डा. महेश परिमल
पुस्तकें भेंट करना एक अच्छी परंपरा है. इसमें यदि कोई धर्मिक पुस्तक मिल जाए, तो मन श्रध्दा से भर उठता है. एक इसाई मित्र ने मुझे पवित्र बाइबल भेंट की. नया नियम और पुराना नियम, ये दोनों ही इसके दो रूप हैं. पूरी बाइबल पढ़ी, फिर शुरू हुआ चिंतन. बार-बार एक ही जगह जाकर विचार की तरंगें अटक जाती, जीसस के ये वाक्य, जो बार-बार बाइबल में आए हैं, जिनके पास ऑंखें हों, वे मुझे देखें और जिनके पास कान हो, वे मुझे सुनें. इन्हीं वाक्यों ने विवश कर दिया कुछ सोचने को. ऑंखें और कान तो हम सभी के पास हैं, उनका बार-बार यह दोहराना, क्या ऐसा नहीं लगता कि वे अंधे और बहरों के बीच बोल रहे थे ?
समझ की सोच ने यहीं से विचार यात्रा प्रारंभ की. नहीं, वे अंधे-बहरों के समूह में नहीं बोल रहे थे, पर उस समय अंधे और बहरों का समूह अधिक था, जिनकी ऑंखें थीं और कान भी थे. जीसस को देखना सचमुच मुश्किल है, ठीक उसी तरह, जैसे विशाल पेड़ के बीज को देखना. पेड़ तो हमें दिखाई देता है, पर बीज नहीं. जीसस का शरीर उस समय सभी को दिखाई देता था, लेकिन उनकी जो आत्मा थी, वह केवल उन्हीं को दिखाई देती थी, जो परमशांत, परमशून्य और परमध्यान में लीन होकर देखते थे. ये सभी जीसस की आत्मा से साक्षात्कार करते थे, इनके लिए जीसस के साक्षात रूप से कोई वास्ता न था, क्योंकि उन्हें जो दिखाई दे रहा था, वह था जीसस का तेजस रूप, उनका प्रज्ञा रूप, उनका ज्योतिर्मय अलौकिक रूप, इसीलिए जीसस पर दोहरे मत हैं. एक मत है अंधों का, जिन्होंने जीसस को सूली पर चढ़ाया, इन अंधों का मानना था कि यह तो साधारण्ा मानव है और दावा करता है कि वह ईश्वर का पुत्र है. वैसे इन अंधों का विचार गलत नहीं था, जो उन्हें दिखलाई पड़ रहा था, वहाँ तक उनकी बात बिल्कुल सही थी, उन्हें पता था कि यह तो बढ़ई जोसेफ का बेटा है, मरियम का बेटा है, यह ईश्वर का पुत्र कैसे हो सकता है ? लेकिन जीसस जिसकी बात कर रहे थे, वह ईश्वर का पुत्र ही है. वह कोई जीसस में ही खत्म नहीं हो जाता है, आपके-हमारे भीतर जो आत्मा के रूप में है, वह ईश्वर का पुत्र है. अतएव हम सभी जो निष्पाप आत्मा के स्वामी हैं, ईश्वर के पुत्र हैं.
जिन्होंने जीसस की आत्मा से साक्षात्कार किया, वे सभी अनपढ़ और गँवार लोग थे, उनकी आत्मा को पंडितों-ज्ञानियों ने नहीं देखा, देखने वाले थे, निम्न तबके के लोग, जैसे जुलाहे, मछुआरे, ग्रामीण किसान, भोलेभाले लोग. इनका वास्ता कभी शास्त्रों और शब्दों से नहीं पड़ा, इन्होंने जीसस पर विष्वास किया, इन्हें उनके आत्मिक रूप के दर्शन हुए, जो विद्वान थे, ज्ञानी थे, धर्म के ज्ञाता थे, शास्त्रों के पंडित थे, उन्हें जीसस एक साधारण्ा इंसान लगे, क्योंकि उनकी बुद्धि में ज्ञान की कई परतें थीं, जिससे उनके देखने की क्षमता कम हो गई, इसलिए जीसस की आत्मा को वे लोग नहीं देख पाए.
