गुरुवार, 7 फ़रवरी 2008
आ गया गिरते विचारों का पतझड़
डा. महेश परिमल
प्रकृति ने एक बार फिर करवट बदली है. अब उसने राग पतझड़ शुरू कर दिया है. जो प्रकृति के संगीत से जुडे हैं, उनके लिए यह समझना आसान हो सकता है कि राग पतझड़ का संगीत में कोई अस्तित्व भले ही न हो पर जीवन में अवश्य है. यह सभी के जीवन में अपना प्रभाव दिखाता है. इसका अपना महत्व है. ये वह राग है, जो विदाई के समय छेड़ा जाता है. विदाई व्यक्ति की नहीें, उसके बुरे कर्मों की, बुरे विचारों की. ऐसे बहुत से लोग हैं, जिनके जीवन में ये राग सदैव बजता ही रहा है. पर कई ऐसे भी होते हैं, जो इसमें जीवन का आशय ढूँढ़ते हैं. इसमें आधा सफल होने वाले इंसान ही रह पाते हैं और जो इसमें जीवन का पूरा आशय ढूँढ़ लेते हैं, वे महात्मा बन जाते हैं.
दिन की धूप तीखी होती जा रही है. हवाएँ तेज चलने लगी हैं, पत्तों की सरसराहट भीकुछ परर्िवत्तन का आभास देती है. बंद खिडक़ी के पास सोने से हवा की सायँ-सायँ ध्वनि भी कुछ नएपन का संकेत देने लगी है. इन सबका आशय यही है कि प्रकृति अपना बाना बदलने लगी है. मानवी भाषा में कहा जा सकता है कि प्रकृति अपना चोला बदलने लगी है, पर प्रकृति के इस परर्िवत्तन पर यदि थोड़ा-सा ध्यान दिया जाए, तो हम समझेंगे कि यह प्रकृति के विश्राम का क्षण है. कुछ नया करने के पहले इंसान भी कुछ सोचता है. प्रकृति भी इस प्रयास में है, क्योंकि उसके पास अब भी हमें देने के लिए बहुत कुछ है. अब यह मानव पर निर्भर है कि वह क्या ले, कितना ले?
कभी सूर्योदय से पहले निहारा है प्रकृति को आपने? एक बार बस एक बार बिस्तर का मोह छोड़कर उठ तो जाओ और निकल पड़ो, घर से बाहर. फिर देखो इसकी अद्भुत छटा. चिड़ियों की चहचहाट, मंद-मंद बहता समीर,आकाश की लालिमा मानों सूरज ने घूँघट ओढ़ रखा हो. किसी बाग-बगीचे में कसरत करते युवा, बतियाते या तेज चलते बुंजुर्ग, दौड़ते-भागते शोर करते बच्चे. इनमें से हर कोई यही चाहता है कि आज प्रकृति के साथ जी भर कर खेल लो, क्या पता कल यही हमसे रुठ जाए. कभी इनसे बात करके देखो, कितना उत्साह है इनमें. भविष्य के सपने कैसे झाँकते हैं इनकी बातों में. ऑंखों में तेज, होठों पर मुस्कान, मानो जीवन का संगीत यहीं से फूट रहा हो.
पतझड़ याने पत्तों का झड़ना. उन पुराने पत्तों का शाखा से नाता तोड़ना, जो अब पीले होकर कुम्हलाने लगे थे. इनमें जीनव रस नहीं था. पूरे साल भर इन्होंने पेड़ का साथ दिया. अब वे अपनी भूमिका समाप्त कर चल पड़े भूमिपुत्र बनकर भूमि में खाद बनने. यहाँ भी उन्होंने अपनी उदारता से पल्ला नहीं झाडा, वे भूमि पर जाकर भी उसे उर्वरा बनाने में लग जाएँगे. ऐसा महान संकल्प लेकर वे आए और हमें छोटा-सा संदेश देकर चले गए. हम इनसे तो कुछ सीख नहीं पाए, पर इन्हें नेस्तनाबूद करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी. खैर यह प्रकृति की उदारता है कि अभी तक उसने मानव से कुछ प्रतिफल नहीं माँगा है. जब वक्त अाएगा, तब मानव अपना सर्वस्व अर्पित कर देगा, तो भी उसके ऋण से मुक्त नहीं हो पाएगा.
