डॉ. महेश परिमल
विश्व प्रसिद्ध सांची के पास ही है गुलाबगंज रेल्वे स्टेशन। जहां पटरी पार कर रहे दो बच्चों की ट्रेन से कटने से मौत के बाद आक्रोशित भीड़ ने रेल्वे स्टेशन में आग लगा दी। रेल्वे की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया। यही नहीं स्टेशन मास्टर को भी जिंदा जला दिया। एक गेंगमेन भी मारा गया। इसके बाद तो रेल्वे कर्मचारी भी आगे आ गए। वे भी वही सब करने लगे, जो भीड़ ने किया। ट्रेनें घंटों लेट हो गई। आखिर ये सब क्या है? कहा जाता है कि भीड़ के पास बुद्धि नहीं होती, इसका आशय यह तो नहीं निकाला जा सकता है कि भीड़ के पास संवेदनशीलता भी नहीं होती। रेल्वे कर्मचारियों को जिंदा जला देने से क्या उन दो मासूमों की जान वापस आ सकती है? जब वे मासूम पटरी पर थे और ट्रेन आ रही थी, तब वे लोग आखिर कहां थे? यदि समय रहते बच्चों को सचेत कर दिया जाता, तो क्या यह हादसा होता? दोनों ही हालात में नुकसान उन निर्दोष यात्रियों का हुआ, जो अपने गंतव्य जाने के लिए या तो ट्रेन में थे या फिर रेल्वे स्टेशन पर। क्या इन आंदोलनों से निर्दोषों को किसी तरह का मुआवजा मिलेगा? आखिर इनका तो कोई दोष नहीं है।
कोई बताएगा? पटरी पर खड़े हुए बच्चों को इतनी बड़ी ट्रेन नहीं दिखी? वो कुचल कर मर गए। इसमें दूर बैठे स्टेशन मास्टर या रेलवे की क्या गलती? स्टेशन को आग लगा दी, रेल्वे की सम्पत्ति का नुकसान हुआ, इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? जो कर्मचारी जिंदा जला दिए गए क्या वो क्या इंसान नहीं थे? उनके घरवाले नहीं थे? उनकी गलती तो कोई बताए? क्या आक्रोशित भीड़ ने जो कुछ किया, यह सही है? ऐसा ही होता है, जब भी हम सड़कों से होकर गुजरते हैं, तब सड़कों के किनारे बच्चे खेलते रहते हैं। ऐसे में यदि कोई बच्च तेज गति से आते ाहन की चपेट में आ जाए, तो क्या हो? यह भी सच है कि आक्रोशित भीड़ पर काबू पाना आसान नहीं होता। पर भीड़ पर नियंत्रण के लिए कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि उनका विवेक लौट आए।
मानव मन के तीन मुख्य अवयव हैं-भावना, विचार और विवेक। इनसे ही मनुष्य के व्यवहार का निर्धारण होता है। विचार मनुष्य को अकेला करता है और विवेक उसे भीड़ का हिस्सा बनने से रोकता है। भावना ही है जो उसे भीड़ का हिस्सा बनाती है। बहुत सोचने वाला व्यक्ति किसी सभा-जुलूस में शिरकत करने से अक्सर परहेज करता है। अगर वह इनमें शामिल भी होता है तो किसी खास विचार के प्रति भावनात्मक लगाव के कारण। भीड़ में शामिल व्यक्ति मूलत: भावना से संचालित होता है, इसलिए उसके विचार और विवेक के पक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। इन दिनों जो भीड़ के आRामक हो उठने की घटनाएं हो रही हैं, उन्हें इस जानकारी की रोशनी में देखा जा सकता है।
