सोमवार, 17 दिसंबर 2007

ममत्व की धूप

भारती परिमल
इस दुनियाँ में सदि बढ़ती हुई जनसंख्या की जानकारी नज़दीक से लेनी हो तो, किसी भी शहर के रेलवे स्टेशन या बस स्टेण्ड पर चले जाइए। आपको न केवल जनसंख्या विस्फोट के साक्षात् दर्शन होंगे, बल्कि आप स्वयं भी उसका एक हिस्सा बन जाएँगे। मैं भी ऐसी ही भीड़ का एक हिस्सा बनी हुई थी। ट्रेन लगातार लेट होती जा रही थी। साथ ही साथ मेरी बोरियत भी बढ़ती जा रही थी क्योंकि विवेक तो आसपास के लोगों के साथ घुलमिल गए थे और बातें करने में मस्त थे लेकिन मेरा एकाकी स्वभाव उनसे घुलमिल नहीं पा रहा था। बेंच के एक कोनेपर गठरी बनी हुई मैं महिला-पत्रिका भी कब तक पढ़ी जाए ? पूरी पत्रिका तो चाट डाली थी। अब तो बस ट्रेन के आने की प्रतीक्षा थी। ट्रेन आए और मैं जल्दी अपने घर पहुँचू। वैसे घर पर भी कौन था इंतज़ार करने वाला! मैं और विवेक दो ही तो थे जो एक-दूसरे को अपने होने का परिचय देते थे। विवेक को अपने काम से फुरसत नहीं थी। घर जाते ही फिर वे अपनी ऑफिस और फाइलों में व्यस्त हो जाएँगे और मैं फिर अकेली हो जाऊँगी।
इस अकेलेपन ने पिछले बारह वर्षो से मेरा साथ नहीं छोड़ा। शादी के बाद हर लड़की माँ बनना चाहती है। मातृत्व सुख प्राप्त कर अपने नारी होने के अहसास से गर्वित होना चाहती है। यही चाहत मेरे मन में भी थी। मेरे और विवेक दोनों की ऑंखों में एक नन्हे नटखट बालक का सपना बसा हुआ था। विवेक तो इतने उतावले थे कि यदि मैं थोड़ी सी भी बीमार हुई या किसी दिन उठने में देर हुई तो तुरंत कहते - चलो डॉक्टर के पास चलते हैं, हमारा सपना सच होने को है। मगर वह शुभ दिन अब तक नहीं आया। हम दोनों यूँ ही इंतज़ार करते रह गए। पूरे बारह वर्ष बीत गए इस बीच कई मंदिर, क्लीनिक, स्पेश्लिस्ट डॉक्टर्स के चक्कर लगाए। हर कोई आश बंधाता रहा। उम्मीद का दामन न छूटा तो यकीन की मंज़िल भी न मिली। यँ ही सफर कटता रहा। विवेक ने स्वयं को काम में उलझा लिया और मेरे अकेलेपन में पुस्तकों ने सहारा दिया। साहित्य के प्रति पैदा हुई रूचि ने एक नाम दिया, पहचान दी मगर सपनों का पालना खाली ही रहा।
ट्रेन एक घंटा और लेट हो गई थी। विवेक ने कहा- तुम्हें भूख लगी होगी। मैं तुम्हारे लिए कोल्ड्रिंक्स और कुछ नाश्ता ले आता हूँ। मेरे कुछ कहने से पहले ही वे चले गए। पत्रिका बैग में रखकर मैं स्टेशन का नज़ारा देखने लगी। जहाँ तक निगाह गई चेहरे ही चेहरे नज़र आए। कुछ हंसते - मुस्कराते तो कुछ परेशान, बोझिल, कुछ आशा में लिपटें। इन सभी के बीच अकेली मैं !
तभी मेरा ध्यान पास में खेलते हुए एक बच्चे की तरफ गया तो उसे एक टक देखती ही रह गई। गोलमटोल, घुंघराले बाल, हँसता चेहरा, शरारती ऑंखें। देखकर यूँ लगा जैसे मेरी ज़िन्दगी की कहानी का सच निकल कर बाहर आ गया हो। बिलकुल मेरे सामने। वह बच्चा एक स्त्री के साथ, जो शायद उसकी माँ थी, उसके साथ शरारत कर रहा था। कभी वह उसकी चोटी पकड़कर खींचता तो कभी ऑंचल पकड़ता। वह उसे डाँटती तो ''अब ऐसा नहीं करूँगा'' कहते हुए उससे लिपट जाता। थोड़ी देर बाद फिर वैसी ही मस्ती करता और उसे डाँट