डा. महेश परिमल
उस दिन उन दोनों भाइयों को एक साथ देखकर मुझे आश्चर्य हुआ. अरे! ये एक साथ कैसे? पिछले बारह वर्षों में दोनों में अबोला था. एक-दूसरे से बात करना तो दूर देखना भी पसंद नहीं करते थे. मेरा उन दोनों भाइयों से मिलना-जुलना था. इन बारह वर्षों में क्या-क्या नहीं हुआ. माता-पिता चल बसे. मकान और सम्पत्ति बँटवारा हो गया, दोनों भाइयों के बीच अबोला नहीं टूटा. उस दिन जब अचानक दोनों ही एक साथ दिखे, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक था. कैसे टूटा अबोला, कैसे वे फिर करीब आ गए, मनभेद की दीवार कैसे टूटी? मुझे ये सवाल बार-बार कचोट रहे थे. आखिर एक दिन छोटा भाई मुझे मिल ही गया. मैंने पूछा- हुआ क्या था, तुम दोनों के बीच? तब उसने जो कुछ बताया, वह हतप्रभ करने वाला था.
छोटे भाई का कहना था कि बहुत ही छोटी-छोटी गलतफहमी थी, हमारे बीच, जो एक झटके में ही दूर हो गई. बात कुछ भी नहीं थी, भैया ने जो कुछ कहा उससे मैं बुरा मान गया, मैंने जो कुछ भी कहा उससे भैया को बुरा लग गया. ऐसा पहली बार नहीं हुआ, बल्कि हमारे बीच ऐसा होता रहता था, लेकिन इस बार हमारे आसपास रहने वालों ने ही हम दोनों के बीच दूरियाँ बढ़ाने में मदद की. भैया आज भी मुझे उतना ही चाहते हैं, लेकिन मैं ही शायद उन्हें नहीं समझ पाया. अब कुछ ही महीनों में छोटे भाई की बिटिया की शादी है और उसमें बड़े भाई ही नहीं, उसका पूरा परिवार जमकर हिस्सा लेने वाला है.
होता है ऐसा ही होता है, जिसे हम अलगाव की बहुत बड़ी दीवार मानते हैं, वह अपनापे के एक ही स्पर्श से टूट जाती है. यह हमने ही इसे गाँठ बाँधकर रख लिया, तो समय के साथ वह भी अपना विकराल रूप धारण कर लेती है. शायद इसीलिए बड़े-बूढ़े कहते हैं कि अपनों से कभी दूरियाँ मत बढ़ाओ. वे आज नहीं तो कल तुम्हें ही काम आएँगे. खून को ही खून पुकारता है. आज भले ही भाई ही भाई के खून का प्यासा बन रहा हो, पर सच तो यह है कि समाज में लोगों के बीच दूरियाँ बढ़ाने वाली ताकतें लगातार सक्रिय हैं, जो रह-रहकर इस तरह के काम कर रहीं हैं.
आज सामाजिक मूल्य तेजी से बदल रहे हैं. भाईचारा, अपनापा, सौहार्द, मानवीयता आदि सब बकवास की बातें होने लगी हैं. आज तो चारों ओर केवल स्वार्थ की फसलें लहलहाने लगी हैं. लोग स्वार्थ में अपना सब कुछ भूलने लगे हैं. स्वार्थ की इस नदी में हर कोई डुबकी लगा रहा है. लेकिन सब कुछ खत्म हो गया है, ऐसा न मानें. आज भी नि:स्वार्थ भावना के साथ कई काम हो रहे हैं. अच्छे कामों को किसी प्रचार की आवश्यकता नहीं होती. अतएव इस तरह के काम आज भी मीडिया की नजरों में नहीं आ पाए हैं. हमारे ही समाज में ऐसे भी लोग हैं, जो गुप्त दान में विश्वास रखते हैं. उनके लिए प्रचार तो एक प्रोपेगण्डा है. बिना किसी प्रचार-प्रसार के वे अपना काम करते रहते हैं. उन्हें इसी में मंजा आता है. यह भी सच है कि अब ऐसे लोग कम ही बचे हैं.
फिल्मी दुनिया में अक्सर कहा जाता है कि लता मंगेशकर ने ओ.पी. नैयर के संगीत निर्देशन में कोई गीत नहीं गाया. यह सच है, लेकिन अधूरा सच है. अपने साक्षात्कार में दोनों ने इस बात को स्वीकार भी किया है. लेकिन दोनों का कहना है कि हमारे बीच कोई दुश्मनी नहीं. बात यह थी कि जब ओ.पी. नैयर ने लता जी को गाने के लिए आमंत्रित किया, तब तारीखों के कारण लताजी ने उन्हें उस समय मना कर दिया. फिर बाद में हालात ऐसे बने कि नैयर साहब को आशा भोसले की ही आवांज अच्छी लगने लगी. बाद में उन्होंने आशाजी की ही आवांज को विविधता के साथ प्रस्तुत किया. दोनों में एक तरह की टयूनिंग जम गई बस. इसे लोगों ने इतना तूल दिया कि लताजी और नैयर साहब में ठन गई है. इस कारण दोनों बहनों के रिश्तों में दरार आ गई है. ऐसा बिलकुल भी न था. बात का बतंगड़ बना दिया गया.
लोगों को मधुर संबंध कभी भले नहीं लगते. लोग तो पवित्र संबंधों को भी बुरी नजर से देखते हैं. ऐसा तो पुरातन काल से होता रहा है. इसलिए यदि लोगों की बातों पर ध्यान दिया जाए, तो एक पल भी ठीक से जीना मुश्किल हो जाएगा. किसी ने कहा भी है 'सबसे बड़ा रोग-क्या कहेंगे लोग'. हमने जितने भी महान् लोगों की जीवनी पढ़ी है, सभी ने इसे स्वीकार किया है कि उनके काम और उनके लोगों से संबंधों पर लोगों ने कई तरह की टिप्पणियाँ की है, फिकरे कसे हैं. लेकिन उन्होेंने कभी इसकी परवाह नहीं की. परवाह नहीं की, इसलिए वे सफल हो पाए. लोगों की फब्तियों की परवाह करते, तो शायद वे इतना आगे नहीं बढ़ पाते.
हर अच्छे काम की शुरुआत में आलोचना ही होती है. जो भीतर से सबल होते हैं, वे इन आलोचनाओं में अपनी कमजोरियों को ढूँढ़ते हैं. आलोचना से घबराने वाले भीतर से कमजोर होते हैं. लोगों से संवाद बना रहे, तो कलुषता कभी पाँव नहीं पसारती. मेलजोल से गलतफहमी की दीवार कभी बड़ी नहीं हो पाती. अधिक नहीं यदि वर्ष में एक बार दीपावली, नए वर्ष या उसके जन्म दिन पर बधाई दे दी जाए, तो मित्रता का भाव बना रहता है. फिर चाहे वह रिश्ता भाई का हो, बहन का हो या फिर मित्र का. इसके पहले कि आपका कोई अपना आप से बिछड़ जाए या नाराज हो जाए, बस आप केवल उसे अपनेपन के साथ एक बार पुकार कर तो देखें, आप उसे अपने बहुत करीब पाएँगे.
डा. महेश परिमल
सोमवार, 3 दिसंबर 2007
स्पर्श मात्र से ढह गई दुराग्रह की दीवार
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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