सौ करोड़ से अधिक आबादी का देश भारत आज हर स्तर पर भीड़ का देश बनता जा रहा है। विचार और विवेक के सहारे जीवन जीने वाले लोग अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। राजनीति को विचार और विवेक की दुनिया रास नहीं आ रही। कोई भी दल हो उसे भीड़ चाहिए, भावनाओं की आंधी में उड़ती हुई भीड़। कॉरपोरेट लीडरों को भीड़ चाहिए-लालची ग्राहकों की। धर्म गुरुओं और बाबाओं को भीड़ चाहिए ताली बजाने वालों की। आज पूरे देश में विचार और विवेक से रहित भीड़ की संस्कृति विकसित की जा रही है। यह भीड़ भूखी है, क्योंकि जीने के साधनों के वितरण में असंतुलन बढ़ता जा रहा है, यह भीड़ उदारीकण की कृपा से लालची और अनुचित रूप से महत्वाकांक्षी भी है। यह भीड़ अपने अधिकारों के प्रति इस हद तक सजग है कि उसे अपने कर्तव्य और दूसरे के अधिकार दिखाई तक नहीं पड़ रहे। जो हालात हैं और बनाए जा रहे हैं उनमें इस भीड़ का हिंसक हो उठना अस्वाभाविक नहीं है। भूखी लालची और असुरक्षा की भावना से भरी विवेक शून्य भीड़ के हाथों कोई भी कहीं भी मारा जा सकता है।
भीड़ में शामिल व्यक्ति भीड़ का हिस्सा होता है। वहां व्यक्ति का दिमाग कब एक ऐसे सामूहिक दिमाग का हिस्सा बन जाता है, जो भावनाओं में निर्देशित हो रहा है, पता चलना कठिन है। कोई उकसावा, कोई निर्देश या कोई हल्ला उसे इस तरह बहा ले जाता है जैसे समुद्र की लहर पानी के खाली बोतल को बहा ले जाती है। भीड़ के स्वभाव को सिर्फ राजनेता और धर्मगुरु ही नहीं जानते अपराधी और समाज की हिंस्र शक्तियां भी जानती हैं। एक और बात, हर व्यक्ति के भीतर हिंसक विचार होते है। मगर वह उन्हें प्रकट करने में उसी तरह झिझकता है, जैसे रोशनी में सबके सामने कपड़ा उतारने में। भीड़ में, अंधेरे में व्यक्ति की हिंसकता मुखर हो उठती है। भीड़ देखकर जिस तरह से हमारे देश के नेता खुश होते हैं, वही भीड़ अब उनके लिए गले की फांस बन जाएगी, यह तय है। भीड़ पर नियंत्रण आवश्यक है, शर्ते वह विवेकशील लोगों की हो। इसके लिए आवश्यक है, भीड़ के मनोविज्ञान को समझा जाए। पहले उसकी प्रवृत्ति को समझा जाए, फिर कार्रवाई के लिए कदम उठाए जाएं।
डॉ. महेश परिमल
विश्व प्रसिद्ध सांची के पास ही है गुलाबगंज रेल्वे स्टेशन। जहां पटरी पार कर रहे दो बच्चों की ट्रेन से कटने से मौत के बाद आक्रोशित भीड़ ने रेल्वे स्टेशन में आग लगा दी। रेल्वे की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया। यही नहीं स्टेशन मास्टर को भी जिंदा जला दिया। एक गेंगमेन भी मारा गया। इसके बाद तो रेल्वे कर्मचारी भी आगे आ गए। वे भी वही सब करने लगे, जो भीड़ ने किया। ट्रेनें घंटों लेट हो गई। आखिर ये सब क्या है? कहा जाता है कि भीड़ के पास बुद्धि नहीं होती, इसका आशय यह तो नहीं निकाला जा सकता है कि भीड़ के पास संवेदनशीलता भी नहीं होती। रेल्वे कर्मचारियों को जिंदा जला देने से क्या उन दो मासूमों की जान वापस आ सकती है? जब वे मासूम पटरी पर थे और ट्रेन आ रही थी, तब वे लोग आखिर कहां थे? यदि समय रहते बच्चों को सचेत कर दिया जाता, तो क्या यह हादसा होता? दोनों ही हालात में नुकसान उन निर्दोष यात्रियों का हुआ, जो अपने गंतव्य जाने के लिए या तो ट्रेन में थे या फिर रेल्वे स्टेशन पर। क्या इन आंदोलनों से निर्दोषों को किसी तरह का मुआवजा मिलेगा? आखिर इनका तो कोई दोष नहीं है।
कोई बताएगा? पटरी पर खड़े हुए बच्चों को इतनी बड़ी ट्रेन नहीं दिखी? वो कुचल कर मर गए। इसमें दूर बैठे स्टेशन मास्टर या रेलवे की क्या गलती? स्टेशन को आग लगा दी, रेल्वे की सम्पत्ति का नुकसान हुआ, इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? जो कर्मचारी जिंदा जला दिए गए क्या वो क्या इंसान नहीं थे? उनके घरवाले नहीं थे? उनकी गलती तो कोई बताए? क्या आक्रोशित भीड़ ने जो कुछ किया, यह सही है? ऐसा ही होता है, जब भी हम सड़कों से होकर गुजरते हैं, तब सड़कों के किनारे बच्चे खेलते रहते हैं। ऐसे में यदि कोई बच्च तेज गति से आते ाहन की चपेट में आ जाए, तो क्या हो? यह भी सच है कि आक्रोशित भीड़ पर काबू पाना आसान नहीं होता। पर भीड़ पर नियंत्रण के लिए कुछ तो ऐसा होना ही चाहिए कि उनका विवेक लौट आए।
