मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

आशाओं के पंखों से उड़ चलें मंजिल की ओर...



डा. महेश परिमल
ईश्वर ने सृष्टि की रचना पूरे मनोयोग से की, एक-एक वस्तु, एक-एक तिनके का भी ध्यान रखा. इस दौरान मानव का निर्माण करते समय उसने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उसने एक स्वार्थी प्राणी की रचना की है. उस समय तो उसे अपनी इस रचना पर गर्व हुआ होगा, किंतु आज यदि उसे सबसे ज्यादा दु:ख और पछतावा होगा तो केवल इस बात का कि उसने मनुष्य को बनाया और उसे समस्त प्राणियों में श्रेष्ठता भी प्रदान की. स्वयं मनुष्य हो कर भी संपूर्ण मानव जगत के प्रति ऐसी विचारधारा रखने का एक मात्र कारण यही है कि मनुष्य पूरी तरह से स्वार्थी है. आखिर वह इतना स्वार्थी क्यों है? ईश्वर ने तो उसे कदापि स्वार्थी बनाया नहीं, पर कहाँ से आया, उसमें यह स्वार्थ? यह मानव का स्वार्थ नहीं तो और क्या है कि जब वह किसी कार्य में विफल हो जाता है, तो अपने आपको दोष न देकर सीधा ईश्वर को इसका कारण मानता है. जब उसके मन की साध पूरी नहीं होती तो वह समय को दोष देता है और कह देता है कि उसका तो भाग्य ही खराब है. विधाता ने उसे भाग्य ही ऐसा दिया है कि वह कुछ कर ही नहीं सकता.
ऐसे भाग्यवादी और निराशावादी मनुष्य जब छोटे-मोटे कार्यो में भी सफल हो जाते हैं, तो सारा श्रेय स्वयं को ही देते हैं. सफलता के क्षणों में वे ईश्वर को भूल जाते हैं और असफलता के क्षणों में केवल और केवल ईश्वर ही दोषी नंजर आता है. मनुष्य के पास बुध्दि है, विवेक है, सद् विचारों का प्रवाह है, चिंतन-मनन और अध्यात्म का पूरा प्रकाशपुंज है, फिर उसे इतना स्वार्थी नहीं होना चाहिए. आखिर क्यों हो गया है यह मानव इतना स्वार्थी? आइए इसकी पड़ताल करें.
मानव के स्वार्थ के पीछे की गहराई को देखें तो उसके भीतर की हताशा या निराशा है, जो उसे ऐसा बनने पर विवश करती है. मनुष्य को आत्मविश्वासी होना चाहिए किंतु अति आत्मविश्वासी कभी नहीं. आत्मविश्वास होने पर वह सफलता और विफलता दोनों ही स्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देता है, स्वयं को उसके नजदीक ले जाता है और अतिआत्मविश्वास की स्थिति में केवल असफलता में ही उसके करीब जाता है और वह भी केवल उसे दोष देने के लिए. इसलिए मनुष्य के पास केवल आत्मविश्वास होना चाहिए, जो उसके भीतर उत्साह भरे, उसे कुछ नया करने को प्रेरित करे और जो कुछ भी वह कर रहा है उसे अधिक अच्छी तरह से करने का सामर्थ्य प्रदान करे. अति आत्मविश्वास मनुष्य को हताशा के मार्ग में ले जाने का 'शार्टकट' है.
एक युवक दार्शनिक के पास गया और बोला-मुझे ईश्वर की रचना समझ में नहीं आती. जब जब मुझे लगता है कि मैं बहुत कुछ कर सकता हँ, तब-तब ईश्वर के द्वारा बनाया गया समय मेरे हाथ से रेत की तरह सरक जाता है और मैं कुछ भी नहीं कर पाता हूँ. आखिर ईश्वर ने ऐसा समय बनाया ही क्यों, जिसका मैं एक क्षण भी पकड़ नहीं पाता हूँ. दार्शनिक बोले-इस दुनिया में सबसे आसान काम कोई है, तो वह है, ईश्वर को दोष देना. यह सच है कि उसने संसार बनाया है, किंतु हम प्रत्येक कार्य उसके भरोसे नहीं छोड़ सकते. कुछ कार्य हमें हमारे हाथ में भी लेने होंगे. तभी हमारा आत्मविश्वास जीतेगा और हम सफलता के करीब होंगे.
