भारती परिमल
नवप्रभात के स्वर्णिम सूरज तुम्हारा स्वागत है। साथ ही तुम्हारी रश्मियों से छनकर आते नववर्ष के प्रकाश पुंज का भी हार्दिक... हार्दिक स्वागत है।तुम्हारे और नववर्ष के स्वागत में हम पलक बिछाए हुए हैं।आज स्वागत की इस बेला में हमारे विचारों का उफनता ज्वार तुमसे कुछ कहने को उतावला हो रहा है।आओ घड़ी भर इसके पास आकर इसे ध्यान से सुनो...
नववर्ष के स्वागत में जहाँ चारों ओर हर्षोल्लास है, भड़कीला शोर और गुनगुनाता संगीत है...वहीं किसी कोने में एक अजन्मे मासूम की सिसकारी से लिपटी जिंदगी में मौत की खामोशी भी है। ये खामोशी तुमसे कुछ कहना चाहती है।इस दुनिया में लाखों धड़कनें ऐसी हैं, जिन्हें समय से पहले ही शांत कर दिया गया। माँ की विवशता और परिवार के सदस्यों की निर्दयता के कारण अनेक अजन्मे शिशुओं ने कोख से डस्टबीन तक का सफर तय किया। उनकी मासूम चीखों को सुननेवाला आसपास कोई न था।फूलों की पंखुड़ियों से भी कोमल अंगों पर तेज हथियारों से जोर आजमाइश का तांडव खेला जाता रहा और वे मासूम कुछ भी न कह सके।धारदार और नोकदार अस्त्रों का चक्रव्यूह तोड़ने के लिए अभिमन्यु बनना तो दूर वे तो एक पूर्ण आकार भी न पा सके और मौत के समंदर में फेंक दिए गए। आज उन्हीं मासूमों कार् आत्तनाद तुमसे आनेवाले नववर्ष में ऐसा न हो, इसकी प्रार्थना करता है। भावी माताओं को इतना सक्षम बनने का आशीर्वाद दो कि वे अपनी संतान को इस धरती पर आने का अवसर दे।मासूम की मुस्कान से उनका ऑंचल ही नहीं पूरा वातावरण सुरभित हो उठे, ये आशीर्वाद केवल और केवल तुम ही दे सकते हो।
एक मासूम जब मुस्कराता है, तो वह ईश्वर का सबसे प्यारा वरदान होता है। ईश्वर का यह उपहार हमें इतना प्यारा है कि हमने तो पूरा एक दिन ही इनके नाम कर दिया है। बाल दिवस के रूप में हम बच्चों को और अधिक करीब से जानने का प्रयास करते हैं। किंतु इसी बाल दिवस पर मीडिया के माध्यम से बाल मजदूरों की बढ़ती संख्या का ऑंकड़ा भी हमारे दिमाग में फिट हो जाता है। इन ऑंकड़ों के साथ माथे पर कुछ क्षणों के लिए सलवटें जरूर बनती हैं, पर शाम की धुँधली स्याही में ये फिर घुल जाती हैं। दिनचर्या फिर वैसी की वैसी हो जाती है।जबकि सच्चाई यह है कि मजदूरी करते इन मासूमों को भी हक है कि वे भी स्कूल जाएँ, पढ़े-लिखें और अपने सपनों को सच करने का प्रयास करें। उनके सपनों में रंग भरने के लिए तुम्हें ही अपने आशीर्वाद की तूलिका उठानी होगी। आज इन्हें इसी की जरूरत है।
किशोरों और युवाओं के काँधे पर टिका ये देश आज मीडिया के जाल में उलझा हुआ है। यही कारण है कि आज युवा-मस्तिष्क सारे संस्कारों और सद्व्यवहार को हाशिए पर ले जाकर दिशाहीन मार्ग पर आगे बढ़ रहा है। इंटरनेट का उपयोग वह केवल भौतिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति के लिए ही कर रहा है। नतीजा यह कि ज्ञान का अथाह सागर सामने होने के बावजूद इनकी गागर सद्विचारों से खाली है। आज का युवा ध्येय के अभाव में यहाँ-वहाँ भटक रहा है। प्रतिस्पर्धा के इस दौर में वे सभी कुछ जल्द से जल्द पा लेना चाहते हैं। इसके लिए वे कोई भी शॉर्टकट अपनाने को तैयार है। भटकते हुए इन युवाओं को नववर्ष में एक नई वैचारिक शक्ति और सद्विचारों का पुंज प्रदान करो।
आज अपनी सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए, समाज में स्टेटस मेन्टेन करने की पूरजोर कोशिश में व्यक्ति अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। ऑफिस, पार्टी, घर-गृहस्थी, पत्नी-बच्चे इन सभी के लिए थोड़ा-थोड़ा वक्त निकालने के बाद उसके पास स्वयं के लिए ही समय नहीं होता।