मानव मन के तीन मुख्य अवयव हैं-भावना, विचार और विवेक। इनसे ही मनुष्य के व्यवहार का निर्धारण होता है। विचार मनुष्य को अकेला करता है और विवेक उसे भीड़ का हिस्सा बनने से रोकता है। भावना ही है जो उसे भीड़ का हिस्सा बनाती है। बहुत सोचने वाला व्यक्ति किसी सभा-जुलूस में शिरकत करने से अक्सर परहेज करता है। अगर वह इनमें शामिल भी होता है तो किसी खास विचार के प्रति भावनात्मक लगाव के कारण। भीड़ में शामिल व्यक्ति मूलत: भावना से संचालित होता है, इसलिए उसके विचार और विवेक के पक्ष कमजोर पड़ जाते हैं। इन दिनों जो भीड़ के आRामक हो उठने की घटनाएं हो रही हैं, उन्हें इस जानकारी की रोशनी में देखा जा सकता है।
सौ करोड़ से अधिक आबादी का देश भारत आज हर स्तर पर भीड़ का देश बनता जा रहा है। विचार और विवेक के सहारे जीवन जीने वाले लोग अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। राजनीति को विचार और विवेक की दुनिया रास नहीं आ रही। कोई भी दल हो उसे भीड़ चाहिए, भावनाओं की आंधी में उड़ती हुई भीड़। कॉरपोरेट लीडरों को भीड़ चाहिए-लालची ग्राहकों की। धर्म गुरुओं और बाबाओं को भीड़ चाहिए ताली बजाने वालों की। आज पूरे देश में विचार और विवेक से रहित भीड़ की संस्कृति विकसित की जा रही है। यह भीड़ भूखी है, क्योंकि जीने के साधनों के वितरण में असंतुलन बढ़ता जा रहा है, यह भीड़ उदारीकण की कृपा से लालची और अनुचित रूप से महत्वाकांक्षी भी है। यह भीड़ अपने अधिकारों के प्रति इस हद तक सजग है कि उसे अपने कर्तव्य और दूसरे के अधिकार दिखाई तक नहीं पड़ रहे। जो हालात हैं और बनाए जा रहे हैं उनमें इस भीड़ का हिंसक हो उठना अस्वाभाविक नहीं है। भूखी लालची और असुरक्षा की भावना से भरी विवेक शून्य भीड़ के हाथों कोई भी कहीं भी मारा जा सकता है।
भीड़ में शामिल व्यक्ति भीड़ का हिस्सा होता है। वहां व्यक्ति का दिमाग कब एक ऐसे सामूहिक दिमाग का हिस्सा बन जाता है, जो भावनाओं में निर्देशित हो रहा है, पता चलना कठिन है। कोई उकसावा, कोई निर्देश या कोई हल्ला उसे इस तरह बहा ले जाता है जैसे समुद्र की लहर पानी के खाली बोतल को बहा ले जाती है। भीड़ के स्वभाव को सिर्फ राजनेता और धर्मगुरु ही नहीं जानते अपराधी और समाज की हिंस्र शक्तियां भी जानती हैं। एक और बात, हर व्यक्ति के भीतर हिंसक विचार होते है। मगर वह उन्हें प्रकट करने में उसी तरह झिझकता है, जैसे रोशनी में सबके सामने कपड़ा उतारने में। भीड़ में, अंधेरे में व्यक्ति की हिंसकता मुखर हो उठती है। भीड़ देखकर जिस तरह से हमारे देश के नेता खुश होते हैं, वही भीड़ अब उनके लिए गले की फांस बन जाएगी, यह तय है। भीड़ पर नियंत्रण आवश्यक है, शर्ते वह विवेकशील लोगों की हो। इसके लिए आवश्यक है, भीड़ के मनोविज्ञान को समझा जाए। पहले उसकी प्रवृत्ति को समझा जाए, फिर कार्रवाई के लिए कदम उठाए जाएं।
डॉ. महेश परिमल