए। आज खतरे कहाँ नहीं हैं? बाढ़, सुनामी, भूकम्प, दुर्घटनाएँ, आगजनी, तूफान और भी न जाने खतरा किस ओर से कब आ जाए। आज तो कोई भी व्यवसाय ऐसा नहीं है, जिसमें जोखिम न हो, पर खतरों के बारे में पहले से जानकारी होने से उस मोर्चे पर आने वाली तमाम परेषानियों को समझते हुए उस व्यवसाय में जाना बुध्दिमानी है। हमारे देष में समय-समय पर बम विस्फोट भी होते रहते हैं, जिसमें सैकड़ों निर्दोष लोग मारे जाते हैं। कारगिल युध्द के समय मुम्बई का एक गुजराती पत्रकार हिम्मत करके सैनिकों के बीच रहकर रिपोर्टिंग की। सभी रिपोर्टरों की किस्मत ऐसी नहीं होती। तालिबानों के राक्षसी षासन के दौरान भारत के एक ऍंगरेजी सांघ्य दैनिक का मुस्लिम पत्रकार आतंकवादियों के चंगुल में फँस गया। संयोग से ये आतंकवादी अमिताभ बच्चन के प्रषंसक निकले। ये एक संयोग था कि उक्त पत्रकार ने अमिताभ बच्चन का साक्षात्कार एक बार लिया था, जिसकी जानकारी उसने तालिबानी आतंकवादियों को दी। इससे वे आतंकवादी खुष हो गए और उसे छोड़ दिया। अगर ऐसा न होता, तो उस पत्रक़ार की स्थिति भी डेनियल पर्ल की तरह होती और उसका सर भी घड़ से अलग हो जाता।
साहस और जोखिम का मिलाजुला नाम है पत्रकारिता। इसमें यदि बुध्दि चातुर्य का समावेष कर लिया जाए, तो समझो सोने में सुहागा। ठंडे कमरे में गरम-गरम साक्षात्कार लेना अलग बात है और बीहड़ में जाकर डाकुओं और अपराधियों से बात करना अलग बात है। अपराधी और पुलिस दोनों ही पत्रकारों पर विष्वास करते हैं। इसी विष्वास के कारण ही कई बार खतरे सामने आते हैं। वरना खबरची को खबर बनने में देर नहीं लगती।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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हां यह आज का सच है । पर इधर पूरी दुनियां में बढते पत्रकारिता अध्ययनशालों की संख्या को देखकर हमारे जैसे सुविधाभोगी व्यक्तियों को तो लगता था कि क्रीम काम है ऐसे किताब व लेखों की समाज को आवश्यकता है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद ।
परिमल भाई, अच्छा लगा देखकर कि आपकी ब्लॉगर पोस्ट की समस्या हल हो गई.
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