मंगलवार, 26 मार्च 2013

आपराधिक तत्वों को संरक्षण: राजनीतिक दलों की मजबूरी

डॉ. महेश परिमल
यूपी में दम है, क्योंकि जुर्म यहां कम है। हमारे महानायक की यह गूंज उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के समय सुनाई दी थी। इसे सभी ने सुना था। उस पर विश्वास भी किया था। इसलिए मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भारी बहुमत के साथ विजय प्राप्त की थी। विजय होते ही सपा कार्यकर्ताओं में जिस तरह का विजयोन्माद दिखाई दिया था, उससे ही यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाले दिन अच्छे नहीं होंगे। पर मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश पर विश्वास जताया, उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। उधर बहू को भी सांसद बनाने के लिए सारे दलों को मना लिया, और वे निर्विरोध निर्वाचित हो गई। इसके बाद कई घटनाएं सामने आई, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि सपा कार्यकर्ताओं पर लगाम लगाना मुश्किल है। लोग यह समझ नहीं पाए कि जब सपा को भारी बहुमत मिला था, तो उन्हें कुंडा के निर्दलीय विधायक राजा भैया को मंत्रिमंडल में लेने की क्या आवश्यकता थी? यह प्रश्न उस समय भले ही प्रासंगिक न हो, पर आज जब  उनके प्रदेश में सरे आम एक डीएसपी की हत्या हो गई है, तो यह पूछा जा रहा है कि आखिर राजा भैया को सरकार क्यों पाल रही है?
राजा भैया को संरक्षण प्रदेश सरकार ही दे रही है। प्रदेश सरकार जवाब दे या न दे, पर राजा भैया को इस बात का जवाब देना होगा कि आखिर उन्होंने डीएसपी जिया उल हक की हत्या क्यों की? सीबीआई ने उन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। सबसे पहले उन धाराओं पर नजर डालें, जिसके तहत उन पर आरोप लगाए गए हैं। सीबीआई इन्हीं एफआईआर को आधार मानकर जांच शुरू करेगी। राजा भैया पर 6 धाराएं लगाई गई हैं। धारा 148- घातक हथियारों के साथ प्रदर्शन, धारा 149- गैरकानूनी तरीके से भीड़ इकट्ठा करना, धारा 302- हत्या का आरोप, धारा 504- शांतिभंग करने के लिए उकसाना, धारा 506- धमकी देना, धारा 120-बी- आपराधिक साजिश।
जाहिर है कि राजा भैया के खिलाफ सभी धाराएं आने वाले दिनों में उनकी मुसीबत बहुत बढ़ाने वाली हैं। जिस दिन डीएसपी जियाउल हक की हत्या हुई थी, उसी दिन बलीपुर गांव के प्रधान नन्हे लाल यादव और उसके भाई की भी हत्या की गई थी, जिसके बाद डीएसपी को गोली मारी गई। इस पूरे मामले में चार एफआईआर पहले से दर्ज हैं। पहली एफआईआर बल्लीपुर के ग्राम प्रधान नन्हें यादव की हत्या के मामले में है। इसी के बाद सारा बवाल शुरू हुआ। इसी की जांच करने डीएसपी जिया उल हक बलीपुर पहुंचे थे। इसमें कुल चार आरोपी बनाए गए हैं। दूसरी एफआईआर ग्राम प्रधान नन्हें यादव के भाई सुरेश यादव की हत्या के मामले में है। सुरेश यादव की हत्या उसी दिन हुई थी, जिस दिन जियाउल हक बलीपुर पहुंचे थे। कहा तो यह भी जाता है कि उनके सामने ही सुरेश यादव की हत्या हुई थी। इसमें भी चार आरोपी हैं। बाकी के दो एफआईआर जियाउल हक मर्डर केस में दर्ज किए गए हैं। एक एफआईआर यूपी पुलिस ने दर्ज कराई है और दूसरी जियाउल हक की पत्नी परवीन ने। एक में 10 आरोपी हैं और दूसरे में 4 आरोपी। गौरतलब है कि जिसमें 10 आरोपी हैं, उसमें राजा भैया का नाम नहीं है। जो एफआईर डीएसपी की पत्नी ने दर्ज कराई है, उसमें राजा भैया को नामजद किया गया है। मतलब उत्तर प्रदेश पुलिस ने खुद जो तीन एफआईआर दर्ज किए, उसमें शुरू में ही रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को साफ बचा लिया। सिर्फ परवीन की एफआईआर में राजा का जिक्र है।
सवाल यह उठता है कि आखिर राजनैतिक दलों की ऐसी क्या विवशता है कि वे आपराधिक तत्वों को अपनी पार्टी का टिकट देते हैं। निश्चित रूप से वे कोई संवैधानिक कार्य के लिए तो राजनीति में नहीं आते। अपने रसूख को बनाए रखने और उसे परिमार्जित करने के लिए ही वे चुनाव लड़ते हैं, या चुनाव में अन्य लोगों को जीतवाने में सहायक होते हैं। वैसे तो देश के अधिकांश नेताओं पर कानून की कोई न कोई धारा कभी न कभी तो लगी ही होगी। राजनीति के इस दलदल में कोई भी साफ-सुधरा नहीं है। जो हैं वे सभी हाशिए पर हैं। पर यदि राजा भैया जैसे लोगों की गुंडागर्दी बर्दाश्त की जा रही है, तो इसे राजनीतिक मजबूरी माना जाएगा। राजा भैया जैसे ही लोग होते हैं, तो पहले तो चुनाव जीतवाने में पूरी मदद करते हैं। इसमें बूथ कैप्चरिंग से लेकर वोट छापने, मतदाताओं को डराने-धमकाने के वे सारे हथकंडे हैं, जिसे ये अपनाते हैं। इसका पूरा लाभ राजनीतिक दल उठाते हैं। चुनाव के बाद विधायकों को धमकाने का काम भी ऐसे लोग ही करते हैं। ताकि सत्तारुढ़ पार्टी मजबूत हो। 11 वर्ष पहले पहली बार राजा भैया पर भाजपा विधायक पूरन सिंह को जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगाया गया था। इसके तहत राजा भैया की गिरफ्तारी भी हुई थी। इसके बाद भी वे कई बार गिरफ्तार हुए। मायावती ने तो उन्हें पोटा के तहत गिरफ्तार करवाया था। पर एक महीने तीन दिन बाद ही मुलायम सरकार ने उन्हें रिहा करवा दिया। राजा भैया के पिता के खिलाफ भी कई आपराधिक मामले दर्ज हैं।
शाही ठाटबाट के शौकीन राजा भैया को वैभवशाली लिमोजिन गाड़ियाँ रखने का शौक है। उनके काफिले में आगे-पीछे चार पांच गाडियां होती ही हैं। वे ही नहीं, उनके गुर्गे भी जहां से निकल जाएं, तो शहर का एक भी ट्रेफिक सिगनल उनके लिए लाल नहीं होता। अभी भले ही डीएसपी जिया उल हक की विधवा ने हिम्मत कर राजा भैया के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है, इसलिए उन्हें मंत्रीपद छोड़ना पड़ा है। पर ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चलेगा। वे फिर उसी शान से वापस मंत्रीपद पा लेंगे, इसमें भी किसी को कोई शक नहीं है। राजनीति के अपराधीकरण से सभी दल आक्रांत हैं। पर सच तो यह है कि कोई भी दल पूरी ईमानदारी से इसे दूर करना भी नहीं चाहता। सभी दलों के अपने-अपने राजा भैया हैं। इन्हीं से चुनाव लड़ा और जीता जाता है। हर पार्टी को ऐसे लोगों की आवश्यकता है। ऊपरी तौर पर सभी पार्टियां अपराधी तत्वों को पार्टी में लेने से इंकार करती हैं, पर चुनाव की घोषणा होते ही ऐसे लोग ही टिकट पाने में कामयाब हो जाते हैं। संसद को देश की गरिमा कहा जाता है, पर आज वहीं राजा भैया जैसे अनेक अपराधी तत्व हैं। अंतर केवल इतना है कि जिन पर आरोप हैं, वे अभी तक सिद्ध नहेीं हुए हैं, यही एक बहाना है, जिसके कारण वे संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। राजनीति में आने का सबसे बड़ा फायदा यही है कि वे कानून से ऊपर हो जाते हैं। देश में प्रजातंत्र के नाम पर इस तरह का खिलवाड़ बरसों से जारी है और तब तक जारी रहेगा, जब तक राजनीतिक दलों में इच्छा शक्ति की कमी रहेगी। जिस दिन सारे दल ये तय कर लें कि अपराधी तत्वों को साथ नहीं रखना है, तो देश की दिशा ही बदल जाएगी।
डॉ. महेश परिमल

