शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

आज होगी डॉन को सजा

      डॉ. महेश परिमल
एक समय के माफिया डॉन अरुण गवली की किस्मत का फैसला 31 अगस्त को होगा। अपराध की दुनिया में जिनका सिक्का चलता था, जिनकी मर्जी के बिना मुम्बई का पत्ता तक न हिलता हो, वही अरुण गवली आज हत्या के आरोप के एवज में स्वयं को निर्दोष बता रहा है। मार्च 2008 में उसके इशारे पर शिवसेना के नगर सेवक कमलाकर जामसांडेकर की हत्या कर दी गई थी। इस हत्या के लिए अरुण गवली ने 30 लाख की सुपारी ली थी। मुम्बई पुलिस ने अरुण गवली को फांसी की सजा देने का अनुरोध अदालत से किया है। क्योंकि जब जामसांडेकर की हत्या हुई थी, तब गवली विधायक थे। अभी वह जेल में है। मुम्बई के डॉन को सजा होगी,ऐसा पहली बार होगा।
एक समय ऐसा भी था, जब मुम्बई में पुलिसने बल्कि माफिया का राज चलता था। वरदराजन मुदलियार, करीम लाला, हाजी मस्तान, दाऊद इब्राहिम, अमर नाइक, अश्विन नाइक, बड़ा राजन, छोटा राजन, छोटा शकील, अबू सलेम, आदि गेंगस्टार्स ने मुम्बई के इलाके बांट रखे थे। इन्हें राज्य के नेताओं का भी संरक्षण प्राप्त था। मुम्बई के बिल्डर अपने प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए इनकी सहायता लेते थे। बदले में उन्हें बिल्डर लॉबी की तरफ से मोटी राशि मिलती थी। 1060-70 के दशक में ये माफिया मूल रूप से तस्करी ही करते थे। विदेशों से सोना और कपड़े लाने पर प्रतिबंध होने से ये उन चीजों को तस्करी के माध्यम से भारत लाते थे। इस धंधे में करीम लाला, वरदराजन और हाजी मस्तान का एकाधिकार था। कई कस्टम अधिकारियों को इनकी तरफ से वेतन मिलता था। दाऊद इब्राहिम कासकर के पिता मुम्बई पुलिस में हवलदार थे। दाऊद ने अपने भाई शब्बीर के साथ तस्करी का काम शुरू किया। तब ये करीम लाला की पठान गेंग के दुश्मन बन गए। 1981 में करीम लाला ने दाऊद के भाई शब्बीर की हत्या कर दी। तब दाऊद गेंग और पठान गेंग की बीच जंग छिड़ गई। दोनों गुटों के बीच कई बार तीखी झड़प हुई, जिसमें दोनों तरफ कई साथी मारे गए। इसी बीच 1986 में दाऊद के साथियों ने करीम लाला के भाई रहीम खान को मार डाला। इसके बाद करीम टूट गया। उसने दाऊद से दोस्ती कर ली और अपराध की दुनिया को अलविदा कह दिया। सन 1960 में विक्टोरिया टर्मिनल स्टेशन पर एक पोर्टर के तौर पर जिंदगी शुरु करने वाला वरदराजन मणिस्वामी मुदलियार देखते-देखते मुंबई अंडरवल्र्ड का एक बड़ा नाम हो गया। कांट्रेक्ट किलिंग, स्मगलिंग और डाकयार्ड से माल साफ करना वरदराजन का मुख्य धंधा था। मुंबई में मटका के धंधे में भी मुदलियार ने एक लंबा-चौड़ा नेटवर्क खड़ा कर दिया था. 1987 में जब मणि रत्नम ने वरदराजन के जीवन पर आधारित फिल्म नायकन बनाई तो वह कमल हासन के अभिनय के चलते एक अविस्मरणीय फिल्म बन गई. बाद में फिरोज खान ने हिन्दी में दयावान के नाम से उसका रिमेक बनाया। 1977 में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से प्रभावित होकर हाजी मस्तान ने अपराध की दुनिया छोड़ दी। इसके बाद उसने राजनीति में प्रवेश किया। 1980 में वरदराजन ने भी अपराध की दुनिया छोड़कर चेन्नई चला गया।
