शनिवार, 29 दिसंबर 2007

स्वागत नववर्ष के स्वर्णिम सूरज...

भारती परिमल
नवप्रभात के स्वर्णिम सूरज तुम्हारा स्वागत है। साथ ही तुम्हारी रश्मियों से छनकर आते नववर्ष के प्रकाश पुंज का भी हार्दिक... हार्दिक स्वागत है।तुम्हारे और नववर्ष के स्वागत में हम पलक बिछाए हुए हैं।आज स्वागत की इस बेला में हमारे विचारों का उफनता ज्वार तुमसे कुछ कहने को उतावला हो रहा है।आओ घड़ी भर इसके पास आकर इसे ध्यान से सुनो...
नववर्ष के स्वागत में जहाँ चारों ओर हर्षोल्लास है, भड़कीला शोर और गुनगुनाता संगीत है...वहीं किसी कोने में एक अजन्मे मासूम की सिसकारी से लिपटी जिंदगी में मौत की खामोशी भी है। ये खामोशी तुमसे कुछ कहना चाहती है।इस दुनिया में लाखों धड़कनें ऐसी हैं, जिन्हें समय से पहले ही शांत कर दिया गया। माँ की विवशता और परिवार के सदस्यों की निर्दयता के कारण अनेक अजन्मे शिशुओं ने कोख से डस्टबीन तक का सफर तय किया। उनकी मासूम चीखों को सुननेवाला आसपास कोई न था।फूलों की पंखुड़ियों से भी कोमल अंगों पर तेज हथियारों से जोर आजमाइश का तांडव खेला जाता रहा और वे मासूम कुछ भी न कह सके।धारदार और नोकदार अस्त्रों का चक्रव्यूह तोड़ने के लिए अभिमन्यु बनना तो दूर वे तो एक पूर्ण आकार भी न पा सके और मौत के समंदर में फेंक दिए गए। आज उन्हीं मासूमों कार् आत्तनाद तुमसे आनेवाले नववर्ष में ऐसा न हो, इसकी प्रार्थना करता है। भावी माताओं को इतना सक्षम बनने का आशीर्वाद दो कि वे अपनी संतान को इस धरती पर आने का अवसर दे।मासूम की मुस्कान से उनका ऑंचल ही नहीं पूरा वातावरण सुरभित हो उठे, ये आशीर्वाद केवल और केवल तुम ही दे सकते हो।
एक मासूम जब मुस्कराता है, तो वह ईश्वर का सबसे प्यारा वरदान होता है। ईश्वर का यह उपहार हमें इतना प्यारा है कि हमने तो पूरा एक दिन ही इनके नाम कर दिया है। बाल दिवस के रूप में हम बच्चों को और अधिक करीब से जानने का प्रयास करते हैं। किंतु इसी बाल दिवस पर मीडिया के माध्यम से बाल मजदूरों की बढ़ती संख्या का ऑंकड़ा भी हमारे दिमाग में फिट हो जाता है। इन ऑंकड़ों के साथ माथे पर कुछ क्षणों के लिए सलवटें जरूर बनती हैं, पर शाम की धुँधली स्याही में ये फिर घुल जाती हैं। दिनचर्या फिर वैसी की वैसी हो जाती है।जबकि सच्चाई यह है कि मजदूरी करते इन मासूमों को भी हक है कि वे भी स्कूल जाएँ, पढ़े-लिखें और अपने सपनों को सच करने का प्रयास करें। उनके सपनों में रंग भरने के लिए तुम्हें ही अपने आशीर्वाद की तूलिका उठानी होगी। आज इन्हें इसी की जरूरत है।
किशोरों और युवाओं के काँधे पर टिका ये देश आज मीडिया के जाल में उलझा हुआ है। यही कारण है कि आज युवा-मस्तिष्क सारे संस्कारों और सद्व्यवहार को हाशिए पर ले जाकर दिशाहीन मार्ग पर आगे बढ़ रहा है। इंटरनेट का उपयोग वह केवल भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए ही कर रहा है। नतीजा यह कि ज्ञान का अथाह सागर सामने होने के बावजूद इनकी गागर सद्विचारों से खाली है। आज का युवा ध्येय के अभाव में यहाँ-वहाँ भटक रहा है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में वे सभी कुछ जल्द से जल्द पा लेना चाहते हैं। इसके लिए वे कोई भी शॉर्टकट अपनाने को तैयार है। भटकते हुए इन युवाओं को नववर्ष में एक नई वैचारिक शक्ति और सद्विचारों का पुंज प्रदान करो।
आज अपनी सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए, समाज में स्टेटस मेन्टेन करने की पूरजोर कोशिश में व्यक्ति अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। ऑफिस, पार्टी, घर-गृहस्थी, पत्नी-बच्चे इन सभी के लिए थोड़ा-थोड़ा वक्त निकालने के बाद उसके पास स्वयं के लिए ही समय नहीं होता।यह एक भागते-दौड़ते मशीनी मानव की सच्चाई है, किंतु इससे भी बड़ी सच्चाई तो यह है कि उसके पास सभी के लिए समय होने के बाद भी अपने माता-पिता के लिए समय नहीं होता। शहरों में झूलाघर की तरह वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात की पुष्टि करती है। आज के समाज का कटु सत्य यह है कि जिन माता-पिता को अपनी पाँच संतानों का लालन-पालन करना भारी नहीं लगा था, आज उन्हीं संतानों को अपने पाँच फ्लेट में उन्हीं माता-पिता को रखना भारी लग रहा है।एक माँ नौ माह तक संतान का भार हँसते हुए अपने कोख में उठा लेती है, किंतु यही बेटा बड़ा होकर माँ-बाप की जिम्मेदारियों को उठा नहीं सकता।उसका 2-4 वर्श का लाडला तो उससे प्यार की अपेक्षा कर सकता है, किंतु बूढ़े माँ-बाप प्यार की चाहत नहीं रख सकते! समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति होने का दंभ उसे अपने ही माता-पिता से दूर ले जाता है। बचपन में वह माँ का बिस्तर गीला करता था और बड़ा हुआ तो माँ की ऑंखें गीली करने लगा। इस प्रकार उसे तो सदैव माता-पिता को गीलेपन में रखने की आदत हो गई है! ओ... सूरज इस वक्त ऐसे कलुषित विचारों से घिरे हुए मनुष्य को तुम्हारी शुभकामनाओं की विशेष आवश्यकता है। तुम आशीर्वाद दो कि उसके विचारों का यह अन्यायपूर्ण साम्राज्य जल्द से जल्द नष्ट हो जाए और वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए माता-पिता से भी स्नेहपूर्ण व्यवहार करे।
अपनी संतान से दूर होने का अहसास क्या होता है, ये देखना हो, तो वृध्दाश्रमों की लम्बी सूची हमारे देश के कई शहरों में मिल जाएगी। इसकी डयोढी पर पाँव रखते ही वहाँ अनुभवों की झुर्रियों से लिपटे लाचारगी भरे चेहरे मिलेंगे। ये चेहरे हमसे कुछ कहना चाहते हैं, पर हमने ही इन्हें घर की चहारदीवारी से दूर कर दिया है। वे हमसे बतियाना चाहते हैं, पर हमने ही उन्हें खामोश रहने के लिए उन्हें वृध्दाश्रमों में भेज दिया है।वे हमें कुछ देना चाहते हैं, उनके अनुभव हमें उपदेश लगते हैं, इसलिए हमने उपदेश के लिए तो महात्माओं की शरण ले ली, पर उनके अनुभव सुनने के लिए हमारे पास समय नहीं है। पेड़ से एक डाल यदि टूट जाती है, तो सूख जाती है, पर ये ऐसी डालें हैं, जो टूटी तो हैं, पर मुरझाई नहीं हैं, हमें इन डालों को अपने ऑंगन में रोपना है, ताकि हमें उनके अनुभव के मीठे फल मिले। लेकिन हम ऐसा कुछ भी नहीं चाहते, पर यह अवश्य चाहते हैं कि हमारी संतान हमारी पूरी देखभाल करे। पर क्या ऐसा संभव हो पाएगा?
सूरज दादा, क्या आप ऐसा होता देखेंगे, नहीं ना तो फिर कुछ ऐसा करो कि सभी की समझ में आ जाए कि नए वर्ष पर हम सब कुछ न कुछ देना सीख जाएँ।फिर वही मुन्ना अपने बूढ़े माता-पिता को अपना संरक्षण देगा, तब उनके झुर्रीदार चेहरे पर जो भाव आएँगे, वह किसी आशीर्वाद से कम नहीं होंगे।युवकों को यह समझा दो कि सफलता का कोई शार्टकट नहीं होता, और नन्हे-मुन्नों को क्या समझाएँगे आप, वह तो गीली माटी की तरह हैं, उन्हें जो आकार दोगे, वे वैसा ही बन जाएँगे, इसलिए उन पालकरूपी कुम्हारों के हाथों में वह शक्ति दो कि ये गीली माटी जब भी चाक पर चढ़े, तो ऐसे रूप में सामने आए कि लोग देखते रह जाएँ। बस यही काम कर दो सूरज दादा, हमारी तुमसे यही विनती है कि धरती का एक-एक प्राणी तुम्हारे आशीर्वाद की वर्षा में भीग जाए।
ओ नववर्ष के ओजस्वी सूरज... हम सभी तुम से क्षण-क्षण की सफलता प्राप्ति के लिए सामर्थ्यवान होने का आशीर्वाद मांगते हैं। तुम्हारी स्नेह रश्मियों से भीगकर स्वयं को प्रकाशमय बनाने का प्रयास हम केवल और केवल तुम्हारी शुभवांछनाओं के साथ ही पूर्ण कर सकते हैं। इसलिए नववर्ष के नवक्शण को नवरूप देने के लिए हर घर के ऑंगन पर उतरती तुम्हारी सप्तरंगी किरणों का हार्दिक...हार्दिक स्वागत है।
भारती परिमल

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

मातृत्व को अनदेखा करता कैरियर

भारती परिमल
माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर, चेरी व्लेयर, मुक्ता घई, हॉलीवुड अभिनेत्री इमा थॉम्पस, सुशान सेरनडोन, पॉप सिंगर मेडोना, हेरी पॉटर की लेखिका जे.के. रोलिंग, व्ल्यूलेगून की अभिनेत्री ब्रुक शिल्डे, क्या इन महिलाओं में आपको कोई समानता दिखाई देती है? आप शायद सोच रहे होंगे कि ये सभी तो मीडिया में छाए रहने वाली महिलाएँ हैं, यही इनमें समानता है. आप सही हो सकते हैं, लेकिन इसके अलावा एक और सच यह भी है कि इन सभी महिलाओं ने बड़ी उम्र में मातृत्व का सुख प्राप्त किया है. यह भी नहीं चाहती थी कि बड़ी उम्र में मातृत्व प्राप्त किया जाए, पर इनमें से अधिकांश ने मातृत्व से अधिक कैरियर को महत्व दिया. इसलिए मातृत्व पाने की दौड़ में ये सभी पिछड़ गई.
ऐसी कौन सी नारी होगी, जिसे मातृत्व प्यारा न हो, पर आज की नारी एक मुट्ठी आसमान पाने केलालच में इतनी आगे बढ़ गई है कि वह अपनी छोटी-छोटी खुशियों को तिलांजलि देने में भी पीछे नहीं रहती. यह सच है कि बड़ी खुशियों को पाने के लिए छोटी खुशियों को त्यागना ही पड़ता है, किंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इन खुशियों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाए. आखिर ये बड़ी खुशियाँ हैं क्या? आज की नारी की स्वतंत्र और स्वच्छंद मानसिकता के अनुसार उनका केरियर का बुलंदी पर पहुँचना ही उनके जीवन का ध्येय है. इसे पाने के लिए वह जी-जान से जुट जाती हैं और उम्र का वह पड़ाव, जहाँ मातृत्व की घनी छाँव उन्हें सुकून दे, उसे भी छोड़ कर वे चल पड़ती हैं केरियर की सुनहरी, चमचमाती धूप को अपनी अंजुलि में भरने लिए. उनकी इस हिम्मत के आगे महात्वाकांक्षाओं का आकाश बाँहें पसारे उनका स्वागत करता है.
बड़ी उम्र में यानि कि 35 से 45 के बीच मातृत्व सुख पाना अब एक सामान्य घटना बन गई है. जीवन की इस आपाधापी में आज के युवा शादी के पहले अपने कैरियर की ओर ध्यान देते हैं. लड़कियाँ भी कम पीछे नहीं, 25 की उम्र तक तो वह अपनी पढ़ाई ही पूरी नहीं कर पाती. उसके बाद उनके सामने उनका कैरियर होता है, वे उसे सँवारने में लग जाती हैं. तीस पार करने के बाद शादी की शहनाई उनके ऑंगन में बजती हैं. उसके साथ-साथ कैरियर को भी सँवारने के लिए जद्दोजहद जारी रहती है. घर वालों की सुनहरी अपेक्षाएँ उनके हौसलों को और बुलंद करती हैं. इस दौरान वे ये भी भूल जाती हैं कि उन्हें मातृत्व भी प्राप्त करना है. यह खयाल उन्हें 35 से 38 के बाद आता है. तब तक शरीर मातृत्व के लिए अनफिट हो जाता है. व्यूटी पॉर्लर के चक्कर उम्र को तो छिपा सकते हैं, लेकिन गर्भधारण के लिए गर्भाशय की उम्र नहीं छिपा सकते. बडी उम्र में मातृत्व प्राप्त करने में सबसे अधिक परेशानी सामान्य प्रसव की आती है. लम्बी उम्र में नारी की सहनशक्ति भी उतनी अधिक नहीं रह जाती जो, 25 से 30 के बीच होती है, परिणाम स्वरूप नार्मल डिलवरी की संभावना बहुत कम रहती है. डिलवरी के बाद दूसरी समस्या स्तनपान की आती है. ब्रेस्ट फीडिंग के लिए अपने आपको पूरी तरह से असमर्थ पाती माँ अपनी संतान को ऊपरी दूध के भरोसे छोड़ देती है, जिससे बच्चा जन्म के साथ ही संक्रामक रोगों का शिकार हो जाता है.
प्रतिस्पर्धा के इस युग में अपने कैरियर या व्यवसाय पर अधिक ध्यान देना तथा बड़ी उम्र में मातृत्व सुख प्राप्त करना आज की लाइफ स्टाइल और प्रोडक्शन सिस्टम में आए बदलाव का मुख्य कारण माना जा सकता है. गायनेकोलॉजिस्ट के अनुसार बड़ी उम्र में माँ बनना, ऐसा केवल बड़े शहरों में ही होता है. शहरी स्तर पर एवं गाँव में ऐसे मामले कम ही देखने को मिलते हैं. वैवाहिक जीवन के लंबे अंतराल के बाद मातृत्व सुख प्राप्त करना और विवाह के 15-17 वर्ष बाद मातृत्व सुख प्राप्त करना अलग बात है. ऐसा कई मामलों में देखने में आया है कि केवल कैरियर या व्यवसाय को अधिक महत्व देने वाला वैवाहिक युगल आजीवन संतानहीनता की पीड़ा झेलने को विवश होता है. मातृत्व सुख संभव न होने की दशा में फिर टेस्ट टयूब बेबी की ओर ध्यान दिया जाता है. विज्ञान का सहारा लेकर महिलाएँ मातृत्व सुख प्राप्त तो कर लेती हैं, पर कहीं न कहीं यह टीस अवश्य रह जाती है कि यदि समय रहते हम अपनी संतान को जन्म देते, तो कितना अच्छा रहता?
एक महिला चिकित्सक के अनुसार स्त्रियों में 30 वर्ष के बाद और पुरुषों में 40 वर्ष के बाद प्रजनन क्षमता का हृास होने लगता है. आयु के बढ़ने के साथ ही महिलाओं की डिम्ब ग्रंथियों से स्त्री बीज कम संख्या में उत्सर्जित होने लगते हैं, और वे आसानी से निषेचित नहीं होते, साथ ही जीन संबंधी विकृतियाँ भी बढ़ जाती हैं. उम्र के साथ गर्भाशय की धारण क्षमता कम हो जाने से गर्भाशय गर्भस्थ भू्रण को सँभालने में असमर्थ रहता है. परिणामस्वरूप उन्हें गर्भपात अंतिम तीन महीनों में अर्थात् छठे से नौवें माह के बीच रक्तस्राव होना, अपरा का सामान्य स्तर से नीचे स्थित होना आदि जटिलताओं का सामना करना पड़ता है. डाक्टर के अनुसार 35 से अधिक उम्र की महिलाएँ कम उम्र की महिलाओं की अपेक्षा कई जीर्ण व्याधियों जैसे- संधिवात, उच्च रक्तचाप, मधुमेह आदि से गर्भावस्था के पूर्व ही पीड़ित हो जाती हैं, ये अवस्थाएँ गर्भावस्था के दौरान अधिक घातक सिध्द होती है.
यह सच है कि आज कैरियर यक्ष प्रश्न की तरह युवाओं के सामने खड़ा है. पर कैरियर ही सब कुछ नहीं है, इसके आगे भी जीवन है. अपनों के बीच अपना बनकर रहने का जीवन. कैरियर सँवारने के चक्कर में लोग यह भूल जाते हैं कि कैरियर को पकड़कर वे अपनों का साथ छोड़ रहे हैं. बड़ी उम्र में माँ बनने वाली महिला अपने जीवन के आखिर पड़ाव में बच्चे को केवल बड़ा ही कर पाती है. बच्चा अपनी कमाई का हिस्सेदार उन्हें नहीं बना पाता, क्योंकि तब तक पिता तो साथ छोड़ ही देते हैं और माँ लाचार हो जाती है. बेटे या बेटी की शादी नाती-पोते का सपना ऑंखों में ही रह जाता है. तब लगता है कि कैरियर को महत्व देकर हमने अपनी संतान को ही पीछे छोड़ दिया. जब संतान को वास्तव में सहारे की आवश्यकता होती है, तब उसे छाँव देने वाला कोई नहीं होता. तब भी क्या हम गर्व से कह सकते हैं कि कैरियर को महत्व देकर हमने सही किया, बोलो?
भारती परिमल