रविवार, 24 मार्च 2013

महाराष्ट्र में दबे पांव आती अकाल की विभीषिका


डॉ. महेश परिमल
महाराष्ट्र अपनी समृद्धि के लिए जाना जाता है। इसी समृद्धि के पीछे छिपी है सच्चई अकाल की। जो दबे पांव इस प्रदेश में आ रही है। निश्चित रूप से यह पूरे देश को प्रभावित करेगी। पर महाराष्ट्र के नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। उनकी दिनचर्या में ऐसा कुछ भी दिखाई नहीं देता कि वे राज्य में फैले अकाल से दु:खी हैं। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने मुम्बई की यात्रा की और कई नसीहतें देकर चले गए। अकाल ही नहीं, इस प्रदेश में राजनीतिक विवाद भी उतने ही गहरे हैं। कांग्रेस में गुटबाजी जारी है। अजीत पवार और राज ठाकरे के बीच प्रतिस्पर्धा जारी है। उधर राज ठाकरे-उद्धव ठाकरे के मिलने की भी खबरें पर्दे के पीछे चल रही है। क्ष्ेत्रीय दल इसका लाभ उठाने के लिए तत्पर हैं। यदा-कदा में अपनी राजनीतिक ताकत का परिचय देते रहते हैं। एनसीपी नेता अजीत पवार और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे के बीच राजनीतिक खींचतान महाराष्ट्र की राजनीति को डगमगा रही है। राज ठाकरे के काफिले पर हुए हमले के बाद राज ठाकरे के समर्थकों ने एनसीपी को निशाना बनाया था। इस तरह की घटनाओं का असर मुम्बईवासियों के रोजमर्रा के जीवन पर भी पड़ता है। दोनों युवा नेता अपने राजनीतिक पांव को मजबूत बना रहे हैं। अजीत पवार को मानो खुले हाथ मिल गए हैं, ऐसा उनकी कार्यशैली से लगता है।
महराष्ट्र में अकाल की समस्याओं के समाधान का किसी के पास समय नहीं है। कितने ही स्थान ऐसे हैं, जहां पानी की समस्या बनी हुई है। यहां दो-तीन महीने में ही स्थिति और भी भयावह हो जाएगी, यह तय है। यह अकाल कम बारिश के कारण हुआ है। अभी ठंड विदा ले रही है, गर्मी की दस्तक शुरू हो गई है। अब अकाल अपने विकराल रूप में सामने आएगा। अकाल से निपटने में महाराष्ट्र सरकार पूरी तरह से निष्फल साबित हुई है। संभावित अकाल के संबंध में तो साल भर पहले से ही निर्णय ले लिया जाना था। अकाल कोई अचानक नहीं आया। कम बारिश से अकाल की आशंका हो गई थी। यदि समय रहते निर्णय लिए जाते, तो इसका असर कम होता। पर अब बहुत ही देर हो चुकी है। विदर्भ में कई किसान आत्महत्या कर चुके हैं। विदर्भ की हालत इस समय बहुत ही खराब है। स्थिति इतनी अधिक दारुण है कि कुछ कहा नहीं जा सकता। सरकारी राहत इन क्षेत्रों में आ रही है, पर वह राहत जरुरतमंदों तक नहीं पहुंच पा रही है। एक तरफ महाराष्ट्र बहुत ही समृद्ध है। वाणिज्य की राजधानी कहा जाता है इसे, मायानगरी भी कहा जाता है। लेकिन दूसरी ओर यहां अकाल अपने डैने पसार रहा है।
राहुल गांधी ने यहां आकर कांग्रेसियों की क्लास ली। क्या करना है, क्या नहीं करना है, कब करना है, पार्टी क्या चाहती है, यह उन्होंने समझाया। कांग्रेसियों ने उन्हें पूरे उत्साह के साथ सुना। सभी को यह लगा कि राहुल कोई जादू की छड़ी लेकर आएंगे, कुछ ऐसा करेंगे जिससे पार्टी में गुटबाजी खत्म हो जाए। कांग्रेस पिछले एक साल से अध्यक्ष को खोज रही है। पर सभी को संतुष्ट करने वाला अध्यक्ष नहीं मिला। राहुल गांधी कोई घोषणा करेंगे, यह भी सोचा था कांग्रेसियों ने, पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। राहुल गांधी को पूरा जोर अनुशासन पर ही था। इधर राहुल गए, उधर गुटबाजी फिर उभरकर सामने आई। राहुल की सारी नसीहतें ताक पर रख दी गई। उनकी सलाह पर कांग्रेस की गुटबाजी ने ही पानी फेर दिया। वैसे महाराष्ट्र कांग्रेस में गुटबाजी कोई नई बात नहीं है। गुटबाजी के ये वाइरस भाजपा में भी फैल गए हैं। यहां कांग्रेस एनसीपी के बिना सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है, तो भाजपा बिना शिवसेना के सरकार के सरकार नहीं बना सकती। उद्धव-राज के बीच वार्ता चल रही है। दोनों कभी भी मिल सकते हैं, इसकी चर्चा जोरों पर है। दोनों का राज्य में अपना महत्व है, अच्छी बात यह है कि दोनों ने अभी तक एक-दूसरे पर किसी तरह का कोई खुलेआम आक्षेप नहीं लगाया है, न ही किसी तरह का अनर्गल प्रलाप किया है। उद्धव स्वभाव से सौम्य हैं, तो राज थोड़े आक्रामक हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में राज ठाकरे ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है, वे अपना विस्तार भी कर रहे हैं। अजीत पवार पर एक साथी होने के नाते कांग्रेस उन्हें सावधान करते रहती है। पर इसका कोई असर उन पर होता दिखाई नहीं दे रहा है।
केंद्र में भी यूपीए के महत्वपूर्ण साथियों में एक एनसीपी भी है। शरद पवार की राजनीतिक इच्छाओं का सीधा लाभ अजीत पवार को भी मिल रहा है। भ्रष्टाचार के आक्षेपों के बीच हाल ही में उन्हें इस्तीफा दे दिया था, किंतु फिर उन्हें क्लीन चिट मिल गई, तब उन्होंने दुबारा शपथ ली। कांग्रेस-एनसीपी के बीच भी कम मतभेद नहीं है। दोनों ही यह मानते हैं कि वे अपने बल पर चुनाव जीत सकते हैं, और सरकार भी बना सकते हैं। उनके इस तरह के मतभेद और अतिआत्मविश्वास का पूरा लाभ भाजपा उठाना चाहती है। पर वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही है। असली तस्वीर अभी काफी धुंधली है, पर चुनाव आते-आते साफ हो जाएगी, यह तय है। अकाल को देखते हुए यदि राज्य के नेता आपसी मतभेद भुलाकर कुछ ऐसा करें, जिससे जनता को लगे कि सरकार उनके लिए भी कुछ कर रही है। पर इस तरह के संदेश अभी नहीं जा रहे हैं। गुटबाजी में फंसे नेता अपने में ही खुश हैं। चुनाव आते ही उन्हें नागरिकों की पीड़ा समझ में आएगी। अभी उनकी सारी संवेदनाएं सोयी हुई हैं। चुनाव की दस्तक उनकी संवेदनाओं को जगाने का काम करेगी। तब तक लोगों को राह देखनी ही होगी, भले ही अकाल अपने पूरे तेवर में आ जाए। जब सरकार जन हितार्थ फैसले लेने लगे, तब सोच लेना चाहिए कि चुनाव आने वाले हैं।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

