मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

सागर की इला

भारती परिमल
वह जब भी उससे दूर दूसरे शहर जाता, तो वहाँ से लौटते हुए उसके लिए कुछ न कुछ उपहार ंजरूर ले आता। कितनी बार उसने मना किया है कि उसे कुछ नहीं चाहिए, मुझे यह सब अच्छा नहीं लगता । मैं तो तुम्हें कुछ भी देती नहीं हूँ और तुम हो कि हमेशा मेरे लिए कुछ न कुछ लाते ही हो। जवाब में वह हँस पड़ता और मुस्कराते हुए कहता - इसमें अच्छा न लगने वाली क्या बात है ? कल जब तुम भी कमाने लगो, तो मुझे कुछ न कुछ उपहार देना। तब तक मेरे दिए उपहार ही स्वीकार कर लो। फिर उसकी घनी ंजुल्फों में अपनी ऊँगलियाँ उलझाते हुए कहता - मैं कोई ऐसा-वैसा उपहार नहीं लूँगा। मुझे तो सजीव और हमेशा साथ निभाए वैसा उपहार चाहिए। वह उपहार तुम्हारे अलावा दूसरा हो सकता है भला ? इसलिए मैं तो उपहार में तुम्हें ही स्वीकार करूँगा।
आज वह उपहार देने वाला उससे मिले बिना ही दूर चला गया। इतनी दूर कि जहाँ से वापस ही न आ सके। आज उसे अपने आप पर ही गुस्सा आ रहा था कि क्या उसके लिए इंटरव्यू देने जाना इतना जरूरी था कि वह फोन पर उससे दो पल के लिए बात भी न कर सकी ।
मम्मी ने जब कहा कि इला, सागर का फोन है और वह आज काठमांडू जा रहा है, एक सप्ताह बाद लौटेगा, ले बात कर ले। तो उसने कहा-मम्मी मुझे इंटरव्यू के लिए देर हो रही है, सागर से कहना कि मैं उससे एक सप्ताह बाद ही मिल लूँगी- और हाँ जब वह वहाँ से लौटे, तो मेरे लिए कुछ न कुछ उपहार लाना भूले नहीं। यह अंतिम वाक्य उसने सागर को चिढ़ाने के लिए कहा था। इतना कहकर वह शीघ्र ही हाथ में पर्स लटकाए इंटरव्यू के लिए घर से बाहर निकल पड़ी।
वह चाहती थी कि उसे जल्दी से जल्दी कोई अच्छी सी नौकरी मिल जाए और जिस तरह सागर उसे यदा-कदा कुछ उपहार देता है, वैसे ही वह भी सागर को समय-समय पर कुछ न कुछ उपहार अवश्य दे।
सागर को उसका नौकरी की तलाश में यहाँ-वहाँ जाना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था, किन्तु वह थी कि नौकरी में ही सुख की तलाश करती। उसका मानना था कि इतना पढे-लिखे होने का क्या लाभ, जब घर में ही बैठ कर दाल-चावल पकाना और रोटियाँ ही बेलनी है। यह काम तो एक अनपढ़ महिला भी अच्छी तरह कर लेती है। सागर की इंडियन एयर लाइन्स की इस पायलट की टूरिंग सर्विस में तो वह शादी के बाद बिल्कुल बोर हो जाएगी। इसी एकांत से बचने के लिए वह नौकरी करना चाहती थी।
सागर के माँ-बाबूजी एवं भाई-भाभी सभी एक गाँव में रहते थे। वे लोग अपना पुश्तैनी मकान एवं जमीन-जायदाद छोड़ कर दिल्ली की भाग-दौड़ की ंजिंदगी में आने को तैयार नहीं थे और बहन भी शादी कर ससुराल चली गई थी। सागर यहीं दिल्ली में एक हॉस्टल में पढ़-लिख कर बड़ा हुआ और यहीं सौभाग्य से इंडियन एयर लाइन्स से जुड़ गया। कॉलेज लाइफ में उसकी और सागर की मुलाकात हुई। मुलाकात ने धीरे-धीरे प्रेम का रूप लिया और दोनों ने एक-दूसरे को जीवन-साथी के रूप में स्वीकार करने का सुंदर निर्णय लिया। यही कारण था कि अब सागर सर्विस और इला दोनोें को छोड़कर गाँव वापस जाने को तैयार न था।
इला के मम्मी-पापा भी इस बात से खुश थे और सागर के माँ-बाबूजी को भी इस बात से कोइ एतराज न था। बस, वे लोग तो यही चाहते थे कि किसी भी तरह से सागर की घर-गृहस्थी जम जाए। उन्होंने इला को देखा था। इला ने अपने मधुर व्यवहार से और सुंदर स्वभाव से उनका दिल जीत लिया था। इसीलिए तो अपनी खुशी में सभी को अपना सहभागी बनाकर वे लोग हकींकत की दुनिया से दूर अपनी इंद्रधनुषी दुनिया में जी रहे थे।
