शनिवार, 22 दिसंबर 2007

सांता का संदेश : प्यारे बच्चों के नाम

भारती परिमल
प्यारे बच्चो,
मैं तुम्हारा चहेता सांता, हर साल क्रिसमस पर तुमसे मिलने आता हूँ और तुम्हारे द्वार पर उपहारों की वर्षा करता हूँ। मैं जानता हूँ, अपने मनपसंद उपहारों को पाने की चाहत के साथ तुम सभी नन्हें मासूम बड़ी बेसब्री से मेरी प्रतीक्षा करते हो। तुम्हारी इसी प्रतीक्षा को पूरा करने और विश्वास को अटूट बनाए रखने के लिए ही हर साल क्रिसमस की रात को मैं आता हूँ। गीतों की सुमधुर स्वर लहरियाँ और घंटियों की गूँज के बीच जब ईश्वर को याद किया जाता है, तो उन स्मृतियों में ही कहीं न कहीं मैं भी शामिल होता हूँ। तुम्हारी ऑंखों के इंद्रधनुषी सपनों में जहाँ अनेक कल्पनाएँ साकार होती हैं, वहाँ मेरी भी छवि बनी हुई है, जो मेरी अनुपस्थिति में माता-पिता और स्नेहीजनों के स्नेह के साथ साकार रूप लेती है। उनसे अपनी पसंद का उपहार पाने के बाद तुम फूले नहीं समाते और एक क्षण को ये सोच कर अपने आपको दिलासा देते हो कि इस बार सांताक्लास नहीं तो क्या, मम्मी-पापा से तो मनपसंद उपहार पा लिया। अब अगले साल फिर सांताक्लास का इंतजार करेंगे। इस प्रकार हर साल मेरी प्रतीक्षा करते-करते तुम बचपन को अलविदा कह कर एक नए सफर की शुरुआत करते हो।
प्यारे बच्चो, जब तुम सभी रात के जगमगाते सितारों के बीच अपनी आशा और विश्वास का एक नया सितारा बनाकर उसे छत पर लटकाए हुए मेरी प्रतीक्षा करते हो, तो मैं अपने आपमें एक अनोखी खुशी और गर्व महसूस करता हूँ। तुम्हारे इसी विश्वास को बनाए रखने के लिए मुझे हर साल बर्फीले पहाड़ों और स्लेज का सफर पूरा कर एक नए सफर की शुरुआत करनी पड़ती है, क्योंकि सिर्फ बर्फीली वादियों के बीच बसे घरों में ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर घर के बच्चों को मेरी प्रतीक्षा होती है। इसीलिए मुझे शहरों से गाँवों तक, मकानों से झोंपड़ियों तक की यात्रा करनी पड़ती है, क्योंकि मैं नहीं चाहता कि किसी भी मासूम का दिल टूटे। इसी चाहत के लिए मैंने पहाड़ों से सड़कों तक का सफर करना स्वीकार किया और हर ऑंगन तक पहुँचने का प्रयास किया।
मेरा और तुम्हारा स्नेह का बंधन काफी गहरा है। इसे यूँ ही विस्मृत नहीं किया जा सकता। इसी गहराई को ध्यान में रखते हुए आज मैं तुमसे क्रिसमस के इस पवित्र पर्व पर अपनी एक बात कहना चाहता हूँ- आज इतने सालों से अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए, तुम्हारे सपनों में रंग भरते हुए, अब मैं काफी बूढ़ा हो चुका हूँ। शरीर थक चुका है और तुम सभी के विश्वास का बढ़ता दायरा मुझे पहले की तरह गर्वित करने के बजाए भयभीत कर रहा है। भय इतना गहरा है कि मैं हर क्षण इसी वेदना से पीड़ित रहता हूँ कि कहीं मेरी थकान तुम्हारे विश्वास पर हावी न हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो हमारा स्नेह बंधन केवल एक स्मृति बन जाएगा। इस घोर वेदना के बीच भी मैं तुमसे अपने मन की बात कह कर ही रहूँगा। इस बात को सुनना और उसे ग्रहण करना तुम्हारे लिए कितना फायदेमंद है, इसे तुम स्वयं ही महसूस करोगे।
प्यारे बच्चो, तो मैं शुरू करता हूँ अपने और तुम्हारे हित की बात। मेरी बात ध्यान से सुनो... अब मैं तुम्हारी झोली में उपहारों की वर्षा करने नहीं आना चाहता। मैं चाहता हूँ कि हर साल मेरी प्रतीक्षा में ऑंखें बिछाने के बजाए तुम एक नई शुरुआत करो। स्वयं ही इस लायक बनो कि दूसरों से उपहार की अपेक्षा न रखो। तुम्हारा स्वावलंबी और स्वाभिमानी बनना तुममें तो आत्मविश्वास भरेगा ही, मुझे भी एक अनोखी खुशी देगा। तुम सभी आज की दुनिया के बच्चे हो। आज की दुनिया अर्थात नवीन टेक्नोलॉजी और स्वतंत्र विचारों से भरी हुई एक आधुनिक दुनिया। इस दुनिया में ज्ञान का अथाह सागर है जिसमें कम्प्यूटर और नेट की तरंगे उठती है। इन तरंगों में स्वयं को भिगोकर तुम स्वयं ही कई उपहार प्राप्त कर सकते हो। अपनी मेहनत के बल पर प्राप्त किया गया प्रत्येक उपहार अपने आपमें अनमोल होता है। इस बात को तुम उस समय महसूस करोगे, जब तुम स्वयं ही उसे प्राप्त कर लोगे।
