- डॉ. महेश परिमल
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि उनके घर में नई बहू का पदार्पण हुआ और वृध्द बीमार, ससुर का स्वर्गवास हो गया. हमारे भारतीय परिवेश में देखें तो वह बहू उस घर के लिए कुलच्छिनी, नाशपिटी और भी न जाने किस-किस अलंकरणों से सुशोभित होगी. बहू के पाँव उस घर के लिए शुभदायी नहीं रहे. बहू को तो यह आरोप अब सारी जिंदगी ढोना है. चाहे वह कितनी भी संस्कारवान हो, सुसंस्कृत हो, शिक्षित हो, कोमल स्वभाव की हो, पर उक्त आरोप के आगे ये सारे गुण नतमस्तक हैं.
अब इसे दूसरी दृष्टि से देखें. लड़की वाले जल्द शादी के लिए तैयार न थे, पर लड़के के पिता की उम्र व बीमारी को देखते हुए उन्हें जल्दी पड़ी थी, सो उन्होंने अंतत: लड़की वालों को जल्द शादी के लिए तैयार कर लिया और फिर एक संयोग के तहत उक्त घटना या दुर्घटना घट गई. देखा जाए तो मौत की आशंका से लड़के वाले पहले ही सशंकित थे, वे मौत का इंतजार ही कर रहे थे, पर मौत को तो बहाना चाहिए तो मौत ने बहू के माध्यम से घर में प्रवेश किया. पर ऐसा नहीं है. इसे ही अगर हम अपनी संवेदनाओं को जगाकर देखें तो एक शरीर पीड़ा से छटपटाता हुआ, जो भीतर से टूट चुका है, जो पल-पल, घुट-घुटकर मारने वाली इस जिंदगी से मुक्ति चाहता है. आत्मा उस कृशकाय शरीर को बहू के पदार्पण के साथ ही छोड़ जाती है, तो फिर बहू उस घर के लिए अपशकुन क्यों हुई? उसके आने से दर्द से छटपटाते एक शरीर को मुँहमाँगी मुराद मिल गई. ऐसा क्यों नहीं सोचा जाता?
बहुत वर्षों बाद सास ने अपने प्राण त्यागने के पूर्व बहू को बताया कि वास्तव में तुम्हारे ससुर को मैंने अपने बेटे के साथ मिलकर प्रताड़ित किया था और उन्हें घुट-घुटकर जीने के लिए विवश किया था, तुम तो एक बहाना मात्र थीं. यह सुनकर उस बहू के पाँव तले जमीन ही खिसक गई. एक झटके में उसके सामने वे प्रताड़ना एवं यातना भरे दिन चित्र की भाँति आने लगे. किस तरह से उसने जिंदगी के इतने बरस जहालत से गुजारे. कई-कई दिनों तक भूखी रही. बच्चों को उससे दूर रखा गया. जबर्दस्ती मायके भेज दिया जाता और दहेज की माँग की जाती. अंधेरे कमरे में बंद कर दिया जाता. यह सब कुछ उसने सहा एक ऐसे कृत्य के बदले जो उसने किया ही नहीं.
तो यह था हमारे भारतीय समाज का एक चित्र. आज हम भले ही कितने भी आधुनिक हो जाएँ, विज्ञान की बड़ी-बड़ी बातें कर लें, विदेशों के उन्मुक्त जीवन के पक्षधर हो जाएँ, पर भीतर से कहीं न कहीं संस्काररूपी बेड़ियों से जकड़े हुए हैं. ये संस्कार हमें भारतीय परिवेश में रहकर मिले हैं. इसे हम छोड़ने का ढोंग तो कर सकते हैं, छोड़ नहीं सकते. प्रचार पाने के लिए तमाम नारी संगठन तेज स्वर में भाषण कर सकते हैं, नारी उत्पीड़न के लिए अभियान चला सकते हैं. पर घर में सास कभी भी बहू को बेटी की दृष्टि से नहीं देख पाएँगी, उसे तो वह बहू ही दिखाई देगी. बेटी के देर रात लड़खड़ाते कदमों से घर लौटना वे अनदेखा कर सकती हैं, पर बहू का किसी अन्य पुरूष के साथ हँसकर बात कर लेना उन्हें नागवार गुजरता है. यह सब कुछ होता है एक परंपरा के तहत. उस सास ने भी बहू बनकर प्रताड़ना झेली होगी, तो वह परंपरा निभाने में क्याें पीछे रहे? जब मेरी सास ने मुझे बेटी नहीं माना, तो फिर मैं अपनी बहू को बेटी क्यों मानूँ?
