डा. महेश परिमल
हम सबका कभी न कभी किसी न किसी अधिकारी से पाला पड़ा होगा. ऐसे कितने अधिकारी होंगे जिनका व्यवहार हमें अच्छा लगा होगा ? दरअसल सभी अपनी हेकड़ी में जीते हैं. कोई झुकना नहीं चाहता. सरल और सहज नहीं बनना चाहता. यदि कोई शिकायर्तकत्ता किसी अधिकारी के पास है, तो अधिकारी अपनी जगह से उठकर उस व्यक्ति तक आए और पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाए, इात के साथ व्यक्ति को बैठने के लिए कहे, पहले पानी लाने का आदेश करे, फिर चाय-कॉफी के लिए कहे. उसके बाद उसके आने का कारण पूछे. तब कैसा लगेगा ? ये सब करने में अधिकारी को डेढ़ से दो मिनट लगते हैं, लेकिन उसके इस व्यवहार से शिकायर्तकत्ता की आवांज में अनजाने में ही कोमलता आ जाएगी. वह अपनी शिकायत पर पुनर्विचार करेगा. संभव है दोनों की बातचीत में कोई नया सुझाव ही निकल आए.
आजकल प्रबंधन के क्षेत्र में बहुत से बदलाव आ रहे हैं, पर इस जमीनी बदलाव की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा है. ये वो नुस्खा है, जो व्यक्ति को ही नहीं उसके पेशे को भी महान् बनाता है. एक डॉक्टर ने अपनी छोटी-सी डिस्पेंसरी खोली, कुछ ही दिनों में उसकी डिस्पेंसरी खूब चलने लगी. उसके यहाँ मरीजों की लाइन लगी रहती. उसके आसपास के डॉक्टर हैरान थे कि ये कैसे हो गया ? उस डॉक्टर में कुछ ऐसा न था, जो दूसरों में न हो. उस डॉक्टर ने यह विशेषता दिखाई कि वह आने वाले मरीज को खुद नमस्कार करता. अमूमन होता यह है कि मरीज ही खुद डॉक्टर को नमस्कार करता है. डॉक्टर की ओर से पहल नहीं होती. वे तो इसी इंतजार में होते हैं कि मरीज ही उन्हें नमस्कार करे,अभिवादन करे.यहाँ डॉक्अर ने खुद मरीज को नमस्कार करना शुरू कर दिया, यह तरीका कामयाब रहा और उसकी डिस्पेंसरी खूब चलने लगी. वह व्यक्त् िएम.बी.बी.एस. डॉक्टर न होकर साधारण आर.एम.पी. में रजिस्टर्ड मेडिकल प्रेक्टिश्नर था.
सभी के पेशों का मुख्य आधार होता है, सामने वाले को प्रभावित करना, कोई अपनी शिक्षा से प्रभावित करता है, कोई अपने उत्पाद से, कोई अपने संबंधों से, पर कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि सामने वाला क्या चाहता है ? सामने वाला तो थोड़े से सम्मान से ही अभिभूत हो जाता है. सम्मान देने के लिए थोड़ा सा झुकना पड़ता है. पर यही झुकना उसे बड़ा बनाता है. बाढ़ के समय नदी के किनारे कई पेड़ ऐसे होते हैं, जो तनकर खड़े रहते हैं, पर वे अधिक समय तक वैसे ही नहीं खड़े रहते, नदी उसे बहा ले जाती है. दूसरी ओर ऊँची-ऊँची घास भी किनारे पर उगी होती है, जो पानी आने पर झुक जाती हैं. कोमल घासों का झुक जाना न केवल उनकी उम्र बढ़ाता है, बल्कि उन्हें उससे जीवनदान भी मिलता है. इससे यह कहा जा सकता है कि झुकने में ही उठने की आकांक्षा छिपी होती है.
जिनका व्यवहार रुखा होता है उनका चेहरा तनावपूर्ण दिखाई देता है. इसे वे अपनी गंभीरता मान लेते हैं. जबकि वह ओढ़ी हुई गंभीरता होती है. यही गंभीरता उनके भीतर अहं का भाव जगाती है. ऐसे लोगों से मिलकर खुशी कदापि नहीं होती. हमें ऐसा लगता है, मानो उससे मिलकर हमने अपना समय ही खराब किया है. शासकीय स्तर पर ऐसे कई अधिकारी मिल जाएँगे, पर निजी क्षेत्रों में ऐसे अधिकारियों की आवश्यकता ही नहीं होती. रुखे स्वभाव के अधिकारी यह भूल जाते हैं कि उनकी छोटी-सी मुस्कान सामने वाले पर कितना गहरा प्रभाव छोड़ती है. उसके बाद हम उनकी बातों को ही ध्यानपूर्वक सुन लें, कुछ समय के लिए एक अच्छे श्रोता ही बन जाएँ, तो सामने वाला यह समझेगा कि अधिकारी ने मुझे प्राथमिकता दी, मेरा अभिवादन किया, मेरी बात ध्यान से सुनी. इसके बाद उस व्यक्ति का काम भेले ही न हो पाए, इसका उसे मलाल नहीं होगा. अधिकारी के व्यवहार की उस पर अमिट छाप होगी.