मीडिया और इंटरनेट का मायाजाल तुम्हें दिग्भ्रमित करने के लिए नहीं, बल्कि तुम्हें एक नई दिशा प्रदान करने के लिए है। इसलिए इसका सही उपयोग करो और अपने आपसे एक वादा करो कि कभी स्वयं को दिशाहीन होने नहीं दोगे, यदि कोई तुम्हारे सामने दिशाहीन होने लगे, तो उसे अपने सामर्थ्यनुसार सही रास्ते पर लाने का प्रयास करोगे। अपने आप से किया गया यह वादा ही तुम्हारा पहला उपहार है।
ऐसा कहने की मेरी हिम्मत इसहलए हुई कि इन सालों में मैं कई विकलांग बच्चों से भी मिला हूँ । तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि इन बच्चों में स्वाभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ है। ये बच्चे सितारों की जगमगाहट के साथ मेरी प्रतीक्षा नहीं करते, बल्कि हमेशा मुझे यही कहते हैं कि हमारे द्वार पर कभी उपहार लेकर न आना सांताक्लास। जब भी आना, तो केवल आशीर्वादों की जादुई छड़ी लेकर ही आना। जिसे पाने के बाद हमें और किसी उपहार की आवश्यकता ही नहीं है। केवल तुम्हारा आशीर्वाद ही हमारे लिए अमूल्य उपहार है। उनके विचारों का यह तेज मुझे चकाचौंध कर देता है। वे कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते। हमेशा अपने दम पर अपने जीवन में रंग भरने का प्रयास करते हैं। जब वे विकलांग होकर किसी के सामने हाथ नहीं फैलाते, तो तुम क्यों मुझसे अपेक्षा रखते हो? मैं चाहता हूँ कि तुम भी इन्हीं बच्चों की तरह स्वावलंबी बनो। अपने जीवन में तुम स्वयं ही रंग भरो। अपने हिस्से का आकाश तुम स्वयं ही प्राप्त करो और उस पर अपनी कल्पनाओं को आकार दो।
मेरी ये चाहत पूरी करने के लिए पूरी तरह से तैयार हो जाओ मेरे प्यारे बच्चो। तुम्हारा एक-एक कदम मुझे एक-एक क्षण सुकून की ओर ले जाएगा। मेरे स्वाभिमानी बच्चों के बीच केवल आशीर्वादों की वर्षा करते हुए मुझे अद्वितीय खुशी होगी। इस बार मुझसे ये वादा करो कि तुम कभी भी मेरे सामने तो क्या किसी के भी सामने हाथ नहीं फैलाओगे। उपहारों की आशा के साथ जीने वाले दयनीय बच्चे न बन कर तुम सभी स्वाभिमान से ओतप्रोत तेजस्वी पुंज बनो। याद रखो, सच्ची खुशी किसी को कुछ देने में है, किसी से कुछ लेने में या माँगने में तो बिलकुल नहीं। तुम स्वयं इस धरती पर विधाता के द्वारा भेजा गया एक अनमोल उपहार हो। तुम्हें पाकर माता-पिता, समाज, देश और पूरा विश्व धन्य हो गया। जीवन में ऐसा काम करो कि ये सभी तुम पर गर्व करें।
तुम ये न समझना कि ऐसा हो जाएगा, तो मैं तुम्हारे द्वार पर कभी नहीं आऊँगा। मेरा शरीर बूढ़ा हो गया है, किंतु मेरी आत्मा तो अभी भी तुम्हारी मासूमियत और चंचलता का प्रतिरूप है। इसका और थकान का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। इसलिए आत्मिक रूप से तो मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ और रहूँगा। जब जब मुझे पुकारोगे- घंटियों की समधुर गूँज और जादुई छड़ी की जगमगाहट के साथ मैं तुम्हारे पास रहूँगा। मुझे महसूस करने और एक नई शुरुआत के लिए हमेशा तैयार रहना। तो अब मैं चलूँ बच्चो, अभी तुम्हारे जैसे कई बच्चों को इस तरह का संदेश देना है, चलता हूँ, कहीं देर न हो जाए....

तुम्हारा अपना
सांताक्लास
भारती परिमल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels