डॉ. महेश परिमल
बचत एक मानवीय प्रवृत्त् िहै. यह विशेषकर महिलाओं में पाई जाती है. लेकिन कई बार वह भी उलझ जाती है कि उसके हाथ से कितना धन निकल गया. इसका हिसाब भी उसके पास नहीं होता. हमें यह तो पता होता है कि धन आया कहाँ से, पर धन के जाने का रास्ता हमें मालूम नहीं होता. जबकि वह हमारे ही हाथों से होकर गुजरता है. ऐसे में कैसे रोका जाए, इस चंचला लक्ष्मी को? आइए इस पर विचार करें-
गचम हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अंग है. सब जानते हैं कि बचत जीवन के लिए आवश्यक है. 'बूँद-बूँद से घट भरे' मुहावरा ऐसे ही नहीं बन गया. आज इसी बचत के सिध्दांत को लेकर न जाने कितनी योजनाएँ बन रही हैं. कई कंपनियाँ केवल बचत को ही आधार बनाकर ऐस-ऐसे सपने बेच रही है कि लगता है हम सब-कुछ आसानी से प्राप्त कर लेंगे. वास्तव में ऐसा नहीं है. सब कुछ हमारी बचत पर ही निर्भर है.
उस दिन पत्नी से इसी बात पर विवाद हो गया कि इस महीने इतने अधिक रुपए कैसे खर्च हो गए. हम दोनों की पूरी तनख्वाह निकल गई, पर कहाँ कितने खर्च हुए, कोई बता नहीं पाया. एक महीने में अतिरिक्त खर्च हुए पूरे दस हजार रुपए, हिसाब लगाने बैठे, तो पाँच हजार के खर्च का पता चला. शेष पाँच हजार कहाँ गए? इस पर हम दोनों ही मौन थे. आश्चर्य इस बात का है कि घर में राशन, मसाला, और तेल सब वर्ष भर के लिए एक साथ ले लिया जाता है. बाकी कहाँ खर्च हुए? यह एक मध्यम वर्गीय परिवार के लिए शोध का विषय हो सकता है, पर हम सबके लिए यह आवश्यक है कि धन के आने का स्रोत तो हमें मालूम है, लेकिन जाने का स्रोत नहीं मालूम. ऐसा कैसे हो सकता है. यह सच है कि धन अपने साथ जाने का रास्ता लेकर आता है, पर जाने का रास्ता हमारे हाथ से ही होकर गुजरता है ना, तो फिर हमें ही क्यों नहीं मालूम कि हमारा धन कहाँ जा रहा है?
काफी सोच-समझकर हम दोनों ने एक उपाय सोचा. उपाय भी ऐसा, जो हम इसी बचत के लिए पहले से अपनाते आए हैं. वह उपाय था लिफाफा संस्कृति. लिफाफा संस्कृति से हम सब वाकिफ हैं. पर यही संस्कृति यदि हमारी बचत में काम आए, तो इसे बुरी नहीं कहा जा सकता. हमने भी उसे अपनाया. कुछ महीनों तक ऐसा किया, इससे यह तो पता चला कि हमारा वेतन जाता कहाँ है. फिर इससे यह भी पता चला कि अब हमें इत्मीनान से यह बता सकते हैं कि किस मद पर कितना खर्च हुआ और पिछले माह कितने रुपए बचे या अतिरिक्त खर्च हुए. हम अपने खर्च पर काबू पाना सीख चुके थे. इन लिफाफों से इतना तो पता चल जाता था कि हम कितने पानी में हैं?
आप भी यदि अपनी महीने भर की हाड़-तोड़ मेहनत को लिफाफों में विभाजित कर दें तो मेरा विश्वास हे कि आप भी अपने बेकाबू खर्च पर कुछ तो नियंत्रण पा ही सकते हैं. यदि आप लिफाफे बनाना चाहें तो उन लिफाफों पर मकान किराया, राशन, सब्जी, दूध, बिजली बिल, गैस, स्कूल फीस, बस फीस, आटो, पेट्रोल, टेलीफोन, अखबार, इंश्यारेंस, बच्चों की पाकिट मनी, बड़ों की पाकिट मनी, अचानक और बचत के लिफाफे बनाए जाएँ. इसमें से कुछ खर्च तो कॉमन हैं, जिसे होना ही है. हमारा वेतन इन लिफाफों में विभाजित हो गया. अब सावधानी यह रखनी होगी कि कब किस काम के लिए धन चाहिए, तो उसी लिफाफे से रुपए निकालें. कभी भी किसी भी लिफाफे से रुपए निकालकर बाद में रख देंगे, यह कहकर अपना काम चलाने लगें, तो यह युक्ति काम नहीं आएगी. जब जिस मद के लिए रुपयों की आवश्यकता हो, उसी मद से रुपए निकालें. आप स्वयं अनुभव करेंगे कि यह काम आसान है, बस इसे दिल से करने की जरूरत है.
लिफाफों के ऊपर नाम लिखे जाएँ, पर उपरोक्त नामों में से कुछ नाम आपको हैरत में डालेंगे. इसमें अचानक और बचत के लिफाफे कैसे? क्या होता है, जब कोई अचानक ही खर्च आ जाता है, जिसकी अपेक्षा ही नहीं थी, जैसे कोई बीमार पड़ गया या फिर अचानक कहीं जाना पड़ जाए. ऐसी स्थिति में यही लिफाफे काम आते हैं. यह आवश्यक नहीं कि ऐसी स्थिति हमेशा या हर महीने आए. कभी-कभी ही आती है, ऐसी स्थिति, पर उससे जूझने के लिए हिम्मत इसी धन से मिलेगी. घर का मुखिया एक सप्ताह के लिए यदि बाहर जाए, तो पेट्रोल तो बच गया, अब उसके रुपए लिफाफे में ही रह गए, वह अगले महीने काम आएँगे. इसी तरह बिजली बिल कभी कम आया, तो शेष रुपए उसी लिफाफे में ही रह जाएँ, तो बुरा क्या है? इस तरह यदि गैस दो महीने चलती है, तो एक बार आधी रकम रखे, दूसरी बार यह रकम पूरे गैस खरीदने के बराबर हो जाएगी. टेलिफोन बिल यदि दो माह में आता है, तो उसे भी इसी तरह संचालित किया जाए. लिफाफों में रकम है, तो वह बाद में बहुत काम आएगी, एकदम से बोझ आप पर नहीं आएगा. इस तरह से हाथ के खुले होने पर नियंत्रण रखा जा सकता है. धीरे-धीरे इसे आदत में शुमार कर लिया जाए, तो हम एक अच्छी आदत के स्वामिनी बन सकती हैं.
इसे तय मानें कि महँगाई बढ़ती ही रहेगी, इसे कम होना नहीं आता. इस दौरान वेतन तो नहीं बढ़ेगा, अलबत्ता नए खर्च आते रहेंगे. इसे इसी तरह 'मैनेज' किया जा सकता है. जिन लिफाफों से आप शादी-समारोहों में खुशियाँ बाँटते हैं, उन लिफाफों से घर की खुशियाँ नहीं खरीद सकते. आप एक बार घर में इन लिफाफों में अपना वेतन विभाजित करके तो देखें, आप पाएँगी कि आप एकाकार हो गई हैं. सबको साथ लेकर चलने लगी हैं. आप आगे होंगी, पीछे घर के सदस्य. हो सकता है बाद में पूरा मोहल्ला ही आपसे जानना चाहे, आपकी खुशियों का रांज. आपकी, ईमानदारी आपकी दूरदर्शिता काम आ सकती हैं, अनजाने में आप कई लोगों की प्रेरणा बन सकती हैं.
डॉ. महेश परिमल
गुरुवार, 20 दिसंबर 2007
लिफाफों में बंद खुशियाँ
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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