जो अच्छे होते हैं, वे भीतर से भी अच्छे होते हैं. ऐसे लोगों के चेहरो का तेज ही बता देता है कि उनके भीतर कोई शैतान नहीं है. धूर्त और चालाक व्यक्तियों की नशीली ऑंखें ही उनके विचारों को दर्शाती हैं. जो अच्छा होता है, उसके लिए सारी दुनिया अच्छी होती है, वह बुरे लोगों के साथ भी अच्छाई से पेश आता है. उसके पास कोई समस्या नहीं होती, वह अपनी अच्छाई से अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढ लेता है, पर जो हमेशा शिकायत करते रहते हैं, उनके पास कभी जाकर देखो-शिकायतें ही शिकायतें, देश से शिकायत, अपने अधिकारियों से शिकयत, अपने मित्रों से शिकायत, पत्नी से शिकायत, बच्चों से शिकायत, यहाँ तक कि अपने से भी शिकायत. शिकायतों का अंबार लगा होता है उनके पास. इन शिकायतों केक बीच वे खो जाते हैं, दब जाते हैं, उन्हें समाधान नहीं मिलता, कभी नहीं मिलता. उनके पास एक सुझाव तक नहीं होता. ऐसों से अच्छाई या अच्छे व्यवहार की कल्पना ही नहीं की जा सकती.
शिकायत होती है, शिकायत होनी चाहिए, पर आपके पास उनसके हल के लिए सुझाव भी होना चाहिए. अधिकारी ने आपसे अच्छा व्यवहार किया, वह अगर आपकी शिकायत सुनकर समाधान के िलिए आपसे सुझाव माँगे तो आप क्या करेंगे ? आप पाएँगे कि शिकायत की हेठी में आप इतने डूब गए कि आपको समाधान या सुझाव के लिए समय ही नहीं मिला.
आप अगर यह सोचते हैं कि मेरा काम शिकायत करना है, समाधान तलाशने का काम अधिकारियों का है, तो आप ंगलत हैं. मान लो अधिकारी ने शिकायर्तकत्ता को ही उक्त शिकायत दूर करने के लिए अधिकृत कर दिया तो फिर क्या होगा? रही बात अधिकारियों की तो उसे फलों से लदे हुए वृक्ष की भाँति होना चाहिए, झुका हुआ. इससे वे और भी बडे बनेंगे. ऑफिस से निकलते हुए बॉस यदि सहसा रूककर किसी कर्मचारी से उसका हालचाल पूछ ले, घर के सदस्यों की जानकारी ले ले, तो पूरे ऑफिस में एक अच्छा संदेश जाएगा. लोगों को लगेगा कि हम बॉस के करीब रहें या न रहें, पर बॉस हमारे करीब है. बॉस को हमारी चिंता है. इससे वह अपना काम और भी बेहतर करके दिखाना चाहेगा. समर्पण और निष्ठापूर्वक काम करने का एक वातावरण बनेगा.
किसी का भी दिल जीतने के लिए थोड़ी-सी मुस्कान, थोड़ा-सा अभिवादन, कोमल व्यवहार और दिलचस्पी लेकर बातें सुनने का धैर्य चाहिए. आप देखेंगे कि एक नहीं आप कई लोगों के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं. हर कोई आपकी प्रशंसा करता दिखाई देगा. यही है इंसान के कामयाब होने की शुरुआत. कामयाबी कोई खरीद-फरोख्त की चींज नहीं, यह एक पूर्ण रूप से मानसिक वस्तु है. अगर आपके अंदर इरादा है, तो आप अपने उद्देश्य को पाने का रास्ता ढूँढ़ ही लेंगे और अगर इरादा नहीं है तो आप यह कहकर बैठ जाएँगे कि यह नहीं हो सकता. किसी भी इंसान की नाकामी का रांज बेहतर हालत में यह नहीं होता कि उसके पास संसाधन का अभाव था, बल्कि यह होता है कि वह अपने हरसंभव संसाधनों का सही तौर पर इस्तेमाल नहीं कर पाया. यह तय मानें कि जितने भी सफल व्यक्ति रहे हैं, वे यही मानते हैं कि वे कामयाब होने के पहले कई बार नाकामयाब भी रहे हैं. इस नाकामयाबी ने उनके हौसलों को तोड़ा नहीं, बल्कि हर बार वे पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़े हैं. वे इसे भी स्वीकारते हैं कि हम नाकाम भी हुए, तो इसका कारण था हमारा टूटा हौसला. अवसर की कमी का रोना हर कोई रोता है. वास्तव में वह अपने टूटे हौसले के कारण रोता है.
यह तय मानें, एक रास्ता बंद होता है, तो कई और रास्ते खुल जाते हैं. हमें करना बस यहीे है कि पूरे धैर्य के साथ उन रास्तों को देखें, परखें और उस पर चलें. यहाँ धैर्य ही काम आता है,उसे पूँजी की तरह सँभालकर रखें, बस.........
. डा. महेश परिमल
मंगलवार, 11 दिसंबर 2007
झुकने में ही है उठने की आकांक्षा
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प्रबंधन
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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"सम्मान देने के लिए थोड़ा सा झुकना पड़ता है. पर यही झुकना उसे बड़ा बनाता है."
जवाब देंहटाएं"यह तय मानें, एक रास्ता बंद होता है, तो कई और रास्ते खुल जाते हैं. हमें करना बस यहीे है कि पूरे धैर्य के साथ उन रास्तों को देखें, परखें और उस पर चलें. यहाँ धैर्य ही काम आता है,उसे पूँजी की तरह सँभालकर रखें, बस........."
बहुत अच्छा लिखा आपने.
कभी-कभी ही आता हूँ आपके ब्लॉग पर पर जब आता हूँ बहुत कुछ लेकर जाता हूँ.
धन्यवाद.