पड़ती। मैं माँ-बेटे का यह खेल ध्यान से देख रही थी। जब स्त्री ने उसे बाँहों में ले लिया, तो मातृत्व की यह छवि देखकर मैं आनंद विभोर हो उठी। बालक बहुत देर तक अपनी माँ की बाँहों में झूलता रहा और मैं उसे देखती रही। मानों वह मेरी बाँहों मं झूल रहा हो। अचानक बालक ने माँ से कहा- माँ, मुझे भूख लगी है। कुछ खाने को दो। इतना सुनते ही उस स्त्री का चेहरा कठोर हो गया। कुछ क्षण पहले जिन ऑंखों में ममता भरी हुई थी, उन्हीं ऑंखों में क्रोध झलकने लगा। बालक को डाँटते हुए वह बोली- अभी कुछ देर पहले ही तो तुझे खाना दिया था। अब फिर कहाँ से लाऊँ ! यह गाड़ी भी तो इतनी देर से आ नहीं रही। आ जाए तो डिब्बों में झाडू लगाऊँ तो कुछ पैसे मिले। जिससे कुछ खरीद कर तुझे खाने को दूँ। जा तब तक नल से पानी पी ले। कह कर उसे भगा दिया।
बालक उदास होकर नल की ओर बढ़ गया। मैं सोचने लगी- ग़रीबी कितना तोड़ देती है, ग़रीब को। अभी यही माँ अपने बेटे को बांहों में लेकर कितनी खुश थी मगर जैसे ही पेट की आग ग़रीबी बनकर सामने आई तो मातृत्व का रिश्ता क्रोध की ज्वाला में जल गया।ग़रीबी और बेकारी से लड़ती यह औरत क्या दे पाएगी अपने बेटे का ? एक समय का खाना तक तो मिलना मुश्किल हो रहा है और इस मासूम की तो पूरी ज़िन्दगी बाकी है। अभी तो ज़िन्दगी की शुरूआत है। खाली पेट और ग़रीबी की छाया में कैसे बड़ा हो जाएगा यह ? यही सोचते हुए अचानक ये ख्याल आया- क्यों न मैं इस बालक को गोद ले लूँ। तब न इसे ग़रीबी का ताप लगेगा और न ही इसके सपने झुलसेंगे। विवेक मुझे कभी ना नहीं कहेंगे, क्यों न इससे एक बार बात की जाए ?
तब तक विवेक कोल्डिं्रक्स और समोसे लेकर आ गए थे। मुझे उससे बात करने का कहाना मिल गया था। मैंने उसमें से दो समोसे उस स्त्री की ओर बढ़ाए मगर यह क्या ? उसने लेने से इंकार कर दिया- बोली- हम ग़रीब ज़रूर है पर भिखारी नहीं। पूरा खाना न सही, अधूरा ही खाते हैं, मगर अपनी मेहनत का खाते हैं। मैं उसके स्वाभिमान को देखकर दंग थी। इतनी स्वाभिमानी स्त्री क्या अपने बालक को मुझे देगी ? वह भी हमेशा के लिए ? कभी नहीं ! वह स्त्री ऐसा कभी नहीं करेगी।
मैंने चुपचाप समोसे वापस ले लिए, मगर इस स्वाभिमन से भरे जवाब के साथ मुझे अपनी समस्या का हल मिल गया था। जिस एकाकीपन को भरने के लिए मैं बारह वर्ष इंतज़ार करती रही, उस एकाकीपन के लिए मैं इस ममतामयी, स्वाभिमानी माँ की गोद ही सूनी क्यों करूँ ? कोई अनाथ, बेसहारा, माँ-बाप के प्यास का भूखा बालक क्यों नहीं ? क्यों मुझे यह ख्याल नहीं आया ? क्यों इतने सालों तक अपने सपने को टूटते हुए देखती रही या स्वयं ही तोडती रही मगर अब इस एकाकी जीवन में बहार आएगी, एक मासूम मुस्कान खिलखिलाएगी।
मैंने फैसला कर लिया कि अबकी बार अपने जन्मदिन पर विवेक से यही उपहार मांगूंगी। एक मासूम, बेसहारा, अनाथ बालक को गोद लेने का उपहार। जिस उपहार के साथ ही मेरा और विवेक दोनों का सपना सच हो जाएगा। ममत्व की अभी-अभी खिली धूप ने मेरे अधरों पर मुस्कान ला दी थी।
भारती परिमल

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