डॉ. महेश परिमल
परीक्षाओं के इस मौसम में शिक्षा मंदिरों के बाहर एक पोस्टर मुँह चिढ़ाता है- 'नकल एक सामाजिक बुराई है.' जो छात्र प्रतिभाशाली हैं, उनके लिए यह सूक्ति ब्रह्म-वाक्य की तरह है. वे इसे शिरोधार्य भी करते हैं, पर ऐसे बहुत से छात्र एवं पालकगण हैं, जिनके लिये यह सूत्र-वाक्य एक गाली की तरह लगता है. पालकगण उस पोस्टर की तरफ देखना भी नहीं चाहते और जुट जाते हैं तन-मन-धन और प्राण से अपने चिरंजीव को नकल के माध्यम से पास कराने के इस महायज्ञ में....
नकल जैसी कुप्रवृत्ति ने इस देश की सामाजिक जड़ों को खोखला बनाने का शायद प्रण ही ले लिया है. इस कुप्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हो रही है हमारी शिक्षा पद्धति. इसकी धुरी में एक ओर तो हमारे राष्ट्रनिर्माता शिक्षक ही हैं. तो दूसरी तरफ हैं, वे पालकगण जो अपने पुत्रों को येन-केन-प्रकारेण आगे बढ़ता देखना चाहते हैं. छोटे रास्ते से आगे बढ़ने की प्रवृत्ति ने इस देश को न जाने कितने वर्ष पीछे धकेल दिया है. इसका असर शिक्षा के क्षेत्र में अभी से दिखाई दे रहा है. संस्कारों से मिली शिक्षा से एक प्रतिभा सम्पन्न छात्र के लिए नकल की यह कुप्रवृत्ति खतरा साबित हो रही है, जब वह देख रहा है कि साल भर क्लास से 'गोल' रहने वाला फिसड्डी छात्र भी आज उसके मुकाबले खड़ा हो गया है, तो भीतर से उसकी छटपटाहट बढ़ जाती है. वह टूटने लगता है और लानत भेजता है उन संस्कारों को, जो उसे नकल को एक सामाजिक बुराई के रूप में दिखाते हैं.
मुझे आश्चर्य तो तब होता है जब इस सामाजिक बुराई को दूर करने का कथित प्रयास हमारे राष्ट्र निर्माता करते हैं. परीक्षाओं के पहले छात्र के माध्यम से उनके पालकों से उनकी 'सेटिंग' हो जाती है और वे शिक्षा मंदिर में ही प्रतिभाशाली विद्यार्थियों की मानसिक हत्या करने के महायज्ञ में जुट जाते हैं. आज परीक्षा ही एक ऐसा माध्यम बन गया है, जिसमें एक प्रतिभा सम्पन्न को छोड़कर शेष सभी को अपनी प्रतिभा दिखाने का अवसर प्राप्त होता है. आश्चर्य इस बात का है कि इस महाकार्य में पालकगणों का पूरा-पूरा सहयोग रहता है. शिक्षक यहाँ पर राष्ट्र निर्माता न होकर कथित रूप से 'प्रतिभा का हत्यारा' बन जाता है, क्योंकि उसके पास यही मौका है, जब वह अपने सारे चक्षुओं को बंद करके वह सब कुछ करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए. टयूशन के माध्यम से परीक्षा भवन तक किया जाने वाला अथक परिश्रम शिक्षक को 'लक्ष्मीपुत्र' बना ही देता है.
दूर कहीं प्रतिभाओं के सिसकने का स्वर सुनाई देता है. ईमानदारी से परचे हल करने वाला छात्र यह दृश्य देखकर आवेश से भर उठे तो स्वाभाविक ही है. ऐसे में यदि वह कुछ क्षणों के लिए अपने संस्कारों को भूलकर राष्ट्रनिर्माता पर ही प्रहार कर दे, तो वह छात्र एक झटके में असंस्कारित हो जायेगा. भविष्य में यदि दैवयोग से वह छात्र शिक्षा विभाग का अधिकारी बन बैठा तो परिस्थितियों के अनुसार वही शिक्षक अपनी पेंशन के लिए छात्र रूपी अधिकारी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए, तो क्या वह अधिकारी उस राष्ट्रनिर्माता से न्याय करेगा? तब कहाँ से बहेगी गुरु-शिष्य संबंधों की वह पवित्र नदी.... कोई बता सकता है?