अपना घर

भारती परिमल
अपना घर होने का सपना भला किन ऑंखों में नहीं पलता। ऑंखे चाहे अमीर की हो, या गरीब की, वो यह सपना देखती है और इसके पूरा होते ही वह स्वयं को दुनिया का सबसे अमीर आदमी समझने लगता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इस विशाल धरती पर ज़मीन का एक छोटा सा टुकड़ा उसका अपना होता है। इसी टुकड़े पर बसती है अरमानों की दुनिया। बनाता है सपनों का महल जिसे हम घर ''अपना घर'' नाम देते हैं।
ऐसा ही सपना था प्रकाश बाबू का। नाम के अनुरूप अपने स्वभाव से उजाला फेलाने वाले प्रकाश बाबू कीज़िन्दगी में उजालों ने कम मगर अंधेरों ने ज्यादा दस्तक दी थी बल्कि यँ कहें कि पड़ाव डाल दिया था। अंधेरों के फंदे बुनते चले गए और इनमें परेशानियाँ, दु:ख-दर्द, तनाव, उलझनें उलझती चली गई। हर सुबह एक नई परेशानी के साथ जन्म लेती। तनाव मे दिन गुज़रता और आने वाले कल की फिक्र में दिन डूब जाता। चिंताओं की बनती-बिगड़ती रेखाओं के बीच रात का सफर तय होता और फिर एक नया दिन शुरू होता। जिससे जूझने के लिए प्रकाश बाबू स्वयं को तैयार करते।
यह तस्वीर हर उस मध्यम वर्गीय परिवार के मुखिया की मिल जाएगी जो अमीरी के ठाट-बाट अपना नहीं सकता, दिखावे की ज़िन्दगी जी नहीं सकता और समाज जिसे ग़रीबी की श्रेणी में रख नहीं सकता। ऐसे त्रिशंकु मुखिया की क्या हालत होती है यह वह खुद ही समझ सकता है। प्रकाश बाबू की हालत भी वैसी ही थी। उस पर मेहरबानी यह कि बड़ा परिवार जिसमें एक बूढ़ी माँ, तीन जवान होती बेटियाँ और जमाने की हवा के साथ रूख बदलते दो लड़के। हाँ गृहस्थी की चक्की में उनके साथ-साथ पिसने वाली जीवन संगिनी भी थी। परिवार का मुखिया होने के नाते घर का पूरा दायित्व उन पर ही था। जिसे वे निभाने की पूरी कोशिश भी करते। एक मशीन की तरह जुटे हुए थे वे अपनी गृहस्थी में। दुनिया की तमाम रंगीनियों से दूर उनकी ऑंखोें में एक ही सपना था- अपना घर बनाने का सपना। जिसके लिए वे पिछले कई वर्षो से मेहनत करते चले आ रहे थे। आर्थिक तंगी के बावजूद वे ओवर-टाईम करके, अपने हिस्से का चाय, सिगरेट और पान का खर्चा बचाकर उसे जोड़ते और बैंक में जमा करते। पत्नी कभी टोकती तो उसे समझााते हुए प्यास से कहते- एक ही तो सपना है मेरा। बस उसे पूरा हो जाने दो फिर तो आराम से रहँगा। अपने आप पर खूब खर्च करूँगा। यह कहते हुए, पैबंद लगी पेंट पहने, घिसी हुई चप्पल को जबरदस्ती पैर में डाले, चश्मे की छडी को अपनी ही हाथों दुरस्त करते वे निकल पड़ते मील की ओर। मील के काम में उन्होंने कभी लापरवाही नहीं की। हमेशा जी तोड़ मेहनत की। इसी मेहनत का नतीजा था कि बड़े बाबूओं की उस पर विशेष मेहरबानी थी। उनहें माह में 20-22 दिन का ओवर-टाईम मिल ही जाता था। इसीलिए उनका सपना बड़ा होता गया। नन्हीं रितु जब तीन साल की थी, तब उन्होंने यहसपना अपनी ऑंखों में बसाया था। आज रितु के साथ-साथ यह सपना भी जवान हो गया और उनकी ऑंखे बूढ़ी! मगर इतने वर्षो में भी वे इतने रूपये नहीं जोड़ पाए कि जिससे वे अपनी जमीन ले सके या बना-बनाया फ्लेट खरीद सके। प्रकाश बाबू मरने से पहले मरना नहीं चाहते थे। सपने टूटने से पहले टूटना नहीं चाहते थे। एक चिड़िया भी तिनका-तिनका जोड़ कर अपना घोंसला बनाती है। सरदी, गरमी और बरसात से बचने के लिए, अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए जी-तोड़ मेहनत करती है। फिर वे तो एक इंसान थे। यदि वे हास स्वीकार कर लेते तो उनकी अब तक की मेहनत बेकार चली जाती। इस उलझी हुई ज़िन्दगी में तमाम पेरशानियों के बावजूद उन्होंने आशाओं के दामन की ओट में सपनों के दीप को जलाए रखा था। यह बूझ न जाए, सतत जलता रहे, इसके लिए उन्होंने एक बहुत बड़ा फेसला किया। एक ऐसा फेसला जो काई भी कमज़ोर व्यक्ति नहीं कर सकता। ऐसा फेसला जो उन्हें उनकी वर्षो की पतीक्षारत् मंज़िल के करीब पहुँचा दे। इस फेसले से उन्होंने घरवालों को भी शामिल नहीं किया और चल पडे अपने सपने को पूरा करने की आखिरी कोशिश में। दो दिन पहले अख़बार में एक विज्ञापन छपा था- ''किडनी चाहिए'', ''कृपया वे ही व्यक्ति संपर्क करें जिनका ब्लड गू्रप 'बी-निगेटिव' हो।'' उनका ब्लड गू्र्रप 'बी-निगेटिव' ही था। वे विज्ञापन की कटिंग लेकर उसमें बताए गए हॉस्पीटल की ओर चल पड़े। इसे उस बीमार व्यक्ति का सौभाग्य कहें या प्रकाश बाबू का कि डॉक्टरों ने उनकी किड़नी निकालने का निर्णय लिया। करीब दो-तीन दिन की हॉस्पीटल की भाग दौड़ के बाद अंत में उन्होंने अपने शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग खोकर नोटों की मोटी गड्डियाँ पा ली। उनकी हथेली पर गड्डियों के रूप में ''अपना घर'' का सपना सच हो रहा था। अब उनके पास इस सपने को सच करने के लिए पर्याप्त रकम थी। फिर क्या था- शुरू हो गई उनकी भागमभाग। मंज़िल के करीब आने पर, थक कर चूर हो जाने पर भी इंसान के हौसले इतने बुलंद हो जाते हैं कि उन्हें थकान महसूस ही नहीं होती। यही हाल प्रकाश बाबू का था। उनकी ऑंखों में चमक थी। पैरों में वह गति थी, जो हवा को भी मात दे दे। आवाज़ में वह जोश कि सामने वाला उनकी बात मानने को सहज तैयार हो जाए। कई दलालों के चक्कर लगाने के बाद, कितने ही अपार्टमेंट देखने के बाद, कहीं पर बिजली पानी की सुविधा तो कहीं पर आसपास का वातावरण, तो कहीं पैसों की ऊँच-नीच। इन सबके बाद एक जगह सौदा जय हुआ मगर लाख कोशिश करने के बाद भी उन्हें ग्राउंड फ्लोर का मकान नहीं मिल पाया। इतने वर्षो की महनत से बचाए गए पैसे और किडनी बेच कर मिले पैसों से भी बढ़ती महंगाई में इतने पैसे जमा न हो सके कि वे नीचे का फ्लेट खरीद पाते। आखिर ग्राउंड फ्लोर की किमते ही इतनी अधिक थी कि उन्हें लेना प्रकाश बाबू के वश में न था। फिर भी एक रूपया भी कर्ज़ नहीं लेना चाहते थे।
यह जानते हुए भी कि एक किडनी के सहारे ज़िंदा रहने वाले मनुष्य के लिए सीढ़िया चढ़ना उतरना ज़िन्दगी से खेलने के बराबर होता है, फिर भी उन्होंने चौथी मंज़िल का मकान खरीद ही लिया। सिर्फ इसलिए कि उनका ''अपना घर'' होने का वर्षो का पलता सपना पूरा हो।
आज इस स्वप्न के पूरा होने पर प्रकाश बाबू बेहद खुश हैं। गृह प्रवेश में उन्होंने अपने तमाम छोटे-बड़े परिचितों को न्यौता दिया है। वे इस तरह से खुश नज़र आ रहे हैं, जैसे तीन साला का छोटा बच्चा अपने जन्म दिवस पर खुश होता है। उनकी भाग-दौड़ उम्र को पीछे धकेल रही है और वे अपने काम में पूरी तरह डूबे हुए हैं। घर की देहरी पर तोरण बांधना, कलश रखना, पंडित के आन पर उन्हें पूजन सामग्री देना। हर आने वाले का सत्कार करना। इस तरह सारे काम का बोझ चे खुद अपने कंधे पर उठाए हुए है। सावित्री कह भी रही है कि आप इतनी भागदौड मत कीजिए। हम सभी तो हैं। लेकिन वे किसी की भी सुनने को तैयार नहीं। आखिर गृह प्रवेश की रस्म पूरी हुई। ज़िन्दगी में पहली बार ही सही, लोगों ने प्रकाश बाबू के यहाँ दावत ली और मज़े से ली। सभी खुशी-खुशी अपने घर लौटे और सभी को विदा कर जब वे सीढ़िया चढ़ रहे थे तो दिन भर की थकान उनके चेहरे पर नज़र आई। हाथ चेहरे पर गए तो हथेली पसीने से तरबतर थी और माथा तप रहा था। उन्हें डॉक्टर की सलाह याद आई कि कुछ महीने तक आपको आराम करना पडेगा, भारी काम, दौड़भाग का काम या सीढ़िया चढ़ने-उतरने का काम रोकना पड़ेगा। इसके विपरित पिछले एक महीने से वे यही तो करते चले आ रहे थे। सीढ़ियों पर एक-एक कदम रखना उनके लिए भारी हो रहा था। पसीने से पूरा शरीर भीग गया था। कमज़ोरी के कारण पैर काँप रहे थे। वे अपने पूरे शरीर का भार उठाए हुए पूरी ताक़त के साथ एक-एक पैर ऊपर रख रहे थे। उनकी यह हालत देखकर लग ही नहीं रहा था कि ये वही प्रकाश बाबू हैं, जिन्होंने आज सारा दिन भागदौड़ की है। खुशी और उमंग में डूबे हुए प्रकाश बाबू के चेहरे पर थकान, निरशा नज़र आ रही थी। बड़ी मुश्किल से अपने आपको संभाले हुए वे चौथी मंज़िल तक पहुँचे। अपने घर की देहरी के पास पहुँचकर उनकी हिम्मत जवाब दे गई। वे वहीं गिर पड़े। देहरी पर दांयी तरफ रखा मिट्टी का कलश टूट गया और पानी बिखर गया। साथ ही प्रकाश बाबू भी ! ! ?
प्रकाश बाबू जो ज़िन्दगी भर अपने सपने को पूरा करने का प्रयास करते रहे, आज वो सपना पूरा भी हुआ तो उनकी ऑंखे पथरा गई और उनकी पथरीली ऑंखों में रह गया अपना घर का सपना - - । जो आज पूरा होकर भी अधूरा था।
भारती परिमल

ख़तरे में है भावी पीढ़ी का भविष्य

डॉ. महेश परिमल
एक बार किसी ने मजाक में कह दिया कि सन् 2035 में किसी एक दिन अखबार का एक शीर्षक लोगों को निश्चित रूप से चौंका देगा, शीर्षक होगा- एक महिला की नार्मल डिलीवरी हुई। यह बात भले ही मजाक में कहीं गई हो, पर सच तो यह है कि आजकल जिस तरह से सिजेरियन ऑपरेशन का प्रचलन बढ़ रहा है और माताएँ जिस तरह प्रसव वेदना से मुक्ति और इच्छित मुहूर्त में अपनी संतान का जन्म चाहते हैं, उसे देखते हुए तो अब नार्मल डिलीवरी किसी आश्चर्य से कम नहीं होगी। हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने शोध में यह चौंकाने वाला परिणाम दिया है कि यही हाल रहा, तो भावी पीढ़ी का भविष्य अभी से ही खतरे में है।
आजकल कोई भी शहरी बच्चा 'नार्मल' पैदा होता ही नहीं है। सुदूर गाँवों की स्थिति अच्छी है। इसका आशय यही हुआ कि आजकल जो बच्चे नार्मल पैदा नहीं हो रहे हैं, उसके पीछे शिक्षा का दोष है। सिजेरियन ऑपरेशन से होने वाले लाभ और हानि की जाँच के लिए ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधर्ाकत्ताओं ने लैटिन अमेरिका की 120 अस्पतालों में जन्म लेने वाले बच्चों की जाँच की, तो पाया कि इनमें से 33 हजार 700 बच्चे सिजेरियन ऑपरेशन से पैदा हुए थे, शेष 66 हजार 300 बच्चे नार्मल डिलीवरी से इस दुनिया में आए थे। इस शोध में यह चौंकाने वाली जानकारी मिली कि जिन महिलाओं ने बिना किसी आपात स्थिति सिजेरियन ऑपरेशन करवाया, उनकी मृत्यु दर में 70 प्रतिशत की वृध्दि हुई। ऑल इंडिया इंस्टीटयूट ऑफ मेडिकल साइंस की गायनेकोलोजिस्ट डॉ. नीरजा भाटिया का कहना है कि भारत में सिजिरियन डिलीवरी की संख्या 5 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई है। इसकी मुख्य वजह यही है कि शिक्षित महिलाएँ आजकल प्रसूति पीड़ा से घबराने लगी हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में होने वाले 6 डिलीवरी में से एक प्रसूति तो सिजेरियन ही होती है।अमेरिका में तो यह संख्या 29.1 जितनी अधिाक है।ब्रिटेन में 20 प्रतिशत महिलाएँ अपनी डिलीवरी सिजेरियन ऑपरेशन से ही करवाना पसन्द करती हैं।ब्राजील जैसे विकासशील देश में तो यह संख्या 80 प्रतिशत तक पहुँच गई है। भारत में अभी भी 70 प्रतिशत डिलीवरी सिजेरियन ऑपरेशन के माधयम से ही हो रही है। इसके पीछे चिकित्सकों की अहम् भूमिका है। जो महिलाएँ नार्मल डिलीवरी चाहती हैं, उनकी ओर विशेष धयान नहीं दिया जाता। उन्हें सिजेरियन ऑपरेशन के लिए बाधय किया जाता है। सरकारी अस्पतालों में मात्र 20 प्रतिशत ऑपरेशन ही सिजेरियन होते हैं, क्योंकि इन अस्पतालों में पदस्थ डॉक्टरों को सिजेरियन ऑपरेशन करने से कोई आर्थिक लाभ नहीं होता।
आज शिक्षित और उच्च वर्ग की महिलाओं में सिजेरियन ऑपरेशन करवाने का फैशन ही चल रहा है। ब्रिटनी स्पीयर्स, एंजेलिना जॉली और मेडोना जैसी अभिनेत्रियों की राह पर आज की आधुनिक माँए भी चल रही हैं। शहर की नाजुक महिलाएँ भी प्राकृतिक रूप से होने वाली प्रसूति से घबराने लगी हैं। डॉक्टरों के सामने वे कई बार स्वयं ही सिजेरियन ऑपरेशन करवाने का आग्रह करती हैं। ये नाजुक महिलाएँ यह सोचती हैं कि सिजेरियन ऑपरेशन से शरीर को कोई नुकसान नहीं होता। दूसरी ओर नार्मल डिलीवरी से शरीर को खतरा है। यहाँ तक कि जो माताएँ टेस्ट टयूब के माधयम से माँ बनती हैं, वे भी अपना पेट चीरवाकर सिजेरियन ऑपरेशन करवाना चाहती हैं। पिछले कुछ वर्षों में सिजेरियन ऑपरेशन से डिलीवरी होने का मुख्य कारण यह माना जा रहा है कि यह चिकित्सकों के लिए लाभकारी है। शिक्षित होने के कारण कई महिलाएँ आधुनिक टेक्नालॉजी पर अधिक विश्वास करती हैं, इसलिए वे भी सिजेरियन ऑपरेशन का आग्रह रखती हैं। कई बार तो स्थिति नार्मल डिलीवरी की होती है, फिर भी चिकित्सक सिजेरियन ऑपरेशन के लिए बाधय करते हैं। दिल्ली की ऑल इंडिया इंस्टीटयूट की डॉ. सुनीता मित्तल का कहना है कि सिजेरियन ऑपरेशन आज हमारे देश में एक संक्रामक रोग की तरह फैल रहा है।
एक बात ध्यान देने योग्य है कि जितने भी सिजेरियन ऑपरेशन होते हैं, उनमें से अधिकांश सुबह दस बजे से शाम 5 बजे तक ही होते हैं, वह भी शनिवार और रविवार को छोड़कर। ऐसा भी क्या होता होगा? नहीं, बात दरअसल यह है कि यदि रात में नार्मल डिलीवरी होनी है, तो चिकित्सकों को रात भर जागना पड़ेगा। इसके अलावा यदि चिकित्सक ने शनिवार या रविवार की डेट दी है, तो फिर हो गई छुट्टी खराब। ऐसे में कमाई भी नहीं होगी और धान भी नहीं मिलेगा। तो क्यों न नार्मल डिलीवरी वाले ऑपरेशन भी सिजेरियन कर दिए जाएँ और कमाई भी कर ली जाए। दूसरी ओर चिकित्सकों के अपने ज्योतिष होते हैं या फिर जो महिलाएँ उन पर विश्वास करती हैं, वे शुभ मुहूर्त पर अपनी संतान को लाने का प्रयास करती हैं, इसके लिए तो सिजेरियन ऑपरेशन ही एकमात्र उपाय है। किसी भी अस्पताल में नार्मल डिलीवरी करानी हो, तो उसका खर्च चार से पाँच हजार रुपए आता है। वहीं सिजेरियन में मात्र शल्य क्रिया का ही खर्च 15 से 20 हजार रुपए आता है। यदि इसमें ऐनेस्थिसिया, सहायक, पेडियाट्रिशियन और अस्पताल के खर्च को शामिल कर दिया जाए, तो यह बढ़कर 50 हजार रुपए तक हो जाता है। मधयम वर्ग के लिए तो यह खर्च करना आवश्यक हो जाता है। आजकल निजी अस्पतालों से जुड़े गायनेकोलोजिस्ट अपना वेतन तक नहीं लेते, वे जो सिजेरियन ऑपरेशन करते हैं, उनमें ही उनकी मोटी फीस शामिल होती है। ये कमाई दो नम्बर की होती है। हाल ही में मुम्बई के उपनगर घाटकोपर में एक गायनेकोलोजिस्ट के घर पर आयकर का छापा मारा गया, तो यह पाया गया कि उस महिला ने अपने पलंग के गद्दे में रुई के स्थान पर ठूँस-ठँसकर नोट भरकर उसे गद्देदार बनाया था। आजकल अधिकांश गायनेकोलोजिस्ट की कमाई सिजेरियन ऑपरेशन और गर्भपात से हो रही है।
सिजेरियन ऑपरेशन को निरापद मानने वाले यह भूल जाते हैं कि यह भी खतरनाक साबित हो सकता है। कोई भी सर्जरी बिना जोखिम के नहीं होती।इस ऑपरेशन में भी अधिाक रक्तस्राव होता है, यह संक्रामक भी हो सकता है।दवाएँ भी रिएक्शन कर सकती हैं।बच्चे को जिन हथियारों से खींचकर बाहर निकाला जाता है, उससे भी उसे चोट पहुँच सकती है। सिजेरियन ऑपरेशन के बाद महिला को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ होने में काफी वक्त लगता है। इसके अलावा वह महिला पूरे जीवनभर भारी वजन नहीं उठा सकती। ऑपरेशन के तुरंत बाद माँ अपने बच्चे को दूध भी ठीक से नहीं पिला सकती। जबकि यह दूध बच्चे के लिए अमृत होता है। इस स्थिति में बच्चा माँ से अधिक आत्मीयता का अनुभव नहीं करता। यदि माँ सिजेरियन के लिए अधिक उतावली होती है, तब तक पेट में बच्चे का पूरी तरह से विकास नहीं हो पाता। नार्मल डिलीवरी में बच्चे के माथा एक विशेष तरह के दबाव के साथ बाहर आता है, इससे उसका आकार व्यवस्थित होता है।पर सिजेरियन वाले बच्चे के माथे का आकार थोड़ा विचित्र होता है। इस तरह के बच्चे श्वसन तंत्र के रोगों का जल्दी शिकार होते हैं।
आजकल प्रसूति के पहले डॉक्टर कई पेथालॉजी टेस्ट के लिए कहते हैं। इसमें अल्ट्रासोनोग्राफी से लेकर डोपलर टेस्ट भी होता है।इस थोकबंद टेस्ट में यदि किसी एक की भी रिपोर्ट में थोड़ा-सा ऊँच-नीच हुआ, तो डॉक्टर मरीज को डरा देते हैं और सिजेरियन ऑपरेशन की सलाह देते हैं। डॉक्टर की इस सलाह के खिलाफ जाने वाली बहुत ही कम माताएँ होती हैं। मरीज की इस स्थिति का लाभ चिकित्सक खूब उठाते हैं और खूब कमाई भी करते हैं। एक तरफ विदेश में अब नार्मल डिलीवरी के लिए क्लासेस शुरू की जा रही हैं और भारत के ग्रामीण इलाकों में आज भी अधिकांश डिलीवरी नार्मल हो रहीं हैं, ऐसे में केवल शहरों में ही सिजेरियन ऑपरेशन का चस्का शिक्षित महिलाओं को लगा है। बालक का जन्म एक प्राकृतिक घटना है, डॉक्टरों ने अपनी कमाई के लिए इसे कृत्रिम बना दिया है। यदि हम सब प्राकृतिक की ओर चलें, तो हम पाएँगे कि वास्तव में संतान का आना प्रकृति से जुड़ा एक अचंभा है, न कि डॉक्टरों की कमाई का साधान। आज यदि यह कहा जाए कि आज की टेक्नालॉजी का अभिशाप सिजेरियन ऑपरेशन है, तो गलत नहीं होगा।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 27 दिसंबर 2007