इस मामले में पुरूषों का नजरिया घर में कुछ और बाहर में कुछ होता है. घर से बाहर वे नारी शोषण के खिलाफ खूब बोलते हैं, देश-विदेश के उदाहरण देते हैं. पर घर आकर बहू के प्रताड़ित होने पर भले ही उस कार्य में सहयोग न दें, पर असहयोग भी नहीं करते. मौन रहकर अपनी स्वीकृति देते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि विरोध करने से कुछ नहीं होने वाला. फिर शेष जीवन भी इन्हीं के बीच ही गुजारना है. कौन आफत मोल ले?
बहू लक्ष्मी का प्रतीक है, पर उसका वाहन है, मूर्खों का प्रतीक. इसलिए जिनके यहाँ 'लक्ष्मी' का आगमन होता है, तो वहाँ के लोग अपनी श्रध्दानुसार या आदतन कोई प्रत्यक्ष रूप से आई लक्ष्मीजी को स्वीकारता है तो कोई परोक्ष रूप से उसके वाहन को अपना आदर्श मानता है. पर कई बहुएँ अपने साथ 'लक्ष्मी' को नहीं लातीं. इसका आशय यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि वह अपने साथ कुछ नहीं लाई है. वह अपने साथ लाती है अच्छे संस्कार, अच्छी शिक्षा, शालीन व्यवहार का प्रकाशपुंज, जिससे वह घर जगमगा उठे. जो बहुएँ अपने साथ 'लक्ष्मी' नहीं लातीं, निश्चित ही उनके माता-पिता ने उनकी अच्छी शिक्षा एवं संस्कार में कोई कमी नहीं रखी होगी. वे धन की अपेक्षा शील, संस्कार, सद्गुण को ही कभी न खत्म होने वाला धन मानते होंगे. इसलिए वे इस प्रकार का धन देकर बेटी को विदा करते हैें.
इंसान कभी बुरा नहीं होता, बुरे होते हैं हालात, जो उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करते हैं. इसलिए बुरे काम करने वाले के हालात पर जरूर गौर करना चाहिए कि उसने किन हालात में वह कार्य किया. बहुओं को समर्पित इस आलेख को एक लघुकथा से समाप्त किया जाए तो बेहतर होगा.
बेटे की उपेक्षा और बहू की प्रताड़ना से दु:खी बूढ़े माता-पिता की जिंदगी घर के एक छोटे से कमरे में सिमटकर रह गई. एक फटा कम्बल, फटी चादर, टूटा मटका और गिलास, यही उनकी पूँजी थी. कुत्ते को अच्छा खाना देने के बाद जूठा-बचा खाना उन बुजुर्गों को मिल जाता. किसी मेहमान से मिलने की पाबंदी थी. अपना दु:ख वे किसी से न कह सकते थे. पुत्र व्यस्त था, काम धंधे में. उसे माता-पिता की तरफ ध्यान देने की फुरसत न थी. बहू को किटी-पार्टी से वक्त न मिलता. बुजुर्गों के दिन नितांत अकेलेपन में कट रहे थे. आखिर बूढ़ी हड्डियों ने जवाब दे दिया. पहले माँ का स्वर्गवास हुआ. महीना भर बीतते-बीतते पिता भी चल बसे. परिवार में अनचाहे शोक की लहर छा गई. कुछ दिनों तक बेटे का काम-धंधा और बहू की किटी पार्टी बंद रही. एक दिन कमरे की सफाई हुई और कमरे में रखे फटे कम्बल, चादर, मटके, गिलास बाहर फेंके जाने लगे. अचानक शोकसंतप्त पुत्र के आठ वर्षीय पुत्र ने कम्बल और चादर को अपने सीने में भींच लिया. सिसकते हुये कहने लगा- 'नहीं-नहीं मैं इसे नहीं दूँगा. बड़े होने पर ये मेरे मम्मी-पापा के काम आएँगे'...बस...
यहाँ आकर मेरी संवेदनाओं के पंखों ने उड़ने से मना कर दिया.
डॉ. महेश परिमल
मंगलवार, 18 दिसंबर 2007
बहू रे बहू बोल, कितना पानी?
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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बढिया लेख है।कथा अच्छी लगी। यह पूरा सच नही है कि बहुओं को ही सताया जाता है..बहुएं भी सताती हैं....हर घर की कहानी एक जैसी नही होती....सब के अनुभव अलग -अलग हो सकते हैं।इस लड़ाई में पुरूषों का चुप हो जाना शायद "तिल का ताड़ ना बन जाए"इसी भय से होता है।
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