एक-एक करके जब पुराने डॉन चले गए, तब दाऊद का पूरी मुम्बई में एकछत्र राज हो गया। 1993 में जब मायानीगरी में बम विस्फोट हुए, तब अंडरवल्र्ड के सारे समीकरण बदल गए। विस्फोट के पहले ही दाऊद पहले दुबई फिर बाद में करांची चला गया। हाऊद और छोटा राजन अलग पड़ गए। छोटा राजन ने मलेशिया में अपना कारोबार शुरू कर दिया। इससे मुम्बई में अरुण गवली और अमर नाइक को खुला मैदान मिल गया।  अब दोनों दलों के बीच गेंगवार होने लगे। 18 अप्रैल 1994 को अरुण गवली के शार्पशूटर रवींद्र सावंत ने अमर नाइक के भाई अश्विन नाइक पर अदालत परिसर में गोली चलाई। गोली अश्विन की खोपड़ी को पार कर गई, फिर भी वह बच गया। इसके बाद 10 अगस्त 1996 को मुम्बई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट विजय सालसकर ने अमर नाइक को एनकाउंटर में मार डाला। अश्विन नाइक की गिरफ्तारी 1999 में हुई। अश्विन जब तिहाड़ जेल में था, तब उसकी पत्नी नीता नाइक की हत्या हो गई। इस हत्या का आरोप अश्विन पर ही लगाया गया। क्योंकि उसकी पत्नी नीता बेवफा है, ऐसा शक अश्विन उस पर करता था। नीता नाइक ने शिवसेना की टिकट से चुनाव भी लड़ा था और नगरसेविका बनी थी। उधर अश्विन दस वर्ष तक जेल में रहकर 2009 में बाहर आया। अब वह अपने पुराने दिनों को याद कर मुम्बई में ही कहीं रह रहा है।
अश्विन का राज खत्म होने से सेंट्रल मुम्बई की दगली चाल में अरुण गवली का राज चलने लगा। यहां पुलिस भी उसकी इजाजत के बिना प्रवेश नहीं कर पाती थी। दगड़ी चाल की स्थिति एक किले की तरह थी। वहां 15 फीट का एक दरवाजा था। अरुण गवली की गेंग में 800 लोग थे। इन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी दिया जाता था। सभी को चार हजार रुपए महीने मिलते थे। बिल्डर और व्यापारी अपने कारोबार को बढ़ाने और प्रतिद्वंद्वी को खत्म करने के लिए लोग गवली की मदद लेते, एवज में गवली इनसे मोटी राशि प्राप्त करता। इसके अलावा गवली के साथी लोगों से हफ्ता भी लेते थे। इस तरह से गवली का साम्राज्य बढ़ता गया। लेकिन उसे हमेशा पुलिस का खौफ रहता। एक तरफ माफिया और दूसरी तरफ पुलिस के दबाव के चलते अरुण गवली को लगा कि इससे तो अच्छा है कि राजनीति में ही जोर आजमाया जाए। इसके बाद 2004 में उसने अखिल भारतीय सेना के नाम से एक दल गठित किया। विधानसभा चुनाव में उसने अपने कई प्रतिनिधि खड़े किए। अन्य की तो जानकारी नहीं है, पर वह स्वयं चिंचपोकली से जीत कर विधायक बन गया। 2008 में उसने 30 लाख की सुपारी लेकर शिवसेना के कापरेरेट कमलाकर जामसांडेकर की हत्या करवा दी। जाँच में उसे आरोपी माना गया, आरोप सिद्ध होने पर उसे जेल हो गई। इस दौरान उसकी पूरी गेंग खत्म हो गई। दया नायक, विजय सालसकर, और प्रदीप शिंदे जैसे एनकाउंटर विशेषज्ञों ने अधिकांश गेंग को खत्म ही कर दिया। दाऊद इब्राहिम और छोटा राजन की लड़ाई अभी भी विदेशी भूमि पर ही चल रही है। इधर कहा यह जा सकता है कि मुम्बई माफियाओं से मुक्त हो गई है।
अरुण गवली को जो भी सजा हो, पर इससे यह सिद्ध हो जाता है कि कानून के हाथ बहुत लम्बे होते हैं। अपराध के इन सरगनाओं का हश्र यही होता है। एक समय होता है, जब इनका समय होता है। बाद में वह समय चला जाता है, तो फिर किसी और का समय आ जाता है। इस समय अपने पुराने समय को वापस नहीं लाया जा सकता। इनकी भी कहानी तो खत्म होनी ही है, सबकी तरह। पर समय इन्हें भूल जाता है। कुछ फिल्मकार इन पर फिल्म बना लेते हैं, तो उनका नाम चल निकलता है। हाजी मस्तान पर दीवार बनाई गई, जो अभिताभ बच्चन के सशक्त अभिनय के कारण चल निकली। कमल हासन ने वरदराजन की भूमिका को नायकन में जान डाल दी। पर इसी फिल्म का रिमेक जब फिरोज खान ने दयावान के नाम से बनाई, तो वह बुरी तरह से विफल रही। कुछ भी हो अपराध की दुनिया के इन बेताज बादशाहों ने फिल्मी दुनिया को मसाला तो दे ही दिया, जो लम्बे समय तक काम आता रहेगा। गवली को होने वाली सजा से यह साफ हो जाएगा कि एक दिन कानून के हाथ में सबको आना ही है।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 30 अगस्त 2012