गंगा की मचलती लहरों में जहरीले रसायनों का सैलाब

डा. महेश परिमल
हमारी पवित्र नदी गंगा नदी. भगीरथ के प्रयासों से पृथ्वी पर लाई जाने वाली गंगा नदी, मोक्षदायिनी गंगा नदी, जीवनदायिनी गंगा नदी, कष्टहरणी गंगा नदी आज विश्व की सबसे प्रदूषित नदी हो गई है. शायद किसी को विश्वास नहीं होगा कि भारत देश की पहचान गंगा नदी के पानी में आज ऑक्सीजन की मात्रा दिनों-दिन कम होती जा रही है. लेकिन अब तक न तो कानपुर के चर्म उद्योग का विषैला पानी का आना रुका, न ही लाशों को बहाने का काम रुका और न ही आसपास के कारखानों का रसायनयुक्त पानी का आना रुका, इन्हीं कारणों से आज गंगा नदी बुरी तरह से प्रदूषित हो गई है. भगीरथ ने इस गंगा नदी को पृथ्वी पर लाने के लिए जितनी तपस्या की थी, उससे कहीं अधिक प्रयास हमारी भावी पीढ़ी को उसकी पवित्रता को वापस लाने के लिए करना होगा, इसकी भी केवल संभावना ही है. क्योंकि अब गंगा नदी को किसी भी रूप में पवित्र नहीं किया जा सकता.
शास्त्रों में जिसे अत्यंत पवित्र और शुध्द कहा है, उसी गंगा नदी के जल में ऑक्सीजन की मात्रा तेजी से घट रही है. फलस्वरूप गंगा नदी की जल सृष्टि के लिए बड़ा खतरा उत्पन्न हो गया है. वैज्ञानिकों की दृष्टि में पानी में रहने वाले जलचर प्राणियों के लिए पानी में घुली हुई ऑक्सीजन आवश्यक होती है, उनके अनुसार पानी में घुलने वाली ऑक्सीजन का प्रमाण प्रति लीटर कम से कम पाँच मिलीग्राम होना चाहिए, परंतु गंगा जैसी पवित्र नदी में बहाए जाने वाले रसायनयुक्त कचरे से प्रदूषण की मात्रा बढ़ने के कारण गंगा जल में ऑक्सीजन का प्रमाण क्रमश: खूब तेजी से घटना चिंता का वायज बन गया है.
पर्यावरणविदों ने गंगाजल प्रदूषण पर चल रहे शोध में चौंकाने वाले परिणाम दिए हैं. कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना जैसे बड़े शहरों की तमाम गंदगी के साथ खतरनाक रसायन गंगा के पानी को ंजहरीला बना रहे हैं. गंगा नदी के प्रदूषण पर शोध कर रही छात्रा वंदना श्रीवास्तव ने कहा है कि गंगा जल में ऑक्सीजन का प्रमाण तेजी से घट रहा है. गंगा जल में ऑक्सीजन का प्रमाण 680 लीटर में 9 से 11 मिलीग्राम है. वैसे देखा जाए तो पेयजल में ऑक्सीजन की मात्रा प्रति लीटर 8 मिलीग्राम से अधिक होनी चाहिए. जबकि हुगली के पास गंगा में यह मात्रा 1.2 मिलीग्राम से दो मिलीग्राम प्रति लीटर हो गई है. इस कारण जल में रहने वाले प्राणियों की संख्या लगातार कम होते जा रही है. गंगा नदी के प्रदूषण का मुख्य कारण उद्योगों का और गटर का पानी है. आपको आश्चर्य होगा कि कानपुर के चर्म उद्योग के 200 कारखानों का अतिजहरीला क्रोमियम वाला लगभग 20 करोड़ लीटर का दूषित पानी गंगा में बहाया जाता है. इससे गंगा नदी में पलने वाली डॉल्फिन अब लुप्तप्राय हो गई है. घड़ियाल, मगरमच्छ और कछुए तेजी से लुप्त हो रहे हैं. मछलियों की हालत तो और भी खराब है, उसकी कई प्रजातियों पर मौत का साया मँडरा रहा है.
हाल ही में स्वच्छ गंगा रिसर्च लेबोरेटरी ने बनारस के तट पर शोध करके यह निष्कर्ष निकाला कि गंगा में मानव मल-मूत्र में होने वाले वैक्टिरिया की मात्रा 13 गुना अधिक थी, जो अब बढ़कर 300 गुना हो गई है. पहले गंगा के निर्मल जल में साफ दिखाई देने वाली मछलियाँ अब नहीं दिखती. एक अंदाज के अनुसार गंगा में रोज 134 करोड़ लीटर गटर का गंदा पानी बहाया जाता है. इस कारण लोग अब गंगा नदी को 'गटर गंगा' भी कहने लगे हैं. इलाहाबाद और वाराणसी में आज भी गंगा नदी में गटर का पानी बहाया जाता है. राज्य के प्रदूषण विभाग का कहना है कि जल के शुद्धिकरण के लिए अपनाई जाने वाली तकनीक क्रोमियम, कैडमियम और सीसे जैसी अतिजहरीले प्रदूषक तत्व को प्रभावित कर पाए, इसकी संभावना ही नहीं है. इस नदी के किनारे बने कारखानों से आते जहरीले रसायनों ने इसे इतना प्रदूषित बना दिया है कि इसका पानी पीने योग्य नहीं रह गया है. अब वह बात तो एक सपना बनकर रह गई है कि गंगा नदी का पानी कभी गंदा नहीं होता. अब तो यही कहा जा सकता है कि यदि मृत्यु प्राप्त करना है तो गंगा जल ही पी लो. इस पानी का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि अब इससे सिंचाई भी नहीं हो सकती. निश्चित रूप से इस पानी से कई खेतों में सिंचाई हो रही होगी, अब आप ही समझ सकते हैं कि उन खेतों पर लगने वाली फसल कितनी सुरक्षित और खाने योग्य होगी?
यही गंगा नदी है जिसे लोग मोक्षदायिनी कहते हैं, लेकिन यही नदी आज अपने मोक्ष के लिए तरस रही है. मौत के बाद हर कोई गंगा को ही याद करता है. इसी गंगा में रोज सैकड़ों लाशें बहाई जाती हैं. कुछ जगहों तो गंगा का पानी काला हो गया है, क्योंकि उसमें अग्नि संस्कार के बाद शेष राख, कोयला तथा अधजली लकड़ियाँ विसर्जित की जाती है, जिससे कार्बनिक तत्वों की मात्रा बढ़ रही है और ऑक्सीजन की मात्रा कम हो रही है.
भगीरथ के अथक प्रयासों की कहानी कहने वाली गंगा अब बुरी तरह से प्रदूषित हो चली है. यदि इसकी जानकारी भगीरथ को पहले हो जाती, तो शायद यह गलती वे कभी नहीं करते. अब तो गंगा जल से सौगंध भी नहीं ली जा सकती. इससे तो अच्छा है कि ऍंजुरि में किसी कुएँ का ही पानी ले लिया जाए. हाँ यदि किसी को आत्महत्या करनी हो, तो निश्चित रूप से वह गंगा जल पीकर अपनी इहलीला समाप्त कर सकता है. निकट भविष्य में किसी नारी के लिए यह कहना कि वह गंगा की तरह पवित्र है, एक अपशब्द बनकर रह जाएगा. कोई भी सबला नारी यह आरोप बर्दाश्त नहीं कर पाएगी. गंगा माँ आज प्रदूषित हो गई है और उसे प्रदूषित करने वाले उसके ही अपने पुत्र हैं, जिन्होंने संभवत: यह शपथ ले रखी है कि देश की कोई भी नदी को हम पवित्र नहीं रहने देंगे.
डा. महेश परिमल

बुधवार, 26 दिसंबर 2007

घर को लगी है आग घर के चिरागों से

; डॉ. महेश परिमल
देश में एक के बाद एक धड़ाधड विस्फोट हो रहे हैं। कभी अजमेर शरीफ, कभी लुधियाना तो कभी घाटी में।विस्फोट अब देश का स्थायी भाव बन गया है। एक विस्फोट की स्याही सूखने भी नहीं पाती कि दूसरा विस्फोट देश की सुरक्षा पर एक और सवालिया निशान छोड़ जाता है। देश के नेता भले ही यह कहते रहे कि यह पड़ोसी मुल्क की चाल है, पर इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि पड़ोसी मुल्क भी तब तक कुछ नहीं कर सकता, जब तक हमारे ही लोगों की शह उसे न मिले। पेड़ कितना भी शोर क्यों न मचा लें कि वे अब कुल्हाड़ी का अत्याचार नहीं सहेंगे, चाहे कुछ भी हो जाए हम अवश्य विरोध करेंगे। पर वे पेड़ यह भूल जाते हैं कि कुल्हाड़ी पर लगा बेत आखिर लकड़ी का ही है, पेड़ का एक अंश है। तब भला कैसे हो सकता है विरोध? यदि बेत ही विरोध करना सीख जाए, तो यही पहला कदम होगा अत्याचार के विरुध्द। पर क्या ऐसा संभव है? जब हम अपने ही घर में छिपे हुए गद्दारों को नहीं सँभाल पा रहे हैं, तो फिर विदेशी गद्दारों से कैसे निबट पाएँगे?
हाल ही में भारत की गुप्तचर संस्था ''रॉ'' के विषय में मेजर जनरल वी. के. सिन्हा ने अपनी किताब में जो रहस्योद्धाटन किया है, वह एक-एक भारतीय को शर्मसार करने के लिए काफी है। जब देश की गुप्तचर एजेंसियों का यह हाल है, तो फिर सामान्य स्थिति में किस सुरक्षा की बात की जा सकती है? किताब में जो विस्फोटक जानकारी दी गई है, वह कुछ इस प्रकार है :-7 मार्च 2006 को वाराणसी में हुए बम विस्फोट में 20 लोग मारे गए, 11जुलाई 2006 को मुम्बई की लोकल ट्रेनों में रखे गए बम धमाकों से 186 लोग मारे गए, इसमें सम्पत्ति का नुकसान हुआ, सो अलग, 8 सितम्बर 2006 महाराश्ट्र के मालेगाँव में हुए बम विस्फोट में 28 लोग मौत के शिकार हुए, 18 मई 2007 को हैदराबाद की मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट में 13 लोग हताहत हुए, उसके बाद फिर वहीं हैदराबाद में ही 25 अगस्त को ही हुए भयानक विस्फोट में 40 निर्दोशों ने अपनी जान गवाई। इसके बाद अभी हाल ही में लुधियाना के एक छबिगृह में हुए विस्फोट में 6 और अजमेर शरीफ की दरगाह में 12 लोग मारे गए।
इन मामलों में देश की तमाम गुप्तचर एजेंसियाँ केवल हवा में सुबूत खोज रही हैं। दूसरी ओर एक जानकारी के अनुसार देश की चीफ कंट्रोलर ऑफ एक्सप्लोजिव्स याने विस्फोटक पदार्थों के नियामक का मानना है कि इन विस्फोटों को हमारे देश में ही बनाया गया है। वरिष्ठ नियामक द्वारा दिए गए ऑंकड़े एक आम आदमी को कँपकँपा देने वाले हैं। 2004 से लेकर 2006 के बीच 86 हजार 899 डिटोनेटर्स, 20 हजार 150 किलोग्राम विस्फोटक, 52 हजार 740 मीटर डिटोनेटिंग फ्यूज और 419 किलो जिलेटीन स्टीक की चोरी हो चुकी है। इतनी सामग्री से तो देश के कई महानगरों में भयानक विस्फोट हो सकते हैं। चोरी हुई ये सामग्री कहाँ किसे मिली और उसका क्या हुआ, इसकी जानकारी किसी को नहीं है। इस तरह की खबरें इस देश पर आसन्न संकट को स्पष्ट करती हैं।
देश में विस्फोटकों के 21 हजार लायसेंसधारी उत्पादक हैं। पहाड़ों पर रास्ता बनाने के लिए, पुल या सड़क बनाने के लिए या फिर खदानों में विस्फोट करने के लिए विस्फोटकों की आवश्यकता होती है। इसके लिए अमोनियम नाइट्रेट और पोटेशियम क्लोरेट जेसे रसायनों की जरूरत पड़ती है। ये रसायन खाद बनाने में और कोयले की खदानों में खूब उपयोगी हैं।आश्चर्य इस बात का है कि ये रसायन आसानी से बाजार में मिल जाते हैं। खुले आम बिकने वाले इन रसायनों की बिक्री में किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है। अमोनियम नाइट्रेट को फ्यूल आइल के साथ एक निश्चित मात्रा में मिलाया जाए एक विनाशकारी बम बन सकता है। चिंता का कारण यह है कि इतने विशाल पैमाने पर विस्फोटकों की चोरी हुई और हमारे गृह सचिव और रक्षा सचिव से बार-बार लिखित रूप से ध्यान में लाया गया, फिर भी विस्फोटकों की चोरी रुकी नहीं। यह भी संयोग है कि आतंकवादी हमले भी भी रुक नहीं रहे हैं। राष्टीय सुरक्षा सलाहकार एम. के दृ नारायणन और देश के गृह मंत्री शिवराज पाटिल बार-बार कह रहे हैं कि त्योहारों के इस मौसम में कभी भी कहीं भी विस्फोट हो सकते हैं, उसके बाद भी विस्फोटकों की चोरी के खिलाफ किसी प्रकार के कड़े कदम नहीं उठाए जा रहे हैं।
13 अप्रैल 2007 को केंद्र के गृहसचिव मधुकर गुप्ता ने इसे स्वीकार करते हुए कहा कि चोरी हुए विस्फोटकों को नक्सलग्रस्त क्षेत्रों में इस्तेमाल में लाया जा रहा है, यह चिंताजनक है। पर क्या उनके चिंता करने से समस्या का समाधान हो जाएगा? ये चोरी बिना किसी मिलीभगत से हो ही नहीं सकती। पहले उन गद्दारों का पता लगाया जाए, जिन्होंने इस चोरी में गद्दारों का साथ दिया है। वे भी कम गद्दार नहीं हैं। हाल ही में भगवान राम के खिलाफ न जाने क्या-क्या विश उगलने वाले करुणानिधि के ही तमिलनाड़ु में ही एक विस्फोटक उत्पादक के यहाँ से पिछले दो वर्शों में 51 हजार मीटर डिटोनेटर फ्यूज की चोरी हुई, उसी तरह श्रीलंका के नौकादल ने सागर के मध्य में एक भारतीय जहाज से 61 हजार डिटोनेटर बरामद किया था। इस पर किसी अरब कंपनी का लेबल था, परन्तु ये सभी डिटोनेटर्स हैदराबाद की एक कंपनी ने ही बनाया था।
ठससे यह स्पष्ट हो गया है कि पड़ोसी देश ने हमारे देश के न जाने कितने धनलोलुप लोगों को खरीद लिया है। इन्हीं गद्दारों की मदद से ही देश के विभिन्न स्थानों में बनने वाले विस्फोटकों की चोरी हो रही है। यही विस्फोटक ही आतंकवाद और नक्सलवाद से जुड़े लोगों को काम आ रहा है।भारत में होने वाले तमाम आतंकवादी हमले में इन्हीं विस्फोटकों का प्रयोग हो रहा है। विस्फोटकों का उत्पादन करने वाले राज्य हैं :-गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाड़ु, झारखंड और महा ऱाष्ट्र। इन सभी स्थानों से बड़े पैमाने पर विस्फोटकों की चोरी हो रही है। निश्चित है इसमें स्थानीय नागरिकों की मिलीभगत होगी। तो फिर सरकार इन्हें क्यों नहीं पकड़ती?
इन स्थानों से विस्फोटकों की चोरी पिछले दो-तीन वर्षॊं से लगातार जारी है। यदि इसके मूल में जाएँ, तो स्पश्ट हो जाएगा कि इसमें राज्यों के कई नेताओं की भी मिलीभगत है।केंद्र और राज्यों के बीच लगातार पत्र-व्यवहार जारी रहने के ेबाद भी यदि विस्फोटकों की चोरी हो रही है, तो इसका आशय यही है कि देश के आम आदमी और देश की विपुल संपदा की चिंता न तो केंद्र सरकार को है और न ही राज्य सरकार को। सब कुछ रामभरोसे चल रहा है।
; डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 25 दिसंबर 2007

खुशियों को गले लगाएँ

भारती परिमल
इंसान को हर क्षण जिसकी तलाश होती है, वह उसे पाना चाहता है, पर उसे मिलती नहीं, उसे पाने के लिए इंसान एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है, पर उसके हिस्से में वह चीज कम ही आ पाती है. जानते हैं क्या है वह चीज, वह अदृश्य चीज हे खुशी. होती तो यह हमारे भीतर ही है, पर हम उसे तलाशते रहते हैं वहाँ, जहाँ वह होती ही नहीं. बल्कि उसे तो हमारे भीतर ही पाया जा सकता है.
खुशी एक अहसास है, एक ऐसा अहसास जिसे केवल महसूस किया जा सकता है, इसे दिखाया नहीं जा सकता क्योंकि जो दिखाया जाता है, वह केवल उसका बनावटीपन ही होता है. प्रदर्शन में खुशी अपनी मौलिकता खो देती है. लेकिन फिर भी यह जीवन की रीत है कि इंसान की खुशी भी उसके स्वभाव में झलकती है और उसका गम भी छुपाए नहीं छुपता.
आखिर यह खुशी है क्या? इसे बाजार में तो बिकते नहीं देखा? न किराने की दुकान, न सुपर मार्केट और न ही इंटरनेट कैफे पर यह मुँहमाँगी कीमत पर भी देखने को नसीब हुई. फिर आखिर इसे हम लाएँ कहाँ से? बड़ी सीधी और सच्ची बात है, यह जो दो अक्षर की छोटी-सी खुशी है, वह न तो सुपर मार्केट की शोभा है और न ही इंटरनेट पर क्रेडिट कार्ड पर बिकने वाला खुबसूरत उपहार. यह तो मनुष्य के मन के भीतर की आवाज है, एक गुनगुनाहट है, सुर है, ताल है और झंकार है. खुशी बाहर ढूंढ़ने से नहीं मिलती. यह कस्तूरी मृग की तरह मन के भीतर छुपी होती है. इसकी सुगंध जब बिखरती है, तो पूरा जीवन महक उठता है. खुशी एक कुदरती शक्ति है, जो जीवन को सबल बनाती है.
कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य जीवन के कुएँ को आंसुओं से लबालब देखकर दु:खी हो जाता है, हताश हो कर वह कुछ भी नहीं सोच पाता किंतु इसी कुएँ के जगत के पास उग आई छोटी सी दूब को देखोगे, तब उसे एक बार अपने हाथों से छूकर देखने की कोशिश करना, कितना मुलायम सा अहसास होगा. यही है खुशी. अब इसी दूब को प्यार से सहलाओ, तब आपको लगेगा कि अरे! इसे ही तो मैं ढूँढ़ रहा था. काश पहले ही कुएँ के बजाए इसे देख लेता, तो हताशा ही फटक नहीं पाती.
खुशी और गम एक सिक्के के दो पहलू हैं, इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. जीवन के तराजू में हम खुशी और गम के बीच लटक रहे हैं. कभी खुशी का पलड़ा भारी होता है, तो कभी गम का, लेकिन दोनों ही हालात में हमारा लटकना तय है. हम जिस छोटे से मिट्टी के गमले में फूल उगाकर उसकी महक से खुश होते हैं वही गमला कभी कुम्हार की भट्टी में तपकर गम के अहसास को छूकर पकता है और हमें इस सुगंध का हकदार बनाता है. बंसी की जो धुन मन को मोह लेती है, हमें आत्मिक सुख या खुशी देती है, उसी बंसी को अपनी छाती में तेज धारदार चाकू का प्रहार झेलना पड़ता है. पीड़ा की यही छटपटाहट ही बाद में कोमल संगीत पैदा करती है. जब यही बंसी किसी दु:खी इंसान के होठों से लगती है, तो दर्द की रागिनी छेड़ती है.
आशय यह है कि हम केवल परिणाम को ही देखते हैं. सृजन के पीछे की पीड़ा हम देखना ही नहीं चाहते या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं. ये सच्चाई हमारी ईमानदारी पर चोट करती है, नतीजा यह कि हम न तो पूरी तरह से खुश हो पाते हैं और न ही पूरी तरह से दु:खी.
कहते है कि स्त्री धरती की तरह होती है, किंतु केवल स्त्री को ही नहीं इस पूरे मानव समुदाय को धरती की तरह होना चाहिए. धरती जो अपनी छाती पर हल की नोक से एक टीस के साथ पीड़ा झेलती है, इसके परिणाम में वह हल चलाने वाले को देती है एक लहलहाता विश्वास. उसी तरह इंसान को भी अपना दु:ख-दर्द छुपाकर हमेशा खुशियों को बिखेरने वाला होना चाहिए. खुशी को जितना बाँटोगे, वह दोगुनी हो कर हमारे पास आएगी.
खुशी वहीं हैं, जहाँ हमारी इच्छाएँ हैं, हमारे सपने हैं यानि कि हमारे मन में, हमारी ऑंखों में, विचारों में, व्यवहार में, पल-पल बीतते पलों में और लम्हों में. बस जरुरत है चिंताओं की लकीरों को कुरेद कर इस खुशी को नया आकार देने की. हमारे आसपास का वातावरण जो हमें उदासी या गम देता है, कई बार उसी वातावरण में पूरी तरह से डूब जाने पर, उसके प्रति स्नेह जगाने पर हमें उसी गम में बेपनाह खुशी महसूस होती है.
खुशी को अपना बनाए रखने के कुछ टिप्स :-
1. जब आप बेहद उदास हाें, तो कोई गीत गुनगुनाएँ या अपनी पसंद का संगीत सुनें. गीत या संगीत भी ऐसा, जो उदासी से भरा न होकर खुशियों से सराबोर हो.
2. प्रार्थना में बड़ी शक्ति होती है, एकांत में बैठ कर प्रार्थना करें या उन लोगों को दिल से दुआ दें, जिन्हें आप बिल्कुल नहीं जानते. एक नन्हीं चींटी से लेकर अनदेखा- अनजाना रोबोट भी अपनी दुआ में शामिल करें.
3. दृढ़तापूर्वक यह सोचें कि खुश होना सबका हक है और उन सभी में मैं भी शामिल हूँ.
4. जीवन में बीते हुए दिनों के खुशी के पलों को याद करें, यदि पुरानी डायरी या एलबम भी होें, तो उसकी मदद लें.
5. छोटे बच्चों के साथ समय बिताएँ और उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनें.
6. स्वयं को प्रकृति से जोड़ें. पक्षियों का कलरव, बादलों का आकार, उगते या डूबते सूरज की रक्तिम आभा से लाल हुए आकाश को निहारें.
7. आप जब अपने ध्येय को लेकर डटे हुए थे, तब कितनों ने आपका साथ दिया था, और उसे पूरा करने में आप कितने सफल रहे थे, उसे याद कर फिर से अपने भीतर नई ऊर्जा लाने का प्रयत्न करें.
8. जीवन में प्राप्त की गई सफलताओं को याद करें.
9. अपने बचपन के दिनों को याद करें, जो आपको सबसे प्यारे हों.
10. अपने पुराने शौक जिन्हें आप छोड़ चुके हैं, उन्हें फिर से उभारने का प्रयास करें.
11. अपनी असफलताओं को याद करें, यहीं हमें बताएँगी कि हमने किस तरह उन पर विजय प्राप्त की थी.
12. महापुरुषों की जीवनी पढ़ें, आप पाएँगे कि ये तो हमसे भी अधिक विफल हुए हैं.
13. अपने आप से बात करें. इस स्थिति में हम खुद के साथ होंगे. तब हमारे भीतर का इंसान बातचीत में बाहर आएगा और हमें नए रास्ते सुझाएगा.
14.बचपन की वह मार याद कीजिए, जो आपको किसी गलती पर पड़ी थी. आप सोच-सोचकर रोमांचित हो उठेंगे.
15. अपनी तमाम बेवकूफीभरी शरारतों को याद करें, आप पाएँगे कि कितने सुहाने थे वे दिन. इन्हीं दिनों की याद आपको अतीत की सैर करा देगी, और आप तरोताजा हो जाएँगे.
भारती परिमल