सागर की इच्छा एक साल बाद शादी करने की थी। इस बीच वह स्वाभिमानी युवक स्वयं का मकान और घर-गृहस्थी के कुछ सुविधायुक्त साधन जुटा लेना चाहता था। जिससे सुख-सुविधा में पली-बढ़ी इला को कोई तकलीफ न हो। यहीं कारण था कि प्रेम की धरती पर वे दोनों मस्त मयूर की तरह घूम रहे थे।
सागर को काठमांडू गए हुए एक सप्ताह से अधिक हो गया था, किन्तु उसकी कोई खबर नहीं आई। बस, वह जब काठमांडू पहुँचा उसके दो दिन बाद उसका एक फोन आया था कि मैं यहाँ पर ठीक हूँ और तुम्हारे लिए मैंने तुम्हारी पसंद का एक ड्रेस खरीदा है, जो मैं पार्सल से भिजवा रहा हूँ। यह तुम्हारे जन्मदिवस का उपहार है।
सागर का भिजवाया गया पार्सल कल ही आया था, पर उसने उस पार्सल को ज्याें का त्यों अलमारी में रख दिया। जब सागर आएगा, तभी उसके सामने इसे खोलूँगी। इला, चकोर की तरह अपने सागर की प्रतीक्षा कर रही है। रात-दिन बस सागर का ंखयाल । क़िंतु न सागर न सागर का फोन ही आया। अब तो मम्मी-पापा को भी चिंता हो रही है, पर इला के सामने वे लोग कुछ न बोल कर उसका मन बहलाने की कोशिश करते हैं।
आज सागर को गए हुए इक्कीस दिन हो गए ! आज तो सागर ंजरूर आएगा। आज उसका जन्मदिवस है। आज तो वह आएगा ही। नहीं तो उसका फोन ंजरूर आएगा। इसी विश्वास के साथ वह सागर की प्रतीक्षा कर रही है।
कहते हैैं कि काले बादलों का घना अंघकार यूँ ही नहीं जाता, वह तो बरस कर ही रहता है। इला का विरह भी आज अपनी सीमाएँ तोड़ रहा था। भीगी ऑंखो से वह कभी दरवाजे की ओर तो कभी फोन की घंटी सुनने को उसके आस-पास टहलती। ंकरीब साढ़े दस बजे फोन की घंटी और उसने एक पल की भी देर किए बिना रिसीवर हाथ में ले लिया।
इंडियन एयर लाइन्स से सागर के दोस्त वसंत का फोन था। सागर जिस प्लेन से दिल्ली आ रहा था, उसका एक्सीडेंट हो गया था और उसमें ग्यारह लोग मारे गए थे। उन लोगों में एक सागर भी था। यह खबर तो वह भी आज सुबह अंखबार में पढ़ चुकी थी किंतु ऐसी खबरें तो आती ही रहती है, यह सोच कर उसने उस खबर पर ध्यान नहीं दिया था। वह एकदम अवाक रह गई ! उसे कुछ न सूझा। बस, उसके कानों में वसंत की आवांज - ही इंज नो मोर। यही गूँजती रही।
उसके बाद तो वह और मम्मी-पापा तीनों मिलकर एयरपोर्ट गए। पापा ने सागर के घरवालों से फोन पर बात की। उसने सागर की पार्थिव देह भी देखी, किंतु वह तो एकदम बुत बन गई थी, जैसे कि उसके शरीर में प्राण ही न हो।
सारी औपचारिकताएँ पूर्ण कर जैसे ही वे लोग घर आए, तो सबसे पहले वह अपने कमरे में गई और अलमारी में से सागर का भिजवाया हुआ पार्सल खोला। यह क्या ? एकदम उावल सफेद रंग का सलवार सूट! जो उसका सबसे अधिक प्रिय रंग था। सागर ने जन्म-दिवस के उपहार के रूप में उसे यह सफेद सलवार सूट दिया था। इस सफेद वस्त्र को देखकर वह फफककर रो पड़ी। सुबह से रोक हुए ऑंसुओं की धारा अब अविरल गति से बहने लगी।
यदि उसे मालूम होता कि सागर उसे उपहार स्वरूप यह धवल वस्त्र देकर हमेशा के लिए उससे दूर चला जाएगा, तो वैधव्य के इस श्रृंगार के रूप में यह उपहार वो उससे कभी न माँगती। यह कैसी हकीकत है कि सागर तो इस संसार सागर से दूर चला गया और इला उसकी यादों के मँझधार में डूबती-उतराती संसार सागर में ही रह गई। किंतु वह जीएगी, सागर के बिना ही जिएगी, उसके द्वारा अंतिम भेंट के रूप में दिए गए इस सफेद वस्त्र पर कभी भी दाग लगाए बिना वह सागर की इला बनकर जीएगी । यही उन सफेद वस्त्रों का सम्मान था और सागर के लिए इला की सच्ची श्रध्दांजलि थी।
भारती परिमल

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