रोज लाखों लीटर पानी बरबाद होता है

एक व्यक्ति के लिए प्रतिदिन औसतन 30 से 50 लीटर स्वच्छ तथा सुरक्षित जल की आवश्यकता होती है लेकिन 88.4 करोड़ लोगों को इस जरूरत का 10 प्रतिशत हिस्सा भी नहीं मिल पाता। एक रिसर्च के मुताबिक विश्व में सिर्फ 20 प्रतिशत व्यक्तियों को ही पीने का शुद्ध पानी मिल पाता है। नदियां पानी का सबसे बड़ा स्रोत हैं। जहां एक ओर नदियों में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए विशेषज्ञ उपाय खोज रहे हैं, वहीं कल कारखानों से बहते हुए रसायन उन्हें भारी मात्रा में दूषित कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में जब तक कानून में सख्ती नहीं बरती जाती, अधिक से अधिक लोगों को दूषित पानी पीने का समय आ सकता है। अपनी आदतों और उपयोग के तरीको के अलावा उद्योगों के चलते दुनिया में प्रतिवर्ष 1,500 घन किलोमीटर गंदा जल निकलता है। इस गंदे जल को ऊर्जा तथा सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जा सकता है, पर ऐसा होता नहीं है। आइए जानें हर रोज कितना पानी बरबाद कर देते हैं हम।

पानी की बरबादी
 मुंबई और दिल्ली जैसे दो महानगरों में वाहन धोने में ही प्रतिदिन 1.20 करोड़ लीटर से ज्यादा पानी खर्च हो जाता है।दिल्ली, मुंबई और चेन्नई जैसे महानगरों में पाइप लाइनों के वॉल्व की ख़राबी के कारण रोज़ 17 से 44 प्रतिशत पानी बेकार बह जाता है।
यदि ब्रश करते समय नल खुला रह गया है, तो पाँच मिनट में क़रीब 25 से 30 लीटर पानी बरबाद होता है।
बाथ टब में नहाते समय 300 से 500 लीटर पानी खर्च होता है, जबकि सामान्य रूप से नहाने में 100 से 150 लीटर पानी खर्च होता है।
बिन पानी सब सून
पीने के लिए मानव को प्रतिदिन तीन लीटर और पशुओं को 50 लीटर पानी चाहिए।
एक लीटर गाय का दूध पाने के लिए 800 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है।
एक किलो गेहूं उगाने के लिए एक हज़ार लीटर और एक किलो चावल उगाने के लिए 4 हज़ार लीटर पानी चाहिए।
भारत में 83 प्रतिशत पानी खेती और सिंचाई के लिए उपयोग किया जाता है।
भारतीय गावों में आज भी स्त्रियां पीने के पानी के लिए प्रतिदिन औसतन चार मील पैदल चलती है।
कहां पर कितना है पानी
पृथ्वी का 70% से अधिक हिस्सा जल से भरा है। जिस पर 1 अरब 40 घन किलो लीटर पानी है। इसका 97.3
प्रतिशत पानी समुद्र में है, जो खारा है, शेष 2.7% मीठा जल है।
इस पानी का 75.2 प्रतिशत भाग ध्रुवीय क्षेत्रों में और 22.6 प्रतिशत भूमि जल के रूप में है। शेष भाग झीलों,
नदियों, कुओं, वायुमंडल में, नमी के रूप में तथा हरे पेड़-पौधों में उपस्थित होता है।
उपयोग आने वाला जल का हिस्सा थोड़ा ही है, जो नदियों, झीलों, तथा भूमि जल के रूप में मौजूद है।
उपयोगी पानी का 60 प्रतिशत हिस्सा खेती और उद्योग कारखानों में खर्च होता है, बाकी 40 प्रतिशत हिस्सा पीने, भोजन बनाने, नहाने, कपड़े धोने एवं सफ़ाई में खर्च होता है।