ईश्वर हमें अवसर देते हैं. एक बार नहीं, बार-बार, किंतु इस अवसर को सफल या असफल बनाना ये हम पर भी निर्भर करता है. प्रत्येक क्षण एक संदेश लेकर आता है. वह यह कहता है कि मेरे भीतर एक अवसर छिपा हुआ है, तू इसे पकड़ ले. जो इसे पकड़ लेता है, वह कर्मपथ का सच्चा कर्मयोगी है और जो नहीं पकड़ पाता वह भाग्य को दोष देने वाला भाग्यवादी और निराशावादी है.
समय की छलनी से छनता हुआ एक पल मनुष्य के करीब आया और बोला- देख मैं तेरे पास आया हूँ, मेरा उपयोग कर, नहीं तो मैं चला जाऊँगा. मनुष्य ने बेपरवाही से उस क्षण से कहा- कोई बात नहीं, तू चला जाएगा, तो दूसरा पल आ जाएगा. अब पल ने मुस्कराते हुए कहा- अरे मूर्ख! तेरी बात सच है, दूसरा पल आ तो जाएगा, पर इस पल को कोई और पकड़ लेगा और तू पीछे रह जाएगा. समय का खेल ऑंखमिचौनी जैसा है. हम थोड़ी देर के लिए पल को थामे या न थामे, वह इसी उधेड़बुन में रहता है और इतने में कोई दूसरा व्यक्ति पल का लपककर चला भी जाता है. उस समय मानव के पास सिवाय पछतावे के कुछ भी नहीं रहता.
मानव जीवन भर स्पर्धा ही करता रहता है. कभी अपनों के साथ, कभी परायों के साथ, कभी जिंदगी के साथ, तो कभी मौत के साथ, पर देखा जाए, तो मानव की सच्ची स्पर्धा समय के साथ है. जो समय को नहीं जीत सकता, समय उसे हरा देता है. लेकिन हाँ, इस मामले में समय बहुत ईमानदार है. वह एक अवसर अवश्य देता है कि सामने वाला जीते. पर जब वह असफल होता है, तो वह उसे हराने में एक क्षण की भी देर नहीं करता. समय के इस महत्व को जानने वाला आत्मविश्वास से लबरेज होता है और न जानने वाला अतिआत्मविश्वासी और निराशावादी होता है. निर्णय हमें स्वयं करना है कि हमें अति आत्मविश्वासी बनकर स्वार्थ के मार्ग पर चलते हुए ईश्वर से दूर होना है या केवल आत्मविश्वासी बनकर ईश्वर के समीप रहना है?
ईश्वर कितना परोपकारी है, इस बात की सत्यता इसी से सिध्द होती है कि ईश्वर जानता था कि उसे अदृश्य रहना है उसके बाद भी उसने मनुष्य को ऑंखें दी. इसके अलावा मनुष्य के लिए जो मूल्यवान है, ऐसे अंग उसने दो-दो दिए हैं. दो ऑंख, दो कान, दो हाथ, दो पैर. यदि इसमें से एक अंग खराब हो जाए, तो दूसरे से काम चलाया जा सके यानि कि मनुष्य का जीवन सतत चलता रहे. कल्पना करें कि यदि ईश्वर ने इसी तरह जीभ, जननेंद्रिय, पेट, पाचनतंत्र भी यदि दो-दो दिए होते तो मनुष्य की क्या हालत होती? ईश्वर ने बहुत सोच विचार कर इस शरीर रचना का निर्माण किया है. इसलिए उसके द्वारा दिए गए इस शरीर का सही दिशा में उपयोग किया जाना चाहिए.
निरन्तर काम भी मनुष्य को थका देता है, किंतु पूरे मन से किया गया काम मनुष्य को नहीं थकाता, बल्कि उसमें दुगुना उत्साह भर देता है. जिसे अपने काम में मजा नहीं आता, वह कभी आराम के क्षणों में भी मजा नहीं ले सकता. जिसे अपने काम में मजा आता है, वह आराम का भी पूरा आनंद लेता है. मनुष्य के जीवन का सबसे श्रेष्ठ समय वह है जब उसके पास आराम करने की भी समय नहीं होती. समय की भाषा को जो नहीं समझ पाता, वास्तव में वही पिछड़ जाता है. समय की भाषा समझते हुए समय के साथ बदलते हुए ही समय के साथ चला जाता है. इसलिए कहा जाता है कि समय के साथ चलो और युग बदलो.
डा. महेश परिमल

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