मंगलवार, 26 मार्च 2013

आपराधिक तत्वों को संरक्षण: राजनीतिक दलों की मजबूरी

डॉ. महेश परिमल
यूपी में दम है, क्योंकि जुर्म यहां कम है। हमारे महानायक की यह गूंज उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के समय सुनाई दी थी। इसे सभी ने सुना था। उस पर विश्वास भी किया था। इसलिए मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी ने भारी बहुमत के साथ विजय प्राप्त की थी। विजय होते ही सपा कार्यकर्ताओं में जिस तरह का विजयोन्माद दिखाई दिया था, उससे ही यह स्पष्ट हो गया था कि आने वाले दिन अच्छे नहीं होंगे। पर मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश पर विश्वास जताया, उन्हें मुख्यमंत्री बनाया। उधर बहू को भी सांसद बनाने के लिए सारे दलों को मना लिया, और वे निर्विरोध निर्वाचित हो गई। इसके बाद कई घटनाएं सामने आई, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि सपा कार्यकर्ताओं पर लगाम लगाना मुश्किल है। लोग यह समझ नहीं पाए कि जब सपा को भारी बहुमत मिला था, तो उन्हें कुंडा के निर्दलीय विधायक राजा भैया को मंत्रिमंडल में लेने की क्या आवश्यकता थी? यह प्रश्न उस समय भले ही प्रासंगिक न हो, पर आज जब  उनके प्रदेश में सरे आम एक डीएसपी की हत्या हो गई है, तो यह पूछा जा रहा है कि आखिर राजा भैया को सरकार क्यों पाल रही है?
राजा भैया को संरक्षण प्रदेश सरकार ही दे रही है। प्रदेश सरकार जवाब दे या न दे, पर राजा भैया को इस बात का जवाब देना होगा कि आखिर उन्होंने डीएसपी जिया उल हक की हत्या क्यों की? सीबीआई ने उन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया है। सबसे पहले उन धाराओं पर नजर डालें, जिसके तहत उन पर आरोप लगाए गए हैं। सीबीआई इन्हीं एफआईआर को आधार मानकर जांच शुरू करेगी। राजा भैया पर 6 धाराएं लगाई गई हैं। धारा 148- घातक हथियारों के साथ प्रदर्शन, धारा 149- गैरकानूनी तरीके से भीड़ इकट्ठा करना, धारा 302- हत्या का आरोप, धारा 504- शांतिभंग करने के लिए उकसाना, धारा 506- धमकी देना, धारा 120-बी- आपराधिक साजिश।
जाहिर है कि राजा भैया के खिलाफ सभी धाराएं आने वाले दिनों में उनकी मुसीबत बहुत बढ़ाने वाली हैं। जिस दिन डीएसपी जियाउल हक की हत्या हुई थी, उसी दिन बलीपुर गांव के प्रधान नन्हे लाल यादव और उसके भाई की भी हत्या की गई थी, जिसके बाद डीएसपी को गोली मारी गई। इस पूरे मामले में चार एफआईआर पहले से दर्ज हैं। पहली एफआईआर बल्लीपुर के ग्राम प्रधान नन्हें यादव की हत्या के मामले में है। इसी के बाद सारा बवाल शुरू हुआ। इसी की जांच करने डीएसपी जिया उल हक बलीपुर पहुंचे थे। इसमें कुल चार आरोपी बनाए गए हैं। दूसरी एफआईआर ग्राम प्रधान नन्हें यादव के भाई सुरेश यादव की हत्या के मामले में है। सुरेश यादव की हत्या उसी दिन हुई थी, जिस दिन जियाउल हक बलीपुर पहुंचे थे। कहा तो यह भी जाता है कि उनके सामने ही सुरेश यादव की हत्या हुई थी। इसमें भी चार आरोपी हैं। बाकी के दो एफआईआर जियाउल हक मर्डर केस में दर्ज किए गए हैं। एक एफआईआर यूपी पुलिस ने दर्ज कराई है और दूसरी जियाउल हक की पत्नी परवीन ने। एक में 10 आरोपी हैं और दूसरे में 4 आरोपी। गौरतलब है कि जिसमें 10 आरोपी हैं, उसमें राजा भैया का नाम नहीं है। जो एफआईर डीएसपी की पत्नी ने दर्ज कराई है, उसमें राजा भैया को नामजद किया गया है। मतलब उत्तर प्रदेश पुलिस ने खुद जो तीन एफआईआर दर्ज किए, उसमें शुरू में ही रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया को साफ बचा लिया। सिर्फ परवीन की एफआईआर में राजा का जिक्र है।
