डॉ. महेश परिमल
ज्यादा नहीं थोड़ा ही समय हुआ है. मेरा एक मित्र अपनी विदेशी पत्नी के साथ पहली बार विदेश से भारत आ रहा था. लंदन से वे देर रात दिल्ली पहुँचे, रात को ही ट्रेन से उनका रिजर्वेशन था, सो थोड़ा सा आराम करके वे दोनों प्रथम श्रेणी के कूपे पर सवार हो गए. सुबह पत्नी की नींद जल्द ही खुल गई. मित्र अभी सो ही रहा था कि हवा के तेज झोंके से उसकी नींद खुल गई. मित्र ने अपनी विदेशी पत्नी से खिड़की खोलने का कारण पूछा तो वह कहने लगी 'मैं भारत की सुबह देखना चाहती हूँ.' मित्र ने तुरंत खिड़की बंद करते हुए कहा- खिड़की मत खोल मेरी माँ! तुम नहीं जानती कि भारत में रेल्वे लाइन के किनारे की सुबह कैसी होती है?
अब यह बताने की आवश्यकता नहीं कि मेरे मित्र ने खिड़की बंद क्यों की? दरअसल देखा जाए तो आज हम एक कचरा संस्कृति में रह रहे हैं. हम शायद यह जानना ही नहीं चाहते कि कचरा हमारे जीवन को किस तरह दूषित कर रहा है? एक शहर हर रोज टनों कचरा उगलता है. पर उसे बरबाद करने की दिशा में सार्थक प्रयास नहीं हो रहे हैं. ंजरा उन दिनों को याद करें जब आधी रात के बाद शहरों में सड़कों की सफाई शुरू हो जाती थी. सुबह उठते ही शहर की सड़कें चकाचक हो जाती थी. सड़कों को साफ करने का काम रात भर चलता था. सफाई मंजदूरों की मेहनत देखते ही बनती थी. लोग तो जान ही नहीं पाते थे कि सड़कें आखिर कब साफ होती हैं? देखा जाए तो सफाई मंजदूरों का सारा काम रात में ही होता था.
पर अब वैसी बात नहीं रही. अब तो सात बजे ही सड़कों की सफाई का काम शुरू होता है. वजह साफ है कि सफाई मंजदूरों के बच्चे भी स्कूल जाते हैं, उनके माता-पिता उसको स्कूल छोड़कर ही काम पर आते हैं. ऐसे में कैसे होगी शहर की सफाई और कैसे रहेगा साफ-शफ्फाक शहर? आज गंदगी कहाँ नहीं है? लोगों ने एक-एक स्थान को गंदा करके रख दिया है. ऐतिहासिक और सार्वजनिक स्थलों की बात तो दूर लोग धामक स्थलों को भी प्रदूषित करने से नहीं चूकते. अब तो हिमालय पर्वत की सफाई करने का अभियान भी चल रहा है. आप समझ सकते हैं कि लोगों ने अपने शौक के लिए उस दूरस्थ स्थल को भी नहीं छोड़ा. प्लास्टिक की थैली का इस्तेमाल आज जीवन का अभिन्न अंग बन गया है. चिड़ियाघरों में लोग इन्हीं थैलियों में तमाम सामग्री ले जाकर वन्य प्राणियों को खिलाकर अपनी कोमल भावनाओं को दर्शाते हैं. पर वे यह भूल जाते हैं कि यह थैली उनके जीवन को किस तरह बरबाद कर सकती है? हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण में यह पता चला कि अधिकांश जानवरों की मौत के पीछे यही प्लास्टिक की थैलियाँ थीं, क्योंकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट मेें उनके पेट में प्लास्टिक की थैलियाँ मिली. किनी दु:खद घटनाएँ हैं ये? हम हैं कि अपनी आदतों से बाज नहीं आ रहे हैं.
अब तो सार्वजनिक स्थानों जैसे पार्क, स्कूल, मंदिर आदि स्थानों को शादी-समारोहों के लिए किराए पर दिया जाने लगा है. ंजरा इन स्थानों को समारोह के दूसरे दिना देखने की कोशिश करें तो पाएँगे कि वह स्थान तमाम गंदगी से युक्त हो गया है. इसकी सफाई की जिम्मेदारी न तो समारोह करने वाले लेते हैं और न ही सार्वजनिक स्थल की देखभाल करने वाले पदाधिकारी. नगर निगम या नगर पालिका की भूमिका तो इस दिशा में संदिग्ध लगती है. सफाई के नाम पर कई तरह के कर वसूलने में तत्परता दिखाने वाली यह संस्था सफाई करवाने के लिए उतनी तत्पर नहीं दिखती.
दूसरों को दोष देने के पहले हम स्वयं को देखें कि हम खुद कितने सफाई पसंद हैं? उत्तर नकारात्मक ही मिलेगा. आज हम जब आकाश से होने वाली ज्ञान वर्षा को स्वीकारने में नहीं झिझकते तो फिर वह गंदगी चाहे और कहीं से आए, हमें क्या फर्क पड़ता है? सिमट गया है अब ज्ञान का सागर. अब तो गंदगी का ऐसा राक्षस हमारे बीच पसर गया है जिससे मुक्ति पाना आसान नहीं लगता. जब तक हम मस्तिष्क में जमे मैल को नहीं निकाल पाएँगे, तब तक इस राक्षस से निबटना मुश्किल है.
जिस देश के धामक स्थल, सार्वजनिक स्थल, स्कूल-कालेज, सड़कें ही नहीं लोगों के दिमाग में भी बजबजाती नाली के कीड़े संरक्षण पा रहे हों , उस देश का नागरिक चाहे कितना भी गर्व कर ले कि वह स्वतंत्र देश का नागरिक है पर वह रहेगा उसी संकीर्ण मानसिकता की खोह में जहाँ खुद को पाक-शफ्फाक कहना ही अच्छा लगता है. सामने वाले को हमेशा गंदा कहने की आदत हमें ही गंदा बनाती है. इसलिए हम एक छोटा-सा प्रयास तो कर ही सकते हैं, बढ़ती गंदगी के खिलाफ. आवश्यक नहीं कि यह प्रयास सफाईकर्मी जैसा हो, पर इतना तो होना ही चाहिए कि उस कार्य से एक मासूम भी सबक ले सके और जब भी कहीं बैठे तो स्थान साफ करके बैठे.
- डॉ. महेश परिमल
शनिवार, 1 दिसंबर 2007
कचरा हमारे दिमाग में भरा पड़ा है
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आज का सच
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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आपके विचारो से पूरी तरह से सहमत हूँ. जबतक लोग अपनी मानसिकता नही बदलते है तब तक एक बेहतर कल क़ी प्रतीक्षा करना दूर क़ी गॉटी ही साबित होती है.
जवाब देंहटाएंबदलाव तो लाना ही होगा।
जवाब देंहटाएंDoctor Mahesh ji. aap Yon Rogo Par Bhi kuch lijiye , kyon ki aaj bharat me bahut se log is Rog se Pidit hai. aur ye rog aisa hai ko wo kisi ko bata nahi sakte. aise me aap log hi unka margdarshan kar sakte hai. thanks.
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