इलाज के बहाने भारत भ्रमण

डॉ. महेश परिमल
लोग कहते हैं कि भारत में बहुत महँगाई है, पर यह महँगाई हमारे लिए है. विदेशों में रहने वाले भारतीयों के लिए भारत से सस्ता देश और कोई नहीं है. वे यहाँ दो काम लेकर आते हैं. एक तो देश का भ्रमण और दूसरा मुख्य कारण होता है किसी बीमारी का इलाज करवाना. आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि भारत में इलाज इतना सस्ता है कि भारतीय मूल के लोग या फिर विदेशी अपने असाध्य रोग का इलाज करवाने के लिए सीधे भारत ही आते हैं. इसका आशय यह हुआ कि भारत भ्रमण और इलाज साथ-साथ हो जाता है और उनके रिश्तेदारों को भी यह लगता है कि विदेश में रहने के बाद भी इन्हें अपनी माटी का मोह खींच लाता है. कितने भले हैं ये हमारे भारतीय विदेशी. हमारे लिए यह मुगालता अच्छा है. सच्चाई तो यही है कि वे अपना इलाज करवाने के लिए भारत आते हैं.
इस व्यवसाय को आजकल 'मेडिकल टूरिज्म' का नाम दिया गया है. लगभग दस हजार करोड़ का लाभ देने वाला यह व्यवसाय आज लगातार फैल रहा है. जैसे-जैसे विदेशों में इस भारतीय व्यवसाय के बारे में पता चलेगा, वेसे-वैसे भारत में ऑपरेशन करवाने के िलिए आने वाले लोगों की संख्या दोगुनी हो जाएगी.
जिस वस्तु की कीमत विदेश में आठ लाख रुपए है, वही चीज भारत में केवल दो लाख रुपए में आसानी से प्राप्त हो जाती है.विदेशी अखबारों में इन दिनों एक विज्ञापन लोगों को आकर्ष्ाित कर रहा है, जिसमें कहा गया है कि मात्र चार हजार डॉलर में दस दिवसीय भारत भ्रमण और हृदय का ऑपरेशन या फिर अन्य कोई भी शारीरिक जाँच कराई जा सकती है. विदेशों में एक ऑपरेशन में जितना खर्च होता है, उससे कहीं कम खर्च में भारत में समुचित इलाज हो जाता है. जैसे अमेरिका में घुटने के ऑपरेशन के लिए वेटिंग लिस्ट में छह माह बाद नम्बर आता है, जबकि भारत में अब ऐसे बड़े पैमाने पर चिकित्सालयों की स्थापना हो चुकी है, जहाँ चुटकियों में ऑपरेशन की तारीख मिल जाती है, साथ ही यहाँ कुशल सर्जन भी सहजता से मिल जाते हैं. इस व्यवसाय के अंतर्गत धन का भुगतान किसी भी तरह से किया जा सकता है. चाहे प्रवासी चेक दें, नकद दें, या फिर के्रडिट कॉर्ड के माध्यम से दें.
एक समय था जब दक्षिण भारत के त्रिवेंद्रम और चेन्नई में चलते प्राकृतिक चिकित्सा केंद्र में विदेशियों की लाइन लग जाती थी. लोग थोक के भाव में वहाँ पहुँचते थे. पंचकर्म चिकित्सा और मसाज केंद्रों की सुविधाओं का 15 दिनों में लाभ उठाकर अपनी कायाकल्प कर वे अपने देश लौट जाते थे. इसके पीछे यही मुख्य कारण था कि यहाँ इलाज में विदेश की अपेक्षा करीब साठ प्रतिशत कम खर्च होता था. इस तरह से कम खर्च के कारण वे चिकित्सा के साथ-साथ भारत भ्रमण भी आसानी से कर लेते थे.
जहाँ विदेशों में मोतियाबिंद के ऑपरेशन में डेढ़ से दो लाख रुपए लगते हैं, वहीं भारत में यह ऑपरेशन कुशल चिकित्सकों द्वारा मात्र 25 हजार रुपए में ही हो जाता है. यह तो हुआ निजी अस्पतालों का खर्च, पर भारत में यही ऑपरेशन यदि किसी संस्था के माध्यम से या फिर ट्रस्ट की अस्पतालों में हो, तो यह खर्च मात्र पांच हजार ही आता है. लायंस, रोटरी जैसी कई सामाजिक सेवाभावी संस्थाएँ हैं, जो यह ऑपरेशन मुफ्त में कर देती हैं. भारत में नेत्र शिविर के माध्यम से एक ही दिन में चार से पाँच सौ मोतियाबिंद के मुफ्त ऑपरेशन की बात जब विदेश में रह रहे गुजरातियों ने सुनी, तो वे हतप्रभ रह गए.
विदेशों में हृदय की शल्य क्रिया में जहाँ 15 से 20 लाख रुपए खर्च आता है, वहीं भारत में यही ऑपरेशन मात्र दो से ढाई लाख रुपए में हो जाता है. यही हाल न्यूरो सर्जरी का है. इसमें भी विदेशों में आठ से दस लाख रुपए खर्च होते हैं, वही ऑपरेशन भारत में मात्र दो से तीन लाख रुपए में आसानी से हो जाता है. आपको यह जानकर आश्वर्य होगा कि पिछले साल डेढ़ से दो लाख लोग भारत में विदेश से अपना इलाज करवाने के लिए आए थे. यह जानने योग्य है कि यह 'मेडिकल टूरिज्म' हर साल दो हजार करोड़ का धंधा करता है, जो कि आने वाले आठ वर्षों में दस हजार करोड़ रुपए का हो जाएगा. मात्र बंगलादेश से ही इस वर्ष आठ हजार मरीज भारत में आकर अपना इलाज करवा चुके हैं. भारत में हेल्थ केयर क्षेत्र से जुड़े लोगों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि यह व्यवसाय उन्हें रातों-रात करोड़पति बना सकता है. जबकि इस व्यवसाय में सरकार से कोई मदद प्राप्त नहीं होती. यह बात ध्यान देने योग्य है कि पिछले कुछ वर्षों से भारत के कई अस्पताल अत्याधुनिक मशीनों से लैस हो गए हैं.
वैसे तो भारत को पर्यटन को लेकर काफी चिंता है, लेकिन सरकार का ध्यान इस मेडिकल टूरिज्म की ओर है ही नहीं, जो बिना किसी परिश्रम के दिनों-दिन प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ रहा है. सरकार यदि इस दिशा में थोड़ा सा भी ध्यान दे, तो काफी विदेशी मुद्रा हमें प्राप्त हो सकती है. दूसरी ओर इन्हीं विदेशियों के कारण भारत के ही गरीब लोगों को महँगी चिकित्सा प्राप्त हो रही है. अत्याधुनिक मशीनों से लैस अस्पतालों को चलाने वाले पूँजीपतियों के सामने देश के गरीबों की की कोई औकात नहीं है. वे महँगा इलाज करवा नहीं सकते, और अस्पताल वाले विदेशियों के लिए अपने पलक पाँवड़े बिछाकर रख रहे हैं. विदेशियों को चिरयौवन प्राप्त करने की चिकित्सा देने वाले उसी अस्पताल में भारतीयों को कोई लाभ नहीं होता. इसके लिए चिकित्सक उन्हें विदेश जाने की सलाह देते हैं, कैसी विडम्बना है?
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 22 दिसंबर 2007

सांता का संदेश : प्यारे बच्चों के नाम

भारती परिमल
प्यारे बच्चो,
मैं तुम्हारा चहेता सांता, हर साल क्रिसमस पर तुमसे मिलने आता हूँ और तुम्हारे द्वार पर उपहारों की वर्षा करता हूँ। मैं जानता हूँ, अपने मनपसंद उपहारों को पाने की चाहत के साथ तुम सभी नन्हें मासूम बड़ी बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा करते हो। तुम्हारी इसी प्रतीक्षा को पूरा करने और विश्वास को अटूट बनाए रखने के लिए ही हर साल क्रिसमस की रात को मैं आता हूँ। गीतों की सुमधुर स्वर लहरियाँ और घंटियों की गूँज के बीच जब ईश्वर को याद किया जाता है, तो उन स्मृतियों में ही कहीं न कहीं मैं भी शामिल होता हूँ। तुम्हारी ऑंखों के इंद्रधनुषी सपनों में जहाँ अनेक कल्पनाएँ साकार होती हैं, वहाँ मेरी भी छवि बनी हुई है, जो मेरी अनुपस्थिति में माता-पिता और स्नेहीजनों के स्नेह के साथ साकार रूप लेती है। उनसे अपनी पसंद का उपहार पाने के बाद तुम फूले नहीं समाते और एक क्षण को ये सोच कर अपने आपको दिलासा देते हो कि इस बार सांताक्लास नहीं तो क्या, मम्मी-पापा से तो मनपसंद उपहार पा लिया। अब अगले साल फिर सांताक्लास का इंतजार करेंगे। इस प्रकार हर साल मेरी प्रतीक्षा करते-करते तुम बचपन को अलविदा कह कर एक नए सफर की शुरुआत करते हो।
प्यारे बच्चो, जब तुम सभी रात के जगमगाते सितारों के बीच अपनी आशा और विश्वास का एक नया सितारा बनाकर उसे छत पर लटकाए हुए मेरी प्रतीक्षा करते हो, तो मैं अपने आपमें एक अनोखी खुशी और गर्व महसूस करता हूँ। तुम्हारे इसी विश्वास को बनाए रखने के लिए मुझे हर साल बर्फीले पहाड़ों और स्लेज का सफर पूरा कर एक नए सफर की शुरुआत करनी पड़ती है, क्योंकि सिर्फ बर्फीली वादियों के बीच बसे घरों में ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर घर के बच्चों को मेरी प्रतीक्षा होती है। इसीलिए मुझे शहरों से गाँवों तक, मकानों से झोंपड़ियों तक की यात्रा करनी पड़ती है, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी भी मासूम का दिल टूटे। इसी चाहत के लिए मैंने पहाड़ों से सड़कों तक का सफर करना स्वीकार किया और हर ऑंगन तक पहुँचने का प्रयास किया।
मेरा और तुम्हारा स्नेह का बंधन काफी गहरा है। इसे यूँ ही विस्मृत नहीं किया जा सकता। इसी गहराई को ध्यान में रखते हुए आज मैं तुमसे क्रिसमस के इस पवित्र पर्व पर अपनी एक बात कहना चाहता हूँ- आज इतने सालों से अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए, तुम्हारे सपनों में रंग भरते हुए, अब मैं काफी बूढ़ा हो चुका हूँ। शरीर थक चुका है और तुम सभी के विश्वास का बढ़ता दायरा मुझे पहले की तरह गर्वित करने के बजाए भयभीत कर रहा है। भय इतना गहरा है कि मैं हर क्षण इसी वेदना से पीड़ित रहता हूँ कि कहीं मेरी थकान तुम्हारे विश्वास पर हावी न हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो हमारा स्नेह बंधन केवल एक स्मृति बन जाएगा। इस घोर वेदना के बीच भी मैं तुमसे अपने मन की बात कह कर ही रहूँगा। इस बात को सुनना और उसे ग्रहण करना तुम्हारे लिए कितना फायदेमंद है, इसे तुम स्वयं ही महसूस करोगे।
प्यारे बच्चो, तो मैं शुरू करता हूँ अपने और तुम्हारे हित की बात। मेरी बात ध्यान से सुनो... अब मैं तुम्हारी झोली में उपहारों की वर्षा करने नहीं आना चाहता। मैं चाहता हूँ कि हर साल मेरी प्रतीक्षा में ऑंखें बिछाने के बजाए तुम एक नई शुरुआत करो। स्वयं ही इस लायक बनो कि दूसरों से उपहार की अपेक्षा न रखो। तुम्हारा स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनना तुममें तो आत्मविश्वास भरेगा ही, मुझे भी एक अनोखी खुशी देगा। तुम सभी आज की दुनिया के बच्चे हो। आज की दुनिया अर्थात नवीन टेक्नोलॉजी और स्वतंत्र विचारों से भरी हुई एक आधुनिक दुनिया। इस दुनिया में ज्ञान का अथाह सागर है जिसमें कम्प्यूटर और नेट की तरंगे उठती है। इन तरंगों में स्वयं को भिगोकर तुम स्वयं ही कई उपहार प्राप्त कर सकते हो। अपनी मेहनत के बल पर प्राप्त किया गया प्रत्येक उपहार अपने आपमें अनमोल होता है। इस बात को तुम उस समय महसूस करोगे, जब तुम स्वयं ही उसे प्राप्त कर लोगे।
मीडिया और इंटरनेट का मायाजाल तुम्हें दिग्भ्रमित करने के लिए नहीं, बल्कि तुम्हें एक नई दिशा प्रदान करने के लिए है। इसलिए इसका सही उपयोग करो और अपने आपसे एक वादा करो कि कभी स्वयं को दिशाहीन होने नहीं दोगे, यदि कोई तुम्हारे सामने दिशाहीन होने लगे, तो उसे अपने सामर्थ्यनुसार सही रास्ते पर लाने का प्रयास करोगे। अपने आप से किया गया यह वादा ही तुम्हारा पहला उपहार है।
ऐसा कहने की मेरी हिम्मत इसहलए हुई कि इन सालों में मैं कई विकलांग बच्चों से भी मिला हूँ । तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि इन बच्चों में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ है। ये बच्चे सितारों की जगमगाहट के साथ मेरी प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि हमेशा मुझे यही कहते हैं कि हमारे द्वार पर कभी उपहार लेकर न आना सांताक्लास। जब भी आना, तो केवल आशीर्वादों की जादुई छड़ी लेकर ही आना। जिसे पाने के बाद हमें और किसी उपहार की आवश्यकता ही नहीं है। केवल तुम्हारा आशीर्वाद ही हमारे लिए अमूल्य उपहार है। उनके विचारों का यह तेज मुझे चकाचौंध कर देता है। वे कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते। हमेशा अपने दम पर अपने जीवन में रंग भरने का प्रयास करते हैं। जब वे विकलांग होकर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते, तो तुम क्यों मुझसे अपेक्षा रखते हो? मैं चाहता हूँ कि तुम भी इन्हीं बच्चों की तरह स्वावलंबी बनो। अपने जीवन में तुम स्वयं ही रंग भरो। अपने हिस्से का आकाश तुम स्वयं ही प्राप्त करो और उस पर अपनी कल्पनाओं को आकार दो।
मेरी ये चाहत पूरी करने के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाओ मेरे प्यारे बच्चो। तुम्हारा एक-एक कदम मुझे एक-एक क्षण सुकून की ओर ले जाएगा। मेरे स्वाभिमानी बच्चों के बीच केवल आशीर्वादों की वर्षा करते हुए मुझे अद्वितीय खुशी होगी। इस बार मुझसे ये वादा करो कि तुम कभी भी मेरे सामने तो क्या किसी के भी सामने हाथ नहीं फैलाओगे। उपहारों की आशा के साथ जीने वाले दयनीय बच्चे न बन कर तुम सभी स्वाभिमान से ओतप्रोत तेजस्वी पुंज बनो। याद रखो, सच्ची खुशी किसी को कुछ देने में है, किसी से कुछ लेने में या माँगने में तो बिलकुल नहीं। तुम स्वयं इस धरती पर विधाता के द्वारा भेजा गया एक अनमोल उपहार हो। तुम्हें पाकर माता-पिता, समाज, देश और पूरा विश्व धन्य हो गया। जीवन में ऐसा काम करो कि ये सभी तुम पर गर्व करें।
तुम ये न समझना कि ऐसा हो जाएगा, तो मैं तुम्हारे द्वार पर कभी नहीं आऊँगा। मेरा शरीर बूढ़ा हो गया है, किंतु मेरी आत्मा तो अभी भी तुम्हारी मासूमियत और चंचलता का प्रतिरूप है। इसका और थकान का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। इसलिए आत्मिक रूप से तो मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ और रहूँगा। जब जब मुझे पुकारोगे- घंटियों की समधुर गूँज और जादुई छड़ी की जगमगाहट के साथ मैं तुम्हारे पास रहूँगा। मुझे महसूस करने और एक नई शुरुआत के लिए हमेशा तैयार रहना। तो अब मैं चलूँ बच्चो, अभी तुम्हारे जैसे कई बच्चों को इस तरह का संदेश देना है, चलता हूँ, कहीं देर न हो जाए....

तुम्हारा अपना
सांताक्लास
भारती परिमल

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

एक पत्र सांताक्लॉस के नाम ...

 डा. महेश परिमल
सांताक्लॉज केवल उपहार देने वाला एक देवदूत ही नही, बल्कि मासूमों को अपना प्यार लुटाने वाला एक ऐसा शख्स है, जिससे बच्चे कई अपेक्षाएँ पालते हैं. बच्चे तो आखिर बच्चे होते हैं, वे क्या समझें सांताक्लॉज के व्यक्तित्व को. वे तो उसे देवदूत मानते हैं और उनसे अपनी माँगें मनवाते हैं. सांताक्लाँज एक कल्पना है, इसकी जानकारी मासूमों को नहीं है. वे उसे एक सच्चाई मानते हैं. ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं से पीड़ित कोई मासूम सांताक्लॉज से अपने स्वर्गीय माता-पिता को ही माँग ले, तो उसकी माँग भला किस तरह से पूरी हो सकती है. कुछ इसी तरह की माँग एक मासूम ने सांताक्लॉज से की है, प्रस्तुत है उस मासूम का पत्र...
प्यारे सांता,
लोग तुम्हें उपहार बाँटने वाले एक देवदूत के रूप में जानते हैं. पूरे विश्व के करोड़ों मासूमों को तुम्हारा इंतजार रहता है. कई मासूमों को तो तुम्हारा साल भर इंतजार रहता है. पहले मुझे तुम्हारा इंतजार नहीं रहता था, लेकिन इस बार मैं तुम्हारी राह देख रहा हूँ. मेरी विवशता कुछ दूसरी ही है. पहले मैं खास था, पर अब मैं आम हूँ. पहले मेरे पास सबकुछ था, पर आज मेरे पास मेरी ईमानदारी के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर स्वर्गीय माता-पिता से विरासत में मिली ये ईमानदारी मैं अधिक समय तक सँभालकर नहीं रख पाऊँगा. मेरी ये ईमानदारी अब मेरा साथ नहीं दे रही है. इस ईमानदारी ने मुझे कई रात भूखे सोने के लिए विवश कर दिया है. लगता है बहुत जल्द ही मैं इस ईमानदारी कोअलविदा कह दूँगा.
हर साल इस धरती पर क्रिसमस की रात तुम आते हो. सूनी ऑंखों में आशाओं के दीप जलाते हो, उदास चेहरे पर मुस्कान खिलाते हो. मासूमों के देवदूत बनकर उनके लिए अपना प्यार लुटाते हो. तुम्हारी झोली में ढेरों उपहार होते हैं, जो उन मासूमों के इंद्रधनुषी सपनों को एक आकार देते हैं. यही कारण है कि हर बच्चा क्रिसमस की रात तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करता है. इस इंतजार में पूरे साल भर के इंतजार का पल-पल का सफर होता है और विदा लेती बेला में फिर से एक लंबे इंतजार का अहसास होता है. इस अहसास के साथ जीते हुए करोड़ों मासूम सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही राह तकते हैं.
आज उन करोड़ों में एक नाम मेरा भी शामिल हो गया है. कल तक नहीं था मुझे तुम्हारा इंतजार. क्योंकि कल तक मेरे लिए तुम एक कोरी कल्पना ही थे. उस समय मेरे पास वह सब कुछ था, जो एक बच्चा चाहता है. माता-पिता ही नहीं, बल्कि बहुत से दोस्त, बहुत सारे खिलौनों का भी संसार था मेरे आसपास. तुम्हें केवल दोस्तों के बीच समय गुजारने और अपनी बुध्दिमानी दिखाने के लिए ही जानबूझकर याद किया जाता था. किंतु आज? आज तुम मेरे लिए एक फरिश्ते से कम नहीं हो. क्योंकि अब तुमसे मुझे कई अपेक्षाएँ हैं. मैं जानना चाहता हूँ कि तुम क्या-क्या दे सकते हो. अब मेरे पास केवल अच्छी यादों के सिवाय कुछ नहीं है. हाल ही में हमारे देश में प्राकृतिक आपदाओं का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें मेरा सब-कुछ लुट गया. एक तरफ सुनामी की लहरों में मेरी माँ खो गई, पिता ही मेरी माँ बनकर मुझे समझदार बनाने की कोशिश करते रहे. मैं समझदार हो भी जाता, यदिहाल ही में आई बाढ़ में मेरे पिता बह न गए होते. दैवीय आपदाएँ मेरे इस देश में आती ही रहती हैं, पर सच तो यह है कि इन आपदाओं से कई मासूम अपने ऊपर स्नेह की छाँव से वंचित हो जाते हैं. फिर चाहे वह कश्मीर का भूकंप हो या फिर सुनामी. हर तरह की आपदा मेरे जेसे कई मासूमों को अनाथ कर जाती है. इन आपदाओं ने मुझसे मेरा बचपन ही छीन लिया. मैं कहीं का नहीं रहा. पहले माँ मुझे पिता के हवाले कर ईश्वर के पास चली गई. मैं पिता की छाया में ही बढ़ने लगा, पर दूसरे हादसे ने मुझसे मेरे पिता को ही छीन लिया, अब मैं क्या करुँ? आज मैं बेसहारा होकर यहाँ-वहाँ भटक रहा हूँ. कभी भूखा ही सो जाता हूँ, तो कभी पानी पीकर अपनी भूख मिटाता हूँ. कभी किसी का कोई छोटा-मोटा काम करने से कुछ पैसे मिल जाते हैं, तो खुशी से झूम उठता हूँ. कभी किसी के सामने हाथ फैलाया नहीं, तो इसके लिए हिम्मत भी नहीं कर पाता हूँ. मैं जानता हूँ कि अगर यही हाल रहा तो एक दिन यही करना होगा. कब तक याद रख पाऊँगा, ईमानदारी का पाठ? पेट की भूख सब भूला देती है. मुझ मासूम को भी एक दिन भिखारी बना ही देगी. लेकिन मैं वैसा नहीं बनना चाहता. मैं तो पढ़ना चाहता हूँ. खूब आगे बढ़ना चाहता हूँ. अपने माता-पिता के सपनों को साकार करना चाहता हूँ. लेकिन कैसे क रूँ? मेरा तो कोई वर्तमान ही नहीं, तो भविष्य क्या होगा? मेरी ऑंखों में तो अब ऑंसू भी नहीं, हाँ सूखे ऑंसुओं के बाद की कोरी जलन है, जो मुझे भीतर तक आहत कर देती है. मैं पल-पल टूट रहा हूँ और ऐसे में क्रिसमस के अवसर पर तुम एक विश्वास बन कर आए हो.
सुना है कि हर साल बड़े-बड़े शहरों में कई लोग सांता क्लास के वेश में मासूमों के बीच आते हैं और अपनी झोली में से अनेक उपहार निकाल कर उन्हें देते हैं. उनके होठों पर मुस्कान खिलाते हैं. अब तो विदेशों में कई ऐसे टे्रनिंग सेंटर भी खुल गए हैं, जहाँ बुजुर्ग व्यक्ति सांता क्लॉस बनने की ट्रेनिंग लेते हैं, ताकि 24 दिसम्बर की रात वे प्यारे बच्चों के साथ एक यादगार क्षण बिता सकें. मुझे भी उस 24 दिसम्बर की रात का इंतजार है.
सुना है, तुम बच्चों को कई तरह के उपहार बाँटते हो, पर मुझे उपहार नहीं, खुशियाँ चाहिए. मुस्कान चाहिए. मेरे लिए उपहार मत लाना सांता क्लॉस, वह तो मुझे बहुत मिल जाएँगे. मुझे तो चाहिए मेरे माता-पिता, मेरे दोस्त, मेरा घर, मेरा परिवार. मुझे तो यहीं मिल जाएगी खुशियाँ. इन खुशियों मेें डूबकर ही मैं अपने उन सभी साथियों को याद कर लूँगा, जिनके दामन में खुशियाँ है ही नहीं. तुम्हें आना ही होगा सांता क्लॉस, मैं तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ. अपनी झोली से मेरी झोली में थोड़ी सी खुशियाँ डालने तुम आओगे ना सांताक्लॉस?
तुम्हारे इंतजार में....
एक मासूम