पतझड़ एक विचार है, समय का, परर्िवत्तन का, जीवन का, संघर्ष का. वनस्पति शास्त्र के ज्ञाता कहते हैं पतझड़ के इस समय पेड़ों के भीतर एक वलय बन जाती है. अर्थात् उसने अपने जीवन का एक वर्ष पूरा कर लिया. इसी वलय को गिनकर ही पेड़ की उम्र का पता लगाया जाता है. जितनी वलय-उतने वर्ष. जब पेड़ से पूरे पत्ते उससे नाता तोड़ देते हैं, तब पेड़ कितना कुरूप दिखाई देता है. लोग उसकी ओर देखकर आहें भरते हैं कि कभी यह भी हरियाला था. इसके पत्तों की सरसराहट कितनी भली लगती थी. इसकी छाँव में हमने खूब मौज-मस्ती की है. पर अब इसमें वह बात कहाँ? अब तो निर्वस्त्र हो गया है.
पेड़ पर इस तरह के कटाक्ष करने वालों, थोड़ा ठहर जाओ. अभी यह पेड़ अपने बाहरी विश्राम के क्षणों में है. इसने तुम्हें सीख देने के लिए अपने पत्तों को अपने से दूर किया है. आज आपके सामने यह निर्वस्त्र दिखाई दे गया तो आपने ंजरा भी देर नहीं की. अभी तो आपने इसका बाहरी स्वरूप ही देखा है. कुछ दिन बाद ही इसमें नए पत्तों की कोंपल फूटेगी, तब देखना. कोमल, नरम, मुलायम पत्तों की बहार. ये आते रहेंगे पूरी मस्ती के साथ, तुम्हें पता भी नहीं चलेगा कि कब यह पेड़ पूरी तरह से हरियाली से ढँक गया.
अब भी पतझड़ आ रहा है, पर वह है, मानव के गिरते विचारों का पतझड़. विचार ऐसे जिसमें देश, मान-अभिमान, प्रतिष्ठा, परोपकार, गर्व आदि कुछ नहीं. यदि है, तो केवल स्वार्थ, धन-लिप्सा, मक्कारी, धूर्तता, बेईमानी, झूठ-फरेब, लूट-खसोट आदि कूट-कूटकर भरी है. इन कुसंगियों के बीच रहकर वह कुछ भी कर रहा है. कंफन बेचना तो इसके लिए छोटी-सी बात है. अब तो वह कुछ भी नहीं छोड़ना चाहता. अब पेड़ तो हैं नहीं, इसलिए इस पतझड़ में मनुष्य के विचार गिरने लगे हैं. विचारों का गिरना लगातार जारी है. अब तो इसे पतझड़ की भी प्रतीक्षा नहीं होती. प्रकृति से दूर होने के कारण उसके स्वभाव को भी भूल गया है. इस मौसम के बाद पेड़ों की रंगत ही बदल जाती है. पर इंसान की नहीं बदलती. उसने अपने आपको पुराने विचारों के साथ इस तरह जकड़ लिया है कि नए विचारों का प्रवेश ही बंद हो गया है. जब तक पुराने विचारों का खात्मा नहीं होगा, तब तक नए विचार आएँगे, यह सोचना भी ंगलत है. निर्माण सदैव विध्वंस के रास्ते आता है. इसे सभी समझते हैं. पर पुराना हटाना नहीं चाहते, तो नए विचार कैसे आएँगे?
पतझड़ में संदेश है, नई ऊर्जा का. जो प्राणों का संचार करती है. हृदय में उमंग और उत्साह भरती है. प्रकृति का गुनगुनाना जानने-समझने के लिए अब हमें शहर से दूर जाना पड़ता है. उसके लिए कभी समय निकाल ही लेंगे, पर पुराने और गंदे विचारों को भीतर से निकालने का कोई उपाय हमसे नहीं होता. हमें प्रकृति का स्वभाव समझना होगा, उसके संदेश को हृदय में उतारना होगा. तभी हम समझ पाएँगे कि कुछ ही दिनों बाद आने वाली झुलसाती गर्मी में भी किस तरह हरा-भरा रहा जा सकता है. अशोक के वृक्ष की तरह. हमें विचारों से भी हरियाला बनना है, तो प्रकृति से सीखना ही होगा. तब नहीं आ पाएगा हमारे ऑंगन में गिरते विचारों का पतझड़.
डा. महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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