ज्ञानी जो कुछ भी स्वीकार करता है, तर्क से स्वीकार करता है, अनपढ़ और गँवार अपने विश्वास के आधार पर स्वीकार करते हैं, जितना गहरा विश्वास, उतनी गहरी आस्था. इसी गहरी आस्था में छिपा है प्रेम, जो सभी जीवन मूल्यों से ऊपर है, यही हमारा मार्गदर्शक है, हमारा साथी है. लेकिन आज हम भटक रहे हैं, क्योंकि हम ज्ञानी हैं, अनपढ़ गँवार होते, तो कोई न कोई राह मिल ही जाती. आज यदि हम थोडे समय के लिए भी अपने ज्ञानी मन को अपने से अलग रख दें, तो संभव है राह दिख जाए.
अब हम सब शुतुरमुर्ग हो गए हैं, विपदाओं से लड़ने के बजाए हम सब उस दिशा की ओर से ऑंखें ही बंद कर लेते हैं, शुतुरमुर्ग की तरह अपना सर रेत में गड़ा देते हैं, ताकि हम बाधाओं को न देख पाएँ. तुमने बाधाओं को नहीं देखा तो क्या हुआ, बाधाओं ने तो तुम्हें देख ही लिया ना ? वे तुम्हें नहीं छोडेंग़ी, तुम्हारे पलायनवाद को धिक्कारेंगी, संभव हुआ तो खत्म भी कर देंगी. जीसस के माध्यम से यही कहना है कि हमने खुद को नहीं समझा, न ही दूसरों को समझने की कोशिश की. एक वायवीय संसार बना लिया अपने आसपास और जीने लगे कूप-मंडूक की तरह.
हर कोई कह रहा है मेरा धर्म महान् है, इससे बड़ा कोई धर्म नहीं. कैसे तय कर लिया आपने यह सब! क्या आपने दूसरे धर्मों के ग्रंथ पढ़े ? क्या उनके पंडितों से चर्चा की ? उत्तर नकारात्मक है, फिर यह मुगालता क्यों ? क्या अभी तक नहीं समझा आपने कि इंसानियत का धर्म सबसे ऊपर है ? इससे ऊपर कोई धर्म नहीं. पीड़ा से छटपटाते व्यक्ति के करीब बैठकर पूजा करना, प्रार्थना करना धर्म नहीं है. धर्म है उस व्यक्ति को पीड़ा से राहत दिलाना. इंसानियत का धर्म, मानवता का धर्म. संकट में पड़े किसी अपने को बिलखता छोड़कर कितनी भी धार्मिक यात्राएँ कर लें, हमें पुण्य नहीं मिलेगा. धर्म की आत्मा सेवा में छिपी है, नि:स्वार्थ सेवा ही वह सीढ़ी है, जो हमें हमारे आराध्य तक पहुँचाती है.
आज जब पूरे विश्व में मानवता रो रही है, जीवन मूल्यों का लगातार पतन हो रहा है, ऐसे में लगता है कि क्या ईमानदारी से जीने वालों के लिए इस दुनिया में कोई जगह नहीं है. तब लगता है कि आज भी पूरा विश्व ईमानदारो के कारण ही बचा हुआ है. तब हम क्यों छोड़ें अपनी ईमानदारी. ऐसे में यदि हम ईमानदारी से ही जीने का संकल्प ले लें, तो शायद पूरे विश्व का चेहरा बदलने में समय नहीं लगेगा. तो आओ संकल्प लें, अपने इंसानियत के धर्म को महान् बनाएँ. त्याग, नि:स्वार्थ सेवा और सत्कर्मों से स्वयं को बेहतर और बेहतर बनाएँ, ईश्वर हमें आत्मसात् कर ही लेगा.
डा. महेश परिमल
बुधवार, 19 दिसंबर 2007
जीसस के प्रवचनों में निहित अर्थों को समझें
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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