 डा. महेश परिमल

गुरुवार, 20 दिसंबर 2007

लिफाफों में बंद खुशियाँ

डॉ. महेश परिमल
बचत एक मानवीय प्रवृत्त् िहै. यह विशेषकर महिलाओं में पाई जाती है. लेकिन कई बार वह भी उलझ जाती है कि उसके हाथ से कितना धन निकल गया. इसका हिसाब भी उसके पास नहीं होता. हमें यह तो पता होता है कि धन आया कहाँ से, पर धन के जाने का रास्ता हमें मालूम नहीं होता. जबकि वह हमारे ही हाथों से होकर गुजरता है. ऐसे में कैसे रोका जाए, इस चंचला लक्ष्मी को? आइए इस पर विचार करें-
गचम हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है. सब जानते हैं कि बचत जीवन के लिए आवश्यक है. 'बूँद-बूँद से घट भरे' मुहावरा ऐसे ही नहीं बन गया. आज इसी बचत के सिध्दांत को लेकर न जाने कितनी योजनाएँ बन रही हैं. कई कंपनियाँ केवल बचत को ही आधार बनाकर ऐस-ऐसे सपने बेच रही है कि लगता है हम सब-कुछ आसानी से प्राप्त कर लेंगे. वास्तव में ऐसा नहीं है. सब कुछ हमारी बचत पर ही निर्भर है.
उस दिन पत्नी से इसी बात पर विवाद हो गया कि इस महीने इतने अधिक रुपए कैसे खर्च हो गए. हम दोनों की पूरी तनख्वाह निकल गई, पर कहाँ कितने खर्च हुए, कोई बता नहीं पाया. एक महीने में अतिरिक्त खर्च हुए पूरे दस हजार रुपए, हिसाब लगाने बैठे, तो पाँच हजार के खर्च का पता चला. शेष पाँच हजार कहाँ गए? इस पर हम दोनों ही मौन थे. आश्चर्य इस बात का है कि घर में राशन, मसाला, और तेल सब वर्ष भर के लिए एक साथ ले लिया जाता है. बाकी कहाँ खर्च हुए? यह एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए शोध का विषय हो सकता है, पर हम सबके लिए यह आवश्यक है कि धन के आने का स्रोत तो हमें मालूम है, लेकिन जाने का स्रोत नहीं मालूम. ऐसा कैसे हो सकता है. यह सच है कि धन अपने साथ जाने का रास्ता लेकर आता है, पर जाने का रास्ता हमारे हाथ से ही होकर गुजरता है ना, तो फिर हमें ही क्यों नहीं मालूम कि हमारा धन कहाँ जा रहा है?
काफी सोच-समझकर हम दोनों ने एक उपाय सोचा. उपाय भी ऐसा, जो हम इसी बचत के लिए पहले से अपनाते आए हैं. वह उपाय था लिफाफा संस्कृति. लिफाफा संस्कृति से हम सब वाकिफ हैं. पर यही संस्कृति यदि हमारी बचत में काम आए, तो इसे बुरी नहीं कहा जा सकता. हमने भी उसे अपनाया. कुछ महीनों तक ऐसा किया, इससे यह तो पता चला कि हमारा वेतन जाता कहाँ है. फिर इससे यह भी पता चला कि अब हमें इत्मीनान से यह बता सकते हैं कि किस मद पर कितना खर्च हुआ और पिछले माह कितने रुपए बचे या अतिरिक्त खर्च हुए. हम अपने खर्च पर काबू पाना सीख चुके थे. इन लिफाफों से इतना तो पता चल जाता था कि हम कितने पानी में हैं?
आप भी यदि अपनी महीने भर की हाड़-तोड़ मेहनत को लिफाफों में विभाजित कर दें तो मेरा विश्वास हे कि आप भी अपने बेकाबू खर्च पर कुछ तो नियंत्रण पा ही सकते हैं. यदि आप लिफाफे बनाना चाहें तो उन लिफाफों पर मकान किराया, राशन, सब्जी, दूध, बिजली बिल, गैस, स्कूल फीस, बस फीस, आटो, पेट्रोल, टेलीफोन, अखबार, इंश्यारेंस, बच्चों की पाकिट मनी, बड़ों की पाकिट मनी, अचानक और बचत के लिफाफे बनाए जाएँ. इसमें से कुछ खर्च तो कॉमन हैं, जिसे होना ही है. हमारा वेतन इन लिफाफों में विभाजित हो गया. अब सावधानी यह रखनी होगी कि कब किस काम के लिए धन चाहिए, तो उसी लिफाफे से रुपए निकालें. कभी भी किसी भी लिफाफे से रुपए निकालकर बाद में रख देंगे, यह कहकर अपना काम चलाने लगें, तो यह युक्ति काम नहीं आएगी. जब जिस मद के लिए रुपयों की आवश्यकता हो, उसी मद से रुपए निकालें. आप स्वयं अनुभव करेंगे कि यह काम आसान है, बस इसे दिल से करने की जरूरत है.
लिफाफों के ऊपर नाम लिखे जाएँ, पर उपरोक्त नामों में से कुछ नाम आपको हैरत में डालेंगे. इसमें अचानक और बचत के लिफाफे कैसे? क्या होता है, जब कोई अचानक ही खर्च आ जाता है, जिसकी अपेक्षा ही नहीं थी, जैसे कोई बीमार पड़ गया या फिर अचानक कहीं जाना पड़ जाए. ऐसी स्थिति में यही लिफाफे काम आते हैं. यह आवश्यक नहीं कि ऐसी स्थिति हमेशा या हर महीने आए. कभी-कभी ही आती है, ऐसी स्थिति, पर उससे जूझने के लिए हिम्मत इसी धन से मिलेगी. घर का मुखिया एक सप्ताह के लिए यदि बाहर जाए, तो पेट्रोल तो बच गया, अब उसके रुपए लिफाफे में ही रह गए, वह अगले महीने काम आएँगे. इसी तरह बिजली बिल कभी कम आया, तो शेष रुपए उसी लिफाफे में ही रह जाएँ, तो बुरा क्या है? इस तरह यदि गैस दो महीने चलती है, तो एक बार आधी रकम रखे, दूसरी बार यह रकम पूरे गैस खरीदने के बराबर हो जाएगी. टेलिफोन बिल यदि दो माह में आता है, तो उसे भी इसी तरह संचालित किया जाए. लिफाफों में रकम है, तो वह बाद में बहुत काम आएगी, एकदम से बोझ आप पर नहीं आएगा. इस तरह से हाथ के खुले होने पर नियंत्रण रखा जा सकता है. धीरे-धीरे इसे आदत में शुमार कर लिया जाए, तो हम एक अच्छी आदत के स्वामिनी बन सकती हैं.
इसे तय मानें कि महँगाई बढ़ती ही रहेगी, इसे कम होना नहीं आता. इस दौरान वेतन तो नहीं बढ़ेगा, अलबत्ता नए खर्च आते रहेंगे. इसे इसी तरह 'मैनेज' किया जा सकता है. जिन लिफाफों से आप शादी-समारोहों में खुशियाँ बाँटते हैं, उन लिफाफों से घर की खुशियाँ नहीं खरीद सकते. आप एक बार घर में इन लिफाफों में अपना वेतन विभाजित करके तो देखें, आप पाएँगी कि आप एकाकार हो गई हैं. सबको साथ लेकर चलने लगी हैं. आप आगे होंगी, पीछे घर के सदस्य. हो सकता है बाद में पूरा मोहल्ला ही आपसे जानना चाहे, आपकी खुशियों का रांज. आपकी, ईमानदारी आपकी दूरदर्शिता काम आ सकती हैं, अनजाने में आप कई लोगों की प्रेरणा बन सकती हैं.
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 19 दिसंबर 2007

जीसस के प्रवचनों में निहित अर्थों को समझें

डा. महेश परिमल
पुस्तकें भेंट करना एक अच्छी परंपरा है. इसमें यदि कोई धर्मिक पुस्तक मिल जाए, तो मन श्रध्दा से भर उठता है. एक इसाई मित्र ने मुझे पवित्र बाइबल भेंट की. नया नियम और पुराना नियम, ये दोनों ही इसके दो रूप हैं. पूरी बाइबल पढ़ी, फिर शुरू हुआ चिंतन. बार-बार एक ही जगह जाकर विचार की तरंगें अटक जाती, जीसस के ये वाक्य, जो बार-बार बाइबल में आए हैं, जिनके पास ऑंखें हों, वे मुझे देखें और जिनके पास कान हो, वे मुझे सुनें. इन्हीं वाक्यों ने विवश कर दिया कुछ सोचने को. ऑंखें और कान तो हम सभी के पास हैं, उनका बार-बार यह दोहराना, क्या ऐसा नहीं लगता कि वे अंधे और बहरों के बीच बोल रहे थे ?
समझ की सोच ने यहीं से विचार यात्रा प्रारंभ की. नहीं, वे अंधे-बहरों के समूह में नहीं बोल रहे थे, पर उस समय अंधे और बहरों का समूह अधिक था, जिनकी ऑंखें थीं और कान भी थे. जीसस को देखना सचमुच मुश्किल है, ठीक उसी तरह, जैसे विशाल पेड़ के बीज को देखना. पेड़ तो हमें दिखाई देता है, पर बीज नहीं. जीसस का शरीर उस समय सभी को दिखाई देता था, लेकिन उनकी जो आत्मा थी, वह केवल उन्हीं को दिखाई देती थी, जो परमशांत, परमशून्य और परमध्यान में लीन होकर देखते थे. ये सभी जीसस की आत्मा से साक्षात्कार करते थे, इनके लिए जीसस के साक्षात रूप से कोई वास्ता न था, क्योंकि उन्हें जो दिखाई दे रहा था, वह था जीसस का तेजस रूप, उनका प्रज्ञा रूप, उनका ज्योतिर्मय अलौकिक रूप, इसीलिए जीसस पर दोहरे मत हैं. एक मत है अंधों का, जिन्होंने जीसस को सूली पर चढ़ाया, इन अंधों का मानना था कि यह तो साधारण्ा मानव है और दावा करता है कि वह ईश्वर का पुत्र है. वैसे इन अंधों का विचार गलत नहीं था, जो उन्हें दिखलाई पड़ रहा था, वहाँ तक उनकी बात बिल्कुल सही थी, उन्हें पता था कि यह तो बढ़ई जोसेफ का बेटा है, मरियम का बेटा है, यह ईश्वर का पुत्र कैसे हो सकता है ? लेकिन जीसस जिसकी बात कर रहे थे, वह ईश्वर का पुत्र ही है. वह कोई जीसस में ही खत्म नहीं हो जाता है, आपके-हमारे भीतर जो आत्मा के रूप में है, वह ईश्वर का पुत्र है. अतएव हम सभी जो निष्पाप आत्मा के स्वामी हैं, ईश्वर के पुत्र हैं.
जिन्होंने जीसस की आत्मा से साक्षात्कार किया, वे सभी अनपढ़ और गँवार लोग थे, उनकी आत्मा को पंडितों-ज्ञानियों ने नहीं देखा, देखने वाले थे, निम्न तबके के लोग, जैसे जुलाहे, मछुआरे, ग्रामीण किसान, भोलेभाले लोग. इनका वास्ता कभी शास्त्रों और शब्दों से नहीं पड़ा, इन्होंने जीसस पर विष्वास किया, इन्हें उनके आत्मिक रूप के दर्शन हुए, जो विद्वान थे, ज्ञानी थे, धर्म के ज्ञाता थे, शास्त्रों के पंडित थे, उन्हें जीसस एक साधारण्ा इंसान लगे, क्योंकि उनकी बुद्धि में ज्ञान की कई परतें थीं, जिससे उनके देखने की क्षमता कम हो गई, इसलिए जीसस की आत्मा को वे लोग नहीं देख पाए.
ज्ञानी जो कुछ भी स्वीकार करता है, तर्क से स्वीकार करता है, अनपढ़ और गँवार अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार करते हैं, जितना गहरा विश्वास, उतनी गहरी आस्था. इसी गहरी आस्था में छिपा है प्रेम, जो सभी जीवन मूल्यों से ऊपर है, यही हमारा मार्गदर्शक है, हमारा साथी है. लेकिन आज हम भटक रहे हैं, क्योंकि हम ज्ञानी हैं, अनपढ़ गँवार होते, तो कोई न कोई राह मिल ही जाती. आज यदि हम थोडे समय के लिए भी अपने ज्ञानी मन को अपने से अलग रख दें, तो संभव है राह दिख जाए.
अब हम सब शुतुरमुर्ग हो गए हैं, विपदाओं से लड़ने के बजाए हम सब उस दिशा की ओर से ऑंखें ही बंद कर लेते हैं, शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर रेत में गड़ा देते हैं, ताकि हम बाधाओं को न देख पाएँ. तुमने बाधाओं को नहीं देखा तो क्या हुआ, बाधाओं ने तो तुम्हें देख ही लिया ना ? वे तुम्हें नहीं छोडेंग़ी, तुम्हारे पलायनवाद को धिक्कारेंगी, संभव हुआ तो खत्म भी कर देंगी. जीसस के माध्यम से यही कहना है कि हमने खुद को नहीं समझा, न ही दूसरों को समझने की कोशिश की. एक वायवीय संसार बना लिया अपने आसपास और जीने लगे कूप-मंडूक की तरह.
हर कोई कह रहा है मेरा धर्म महान् है, इससे बड़ा कोई धर्म नहीं. कैसे तय कर लिया आपने यह सब! क्या आपने दूसरे धर्मों के ग्रंथ पढ़े ? क्या उनके पंडितों से चर्चा की ? उत्तर नकारात्मक है, फिर यह मुगालता क्यों ? क्या अभी तक नहीं समझा आपने कि इंसानियत का धर्म सबसे ऊपर है ? इससे ऊपर कोई धर्म नहीं. पीड़ा से छटपटाते व्यक्ति के करीब बैठकर पूजा करना, प्रार्थना करना धर्म नहीं है. धर्म है उस व्यक्ति को पीड़ा से राहत दिलाना. इंसानियत का धर्म, मानवता का धर्म. संकट में पड़े किसी अपने को बिलखता छोड़कर कितनी भी धार्मिक यात्राएँ कर लें, हमें पुण्य नहीं मिलेगा. धर्म की आत्मा सेवा में छिपी है, नि:स्वार्थ सेवा ही वह सीढ़ी है, जो हमें हमारे आराध्य तक पहुँचाती है.

आज जब पूरे विश्व में मानवता रो रही है, जीवन मूल्यों का लगातार पतन हो रहा है, ऐसे में लगता है कि क्या ईमानदारी से जीने वालों के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं है. तब लगता है कि आज भी पूरा विश्व ईमानदारो के कारण ही बचा हुआ है. तब हम क्यों छोड़ें अपनी ईमानदारी. ऐसे में यदि हम ईमानदारी से ही जीने का संकल्प ले लें, तो शायद पूरे विश्व का चेहरा बदलने में समय नहीं लगेगा. तो आओ संकल्प लें, अपने इंसानियत के धर्म को महान् बनाएँ. त्याग, नि:स्वार्थ सेवा और सत्कर्मों से स्वयं को बेहतर और बेहतर बनाएँ, ईश्वर हमें आत्मसात् कर ही लेगा.
डा. महेश परिमल

मंगलवार, 18 दिसंबर 2007

बहू रे बहू बोल, कितना पानी?