सुख दुख के तालमेल से बने जीवन संगीत

दैनिक भास्‍कर के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख


सोमवार, 27 अगस्त 2012

कोयले के शोर में डूबा असम का मुद्दा


हरिभूमि के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख


शनिवार, 25 अगस्त 2012

मेरी 1000 वी पोस्‍ट

कोयले के शोर में डूब गया असम का मुद्दा
डॉ. महेश परिमल
कोयला घोटाले के शोर में असम में हुई हिंसा और बंगलादेशी घुसपैठियों का मुद्दा भुला दिया गया। हमेशा से यही होता आ रहा है। जब भी संसद में कोई गंभीर मुद्दा सामने आता है, तब सरकार उससे बचने के लिए किसी दूसरे मुद्दे को तूल दे देती है। जिससे हमारे सांसदों का ध्यान दूसरी ओर चला जाता है। इस बार सरकार केवल इस बात के लिए खुश है कि विपक्ष बिखर गया है। कोयला घोटाले के मामले में भाजपा को चाहिए केवल प्रधानमंत्री का इस्तीफा। अन्य दल भाजपा की इस माँग से इत्तेफाक नहीं रखते। इधर भाजपा भी अड़ी हुई है। उधर अन्य दल अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंकने में लगे हुए हैं। सरकार की ईद बिगड़ गई, अब वह नहीं चाहती कि किसी भी तरह से विपक्ष अपनी मनमानी कर ले। काफी समय बाद विपक्ष को मौका मिला है, वह भी इसे खोना नहीं चाहती।
सरकार से यह अपेक्षा बेकार ही है कि कोयला घोटाले पर वह कुछ कर पाएगी। संसद के कई सत्र हंगामें की भेंट चढ़ते रहे हैं। इस बार भी वैसे ही आसार हैं। पिछली 2 जी घोटाले पर बार जेपीसी की मांग को लेकर संसद एक तरह से ठप्प ही पड़ गई थी। जब सरकार को लगा कि इसके अलावा अब और कोई चारा नहीं, तो उसने विपक्ष की बात मान ली। इस बार सरकार संयुक्त संसदीय समिति की रचना करना चाहती है। सभी जानते हैं कि संयुक्त संसदीय समिति की रचना करना एक छलावा ही है। इसके पहले जब भी इसकी रचना की गई है, उसके फैसले स्वार्थ से ही लिपटकर सामने आए हैं। अभी सरकार के सामने समस्या यह है कि उसके पास ‘कैग’ की रिपोर्ट का कोई जवाब नहीं है। प्रधानमंत्री कभी इस्तीफा देंगे, यह सोचना भी भारी भूल होगी। यह सच है कि विपक्ष को अब काफी ईंधन मिल गया है। उच्च स्तर पर चल रहे भ्रष्टाचार लगातार सामने आ रहे हैं। हर बार सरकार की नाकामी सामने आ रही है।
इसमें कोई दो मत नहीं कि कोयला घोटाले ने सरकार  के साथ-साथ प्रधानमंत्री की छबि को धूमिल किया है। कोयला घोटाले में खानों की नीलामी नहीं हुई, यह सच है, पर पहले आओ-पहले पाओ की नीति को भी नहीं अपनाया गया। अपनों अपनों को ही खानों को एक तरह से समर्पित कर दिया गया। इस घोटाले में सारे नियम-कायदों को ताक पर रखा गया है। सामान्य रूप से खानों के आवंटन प्रणाली में सबसे पहले उसका नक्शा तैयार किया जाता है। उसके बाद जमीन का विभाजन किया जाता है। उसके बाद टेंडर निकाला जाता है, इसमें जो सबसे ऊंची बोली लगाता है, खान का एक भाग उसे दिया जाता है। यही नहीं इस खान से कितना माल निकालना है, यह भी तय किया जाता है। खानों के आवंटन में इन नियमों को ध्यान में ही नहीं रखा गया। जिसे भी खान मिली, उसने तय सीमा से अधिक माल निकाला। इन्होंने सरकार को इसमें से उसका हिस्सा भी नहीं दिया गया। खूब मनमानी चली। ये देश का दुर्भाग्य है कि ये सब उस समय हुआ, जब यह मंत्रालय हमारे प्रधानमंत्री के पास था। कोयला घोटाले में कुछ राज्य सरकारें भी दोषी हैं। इन सरकारों ने केंद्र सरकार को यह  ताकीद की थी कि नीलामी के बिना ही खानों का आवंटन कर दिया जाए। अब जब इस मामले में केंद्र सरकार ही कठघरे में आ गई है, तो यही राज्य सरकारें अब बचाव की मुद्रा में आ गई हैं। इस घोटाले की दलाली राज्य सरकारों ने खा ली है। इन राज्यों में भाजपाशासित राज्य भी शामिल हैं। इसलिए भाजपा इस मामले में अपना चेहरा छिपाने की कोशिश कर रही है।