बुधवार, 20 मार्च 2013

लाला जगदलपुरी को प्रतीक्षा है आपके पत्र और पत्रिकाओं की

कोंडागाँव। अभी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक "बस्तर की लोक कथाएँ" के
सम्पादकों में से एक हरिहर वैष्णव पिछले दिनों इस पुस्तक के मुख्य
सम्पादक श्री लाला जगदलपुरी जी से मिल कर लौटे हैं। उन्होंने बताया कि
लालाजी दुखी हैं लोगों के पत्र और पत्रिकाओं के न आने से। लालाजी कहते
हैं, "पहले तो बहुत-सी पत्रिकाएँ आती थीं, पत्र आते थे, लोग आते थे
मिलने। अब कुछ नहीं आता, कोई नहीं आता। आप कोंडागाँव से आते हैं तो आनन्द
आ जाता है। आया कीजिये।"
        हरिहर वैष्णव ने साहित्य एवं संस्कृति से जुड़े लोगों तथा आम पाठकों से
निवेदन किया है कि वे लालाजी को पत्र लिखें, उन्हें अपनी पत्रिकाएँ और
पुस्तकें भेजें ताकि उन्हें अच्छा लगे और वे प्रसन्नचित्त बने रहें।
ज्ञात हो कि इन दिनों वे अस्वस्थ हैं तथा रीढ़ की हड्डी टूट जाने के कारण
बिस्तर पर ही बने रहते हैं। उनकी स्थिति ठीक नहीं है। उनके परिजन उनकी
सेवा में लगे हुए हैं। विशेषत: उनकी बड़ी बहू कल्पना श्रीवास्तव उनका
विशेष ध्यान रखती हैं।
        श्री वैष्णव ने आगे बताया कि वे लालाजी पर केन्द्रित पुस्तक "बस्तर का
साहित्य-मनीषी लाला जगदलपुरी" पर युद्ध-स्तर पर काम कर रहे हैं और चाहते
हैं कि यह पुस्तक लालाजी के जीवन-काल में आ जाये। इसलिये उन्होंने लालाजी
से जुड़े अथवा उनकी पुस्तकों के पाठकों-प्रशंसकों आदि से अपील की है कि
वे लालाजी से जुड़े अपने संस्मरण या लेख अथवा पत्र आदि श्री वैष्णव को
यथाशीघ्र उपलब्ध कराने का कष्ट करें। संस्मरण और लेख आदि का प्रकाशन
सम्बन्धित लेखक के नाम से ही होगा। उनका पता है : हरिहर वैष्णव, सरगीपाल
पारा, कोंडागाँव 494226, बस्तर-छत्तीसगढ़। अधिक जानकारी के लिये उनसे
उनके मोबाइल 76971 74308 पर सम्पर्क किया जा सकता है। उन्होंने दो लोगों
से विशेष अपील की है। पहले व्यक्ति हैं डॉ. सेठिया, जिन्होंने शानी जी पर
पीएचडी की है और जिसमें उन्होंने शानी जी और लालाजी के बीच हुए पत्राचार
तथा शानी जी के विषय में लालाजी के विचार आदि का उपयोग किया है। इसी तरह
डॉ. आरती ध्रुव से भी उन्होंने निवेदन किया है कि वे उनके द्वारा लालाजी
पर किये गये अपने एम.फिल. की थीसिस की प्रति उन्हें उपलब्ध कराने का कष्ट
करें ताकि उसका भी उनके नामोल्लेख सहित उपयोग किया जा सके। उन्होंने
बताया कि उनके पास उपर्युक्त दोनों व्यक्तियों के मोबाइल नम्बर नहीं हैं
इसलिये वे सम्पर्क नहीं कर पा रहे हैं।

बुधवार, 13 मार्च 2013

आखिर भीड़ के पास विवेक क्यों नहीं होता?

डॉ. महेश परिमल
विश्व प्रसिद्ध सांची के पास ही है गुलाबगंज रेल्वे स्टेशन। जहां पटरी पार कर रहे दो बच्चों की ट्रेन से कटने से मौत के बाद आक्रोशित भीड़ ने रेल्वे स्टेशन में आग लगा दी। रेल्वे की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया। यही नहीं स्टेशन मास्टर को भी जिंदा जला दिया। एक गेंगमेन भी मारा गया। इसके बाद तो रेल्वे कर्मचारी भी आगे आ गए। वे भी वही सब करने लगे, जो भीड़ ने किया। ट्रेनें घंटों लेट हो गई। आखिर ये सब क्या है? कहा जाता है कि भीड़ के पास बुद्धि नहीं होती, इसका आशय यह तो नहीं निकाला जा सकता है कि भीड़ के पास संवेदनशीलता भी नहीं होती। रेल्वे कर्मचारियों को जिंदा जला देने से क्या उन दो मासूमों की जान वापस आ सकती है? जब वे मासूम पटरी पर थे और ट्रेन आ रही थी, तब वे लोग आखिर कहां थे? यदि समय रहते बच्चों को सचेत कर दिया जाता, तो क्या यह हादसा होता?  दोनों ही हालात में नुकसान उन निर्दोष यात्रियों का हुआ, जो अपने गंतव्य जाने के लिए या तो ट्रेन में थे या फिर रेल्वे स्टेशन पर। क्या इन आंदोलनों से निर्दोषों को किसी तरह का मुआवजा मिलेगा? आखिर इनका तो कोई दोष नहीं है।                                                                                                               