- डॉ. महेश परिमल
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उनके घर में नई बहू का पदार्पण हुआ और वृध्द बीमार, ससुर का स्वर्गवास हो गया. हमारे भारतीय परिवेश में देखें तो वह बहू उस घर के लिए कुलच्छिनी, नाशपिटी और भी न जाने किस-किस अलंकरणों से सुशोभित होगी. बहू के पाँव उस घर के लिए शुभदायी नहीं रहे. बहू को तो यह आरोप अब सारी जिंदगी ढोना है. चाहे वह कितनी भी संस्कारवान हो, सुसंस्कृत हो, शिक्षित हो, कोमल स्वभाव की हो, पर उक्त आरोप के आगे ये सारे गुण नतमस्तक हैं.
अब इसे दूसरी दृष्टि से देखें. लड़की वाले जल्द शादी के लिए तैयार न थे, पर लड़के के पिता की उम्र व बीमारी को देखते हुए उन्हें जल्दी पड़ी थी, सो उन्होंने अंतत: लड़की वालों को जल्द शादी के लिए तैयार कर लिया और फिर एक संयोग के तहत उक्त घटना या दुर्घटना घट गई. देखा जाए तो मौत की आशंका से लड़के वाले पहले ही सशंकित थे, वे मौत का इंतजार ही कर रहे थे, पर मौत को तो बहाना चाहिए तो मौत ने बहू के माध्यम से घर में प्रवेश किया. पर ऐसा नहीं है. इसे ही अगर हम अपनी संवेदनाओं को जगाकर देखें तो एक शरीर पीड़ा से छटपटाता हुआ, जो भीतर से टूट चुका है, जो पल-पल, घुट-घुटकर मारने वाली इस जिंदगी से मुक्ति चाहता है. आत्मा उस कृशकाय शरीर को बहू के पदार्पण के साथ ही छोड़ जाती है, तो फिर बहू उस घर के लिए अपशकुन क्यों हुई? उसके आने से दर्द से छटपटाते एक शरीर को मुँहमाँगी मुराद मिल गई. ऐसा क्यों नहीं सोचा जाता?
बहुत वर्षों बाद सास ने अपने प्राण त्यागने के पूर्व बहू को बताया कि वास्तव में तुम्हारे ससुर को मैंने अपने बेटे के साथ मिलकर प्रताड़ित किया था और उन्हें घुट-घुटकर जीने के लिए विवश किया था, तुम तो एक बहाना मात्र थीं. यह सुनकर उस बहू के पाँव तले जमीन ही खिसक गई. एक झटके में उसके सामने वे प्रताड़ना एवं यातना भरे दिन चित्र की भाँति आने लगे. किस तरह से उसने जिंदगी के इतने बरस जहालत से गुजारे. कई-कई दिनों तक भूखी रही. बच्चों को उससे दूर रखा गया. जबर्दस्ती मायके भेज दिया जाता और दहेज की माँग की जाती. अंधेरे कमरे में बंद कर दिया जाता. यह सब कुछ उसने सहा एक ऐसे कृत्य के बदले जो उसने किया ही नहीं.
तो यह था हमारे भारतीय समाज का एक चित्र. आज हम भले ही कितने भी आधुनिक हो जाएँ, विज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें कर लें, विदेशों के उन्मुक्त जीवन के पक्षधर हो जाएँ, पर भीतर से कहीं न कहीं संस्काररूपी बेड़ियों से जकड़े हुए हैं. ये संस्कार हमें भारतीय परिवेश में रहकर मिले हैं. इसे हम छोड़ने का ढोंग तो कर सकते हैं, छोड़ नहीं सकते. प्रचार पाने के लिए तमाम नारी संगठन तेज स्वर में भाषण कर सकते हैं, नारी उत्पीड़न के लिए अभियान चला सकते हैं. पर घर में सास कभी भी बहू को बेटी की दृष्टि से नहीं देख पाएँगी, उसे तो वह बहू ही दिखाई देगी. बेटी के देर रात लड़खड़ाते कदमों से घर लौटना वे अनदेखा कर सकती हैं, पर बहू का किसी अन्य पुरूष के साथ हँसकर बात कर लेना उन्हें नागवार गुजरता है. यह सब कुछ होता है एक परंपरा के तहत. उस सास ने भी बहू बनकर प्रताड़ना झेली होगी, तो वह परंपरा निभाने में क्याें पीछे रहे? जब मेरी सास ने मुझे बेटी नहीं माना, तो फिर मैं अपनी बहू को बेटी क्यों मानूँ?
इस मामले में पुरूषों का नजरिया घर में कुछ और बाहर में कुछ होता है. घर से बाहर वे नारी शोषण के खिलाफ खूब बोलते हैं, देश-विदेश के उदाहरण देते हैं. पर घर आकर बहू के प्रताड़ित होने पर भले ही उस कार्य में सहयोग न दें, पर असहयोग भी नहीं करते. मौन रहकर अपनी स्वीकृति देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला. फिर शेष जीवन भी इन्हीं के बीच ही गुजारना है. कौन आफत मोल ले?
बहू लक्ष्मी का प्रतीक है, पर उसका वाहन है, मूर्खों का प्रतीक. इसलिए जिनके यहाँ 'लक्ष्मी' का आगमन होता है, तो वहाँ के लोग अपनी श्रध्दानुसार या आदतन कोई प्रत्यक्ष रूप से आई लक्ष्मीजी को स्वीकारता है तो कोई परोक्ष रूप से उसके वाहन को अपना आदर्श मानता है. पर कई बहुएँ अपने साथ 'लक्ष्मी' को नहीं लातीं. इसका आशय यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वह अपने साथ कुछ नहीं लाई है. वह अपने साथ लाती है अच्छे संस्कार, अच्छी शिक्षा, शालीन व्यवहार का प्रकाशपुंज, जिससे वह घर जगमगा उठे. जो बहुएँ अपने साथ 'लक्ष्मी' नहीं लातीं, निश्चित ही उनके माता-पिता ने उनकी अच्छी शिक्षा एवं संस्कार में कोई कमी नहीं रखी होगी. वे धन की अपेक्षा शील, संस्कार, सद्गुण को ही कभी न खत्म होने वाला धन मानते होंगे. इसलिए वे इस प्रकार का धन देकर बेटी को विदा करते हैें.
इंसान कभी बुरा नहीं होता, बुरे होते हैं हालात, जो उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करते हैं. इसलिए बुरे काम करने वाले के हालात पर जरूर गौर करना चाहिए कि उसने किन हालात में वह कार्य किया. बहुओं को समर्पित इस आलेख को एक लघुकथा से समाप्त किया जाए तो बेहतर होगा.
बेटे की उपेक्षा और बहू की प्रताड़ना से दु:खी बूढ़े माता-पिता की जिंदगी घर के एक छोटे से कमरे में सिमटकर रह गई. एक फटा कम्बल, फटी चादर, टूटा मटका और गिलास, यही उनकी पूँजी थी. कुत्ते को अच्छा खाना देने के बाद जूठा-बचा खाना उन बुजुर्गों को मिल जाता. किसी मेहमान से मिलने की पाबंदी थी. अपना दु:ख वे किसी से न कह सकते थे. पुत्र व्यस्त था, काम धंधे में. उसे माता-पिता की तरफ ध्यान देने की फुरसत न थी. बहू को किटी-पार्टी से वक्त न मिलता. बुजुर्गों के दिन नितांत अकेलेपन में कट रहे थे. आखिर बूढ़ी हड्डियों ने जवाब दे दिया. पहले माँ का स्वर्गवास हुआ. महीना भर बीतते-बीतते पिता भी चल बसे. परिवार में अनचाहे शोक की लहर छा गई. कुछ दिनों तक बेटे का काम-धंधा और बहू की किटी पार्टी बंद रही. एक दिन कमरे की सफाई हुई और कमरे में रखे फटे कम्बल, चादर, मटके, गिलास बाहर फेंके जाने लगे. अचानक शोकसंतप्त पुत्र के आठ वर्षीय पुत्र ने कम्बल और चादर को अपने सीने में भींच लिया. सिसकते हुये कहने लगा- 'नहीं-नहीं मैं इसे नहीं दूँगा. बड़े होने पर ये मेरे मम्मी-पापा के काम आएँगे'...बस...
यहाँ आकर मेरी संवेदनाओं के पंखों ने उड़ने से मना कर दिया.
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 17 दिसंबर 2007

अवसर को पहचानें और इतिहास रचें

डा. महेश परिमल
समय को बहुत बड़ा डॉक्टर कहा गया है. यह हर तरह के घाव को भर देता है. समय में एक बात तो है कि वह हर वक्त चलता ही रहता है. यह उसका स्वभाव है, लक्ष्मी और पानी का स्वभाव भी चंचल होता है, गतिमान रहना इनका स्वभाव है. पानी ठहर जाए, तो वह दुर्गंध देने लगता है, बहना इसकी पकृति है, इसे बहते रहने देना चाहिए. समय का एक रूप अवसर है, जो हर इंसान के सामने अपनी सेवा देने के लिए प्रस्तुत होता है, पर इसका रूप ऐसा होता है कि इंसान उसे अनदेखा कर देता है, उसे नोटिस में नहीं लेता, जो इसे पहचानने की दृष्टि रखते हैं, वह उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देते. उसे पहचानने के लिए अंतर्दृष्टि याने भीतर की ऑंखें. जिसने भी अपनी इन ऑंखों से समय या अवसर को पहचाना, सफलता ने आगे बढ़कर उसके कदम चूमे.
किसी चित्रकार ने समय का चित्र बनाया है, जिसमें एक साधारण व्यक्ति को बताया गया है. उसके पंख हैं और वह उड़ रहा है, बालों से उसका चेहरा ढँका हुआ है, याने उसे कोई देख नहीं सकता, पंख से उसके सदैव गतिमान होने को दर्शाया गया है. चेहरा ढाँककर यही बताने की कोशिश की गई है कि समय को देखा तो नहीं जा सकता, पर पहचाना अवश्य जा सकता है. अवसर को गँवाने का दु:ख सबको होता है, सभी कभी न कभी यह अवश्य स्वीकार करते हैं कि हम चूक गए. हमसे गलती हो गई, हम अवसर को पहचान नहीं पाए, हमारे हाथ से एक अच्छा अवसर निकल गया. हमारी थोड़ी-सी लापरवाही ने हमें कहीं का नहीं रखा. उस वक्त ऐसा कर लिया होता, तो आज यह वक्त नहीं देखना पड़ता. ये सारे जुमले उन लोगों के हैं, जिन्होंने अवसर को पहचानने में भूल की या देर की. इतना तो तय है कि अवसर रूप बदलकर ही सही, हम सबके सामने आया, याने समय ने हमें आगे बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, अब यह बात अलग है कि हम उसे पहचान नहीं पाए.
हमने अपने जीवन में कई ऐसे लोगों को देखा होगा, जो बड़ी शान से कहते हैं- मुझे अवसर मिला, मैंने लपक लिया, आज मैं अपने साथियों से बहुत आगे हूँ या सफल हूँ. एक परिवार के दो भाई, दोनों के सामने एक ही परिस्थिति, पिता मंजदूर थे, माँ दूसरों के घरों में चौका-बर्तन का काम करती. दोनों भाइयों को पिता की सहायता करनी पड़ती, सो वे भी पिता के साथ जाकर उनके काम में हाथ बँटाते. दिन भर की हाड़-तोड़ मेहनत दोनों भाइयों को बुरी तरह से थका देती, ऐसे में पढ़ाई-लिखाई की बात तो बेमानी ही होती, पर एक भाई ने हिम्मत दिखाई.
वह समय चुराने की कोशिश में लग गया. समय चुराना याने खाली समय का सदुपयोग करना. अब वह अपनी मीठी-मीठी नींद को त्याग कर रात को लैम्प पोस्ट के नीचे पढ़ने लगा. दूसरा भाई सोते रहता, लेकिन इसने अपनी पढ़ाई जारी रखी. बहाने इसके पास भी हो सकते थे, लेकिन उसने इन बहानों के आगे अपनी मेहनत रख दी. बहाने हारकर पीछे हट गए और वह आगे बढ़ता रहा.
ईमानदारी के किया गया यह प्रयास मेहनत के रंग के साथ निखर उठा. वह सफल हो गया, क्योंकि उसकी सधी हुई मेहनत ने उसे निखार दिया. वजीफों से उसकी पढ़ाई जारी रही. वजीफों का मिलते रहना याने पढ़ाई के प्रति ईमानदार बने रहना. यही पढ़ाई काम आई और वह योग्य प्रशासक सिध्द हुआ.
मेहनती भाई ने समय को पहचाना, उसने मान लिया कि उसे ंजिंदगी भर पिता के साथ काम नहीं करना है., उसे कुछ और करना है, ईश्वर ने जब उसे भेजा है, तो कुछ अच्छा काम करने के लिए ही भेजा है. नाकाम वही होते हैं, जिनके पास बहाने होते हैं, जिस क्षण बहाने नहीं होंगे, सफलता सामने होगी. बहाने का सीधा-सादा गणित है कि काम न करने की इच्छा. ये बहाने तो वे बादल होते हैं, जो व्यक्ति और सफलता के बीच अवरोध का काम करते हैं. बहाने हटे कि सफलता सामने. मेहनती इंसान से सफलता अधिक दूर नहीं होती. कभी-कभी बहाने रूपी बादल सफलता को इंसान की ऑंखों से ओझल कर देते हैं.
आज किसी के पास 24 घंटे से ज्यादा वक्त नहीं है. पर बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें ये 24 घंटे भी कम लगते हैं. दूसरी ओर कुछ ऐसे भी हैं, जिनके लिए वक्त काटे नहीं कटता. इसमें से कौन सी बात असमाना है? एक ने समय को पहचान लिया, दूसरे ने नहीें पहचाना. एक बात हमेशा ध्यान रखें, समय कभी बताकर नहीं आता. उसका रूप अतिसाधारण होता है. वह तब आता है, जब आपको अपनों से चोट मिलती है. आप थके-हारे होते हैं, आप अवसाद की स्थिति में जाने वाले हैं, बस वही एक क्षण होता है, जो आपको साधारण से असाधारण बनाने की क्षमता रखता है.
कोई भी अनुभव कभी बेकार नहीं जाता. सफर के दौरान दो व्यक्तियों के बातें भी हमारे ज्ञान के खजाने में एक मोती की वृद्धि कर सकती है. उस समय हमें स्वयं को एक अच्छा श्रोता साबित करना होगा, संभव वही समय का रूप हो. उनकी बातें और हमारा ज्ञान दोनों मिलकर एक अनुभव को जन्म दें, बस हमें मिल सकता है, एक उन्मुक्त आकाश. जहाँ हम उड़ सकते हैं, अपने तरीके से. अंत में एक छोटी सी बात, निर्माण सदैव विध्वंस के रास्ते आता है.
पहली बार में यह वाक्य आपको सोचने को विवश कर देगा. पर आप ही सोचें कि किसी खंडहर के स्थान पर कोई मकान बनाना है, तो उस खंडहर को तोड़े बिना क्या नया मकान बन सकता है? जब तक हम पुराने विचारों को त्यागेंगे नहीं, तब तक नए विचारों के लिए जगह कहाँ से बनेगी? जगह एक समय की तरह तय है. हमें अच्छे विचारों को समय की तरह पकड़ना है, तो क्यों न दिमाग का कचरा फेंक दिया जाए. कचरे का फेंका जाना ही विध्वंस है और नए विचारों का आना कहलाता है निर्माण. विध्वंस के बाद ही जापान निर्माण के रास्ते पर कितना आगे बढ़ गया! पुराने जमाने की हवेली, इमारत विध्वंस से ही गुजरकर आज आलीशान इमारतों की जगह ले रही है. काम-धंधे में पुत्र इसीलिए पिता से आगे बढ़ जाता है, क्योंकि पुत्र जमाने के अनुसार अपने काम में बदलाव लाता जाता है. उसका पुत्र और भी आगे बढ़ जाता है. क्योंकि वह आगे बढ़ने के गुण अपने पिता और दादा से पाता है. यदि वह समय के अनुसार नहीं चल पाता, तो पिछड़ भी जाता है. ऐसा अक्सर तीसरी पीढ़ी के साथ होता है. या तो धंधा बिलकुल चौपट हो जाता है, या फिर धंधा खूब चल निकलता है. तीसरी पीढ़ी या तो इतिहास रचती है, या फिर पूरा धंधा चौपट करके रख देती है. अतिहास सदैव नए विचारों, नए निर्माण, नए सपने, नया विश्वास और नई उमंगों के साथ रचा जाता है.
तो आइए, एक नया इतिहास रचने की दिशा में एक कदम ईमानदारी के साथ उठाएँ, मेरा विश्वास है कि कुछ समय बाद आप स्वयं को दस कदम आगे पाएँगे.
डा. महेश परिमल

ममत्व की धूप

भारती परिमल
इस दुनियाँ में सदि बढ़ती हुई जनसंख्या की जानकारी नज़दीक से लेनी हो तो, किसी भी शहर के रेलवे स्टेशन या बस स्टेण्ड पर चले जाइए। आपको न केवल जनसंख्या विस्फोट के साक्षात् दर्शन होंगे, बल्कि आप स्वयं भी उसका एक हिस्सा बन जाएँगे। मैं भी ऐसी ही भीड़ का एक हिस्सा बनी हुई थी। ट्रेन लगातार लेट होती जा रही थी। साथ ही साथ मेरी बोरियत भी बढ़ती जा रही थी क्योंकि विवेक तो आसपास के लोगों के साथ घुलमिल गए थे और बातें करने में मस्त थे लेकिन मेरा एकाकी स्वभाव उनसे घुलमिल नहीं पा रहा था। बेंच के एक कोनेपर गठरी बनी हुई मैं महिला-पत्रिका भी कब तक पढ़ी जाए ? पूरी पत्रिका तो चाट डाली थी। अब तो बस ट्रेन के आने की प्रतीक्षा थी। ट्रेन आए और मैं जल्दी अपने घर पहुँचू। वैसे घर पर भी कौन था इंतज़ार करने वाला! मैं और विवेक दो ही तो थे जो एक-दूसरे को अपने होने का परिचय देते थे। विवेक को अपने काम से फुरसत नहीं थी। घर जाते ही फिर वे अपनी ऑफिस और फाइलों में व्यस्त हो जाएँगे और मैं फिर अकेली हो जाऊँगी।
इस अकेलेपन ने पिछले बारह वर्षो से मेरा साथ नहीं छोड़ा। शादी के बाद हर लड़की माँ बनना चाहती है। मातृत्व सुख प्राप्त कर अपने नारी होने के अहसास से गर्वित होना चाहती है। यही चाहत मेरे मन में भी थी। मेरे और विवेक दोनों की ऑंखों में एक नन्हे नटखट बालक का सपना बसा हुआ था। विवेक तो इतने उतावले थे कि यदि मैं थोड़ी सी भी बीमार हुई या किसी दिन उठने में देर हुई तो तुरंत कहते - चलो डॉक्टर के पास चलते हैं, हमारा सपना सच होने को है। मगर वह शुभ दिन अब तक नहीं आया। हम दोनों यूँ ही इंतज़ार करते रह गए। पूरे बारह वर्ष बीत गए इस बीच कई मंदिर, क्लीनिक, स्पेश्लिस्ट डॉक्टर्स के चक्कर लगाए। हर कोई आश बंधाता रहा। उम्मीद का दामन न छूटा तो यकीन की मंज़िल भी न मिली। यँ ही सफर कटता रहा। विवेक ने स्वयं को काम में उलझा लिया और मेरे अकेलेपन में पुस्तकों ने सहारा दिया। साहित्य के प्रति पैदा हुई रूचि ने एक नाम दिया, पहचान दी मगर सपनों का पालना खाली ही रहा।
ट्रेन एक घंटा और लेट हो गई थी। विवेक ने कहा- तुम्हें भूख लगी होगी। मैं तुम्हारे लिए कोल्ड्रिंक्स और कुछ नाश्ता ले आता हूँ। मेरे कुछ कहने से पहले ही वे चले गए। पत्रिका बैग में रखकर मैं स्टेशन का नज़ारा देखने लगी। जहाँ तक निगाह गई चेहरे ही चेहरे नज़र आए। कुछ हंसते - मुस्कराते तो कुछ परेशान, बोझिल, कुछ आशा में लिपटें। इन सभी के बीच अकेली मैं !
तभी मेरा ध्यान पास में खेलते हुए एक बच्चे की तरफ गया तो उसे एक टक देखती ही रह गई। गोलमटोल, घुंघराले बाल, हँसता चेहरा, शरारती ऑंखें। देखकर यूँ लगा जैसे मेरी ज़िन्दगी की कहानी का सच निकल कर बाहर आ गया हो। बिलकुल मेरे सामने। वह बच्चा एक स्त्री के साथ, जो शायद उसकी माँ थी, उसके साथ शरारत कर रहा था। कभी वह उसकी चोटी पकड़कर खींचता तो कभी ऑंचल पकड़ता। वह उसे डाँटती तो ''अब ऐसा नहीं करूँगा'' कहते हुए उससे लिपट जाता। थोड़ी देर बाद फिर वैसी ही मस्ती करता और उसे डाँट पड़ती। मैं माँ-बेटे का यह खेल ध्यान से देख रही थी। जब स्त्री ने उसे बाँहों में ले लिया, तो मातृत्व की यह छवि देखकर मैं आनंद विभोर हो उठी। बालक बहुत देर तक अपनी माँ की बाँहों में झूलता रहा और मैं उसे देखती रही। मानों वह मेरी बाँहों मं झूल रहा हो। अचानक बालक ने माँ से कहा- माँ, मुझे भूख लगी है। कुछ खाने को दो। इतना सुनते ही उस स्त्री का चेहरा कठोर हो गया। कुछ क्षण पहले जिन ऑंखों में ममता भरी हुई थी, उन्हीं ऑंखों में क्रोध झलकने लगा। बालक को डाँटते हुए वह बोली- अभी कुछ देर पहले ही तो तुझे खाना दिया था। अब फिर कहाँ से लाऊँ ! यह गाड़ी भी तो इतनी देर से आ नहीं रही। आ जाए तो डिब्बों में झाडू लगाऊँ तो कुछ पैसे मिले। जिससे कुछ खरीद कर तुझे खाने को दूँ। जा तब तक नल से पानी पी ले। कह कर उसे भगा दिया।
बालक उदास होकर नल की ओर बढ़ गया। मैं सोचने लगी- ग़रीबी कितना तोड़ देती है, ग़रीब को। अभी यही माँ अपने बेटे को बांहों में लेकर कितनी खुश थी मगर जैसे ही पेट की आग ग़रीबी बनकर सामने आई तो मातृत्व का रिश्ता क्रोध की ज्वाला में जल गया।ग़रीबी और बेकारी से लड़ती यह औरत क्या दे पाएगी अपने बेटे का ? एक समय का खाना तक तो मिलना मुश्किल हो रहा है और इस मासूम की तो पूरी ज़िन्दगी बाकी है। अभी तो ज़िन्दगी की शुरूआत है। खाली पेट और ग़रीबी की छाया में कैसे बड़ा हो जाएगा यह ? यही सोचते हुए अचानक ये ख्याल आया- क्यों न मैं इस बालक को गोद ले लूँ। तब न इसे ग़रीबी का ताप लगेगा और न ही इसके सपने झुलसेंगे। विवेक मुझे कभी ना नहीं कहेंगे, क्यों न इससे एक बार बात की जाए ?
तब तक विवेक कोल्डिं्रक्स और समोसे लेकर आ गए थे। मुझे उससे बात करने का कहाना मिल गया था। मैंने उसमें से दो समोसे उस स्त्री की ओर बढ़ाए मगर यह क्या ? उसने लेने से इंकार कर दिया- बोली- हम ग़रीब ज़रूर है पर भिखारी नहीं। पूरा खाना न सही, अधूरा ही खाते हैं, मगर अपनी मेहनत का खाते हैं। मैं उसके स्वाभिमान को देखकर दंग थी। इतनी स्वाभिमानी स्त्री क्या अपने बालक को मुझे देगी ? वह भी हमेशा के लिए ? कभी नहीं ! वह स्त्री ऐसा कभी नहीं करेगी।
मैंने चुपचाप समोसे वापस ले लिए, मगर इस स्वाभिमन से भरे जवाब के साथ मुझे अपनी समस्या का हल मिल गया था। जिस एकाकीपन को भरने के लिए मैं बारह वर्ष इंतज़ार करती रही, उस एकाकीपन के लिए मैं इस ममतामयी, स्वाभिमानी माँ की गोद ही सूनी क्यों करूँ ? कोई अनाथ, बेसहारा, माँ-बाप के प्यास का भूखा बालक क्यों नहीं ? क्यों मुझे यह ख्याल नहीं आया ? क्यों इतने सालों तक अपने सपने को टूटते हुए देखती रही या स्वयं ही तोडती रही मगर अब इस एकाकी जीवन में बहार आएगी, एक मासूम मुस्कान खिलखिलाएगी।
मैंने फैसला कर लिया कि अबकी बार अपने जन्मदिन पर विवेक से यही उपहार मांगूंगी। एक मासूम, बेसहारा, अनाथ बालक को गोद लेने का उपहार। जिस उपहार के साथ ही मेरा और विवेक दोनों का सपना सच हो जाएगा। ममत्व की अभी-अभी खिली धूप ने मेरे अधरों पर मुस्कान ला दी थी।
भारती परिमल