उधर महाराष्ट्र में राज ठाकरे कांग्रेस पर भारी पड़ रहे हैं। बिना अनुमति के पिछले दिनों उन्होंने रैेली निकालकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया। रैली में डेढ़ किलोमीटर तक पैदल चले। इस तरह से उन्होंने यह जता दिया कि मुम्बई में 11 अगस्त को जो हिंसा हुई, उसकी नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए महाराष्ट्र के गृहमंत्री और पुलिस कमिश्नर को इस्तीफा दे देना चाहिए। राज ठाकरे के इस शक्ति प्रदर्शन से महाराष्ट्र कांग्रेस और एनसीपी को मानो सांप सूंघ गया। राज ठाकरे को जब महाराष्ट्र के मोदी के रूप में प्रस्तुत किया गया, तो कांग्रेस को झटका लगा। शक्ति प्रदर्शन कर राज ठाकरे ने अपनी अहमियत बता दी। पुलिस कमिश्नर का बदला जाना इसी बात की ओर संकेत करता है। यूपीए सरकार को इस बार ईद फल नहीं पाई। संसद के बाहर और संसद के अंदर भी कांग्रेस के सामने संकट ही संकट है। एक तरफ राज ठाकरे का शक्ति प्रदर्शन, दूसरी तरफ भाजपा की सख्ती, तीसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट द्वारा पदोन्नति में आरक्षण की अर्जी को ठुकरा दिया जाना, इन सब झंझावातों में कांग्रेस बुरी तरह से उलझ गई है। इन तीनों घटनाओं ने कांग्रेस को अच्छा-खासा झटका दिया है। फिर भी कांग्रेस खुश है कि विपक्ष बिखर गया है। संसद भले न चले, इसमें भी कांग्रेस अपना ही भला देख रही है। न संसद चलेगी और न ही चर्चा होगी। लेकिन उन 112 बिलों का क्या होगा, जो अटके पड़े हैं? दूसरी ओर जिस तरह से कोयला घोटाले ने असम का मुद्दा पीछे धकेल दिया है, उसी तरह कुछ ऐसा होगा, जिससे यह मुद्दा भी भुला दिया जाए। जनता को दिग्भ्रमित करने वाले नेता अब स्वयं ही दिग्भ्रमित हो रहे हैं, या किए जा रहे हैं। अभी तीन महीने पहले ही संसद की 60 वीं वर्षगांठ पर 13 महई को सेंट्रल हाल में संकल्प लिया गया था कि व्यवधानों का हल बातचीत से निकालेंगे, हर साल सौ बैठकें करवाएंगे, सांसदों की जवाबदेही बढ़ाएंगे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। उधर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था कि  संसद में हंगामों से लोगों में निराशा है। हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए। उस समय प्रणव मुखर्जी ने भी कहा था कि ऐसी व्यवस्था बनाएंगे कि संसद की कार्यवाही कभी भी बाधित न हो। लालकृष्ण क्षडवाणी ने भी कहा था कि चर्चा कर सभी मुद्दे हल करेंगे और संसद को जनता के प्रति जवाबदेह बनाएंगे।
आज हालत यह है कि दोनों ही परस्पर आरोप-प्रत्यारोप के दौर से गुजर रहे हैं। आज सरकार की दलील है कि ञ्चविपक्ष बहस से बच रहा क्योंकि उसे फंसने का डर है, संसद की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए विपक्ष दोषी है, कांग्रेस जब विपक्ष में थी तो कभी भी ऐसा नहीं किया। दूसरी ओर विपक्ष के तर्क हैं कि प्रधानमंत्री पहले इस्तीफा दें तो हम बहस को राजी होंगे, संसद चलाना सरकार की जिम्मेदारी है, विपक्ष की नहीं, तहलका पर कांग्रेस ने 20 दिनों तक संसद ठप की थी।  अब तक तो यही कहा जाता था कि नेता हमेशा जनता से किए अपने वादे भूल जाते हैं। पर अब ऐसा लगता है कि नेता संसद में जो वादे करते हैं, उसे भी भूल जाते हैं। संसद की गरिमा को बचाए रखने के सारे वादे अब न जाने कहां गुम हो गए हैं। संसद ठप है, सरकार खुश है और बेचारी जनता का हालचाल पूछने वाला कोई नहीं है।
   डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