सवाल यह उठता है कि आखिर राजनैतिक दलों की ऐसी क्या विवशता है कि वे आपराधिक तत्वों को अपनी पार्टी का टिकट देते हैं। निश्चित रूप से वे कोई संवैधानिक कार्य के लिए तो राजनीति में नहीं आते। अपने रसूख को बनाए रखने और उसे परिमार्जित करने के लिए ही वे चुनाव लड़ते हैं, या चुनाव में अन्य लोगों को जीतवाने में सहायक होते हैं। वैसे तो देश के अधिकांश नेताओं पर कानून की कोई न कोई धारा कभी न कभी तो लगी ही होगी। राजनीति के इस दलदल में कोई भी साफ-सुधरा नहीं है। जो हैं वे सभी हाशिए पर हैं। पर यदि राजा भैया जैसे लोगों की गुंडागर्दी बर्दाश्त की जा रही है, तो इसे राजनीतिक मजबूरी माना जाएगा। राजा भैया जैसे ही लोग होते हैं, तो पहले तो चुनाव जीतवाने में पूरी मदद करते हैं। इसमें बूथ कैप्चरिंग से लेकर वोट छापने, मतदाताओं को डराने-धमकाने के वे सारे हथकंडे हैं, जिसे ये अपनाते हैं। इसका पूरा लाभ राजनीतिक दल उठाते हैं। चुनाव के बाद विधायकों को धमकाने का काम भी ऐसे लोग ही करते हैं। ताकि सत्तारुढ़ पार्टी मजबूत हो। 11 वर्ष पहले पहली बार राजा भैया पर भाजपा विधायक पूरन सिंह को जान से मारने की धमकी देने का आरोप लगाया गया था। इसके तहत राजा भैया की गिरफ्तारी भी हुई थी। इसके बाद भी वे कई बार गिरफ्तार हुए। मायावती ने तो उन्हें पोटा के तहत गिरफ्तार करवाया था। पर एक महीने तीन दिन बाद ही मुलायम सरकार ने उन्हें रिहा करवा दिया। राजा भैया के पिता के खिलाफ भी कई आपराधिक मामले दर्ज हैं।
शाही ठाटबाट के शौकीन राजा भैया को वैभवशाली लिमोजिन गाड़ियाँ रखने का शौक है। उनके काफिले में आगे-पीछे चार पांच गाडियां होती ही हैं। वे ही नहीं, उनके गुर्गे भी जहां से निकल जाएं, तो शहर का एक भी ट्रेफिक सिगनल उनके लिए लाल नहीं होता। अभी भले ही डीएसपी जिया उल हक की विधवा ने हिम्मत कर राजा भैया के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है, इसलिए उन्हें मंत्रीपद छोड़ना पड़ा है। पर ऐसा अधिक दिनों तक नहीं चलेगा। वे फिर उसी शान से वापस मंत्रीपद पा लेंगे, इसमें भी किसी को कोई शक नहीं है। राजनीति के अपराधीकरण से सभी दल आक्रांत हैं। पर सच तो यह है कि कोई भी दल पूरी ईमानदारी से इसे दूर करना भी नहीं चाहता। सभी दलों के अपने-अपने राजा भैया हैं। इन्हीं से चुनाव लड़ा और जीता जाता है। हर पार्टी को ऐसे लोगों की आवश्यकता है। ऊपरी तौर पर सभी पार्टियां अपराधी तत्वों को पार्टी में लेने से इंकार करती हैं, पर चुनाव की घोषणा होते ही ऐसे लोग ही टिकट पाने में कामयाब हो जाते हैं। संसद को देश की गरिमा कहा जाता है, पर आज वहीं राजा भैया जैसे अनेक अपराधी तत्व हैं। अंतर केवल इतना है कि जिन पर आरोप हैं, वे अभी तक सिद्ध नहेीं हुए हैं, यही एक बहाना है, जिसके कारण वे संसद की शोभा बढ़ा रहे हैं। राजनीति में आने का सबसे बड़ा फायदा यही है कि वे कानून से ऊपर हो जाते हैं। देश में प्रजातंत्र के नाम पर इस तरह का खिलवाड़ बरसों से जारी है और तब तक जारी रहेगा, जब तक राजनीतिक दलों में इच्छा शक्ति की कमी रहेगी। जिस दिन सारे दल ये तय कर लें कि अपराधी तत्वों को साथ नहीं रखना है, तो देश की दिशा ही बदल जाएगी।
डॉ. महेश परिमल

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