ंजरा उन माता-पिता की ओर भी दृष्टि डाल लें, जो कई घंटों की प्रतीक्षा के बाद हाथ में भोजन का डिब्बा और फल लिए जेल के बाहर अपने चिरंजीव से मिलते हैं. माता-पिता के रूँआसे चेहरों के बीच वह दुलारा पुत्र जेल के भोजन की बुराई करता और माँ के हाथ के भोजन की प्रशंसा करता हुआ कैसा लगता है. झुर्रियों के पीछे का सच यही होता है कि यदि उस समय हमने इसे नकल का ककहरा न पढ़ाया होता तो शायद ये दिन न आते.
संभव है कई पालकों को नकल के अच्छे परिणाम भी मिले हों. बच्चे ने पालकों की इस सीख को आगे बढाकर नकल पर नए-नए प्रयोग कर ढेर सारी डिग्रियाँ बटोर ली हों, पर इतना तय है कि निश्चित ही वे माता-पिता भी दु:खी होंगे, अपनी उन कारगुजारियों के लिए. यह सभी जानते हैं कि बेईमानी की उम्र नहीं होती, लेकिन छोटी-सी उम्र में ही वह ऐसे सब्ज-बाग दिखा देती है कि इंसान उस बाग से निकलना ही नहीं चाहता.
दोष शिक्षा पद्धति का भी है. यदि वह शिक्षा पद्धति हमारी होती तो उसमें सुधार संभव भी था. पर हमें तो यह विरासत में मैकाले साहब ने दी है. मैं तो कायल हूँ मैकाले की दूरंदेशी का, आज से सौ वर्ष पूर्व उसने हमारे देश में शिक्षा के जो बीज बोये, उसे हमारे देश के अनेक विद्वान, शिक्षा शास्त्री, विचारक एवं समाजशास्त्री मिलकर भी नष्ट नहीं कर पाऐ. थोपी हुई शिक्षा का भार आज हर मासूम के कंधे पर लटका दिखाई देता है. ठंडे कमरों में गर्म बहस करने वाले अधिकारियों को यह कुछ भी दिखाई नहीं देता. शिक्षा नीतियाँ बनाने की जिम्मेदारी उन्हें दी जाती है, जिन्होंने विदेशी तरीके से शिक्षा प्राप्त की है. शिक्षाविदों की किसी समिति में गाँव के साधारण शिक्षक को रखते और उनके विचार सुनते, तब लगता कि शिक्षा रूपी आदेश गाँव तक पहुँचते-पहुँचते कैसे भोथरे हो जाते हैं. बस्तर जिले में कई शालाएँ ऐसी हैं, जहां बच्चे कथित रूप से आते हैं, परीक्षाएँ होती हैं, परिणाम निकलते हैं पर वास्तव में वहाँ न स्कूल हैं, न बच्चे और न ही शिक्षक, सब कागजों पर है. हाँ, पर शिक्षक अपना वेतन लेने हर महीने पहुँच जाते हैं. इसे आखिर क्या कहा जाए?
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि शिक्षा देना कर्तव्य नहीं, व्यापार हो गया है. शिक्षा के मंदिर विशुद्ध रूप से व्यावसायिक प्रतिष्ठान बनकर रह गए हैं, जहाँ शिक्षा के नाम पर पालक 'लुटने' के लिऐ आते हैं और प्रतिष्ठान के लोग 'लूटने' का काम खुलकर करते हैं, जिनमें दम है वह रोक ले इन्हें. पहले कौन आगे बढ़ेगा, सरकार, प्रशासन, मैं या आप...?
- डॉ. महेश परिमल
मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008
अपवित्र होते शिक्षा मंदिर
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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वर्तमान शिक्षा पद्धति की दुर्दशा पर बढि़या लेख.
जवाब देंहटाएंऐसी शिक्षा पद्धति से हम कैसे नागरिक तैयार कर रहे हैं ?