कोई बताएगा? पटरी पर खड़े हुए बच्चों को इतनी बड़ी ट्रेन नहीं दिखी? वो कुचल कर मर गए। इसमें दूर बैठे स्टेशन मास्टर या रेलवे की क्या गलती? स्टेशन को आग लगा दी, रेल्वे की सम्पत्ति का नुकसान हुआ, इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? जो कर्मचारी जिंदा जला दिए गए क्या वो क्या इंसान नहीं थे? उनके घरवाले नहीं थे? उनकी गलती तो कोई बताए? क्या आक्रोशित भीड़ ने जो कुछ किया, यह सही है? ऐसा ही होता है, जब भी हम सड़कों से होकर गुजरते हैं, तब सड़कों के किनारे बच्चे खेलते रहते हैं। ऐसे में यदि कोई बच्च तेज गति से आते ाहन की चपेट में आ जाए, तो क्या हो? यह भी सच है कि आक्रोशित भीड़ पर काबू पाना आसान नहीं होता। पर भीड़ पर नियंत्रण के लिए कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि उनका विवेक लौट आए।
मानव मन के तीन मुख्य अवयव हैं-भावना, विचार और विवेक। इनसे ही मनुष्य के व्यवहार का निर्धारण होता है। विचार मनुष्य को अकेला करता है और विवेक उसे भीड़ का हिस्सा बनने से रोकता है। भावना ही है जो उसे भीड़ का हिस्सा बनाती है। बहुत सोचने वाला व्यक्ति किसी सभा-जुलूस में शिरकत करने से अक्सर परहेज करता है। अगर वह इनमें शामिल भी होता है तो किसी खास विचार के प्रति भावनात्मक लगाव के कारण। भीड़ में शामिल व्यक्ति मूलत: भावना से संचालित होता है, इसलिए उसके विचार और विवेक के पक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। इन दिनों जो भीड़ के आRामक हो उठने की घटनाएं हो रही हैं, उन्हें इस जानकारी की रोशनी में देखा जा सकता है।
सौ करोड़ से अधिक आबादी का देश भारत आज हर स्तर पर भीड़ का देश बनता जा रहा है। विचार और विवेक के सहारे जीवन जीने वाले लोग अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। राजनीति को विचार और विवेक की दुनिया रास नहीं आ रही। कोई भी दल हो उसे भीड़ चाहिए, भावनाओं की आंधी में उड़ती हुई भीड़। कॉरपोरेट लीडरों को भीड़ चाहिए-लालची ग्राहकों की। धर्म गुरुओं और बाबाओं को भीड़ चाहिए ताली बजाने वालों की। आज पूरे देश में विचार और विवेक से रहित भीड़ की संस्कृति विकसित की जा रही है। यह भीड़ भूखी है, क्योंकि जीने के साधनों के वितरण में असंतुलन बढ़ता जा रहा है, यह भीड़ उदारीकण की कृपा से लालची और अनुचित रूप से महत्वाकांक्षी भी है। यह भीड़ अपने अधिकारों के प्रति इस हद तक सजग है कि उसे अपने कर्तव्य और दूसरे के अधिकार दिखाई तक नहीं पड़ रहे। जो हालात हैं और बनाए जा रहे हैं उनमें इस भीड़ का हिंसक हो उठना अस्वाभाविक नहीं है। भूखी लालची और असुरक्षा की भावना से भरी विवेक शून्य भीड़ के हाथों कोई भी कहीं भी मारा जा सकता है।
भीड़ में शामिल व्यक्ति भीड़ का हिस्सा होता है। वहां व्यक्ति का दिमाग कब एक ऐसे सामूहिक दिमाग का हिस्सा बन जाता है, जो भावनाओं में निर्देशित हो रहा है, पता चलना कठिन है। कोई उकसावा, कोई निर्देश या कोई हल्ला उसे इस तरह बहा ले जाता है जैसे समुद्र की लहर पानी के खाली बोतल को बहा ले जाती है। भीड़ के स्वभाव को सिर्फ राजनेता और धर्मगुरु ही नहीं जानते अपराधी और समाज की हिंस्र शक्तियां भी जानती हैं। एक और बात, हर व्यक्ति के भीतर हिंसक विचार होते है। मगर वह उन्हें प्रकट करने में उसी तरह झिझकता है, जैसे रोशनी में सबके सामने कपड़ा उतारने में। भीड़ में, अंधेरे में व्यक्ति की हिंसकता मुखर हो उठती है। भीड़ देखकर जिस तरह से हमारे देश के नेता खुश होते हैं, वही भीड़ अब उनके लिए गले की फांस बन जाएगी, यह तय है। भीड़ पर नियंत्रण आवश्यक है, शर्ते वह विवेकशील लोगों की हो। इसके लिए आवश्यक है, भीड़ के मनोविज्ञान को समझा जाए। पहले उसकी प्रवृत्ति को समझा जाए, फिर कार्रवाई के लिए कदम उठाए जाएं।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 9 मार्च 2013