यह एक भागते-दौड़ते मशीनी मानव की सच्चाई है, किंतु इससे भी बड़ी सच्चाई तो यह है कि उसके पास सभी के लिए समय होने के बाद भी अपने माता-पिता के लिए समय नहीं होता। शहरों में झूलाघर की तरह वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात की पुष्टि करती है। आज के समाज का कटु सत्य यह है कि जिन माता-पिता को अपनी पाँच संतानों का लालन-पालन करना भारी नहीं लगा था, आज उन्हीं संतानों को अपने पाँच फ्लेट में उन्हीं माता-पिता को रखना भारी लग रहा है।एक माँ नौ माह तक संतान का भार हँसते हुए अपने कोख में उठा लेती है, किंतु यही बेटा बड़ा होकर माँ-बाप की जिम्मेदारियों को उठा नहीं सकता।उसका 2-4 वर्श का लाडला तो उससे प्यार की अपेक्षा कर सकता है, किंतु बूढ़े माँ-बाप प्यार की चाहत नहीं रख सकते! समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति होने का दंभ उसे अपने ही माता-पिता से दूर ले जाता है। बचपन में वह माँ का बिस्तर गीला करता था और बड़ा हुआ तो माँ की ऑंखें गीली करने लगा। इस प्रकार उसे तो सदैव माता-पिता को गीलेपन में रखने की आदत हो गई है! ओ... सूरज इस वक्त ऐसे कलुषित विचारों से घिरे हुए मनुष्य को तुम्हारी शुभकामनाओं की विशेष आवश्यकता है। तुम आशीर्वाद दो कि उसके विचारों का यह अन्यायपूर्ण साम्राज्य जल्द से जल्द नष्ट हो जाए और वह अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए माता-पिता से भी स्नेहपूर्ण व्यवहार करे।
अपनी संतान से दूर होने का अहसास क्या होता है, ये देखना हो, तो वृध्दाश्रमों की लम्बी सूची हमारे देश के कई शहरों में मिल जाएगी। इसकी डयोढी पर पाँव रखते ही वहाँ अनुभवों की झुर्रियों से लिपटे लाचारगी भरे चेहरे मिलेंगे। ये चेहरे हमसे कुछ कहना चाहते हैं, पर हमने ही इन्हें घर की चहारदीवारी से दूर कर दिया है। वे हमसे बतियाना चाहते हैं, पर हमने ही उन्हें खामोश रहने के लिए उन्हें वृध्दाश्रमों में भेज दिया है।वे हमें कुछ देना चाहते हैं, उनके अनुभव हमें उपदेश लगते हैं, इसलिए हमने उपदेश के लिए तो महात्माओं की शरण ले ली, पर उनके अनुभव सुनने के लिए हमारे पास समय नहीं है। पेड़ से एक डाल यदि टूट जाती है, तो सूख जाती है, पर ये ऐसी डालें हैं, जो टूटी तो हैं, पर मुरझाई नहीं हैं, हमें इन डालों को अपने ऑंगन में रोपना है, ताकि हमें उनके अनुभव के मीठे फल मिले। लेकिन हम ऐसा कुछ भी नहीं चाहते, पर यह अवश्य चाहते हैं कि हमारी संतान हमारी पूरी देखभाल करे। पर क्या ऐसा संभव हो पाएगा?
सूरज दादा, क्या आप ऐसा होता देखेंगे, नहीं ना तो फिर कुछ ऐसा करो कि सभी की समझ में आ जाए कि नए वर्ष पर हम सब कुछ न कुछ देना सीख जाएँ।फिर वही मुन्ना अपने बूढ़े माता-पिता को अपना संरक्षण देगा, तब उनके झुर्रीदार चेहरे पर जो भाव आएँगे, वह किसी आशीर्वाद से कम नहीं होंगे।युवकों को यह समझा दो कि सफलता का कोई शार्टकट नहीं होता, और नन्हे-मुन्नों को क्या समझाएँगे आप, वह तो गीली माटी की तरह हैं, उन्हें जो आकार दोगे, वे वैसा ही बन जाएँगे, इसलिए उन पालकरूपी कुम्हारों के हाथों में वह शक्ति दो कि ये गीली माटी जब भी चाक पर चढ़े, तो ऐसे रूप में सामने आए कि लोग देखते रह जाएँ। बस यही काम कर दो सूरज दादा, हमारी तुमसे यही विनती है कि धरती का एक-एक प्राणी तुम्हारे आशीर्वाद की वर्षा में भीग जाए।
ओ नववर्ष के ओजस्वी सूरज... हम सभी तुम से क्षण-क्षण की सफलता प्राप्ति के लिए सामर्थ्यवान होने का आशीर्वाद मांगते हैं। तुम्हारी स्नेह रश्मियों से भीगकर स्वयं को प्रकाशमय बनाने का प्रयास हम केवल और केवल तुम्हारी शुभवांछनाओं के साथ ही पूर्ण कर सकते हैं। इसलिए नववर्ष के नवक्शण को नवरूप देने के लिए हर घर के ऑंगन पर उतरती तुम्हारी सप्तरंगी किरणों का हार्दिक...हार्दिक स्वागत है।
भारती परिमल
शनिवार, 29 दिसंबर 2007
स्वागत नववर्ष के स्वर्णिम सूरज...
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अभिमत
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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