शनिवार, 15 दिसंबर 2007

केवल खाने के लिए जीते लोग

डा. महेश परिमल
उस दिन एक डॉक्टर दोस्त ने अजीब सी बात बताई. उसने बताया कि आज हमारे देश में भूख से तो कम, पर खा-पीकर मरने वालों की संख्या अधिक हो गई है. मुझे आश्चर्य हुआ, क्या कह रहे हैं ये चिकित्सक महोदय? इसके जवाब में उन्होंने जो तथ्य बताए, उससे लगता है कि आज भारतीय सचमुच अपने चटोरपन के कारण अपने शरीर में न जाने कितने रोगों को आमंत्रित कर रहे हैं. आश्चर्य इस बात का है कि विभिन्न प्रांतों के लोगों की बीमारियों के पीछे यही चटोरापन है. आइए जाने कि जीभ के वश में होकर हमारे देश के लोग किस-किस बीमारी का शिकार हो रहे हैं.
आज पूरा देश प्रगति की राह पर चल पड़ा है. हर कोई अपने क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहा है. क्षेत्र चाहे शिक्षा का हो या फिर आर्थिक हो, हर दिशा में मानव आगे बढ़ रहा है. पर इसे यदि स्वास्थ्य की दृष्टि से देखें, तो स्पष्ट होगा कि आज हर मानव अपने भीतर एक न एक ऐसा रोग पाल रहा है, जिसका जन्मदाता वह स्वयं ही है. इसका मुख्य कारण है, स्वाद की लोलुपता. शायद आपको विश्वास नहीं होगा, पर यह सच है कि आज जीभ के वश में रहकर मानव अपने आप को खोखला कर रहा है. ये चटोरापन उसे कहाँ ले जाएगा, कुछ कहा नहीं जा सकता.
एक समय ऐसा था, जब लोगों की मौत का कारण बाढ़, सूखा और संक्रामक रोग था. लेकिन आज प्राकृतिक विपदाओं के साथ-साथ चटोरापन भी एक मुख्य कारण बनता जा रहा है. पंजाबी, मद्रासी, राजस्थानी, गुजराती आदि भारतीय व्यंजनों के शौकीन अब इससे भी आगे बढ़कर चाइनींज, मेक्सिकन, थाई और अन्य अंतरराष्ट्रीय व्यंजनों के पीछे भाग रहे हैं. इन व्यंजनों का स्वाद उन्हें इतना भा रहा है कि वे पानीपूरी, भेलपूरी, दाल-बाटी, इडली-दोसे से आगे बढ़कर थाईसूप, नूडल्स, बर्गर, पिाा, मनचुरियन तक पहुँच गए हैं. यही कारण है कि आज भूख से मरने वालों की अपेक्षा खा-पीकर मरने वाले भारतीयों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है.
आपने शायद ध्यान नहीं दिया होगा कि आपके बच्चे का टिफिन रोज ही वैसा का वैसा ही वापस आ रहा है. इसका कारण टिफिन मेें आपकी रुचि का दिया हुआ नाश्ता है. बच्चे की रुचि उस नाश्ते में कदापि नहीं है, क्योंकि उसे फास्ट फूड की आदत लग गई है. उसे अब पोहा, उपमा, आलू का पराठा आदि खाने में मंजा नहीं आता, उसे तो चाहिए बर्गर, पिाा, हॉटडॉग और नूडल्स पसंद है. इन विदेशी व्यंजनों के पीछे युवा वर्ग तो ऐसे भागा जा रहा है, मानो उसे ये व्यंजन अब कभी मिलेंगे ही नहीं. उनकी रुचि में उपरोक्त व्यंजनों के अलावा पेप्सी, कोक आदि कोल्डड्रींक का समावेश हो गया है. दूसरी ओर हमारी प्रौढ़ पीढ़ी की बात ही न पूछो. सारे स्वाद चखने के बाद अब उन्हेें भी ये व्यंजन लुभाने लगे हैं. बच गए बुजुर्ग, तो यह सभी जानते हैं कि बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन होता है. फिर भला ये बुजुर्ग इन नए-नए स्वादों से अलग कैसे रह सकते हैं?
आज सभ्य समाज में खान-पान की आदत जोर मारने लगी है. फॉस्ट फूड की दुकानों में बेतहाशा भीड़ शायद इसी चटोरेपन की ओर इंगित करती है. आश्चर्य की बात यह है कि हमारे देश में विभिन्न संस्कृतियों का मेल होने के बाद भी अलग-अलग संप्रदायों में अलग-अलग तरह की बीमारियाँ होने लगी हैं. इसका मुख्य कारण खान-पान है. गुजरातियों को डायबिटीज, सिंधियों को मोटापा और हृदय रोग, पारसी महिलाओं में स्तन कैंसर, बंगालियों को पेट के रोग, पंजाबियों को हृदय रोग, मद्रासी पुरुषों में लीवर के रोग हो रहे हैं.
गुजरातियों को मिठाई बहुत पसंद है. दोपहर और रात्रि के भोजन में उन्हें कुछ न कुछ मीठा खाने की आदत होती है. तेलयुक्त खाद्य पदार्थ भी उनके भोजन का एक हिस्सा है. यही कारण है कि उनमें डायबिटीज होता है. हाल ही में गुजराती, गुजराती जैन और मारवाड़ी समुदाय पर हुए एक सर्वेक्षण से पता चला कि इस शाकाहारी हिंदू समुदाय में अन्य की तुलना में कार्डियोडायबिटीज का प्रमाण अधिक मिलता है. इसका मुख्य कारण इनका आहार है. इनके आहार में विटामिन डी की मात्रा कम होती है. इसी कारण इनमें अस्थिरोग अधिक पाया जाता है.
यह तो हुई उनकी बात, जो मिठाइयों का अधिक सेवन करते हैं, पर कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो चिकनाईयुक्त भोजन लेते हैं, जिससे उनमें मोटापा, हाईपरटेंशन, डायबिटीज और ऑस्टियो पोराइसिस आदि बीमारियाँ होती हैं. इन बीमारियों का शिकार सिंधी समुदाय होता है. ये लोग उपवास भी करते हैं, तो उस दिन वे दूध, घी, मावा और फल आदि का सेवन अधिक मात्रा में करते हैं, इससे इनमें मोटापा बढ़ता है. इस समुदाय की एक कमजोरी पापड़ भी है, इससे वे हाईपरटेंशन को बुलावा देते हैं. इस समुदाय में एक बात विशेष रूप से विद्यमान होती है, वह है संयम. इसी संयम के कारण इन्हें एड्स कम होता. ऑंकड़े बताते हैं कि अभी तक सभी जाति के लोगों में एड्स का प्रभाव बढ़ रहा है, पर इस समुदाय में एड्स के रोगी ऊँगलियों में गिने जा सकते हैं.
इसके अलावा पानी भी बीमारियों को आमंत्रित करने में मुख्य भूमिका निभाता है. पंजाब, उ?ारप्रदेश, हिमाचल प्रदेश के पानी में आयोडीन की मात्रा कम होती है. इस क्षेत्र में रहने वाले यदि भोजन में आयोडिनयुक्त नमक का प्रयोग न करें, तो उन्हेें थायरॉइड होने की पूरी संभावना होती है. आजकल पृथ्वी के भीतर भी पानी इतना प्रदूषित हो गया है कि उससे भी कई रोग होने लगे हैं. पाऊच में मिलने वाले पानी में ऐसा रसायन मिलाया जाता है, ताकि वह चमकदार दिखाई दे. पानी के चमकदार दिखने से ेलोग यही समझते हैं कि पानी साफ है,लेकिन यही कथित रूप से साफ पानी लोगों में बीमारियाँ फैला रहा है.
केवल खानपान ही नहीं, बल्कि वस्त्र और उसके पहनने का तरीका भी कई बीमारियों को आमंत्रित करता है. मुस्लिम समुदाय की महिलाएँ अधिकांश समय बुरखे में होती हैं, इससे उनकी त्वचा को सूर्य का प्रकाश नहीं मिलता, जिससे उनमें विटामिन डी की कमी हो जाती है. इस कमी के कारण उनमें ऑस्टियो मलेशिया रोग हो जाता है. इस रोग में अस्थियाँ कोमल हो जाती हैं. दूसरी ओर रमजान के महीने में रोजा रखने के कारण मुस्लिम समुदाय की महिलाओं में मूत्र रोग की शिकायत मिलती है. लगातार कई घंटों तक पानी न पीने के कारण और पसीने के रूप में पानी शरीर से निकल जाने के कारण उनके शरीर में पानी की अत्यधिक कमी होने लगती है. डाक्टरों का इस संबंध में कहना है कि इससे निबटने के लिए महिलाओं को रोजा शुरू होने के पहले और खत्म होने के बाद एक-एक लीटर पानी पीना चाहिए.
थेलेसीमिया नामक रोग हमारे देश का नहीं है. यह विदेश से यहाँ आया है. इसके आने का कारण वे लोग हैं, जो विदेशों में शादी करते हैं. इससे यह रोग उनकी संतानों को विरासत में मिल जाता है. स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाए, तो केरल की महिलाओं का कोई सानी नहीं. वहाँ की महिलाएँ शिक्षित होने के कारण कई बीमारियों से दूर रह जाती हैं. वे अपने शरीर की इतनी अच्छी देखभाल करती हैं कि शायद ही वह कभी बीमार होती हैं. अधिकांश महिलाएँ कामकाजी होने के कारण बीमार होकर बैठना उन्हें नहीं सुहाता. यदि कभी ये बीमार पड़ भी जाएँ, तो चिकित्सक द्वारा दी गई सलाह का कड़ाई से पालन करती हैं. इससे वे जल्दी स्वस्थ भी हो जाती हैं.
सामान्य रूप से जीने के लिए खाना आवश्यक है. आदि मानव फल खाकर अपना पेट भरता था. उसके बाद उसने खेती शुरू कर दी. अब वह स?जी, भाजी और अनाज ग्रहण करने लगा. मानव प्रयोगवादी होने के कारण उसने अपने खान-पान में लगातार सुधार किया. लेकिन यह सुधार इतना गहरा हो गया कि अब तो विदेशों का अंधानुकरण ही करने लगा है. चाइनीज भेल, चाइनीज डोसा आदि नए-नए व्यंजन आने लगे हैं. इस तरह के व्यंजनों की कल्पना भले ही कभी चीनियों ने नहीं की होगी, पर हम भारतीय स्वाद के मामले में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि यह जानने की भी ंजरा भी कोशिश नहीं करते कि इससे कहीं शरीर को नुकसान तो नहीं पहुँचेगा? जीभ की लोलुपता बीमारियों के किस संसार में ले जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता.
डा. महेश परिमल

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2007

आइए, समस्याओं का स्वागत करें !

भारती परिमल
लोग कहते हैं कि समस्याएँ अनंत हैं। जिनसे हमेशा जूझते रहना पड़ता है। बहुत सी समस्याएँ तो हम सुलझाा लेते हैं किंतु कुछ समस्याए तो हम यँ ही खरीदते भी हैं। इसका अंदाज़ा मुझे पहले नहीं था। यह तब पता चला जब हम महिलाएँ आपस में बैठी और आदतन घर में आई चीज़ों के बारे में बखान करने लगी। मेरी समस्या यदि सोलर कुकर थी तो श्रीमती शर्मा की समस्या फ्रिज़ था। श्रीमती रस्तोगी के यहां तो अभी-अभी नई समस्या लगी ही थी टेलिफोन के रूप में। आइए इन समस्याओं से आपको भी अवगत कराया जाए। दरअसल बढ़ती महंगाई और हर महीने गैस सिलेंडर बदलने के चक्कर से बचने के लिए पति की इच्छा न होते हुए भी मैंने सोलर कुकर खरीद ही लिया। उसका मुहूर्त करते हुए घर के आंगन में रख उसे धूप दिखाई ही थी कि पड़ोसन की नज़र उस पर पड़ गई। वह मेरे पास आई और कहने लगी - बहनजी, हमारी गैस खत्म हो गई है, कृपया आपके सोलर कुकर में मेरे दाल-चावल पका दीजिए। मैं कुछ कहती इसके पहले ही वह अपने दाल-चावल मुझे थमा चुकी थी।
दूसरे दिन बच्चों की स्कूल की छुट्टी होने की वजह से हमारा बाहर घूमने जाने का प्रोग्राम था। घर से बाहर निकल ही रहे थे कि श्रीमती कश्यप ने घर में प्रवेश किया। मुस्कराते हुए बोली - शाम को हमारी बिटिया का जन्मदिन है, तो केक बनाना था। आपके सोलर कुकर में रख देते हूँ ज़रा देखते रहिएगा। वे तो केक रखकर चली गई और साथ ही पति और बच्चे भी मुझ पर बिगडते हुए नाराज़ हो कर चले गए। यह दर्शाते हुए कि कुकर तुमने खरीदा है अब तुम ही झेलो। और मैं सारा दिन केके को बनते हुए देखती रही। शाम को श्रीमती कश्यप आई और बिना धन्यवाद दिए ही अपना केक लेकर चली गई। एक दिन तो गज़ब हो गया। पड़ोस की नकचढ़ी लड़की जो कभी मुझसे सीधे मुँह बात न करती, वह शाम के वक्त आई और मुस्कराते हुए मुझसे सोलर कुकर की मांग कर बैठी। मैंने उससे कहा भी कि भला बिना धूप के इसका क्या काम ! किंतु वह अपनी ज़िद् पर अडी रही और मेरी इजाज़त पाते ही वहीं पर अपनी श्रृंगार पेटी लेकर आ गई। सोलर कुकर खोल कर उसके आईने के सामने अपना 'मेकअप' करने लगी। तब मैंने जाना कि सोलर कुकर का एक उपयोग यह भी है।
आज सोलर कुकर खरीदे हुए एक माह हो चुका है। एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब इसका उपयोग न हुआ हो। मगर हमने न इसमें बने भोजन का स्वाद चखा है और न ही मैंने इसमें 'मेकअप' का मज़ा लिया है। हाँ, पूरे मोहल्ले का यह प्यारा सोलर कुकर अवश्य बन चुका है। यही हाल श्रीमती शर्मा का है। उनके यहाँ कहने भर को उनका अपना फ्रिज़ है। फ्रिज़ भरा हुआ भी है मगर उसमें रखी चीजें उनकी नहीं, पड़ौसियों की है। उनके पति इतने साधु प्रवृत्ति के हैं कि किसी को कुछ भी रखने से ना नहीं कहते। नजीजा यह है कि उनकी खद की वस्तुएँ बाहर पड़ी खराब हो रही है। बचा हुआ खाना फेंकना पड़ता है। बासी सब्ज़ियों से काम चलाना पड़ता है। फ्रिज़ के ठंडे पानी की बजाए गरम पानी पीना पड़ता है यानि कि समस्या का कोई समाधान नहीं।श्रीमती रस्तोगी की समस्या तो इससे कहीं ज्यादा खतरनाक है। अभी-अभी लगे टेलिफोन ने उनकी नाम में दम कर रखा है। हर पाँच मिनट के अंतराल में उनके दरवाले पर घंटी बजती है और कोई न कोई पडौसी फोन करने आता है। समस्या सिर्फ यही नहीं है, फोन भीआते हैं, तो उनके नहीं, पडौसियों के होते हैं। एक बार तो उनके एक पड़ौसी ने दरवाज़ा खटखटाया वह भी रात ग्यारह बजे! मनवता के नाते उन्होंने फोन करने की इजाज़त दे दी और वे फोन पर पूरे आधे घंटे बातचीत करते रहे। घर में सभी की नींद खराब हुई और जो फोन का बिल आया, तो उसे देख कर तो श्रीमती रस्तोगी की तो तबियत ही खराब हो गई। उनके घर पर फोन के नाम से पडोसियों की ऐसी लाइन लगी होती है कि उन्हें खुद को ही फोन करना हो, तो पास के किसी एस.टी.डी.बूथ में जाना पड़ता है। तो यह है, हमारी खुद की खरीदी हुई समस्याएँ ! इनसे बचा भी नहीं जा सकता क्योंकि इन्हें शौक बनाकर हमने ही अपने गले बांधा है। तो आइए समस्याओं का यूँ ही स्वागत करते रहें और अपना माथा पीटते रहें।
भारती परिमल

गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

चेटिंग के समुद्र में अपनेपन की लहरें

डा. महेश परिमल
आज का युग चेटिंग का है. इसके शिकंजे में युवा पीढ़ी तो पूरी तरह से जकड़ चुकी है, परंतु इस दिशा में पालकों ने सकारात्मक सोच का प्रदर्शन किया है. अब उनके लिए चेटिंग किसी तरह का रोग नहीं है, बल्कि अपने बच्चों की खैरियत जानने का एक सस्ता सुलभ साधन बन गया है. आज के पालक इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं. अब उनका बच्चा भले ही सात समुंदर पार हो, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि चेटिंग के माध्यम से वे रोज ही अपने बच्चे से घंटों तक बात कर लेते हैं. यही नहीं बच्चे के दोस्तों से भी उनकी अच्छी नोकझोंक होते रहती है. अब दूर होकर भी उनका बच्चा बेगाना नहीं है, हर पल उनके माता-पिता उसके साथ हैं.
मेरे एक परिचित हैं, जिनका बेटा ऑस्ट्रेलिया में है, पर वहाँ रहते हुए भी उनका बेटा उनसे कतई दूर नहीं है, उनका बेटा रोज ही उनसे बात करता है. उसने आज क्या-क्या किया, क्या खाया, क्या पीया, कहाँ घूमा, क्या पढ़ाई की. आदि बातें वह चेटिंग के माध्यम से अपने माता-पिता को बताता है. ये सब उनके माता-पिता भारत के एक शहर में बैठे-बैठे चेटिंग के माध्यम से सुन लेते हैं और अपने कंप्यूटर पर देख भी लेते हैं. इससे उनका बेटा विदेश में भी अकेलापन महसूस नहीं करता.
अब कंप्यूटर की आधुनिक टेक्नालॉजी के द्वारा यह सब आसान हो गया है. अपने संतानों की सतत चिंता करने वाले और कदम-कदम पर उन्हें मार्गदर्शन देने वाले अभिभावक इस टेक्नालॉजी का भरपूर उपयोग कर संतोष और राहत का अनुभव करने लगे हैं. मेरे परिचित बताते हैं कि उनका बेटा भले ही ऑस्ट्रेलिया में हो, पर हमारे लिए वह अभी भी नासमझ ही है. उसे सात समुंदर दूर भले ही भेजा हो, पर उसे कभी अकेलापन न सताए, कभी वह मुश्किलों से न घिर जाए, इसके लिए वे उसके साथ सतत टेलीफोनिक चेटिंग करते रहते हैं. केवल वे ही नहीं, बल्कि बच्चे की माँ और उसके भाई-बहन भी उसके साथ बात करके और उसे सजीव देखकर बहुत खुश होते हैं. इतनी दूरी होने के बाद भी उन्हें कभी लगा नहीं कि वह हम सबसे दूर है. कंप्यूटर की यह सुविधा वास्तव में लाभदायक है, टेक्नालॉजी का सकारात्मक उपयोग इसे ही कहते हैं.
एक बार जब उसी परिचित के घर जाना हुआ, तो उन्होंने अपने चेटिंग के माध्यम से अपने पुत्र से बातचीत करवाई. तब उनके पुत्र ने बताया कि ई-मेल के माध्यम से तो मैं सतत ही अपने घरवालों के सम्पर्क में रहता हूँ. इसके अलावा सप्ताह में दो से तीन बार वेबकेम और टेलीफोनिक चेटिंग के द्वारा एक-दूसरे से प्रत्यक्ष मिलने का भी अनुभव कर लेते हैं. इससे इतनी दूर न तो अकेलापन सालता है और न ही माता-पिता, भाई-बहन की कमी खलती है. इस टेक्नालॉजी के कारण विदेश में पढ़ाई करने वाले युवा और उनके परिवार के सदस्य विविध प्रसंगों और परिस्थितियों में साथ होने का अहसास कर लेते हैं. माँ का दूलार, भाई-बहन का स्नेह और पिता की नसीहतें भी उन्हें इस माध्यम से आसानी से मिल जाती हैं. इस बार बेटा दीवाली पर घर पर नहीं था, पर माता-पिता ने उसे लक्ष्मी पूजा से लेकर सभी धार्मिक विधियों में उसे शामिल किया, फिर तो भाई-बहनों और मोहल्ले वालों ने किस तरह से दीपावली पर खुशियाँ मनाई, इसके एक-एक पल की जानकारी चेटिंग और वेबकेम के माध्यम से अपने बच्चे को दी. इससे प्रेरणा लेकर बच्चे ने भी नव वर्ष को किस तरह से अपने दोस्तों के साथ एंज्वाय किया, इसे माता-पिता को बताया.
मजा तो तब आता है, जब बच्चा पहली बार विदेशी भूमि पर कदम रखता है. तो सबसे पहली जरुरत यही होती है कि भोजन की समस्या किस तरह से हल की जाए. चेटिंग और वेबकेम के माध्यम से वह अपनी माँ से कौन-सा खाना किस तरह से तैयार किया जाए, इसकी पूरी जानकारी लेते हैं. फिर भले ही उन्हें अपने किचन में वेवकेम सेट करवाना पड़े, पर वे अपने आपको खाना बनाने के लिए तैयार कर लेते हैं. विदेशी भूमि पर अपने हाथों से तैयार किया गया घर का खाना खाना भला किसे अच्छा नहीं लगता होगा. यह भी एक तरह का जुनून है कि अपनी दिनचर्या की जानकारी अपने घरवालों को देना और उनसे सलाह लेना, वह भी आधुनिक टेक्नालॉजी के माध्यम से, इससे भला अच्छा सकारात्मक उपयोग और क्या हो सकता है इसका. आज जहाँ चेटिंग से युवा पीढ़ी को एक तरह से जकड़ ही लिया है, तो उस स्थिति में यह एक अच्छी खबर है.
डा. महेश परिमल