दिखावे से दूर रहें

डॉ. महेश परिमल
सादा जीवन उच्च विचार, इस तरह के सूक्ति वाक्य अब केवल शालाओं एवं मंदिरों की दीवारों पर ही दिखाई देते हैं। बदलते जीवन मूल्यों के साथ सब कुछ तेजी से बदल रहा है। देखते ही देखते पानी अब बिकने लगा। पहले पानी पिलाना धर्म का काम होता था, अब पानी बेचना धंधा बन गया है। पहले गुरुकुल आश्रमों में विद्या दी जाती थी। गुरु-शिष्यों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध थे। अब शिक्षा विशुद्ध रूप से व्यापार का एक हिस्सा हो गई है। धार्मिक कार्यक्रमों में भी आजकल व्यापार घुस आया है। इसी तरह से अब शादी समारोह केवल तीन घंटे का शो बनकर रह गया है। जिन्हें हम गरीब मानते-समझते हैं, उस परिवार में भी शादी आजकल जिस दिखावे के साथ होती है, उससे हर कोई आश्चर्य मे पड़ जाता है। धन उपार्जन के इतने अधिक संसाधन हो गए हैं कि पूछो ही मत।
शादी के मौसम में हर तरफ फिजूलखर्ची दिखाई देती है। पहले तो अपनी साख दिखाना, फिर भोजन, कपड़े, श्रंगार, बैंड-बाजे, मंडप की सजावट, बिजली आदि का खर्च ही इतना अधिक होता है कि साधारण इंसान को गश आ जाए। इसके बाद भोजन का मेनू। इसमें भी लोग जमकर प्रदर्शनबाजी करते हैं। मेहमानों के सामने अपनी धाक जमाने के लिए कई परिवार लुट चुके हैं। फिर भी इस तरह की प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। आखिर लोग इतना प्रदर्शन क्यों करना चाहते हैं। अब शायद जितनी चादर उतना पाँव वाली कहावत भी काम नहीं कर रही है। शायद यह जमाने का दस्तूर है कि बदलते हुए जमाने के साथ खुद को बदलो। पर इतना भी क्या बदलना, जिसमें स्वयं ही तबाह हो जाएं। फिर भी लोग बदल रहे हैं। जमाना तो आज भी यही कहता है कि जितना कमाते हो, उसमें से बचत करो। पर अब कमाई से अधिक खर्च करने की शायद परंपरा ही हो गई है। उधार लेकर भी घी पीने की कहावत को लोग अब चरितार्थ करने लगे हैं। इतना कुछ करने के बाद भी भीतर असंतोष ही जागता रहता है। संतुष्टि कहीं दिखाई नहीं देती। अधिकांश प्रदर्शन देखा-देखी के कारण हो रहे हैं। आश्चर्य की बात यह है कि हम अपनी तुलना अपने से अमीर से करते हैं। गरीब से नहीं, इसलिए हम संतुष्ट नहीं हो पाते। संतोष से शक्ति प्राप्त होती है, असंतुष्ट की शक्ति हमेशा क्षीण होती रहती है। जो शादी को एक परंपरा मानते हैं, वे ही सच्चे अर्थो में मानव हैं। पर इस परंपरा में बेपनाह खर्च कर वे अपनी असंतुष्टि को ही आमंत्रित करते हैं।
केवल विवाह ही नहीं, बल्कि यज्ञोपवित, मुंडन, विवाह, मृत्युभोज आदि में भी विचलन देखा जा रहा है। इसमें भी मानव केवल दिखावे के लिए औकात से अधिक धन खर्च करता है। इस तरह से वह अपनी सामाजिक मर्यादा को लांघ जाता है। इसका उसे अहसास तक नहीं होता। दिखावे के कारण आज कई परिवार फाके-मस्ती की स्थिति में पहुंच गए हैं, इसके बाद भी लोग अनाप-शनाप खर्च करने से बाज नहीं आ रहे हैं। बढ़ती महंगाई को देखते हुए इस दिशा में यदि स्वयं ही आगे आकर कुछ परंपराओं को तोड़ने और कुए नई परंपराएं बनाने का काम करना होगा। दूसरों के घरों में उजाला करने के लिए अपना घर जला देना कहां की बुद्धिमानी है। इसलिए यह देख लिया जाए कि क्या हममें कर्ज की किस्तें देने में सक्षम हैं, क्या भविष्य में आय के साघन ऐसे ही रहेंगे, तो ही बैंक आदि से कर्ज लें। अन्यथा बैंक तो अपना कर्ज वसूल करेंगी ही, उससे समाज में बेइज्जती होगी, सो अलग। इस समय हो यह रहा है कि खर्च लगातार बढ़ रहा हे, पर उस दृष्टि से कमाई के संसाधन लगातार कम होते जा रहे हैं, इस स्थिति में संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। सारे आर्थिक मामलों के विवाद की जड़ में यही असंतुलन है। घर में आय-व्यय का संतुलन बनाए रखा जाए, तो कोई परेशानी नहीं होती।
अब इस दिशा में थोड़ा सा बदलाव आया है। अब धनिक वर्ग जन्म दिन में पार्टियां देने के बजाए अनाथ आश्रम जाकर बच्चों को मिठाइयां आदि बांट आते हैं। इससे मन को संतुष्टि मिलती है, तो दूसरी तरफ अनाथों को कुछ नया खाने को मिल जाता है। कई शहरों में श्राद्ध के समय अनाथ आश्रमों में इतना अधिक रस होता है कि बच्चे अधिक खाने के कारण बीमार होने लगे हैं। अक्सर अपने पितरों की याद लोगों को श्राद्ध पक्ष में ही आती है। इसलिए ऐसे बच्चों को ढूंढा जाता है, जो उनके यहां भोजन ग्रहण कर सकें। ऐसे में केवल रिश्तेदार ही घर आ पाते हैं। इसलिए दूसरों को शामिल करने के लिए लोग अनाथ आश्रम की ओर बढ़े चले आते हैं। ऐसा भी नहीं होना चाहिए। यदि उनके लिए कुछ करना ही है, तो साल में एक बार मेडिकल चेकअप करवा सकते हैं। ठंड में गरम कपड़े, कम्बल, रजाई आदि भी दी जा सकती है। इनके लिए जो भी किया जाए, वह गुप्त रूप से हो, तो ही अच्छा। इसका प्रचार-प्रसार करना अच्छी बात नहीं है। लेकिन लोग इससे भी बाज नहीं आते हैं।
इंसान यह भूल जाता है कि जितना आनंद सादा जीवन में है, उतना किसी में नहीं। लालच का क्या है, वह तो बढ़ता ही जाता है। इंसान की चाहतों का अंत कभी नहीं होता, हां इंसान अवश्य खत्म हो जाता है। इच्छाओं पर नियंत्रण ही सफल व्यक्ति की पहचान है। सीमित संसाधनों में जीवन जीने की कला बहुत कम लोगों को आती है। देश-विदेश के कई उद्योगपति ऐसे हैं, जो अपनी सादगी के कारण पहचाने जाते हैं। बेशुमार दौलत भी उनकी जीवनचर्या में परिवर्तन नहीं कर पाई। वे आज भी अपना सारा कार्य स्वयं ही करते हैं। किसी पर निर्भर नहीं रहते। किसी पर निर्भर न रहना ही जीवन का वह फंडा है, जो इंसान को सुखी बनाता है। अपनी ठाट-बाट दिखाना, शान दिखाना बुरी बात नहीं है, पर उसे दौलत के रूप में दिखाना गलत है। कई बार ऐसी स्थिति स्वयं के लिए भारी बन जाती है। आजकल लोग एक बार अपनी शान दिखाकर उसे बनाए रखने में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगा देते हैं। यहीं उनसे चूक हो जाती है। लोग उनसे उसी शान की अपेक्षा रखने लगते हैं। इसमें जरा सी भी कमी लोगों को कटाक्ष करने के लिए विवश कर देती है।
घर के सदस्यों से अधिक वाहन, उससे दोगुने मोबाइल, बड़ा सा घर और बेशुमार दौलत ये सभी तनाव का कारण हैं। इन चीजों से न तो घर का वातावरण शुद्ध होता है, न ही आपस में प्यार पनपता है। कहा जाता है कि जिस घर के सदस्य भोजन, भजन और भ्रमण एक साथ करते हों, वहां कभी क्लेश नहीं होता। इस बात को ध्यान में रखा जाए, तो आज कितने घर ऐसे हैं, जहां उक्त तीनों कियाएं होती हों। आज परिवार में तनाव बढ़ने का यही एकमात्र कारण है कि लोग साथ नहीं होते। कुछ अवसर ही ऐसे होते हैं, जब परिवार के सभी सदस्यों को एकसाथ देखा जा सकता है। इसलिए यदि बाहरी शान, दिखावा छोड़कर सादगी के साथ जीवन जीयें, तो लोग हमसे जुडेंगे, हम उनके करीब होंगे। वे हमारा साथ देंगे, हमें उनकी सहायता करने का अवसर मिलेगा।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 7 मार्च 2013