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

मासूम कैसे बन जाते हैं हत्यारे

डॉ. महेश परिमल
गुड़गाँव में कक्षा आठ में पढ़ने वाले दो किषोरों ने अपने एक साथी को गोली से उड़ा दिया। इस सनसनाती घटना से सभी के मनो मस्तिश्क में एक सवाल खड़ा कर दिया है कि मासूम हत्यारे कैसे बन जाते हैं? मासूमों का हत्यारा बनना आज समाज में आ रही विकृतियों का एक नमूना है। जीवन मूल्यों का गिरना लगातार जारी है। आष्चर्य इस बात का है कि जब षेयर के मूल्य गिरते हैं, तो पूरा देष चिंतित हो जाता है। महँगाई बढ़ने लगती है, पर जीवन मूल्य गिरते हैं, तो कोई भी समाजषास्त्री इस पर चिंता नहीं करता, यदि करता भी है, तो उसकी चिंता पर कोई ध्यान नहीं देता। घर में ही संस्कार के रूप में बच्चों को क्या मिल रहा है, यदि इस दिषा में थोड़ा सा सोच लिया जाए, तो मासूमों को हत्यारा बनाने वाले कारक हमारे सामने होंगे। पर हमें इस पर चिंता की आवष्यकता इसलिए नहीं है क्योंकि हमारे पास यह सोचने का वक्त ही नहीं है। हम अपने बच्चों के लिए बहुत कुछ कमाना चाहते हैं, ताकि उनकी पीढ़ी सुखी रहे। आज हमारे पास भले ही बच्चों को देने के लिए समय नही है, पर उनके भविश्य की चिंता हम अभी से कर रहे हैं, उन्हें समय न देकर। ठीक है आज आपके पास उनके लिए समय नहीं है, तो कल उनके पास भी आपके लिए समय नहीं होगा।
क्या आठ साल का मासूम एक से अधिक हत्याएँ कर सकता है।यह बात मानने लायक नहीं है।पर यह सच है।आज जहाँ चारों ओर हिंसा का साम्राज्य है, दूसरी ओर आकाषीय मार्ग से होने वाली ज्ञान वर्शा के कारण बच्चे समय से पहले ही समझदार होने लगे हैं, इस स्थिति में कोई एकदम निरापद रह सकता है, यह कल्पना करना मुष्किल है।विदेषों में तो आजकल बच्चों का गुस्सा देखने लायक होता है।वे अब स्कूलों में पिस्तौल लेकर जाने लगे हैं, थोड़ा सा भी गुस्सा आया कि वे चला देते हैं दनादन गोलियाँ।बाद में पता चलता है कि नाराजगी की कोई बात ही नहीं थी, यदि थी भी तो बहुत छोटी थी।उसका यह अंजाम होगा किसी ने नहीं सोचा।
तीन महीने पहले ही बिहार में एक आठ साल के मासूम ने एक बच्ची की हत्यार कर दी थी।हम िमासूम की बात कर रहे हैं, वह किसी षहर का नहीं, बल्कि बिहार के बेगूसराय जिले के भगवानपुर गाँव का है, नाम है उसका अमरदीप सदा।मात्र आठ वर्श की उम्र, इस उम्र में बच्चा क्या सीख पाता है, वह भी ठेठ गाँव का बच्चा।लेकिन उसने बिना कुछ सीखे ही बता दिया कि हत्या करने में उसे मजा आता है। उसने अभी तक तीन खून किए हैं।खुद की सगी बहन, चाचा की लड़की और मामा की लड़की की हत्या ठंडे कलेजे से कर दी।जब पुलिस ने इन हत्याओं के बारे में उससे पूछा तो जवाब में वह हँसते हुए कहता है कि मुझे मजा आ रहा था। इसलिए मार डाला।उस मासूम को अपने किए पर जरा भी पछतावा नहीं है।हर सवाल के जवाब में वह हँसता ही है।
आष्चर्य इस बात का है कि अमरदीप के खानदान में आजतक कोई ऐसा नहीं हुआ है, जिसने इस तरह का अपराध किया हो।जब परिवार में ऐसी कोई बात नहीं है, तो फिर आक्रामक और हिंसक होने के बीज उसे कहाँ से मिले? इसके अलावा उस गाँव में भी ऐसी कोई बात नहीं है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि समाज ही ऐसा है।इसका कारण खोजने के लिए हम काफी दूर जा रहे हैं, वास्तव में ऐसा नहीं है, कारण बहुत ही करीब है।यही कारण्ा आज सभ्रांत परिवारों में भी नजर आ रहा है, वही कारण उस गरीब परिवार में भी नजर आया। षहरों में अक्सर ऐसा होता है कि माता-पिता जब दोनों ही नौकरी पर जाते हैं, तो घर में अकेला रहने वाला मासूम किसी अनजाने मोह में फँस जाता है।यह मोह अपनी गर्ल फ्रेण्ड या बॉय फ्रेण्ड को लेकर हो सकता है, उससे जरा सा भी कहीं कुछ विचारों की पटरी नहीं बैठी, तो दिमाग का पारा सातवें आसमान पर पहुँच जाता है।इसका अंजाम भी बुरा ही होता है।
गाँव के इस मासूम के साथ ऐसी कोई बात नहीं थी।बात यह हुई कि जब उस मासूम ने पहली बार हत्या की, तो उसके पालकों ने इस घटना को गंभीरता से नहीं लिया।वे इस बात को जानते हुए भी दबाना चाहते थे, पर जब उस बच्चे ने पड़ोसी की बच्ची को मार डाला, तब इस बात को नहीं छिपाया जा सका और गाँव वालों ने भगवानपुर पुलिस स्टेषन पर इसकी षिकायत की।बात तब सामने आई। पुलिस स्टेषन में जब उस बच्चे से पूछा कि उसने हत्या कैसे की, तब उसने हँसते हुए बताया कि एक मासूम खुष्बू का तो पहले उसने गला दबा दिया। इसके बाद भी संतोश नहीं मिला, तो उसने उसके माथे पर पत्थरों से चोट की, फिर एक निर्जन स्थान पर जाकर उसे गाड़ दिया। इसके बाद जब खुष्बू को खोज षुरू हुई, तो इसी अमरदीप ने सबको उस स्थान तक पहुँचाया, जहाँ उसे गाड़ा गया था, मानो उसने कोई बहुत ही बड़ा काम किया हो।
इस संबंध में मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि इस मासूम की प्रवृत्ति पर पीड़ा में आनंद लेने की है। ऍंगरेजी में इसे 'सेडिस्ट' कहते हैं। इस उम्र में बच्चा स्वप्रेरित होकर ऐसा कुछ कर सकता है, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।यदि वह बालक षहर में रहता और वहाँ की संस्कृति से परिचित होता, तो यह समझा जा सकता था कि ऐसा संभव है। पर वह गाँव का है, जहाँ ऐसा कोई संसाधन नहीं है, जिससे वह प्रेरणा ले सके।बात एक बार फिर पालकों के गलत रवैए की ओर चली जाती है। जब बच्चे ने पहली बार हत्या की, तो उसके पालकों ने इसे दबाए क्यों रखा? फिर जब उसने अपनी गलती दोहराई, तब भी उसे न तो डाँटा, न पीटा और न ही नाराजगी दिखाई। इससे उसकी हिम्मत बढ़ गई। उसके अचेतन में यह बात पैठ गई कि इस प्रकार की गलती यदि बार-बार दोहराई जाए, तो कोई बुरा नहीं है।इससे उसकी हिम्मत बढ़ी और उसने एक बार फिर हत्या की।
अब जरा उस स्थिति पर ध्यान दें। हिंसा का ककहरा बच्चा कहाँ से सीखता है? घर के टीवी से, अखबारों से और समाज में होने वाली तमाम हिंसक घटनाओं से। इन सबका बच्चों के अचेतन पर गहरा प्रभाव पड़ता है।हिंसा आज समाज का एक आवष्यक अंग बनकर रह गई है। अब तो सास-बहू के धारावाहिक में भी हिंसा आवष्यक हो गई है। उसके बिना तो धारावाहिक में महिलाओं को भी मजा नहीं आता।कभी बच्चे के जन्म दिन पर मिलने वाले उपहारों पर ध्यान दिया है।बंदूक, गन, पिस्तौल, हिंसा वाले खेल की सीडी, कंप्यूटर गेम, जिसमें गोलियाँ अनलिमिटेड होती हैं, बस अपराधियों को मारते जाना है।इन खेलों के नियम-कायदों को बच्चे आसानी से जान जाते हैं।कभी ध्यान दिया कि बच्चे इतनी आसानी से ये सब कैसे कर लेते हैं? हम सोचते हैं कि नई उमर की हवा से कोई बेअसर नहीं रह सकता। यह आज की जरूरत है। पर क्या यह सोचा, पहले जब समय की जरूरत थी, तो आपने यह सब क्यों नहीं सीखा? जो हम सीख नहीं पाए, उसे हम बच्चों के माध्यम से सीखना चाहते हैं। पर बच्चे से आप क्या सीख रहे हैं, इस पर कभी गंभीरता से विचार किया? कभी-कभी ऐसा भी होता है कि जो हमने सीखा उसे हमें बच्चे को सिखाते हैं।यह मैेंने तब जाना, जब एक पिता को अपने 6 वर्श के बच्चे को टीवी पर वार गेम सिखाते देखा।आज समाज में हिंसा का जो अतिरेक हमें दिखाई दे रहा है उसके मूल में जाएँ, तो सब स्पश्ट हो जाएगा।फिर वह चाहे स्कूल में बच्चे द्वारा की गई हिंसा हो, या फिर अपनी ही सहपाठी के साथ बलात्कार। हमें इसके मूल में जाना ही होगा, तभी हम कुछ समझ सकते हैं।
अब स्थिति यह है कि अमरदीप के अपने कोई भाई-बहन नहीं है। मारपीट के डर से उसके मजदूर माता-पिता गाँव छोड़कर चले गए हैं।अब उस मासूम का भविश्य पुिलिस और उसके समाज के हाथों में है। उसका क्या होगा, यह कोई नहीं जानता, पर यह सब जानते हैं कि अपने बच्चों की हरकतों पर यदि समय रहते ध्यान नहीं दिया गया, तो बच्चे के साथ-साथ माता-पिता का भविश्य खतरे में है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

झुकने में ही है उठने की आकांक्षा

डा. महेश परिमल

हम सबका कभी न कभी किसी न किसी अधिकारी से पाला पड़ा होगा. ऐसे कितने अधिकारी होंगे जिनका व्यवहार हमें अच्छा लगा होगा ? दरअसल सभी अपनी हेकड़ी में जीते हैं. कोई झुकना नहीं चाहता. सरल और सहज नहीं बनना चाहता. यदि कोई शिकायर्तकत्ता किसी अधिकारी के पास है, तो अधिकारी अपनी जगह से उठकर उस व्यक्ति तक आए और पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाए, इात के साथ व्यक्ति को बैठने के लिए कहे, पहले पानी लाने का आदेश करे, फिर चाय-कॉफी के लिए कहे. उसके बाद उसके आने का कारण पूछे. तब कैसा लगेगा ? ये सब करने में अधिकारी को डेढ़ से दो मिनट लगते हैं, लेकिन उसके इस व्यवहार से शिकायर्तकत्ता की आवांज में अनजाने में ही कोमलता आ जाएगी. वह अपनी शिकायत पर पुनर्विचार करेगा. संभव है दोनों की बातचीत में कोई नया सुझाव ही निकल आए.
आजकल प्रबंधन के क्षेत्र में बहुत से बदलाव आ रहे हैं, पर इस जमीनी बदलाव की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है. ये वो नुस्खा है, जो व्यक्ति को ही नहीं उसके पेशे को भी महान् बनाता है. एक डॉक्टर ने अपनी छोटी-सी डिस्पेंसरी खोली, कुछ ही दिनों में उसकी डिस्पेंसरी खूब चलने लगी. उसके यहाँ मरीजों की लाइन लगी रहती. उसके आसपास के डॉक्टर हैरान थे कि ये कैसे हो गया ? उस डॉक्टर में कुछ ऐसा न था, जो दूसरों में न हो. उस डॉक्टर ने यह विशेषता दिखाई कि वह आने वाले मरीज को खुद नमस्कार करता. अमूमन होता यह है कि मरीज ही खुद डॉक्टर को नमस्कार करता है. डॉक्टर की ओर से पहल नहीं होती. वे तो इसी इंतजार में होते हैं कि मरीज ही उन्हें नमस्कार करे,अभिवादन करे.यहाँ डॉक्अर ने खुद मरीज को नमस्कार करना शुरू कर दिया, यह तरीका कामयाब रहा और उसकी डिस्पेंसरी खूब चलने लगी. वह व्यक्त् िएम.बी.बी.एस. डॉक्टर न होकर साधारण आर.एम.पी. में रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिश्नर था.
सभी के पेशों का मुख्य आधार होता है, सामने वाले को प्रभावित करना, कोई अपनी शिक्षा से प्रभावित करता है, कोई अपने उत्पाद से, कोई अपने संबंधों से, पर कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि सामने वाला क्या चाहता है ? सामने वाला तो थोड़े से सम्मान से ही अभिभूत हो जाता है. सम्मान देने के लिए थोड़ा सा झुकना पड़ता है. पर यही झुकना उसे बड़ा बनाता है. बाढ़ के समय नदी के किनारे कई पेड़ ऐसे होते हैं, जो तनकर खड़े रहते हैं, पर वे अधिक समय तक वैसे ही नहीं खड़े रहते, नदी उसे बहा ले जाती है. दूसरी ओर ऊँची-ऊँची घास भी किनारे पर उगी होती है, जो पानी आने पर झुक जाती हैं. कोमल घासों का झुक जाना न केवल उनकी उम्र बढ़ाता है, बल्कि उन्हें उससे जीवनदान भी मिलता है. इससे यह कहा जा सकता है कि झुकने में ही उठने की आकांक्षा छिपी होती है.
जिनका व्यवहार रुखा होता है उनका चेहरा तनावपूर्ण दिखाई देता है. इसे वे अपनी गंभीरता मान लेते हैं. जबकि वह ओढ़ी हुई गंभीरता होती है. यही गंभीरता उनके भीतर अहं का भाव जगाती है. ऐसे लोगों से मिलकर खुशी कदापि नहीं होती. हमें ऐसा लगता है, मानो उससे मिलकर हमने अपना समय ही खराब किया है. शासकीय स्तर पर ऐसे कई अधिकारी मिल जाएँगे, पर निजी क्षेत्रों में ऐसे अधिकारियों की आवश्यकता ही नहीं होती. रुखे स्वभाव के अधिकारी यह भूल जाते हैं कि उनकी छोटी-सी मुस्कान सामने वाले पर कितना गहरा प्रभाव छोड़ती है. उसके बाद हम उनकी बातों को ही ध्यानपूर्वक सुन लें, कुछ समय के लिए एक अच्छे श्रोता ही बन जाएँ, तो सामने वाला यह समझेगा कि अधिकारी ने मुझे प्राथमिकता दी, मेरा अभिवादन किया, मेरी बात ध्यान से सुनी. इसके बाद उस व्यक्ति का काम भेले ही न हो पाए, इसका उसे मलाल नहीं होगा. अधिकारी के व्यवहार की उस पर अमिट छाप होगी.
जो अच्छे होते हैं, वे भीतर से भी अच्छे होते हैं. ऐसे लोगों के चेहरो का तेज ही बता देता है कि उनके भीतर कोई शैतान नहीं है. धूर्त और चालाक व्यक्तियों की नशीली ऑंखें ही उनके विचारों को दर्शाती हैं. जो अच्छा होता है, उसके लिए सारी दुनिया अच्छी होती है, वह बुरे लोगों के साथ भी अच्छाई से पेश आता है. उसके पास कोई समस्या नहीं होती, वह अपनी अच्छाई से अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढ लेता है, पर जो हमेशा शिकायत करते रहते हैं, उनके पास कभी जाकर देखो-शिकायतें ही शिकायतें, देश से शिकायत, अपने अधिकारियों से शिकयत, अपने मित्रों से शिकायत, पत्नी से शिकायत, बच्चों से शिकायत, यहाँ तक कि अपने से भी शिकायत. शिकायतों का अंबार लगा होता है उनके पास. इन शिकायतों केक बीच वे खो जाते हैं, दब जाते हैं, उन्हें समाधान नहीं मिलता, कभी नहीं मिलता. उनके पास एक सुझाव तक नहीं होता. ऐसों से अच्छाई या अच्छे व्यवहार की कल्पना ही नहीं की जा सकती.
शिकायत होती है, शिकायत होनी चाहिए, पर आपके पास उनसके हल के लिए सुझाव भी होना चाहिए. अधिकारी ने आपसे अच्छा व्यवहार किया, वह अगर आपकी शिकायत सुनकर समाधान के िलिए आपसे सुझाव माँगे तो आप क्या करेंगे ? आप पाएँगे कि शिकायत की हेठी में आप इतने डूब गए कि आपको समाधान या सुझाव के लिए समय ही नहीं मिला.
आप अगर यह सोचते हैं कि मेरा काम शिकायत करना है, समाधान तलाशने का काम अधिकारियों का है, तो आप ंगलत हैं. मान लो अधिकारी ने शिकायर्तकत्ता को ही उक्त शिकायत दूर करने के लिए अधिकृत कर दिया तो फिर क्या होगा? रही बात अधिकारियों की तो उसे फलों से लदे हुए वृक्ष की भाँति होना चाहिए, झुका हुआ. इससे वे और भी बडे बनेंगे. ऑफिस से निकलते हुए बॉस यदि सहसा रूककर किसी कर्मचारी से उसका हालचाल पूछ ले, घर के सदस्यों की जानकारी ले ले, तो पूरे ऑफिस में एक अच्छा संदेश जाएगा. लोगों को लगेगा कि हम बॉस के करीब रहें या न रहें, पर बॉस हमारे करीब है. बॉस को हमारी चिंता है. इससे वह अपना काम और भी बेहतर करके दिखाना चाहेगा. समर्पण और निष्ठापूर्वक काम करने का एक वातावरण बनेगा.
किसी का भी दिल जीतने के लिए थोड़ी-सी मुस्कान, थोड़ा-सा अभिवादन, कोमल व्यवहार और दिलचस्पी लेकर बातें सुनने का धैर्य चाहिए. आप देखेंगे कि एक नहीं आप कई लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं. हर कोई आपकी प्रशंसा करता दिखाई देगा. यही है इंसान के कामयाब होने की शुरुआत. कामयाबी कोई खरीद-फरोख्त की चींज नहीं, यह एक पूर्ण रूप से मानसिक वस्तु है. अगर आपके अंदर इरादा है, तो आप अपने उद्देश्य को पाने का रास्ता ढूँढ़ ही लेंगे और अगर इरादा नहीं है तो आप यह कहकर बैठ जाएँगे कि यह नहीं हो सकता. किसी भी इंसान की नाकामी का रांज बेहतर हालत में यह नहीं होता कि उसके पास संसाधन का अभाव था, बल्कि यह होता है कि वह अपने हरसंभव संसाधनों का सही तौर पर इस्तेमाल नहीं कर पाया. यह तय मानें कि जितने भी सफल व्यक्ति रहे हैं, वे यही मानते हैं कि वे कामयाब होने के पहले कई बार नाकामयाब भी रहे हैं. इस नाकामयाबी ने उनके हौसलों को तोड़ा नहीं, बल्कि हर बार वे पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़े हैं. वे इसे भी स्वीकारते हैं कि हम नाकाम भी हुए, तो इसका कारण था हमारा टूटा हौसला. अवसर की कमी का रोना हर कोई रोता है. वास्तव में वह अपने टूटे हौसले के कारण रोता है.
यह तय मानें, एक रास्ता बंद होता है, तो कई और रास्ते खुल जाते हैं. हमें करना बस यहीे है कि पूरे धैर्य के साथ उन रास्तों को देखें, परखें और उस पर चलें. यहाँ धैर्य ही काम आता है,उसे पूँजी की तरह सँभालकर रखें, बस.........
. डा. महेश परिमल

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