सारा झगड़ा खत्म


लघुकथा -
सारा झगड़ा खत्म
शुभदा और सुमति दोनों बहनें हैं। शुभदा का विवाह पास ही डोंगरगढ़ में हुआ है और सुमति तो और पास मतलब यहीं राजनांदगाँव में ब्याही गई है। सुमति का बेटा पुलकित, शुभदा के बेटे सुरभित से एक साल बड़ा है, पर दोनों एक समान दिखते हैं- हमउम्र! दोनों में दोस्ती भी खूब है पर कब लड़ बैठें इसका भी भरोसा नहीं। दोनों की उम्र अभी इतनी छोटी है कि वे जब कभी एक-दूसरे से मिलते हैं, तुरंत हाथ पकड़कर, जूते बजाते हुए, बाहर सिर्फ सड़क पर घूमने निकल पड़ते हैं। तब दोनों के हाव-भाव देख मन पुलकित हो उठता है। और जब लड़ते हैं तो उनकी प्यारी-प्यारी तार्किक बातों से पूरा घर सुरभित हो जाता है।
इस बार छुट्टियों में शुभदा जब राजनांदगाँव के ब्राह्मणपारा में मायके आई तो खबर पा सुमति भी गौरी नगर से आ गई। पुलकित को देखते रही। फिर तो सुरभित अपना मचलना भूलकर चट पुलकित दादा का हाथ पकड दसरथ टेलर की दुकान तक घूमने निकल पड़ा।
कुछ क्षण बाद ही दोनों रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरनें लिए घर आ गए और फिर कतरन को लेकर उनकी दोस्ती, लड़ाई में बदल गई। पुलकित बड़ा है तो उसके पास शब्द अधिक है। वह खूब बोलता है। कहाँ-कहाँ की बातें करता है। किस बात को कहाँ कब जोड़ दे, इसे वही समझता है। इससे एकदम उल्टा है सुरभित। वह चुप शांत रहता है, पर कभी अचानक ऐसी बातें कह उठता है कि नाना-नानी       के साथ-साथ पड़ोसी भी विस्मय विमुग्ध हो जाते है।
हाँ, तो कतरन से अपनी लड़ाई में बातूनी पुलकित ने कहा - ये सब मेरा है।
सुरभित पूछ उठा - और मेरा?
पुलकित ने जवाब दिया - तुम्हारा डोंगरगढ़ में है, यहाँ मेरा है।
सुरभित कुछ क्षण सोचता रहा फिर एकाएक बोला - ये बैठने की चैकी मेरी है और वह तुरंत चैकी पर जा बैठा।
पुलकित कब चुप रहने वाला था। उसने कहा - ये कुर्सी मेरी है।
सुरभित बोला - तो ये सोफा मेरा है।
पुलकित उछलकर तखत पर जा चढ़ा और चिल्लाया - ये... देखो! ये तखत मेरा है।
इसी तरह से मेरा-मेरी की लड़ाई में धीरे-धीरे पूरे घर के सामान एक-दूसरे के हो गए। सामान के बाद घर के लोग भी बँटने लगे -
- ये मेरी मम्मी है।
- ये मेरे पापा है।
- ये मेरी नानी है।
- ये मेरे नाना है।
क्षण भर में सबका बँटवारा हो गया। अब पुलकित क्या बोले? किस पर अपना अधिकार जताए? वह एकदम उत्तेजित हो गया! हाथ दिखाते हुए एक साँस में बोल गया - ये...ये... घर.... ये सड़क... ये... ये...सब और... और.... वो.... वो...दूर... खूब..दूर... वो बादल तक... सब मेरा है।
अब तो सुरभित भारी सोच में पड़ गया। उसके लिए तो कुछ बचा ही नहीं। वह क्या करे? हठात वह एकदम उठ खड़ा हुआ और दौड़कर पुलकित से लिपटकर बोला - ये पुलकित दादा मेरा है।
पुलकित खुश हो गया। उसने सुरभित को और जोर से लिपटा कर कहा - ये छोटा भैया मेरा है। और फिर सारा झगड़ा खतम हो गया।
गिरीश बख्शी
ब्राह्मणपारा,राजनांदगाँव (छ.ग.)

मंगलवार, 5 मार्च 2013

शर्मसार है देश हमारा

हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख 

Post Labels