मुक्ति चाहिए सरकार की कच्छप गति से

 डॉ.महेश परिमल
एक तरफ असम अपनी ही आग में जल रहा है। उस पर केंद्र शासन की नाकामी बार-बार सामने आ रही है। 11 अगस्त को मुम्बई में जो कुछ हुआ, उससे यही लगता है कि इस मामले में राज्य सरकारें भी सहयोग नहीं कर रही है। इस बार अराजक तत्वों के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने पुलिस से राइफल छीनकर उन पर प्रहार किया और गोलियाँ चलाई। दूसरी ओर नेटवर्क का सहारा लेकर ऐसी अफवाह उड़ा दी गई कि पूर्वोत्तर के लोगोंे की जान को खतरा है। इसका सबसे बड़ा असर आईटी हब बेंगलोर में देखा गया, जहाँ से पूर्वोत्तर के लोगों का बड़ी संख्या में पलायन शुरू हो गया। अन्य राज्यों से भी कई लोग अपने वतन की तरफ लौटते देखे गए।  सरकार भले ही कहती रहे कि पूर्वाेत्तर के लोग पूरी तरह से सुरक्षित हैं, पर स्पेशल ट्रेनें चलाकर उसने भी अपनी लाचारगी का ही प्रदर्शन किया है। सरकार भले ही यह दावा करती रहे कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। लेकिन उसने अराजक तत्वों को पकड़ने की दिशा में कोई ऐसी कार्रवाई नहीं की, जिससे लोगोंे को बल मिलता।  अफवाहें निगेटिव ही होती हैं, तो इसका सामना पॉजीटिवली करना था। देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से चिंता व्यक्त की थी। इस दिशा में ठोस कदम उठाने का वादा भी किया था। उस वादे की धज्जियां दूसरे दिन ही उड़ र्गई। एक तरफ असम पहले से ही प्राकृतिक आपदा से आक्रांत है, दूसरी ओर केंद्र सरकार की लापरवाही के कारण वहाँ गृह युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। वह राज्य अब कैसे गर्व कर सकता है कि उसने देश को प्रधानमंत्री दिया है। पिछले 8 वर्षो से जो कुछ नहीं होना चाहिए, वह हो रहा है। वास्तविक आजादी तो हमें तभी मिलेगी, जब हम इस सुस्त सरकार, निर्णय न लेने वाली सरकार को पूरी तरह से नकार दें। प्राकृतिक आपदा से असम एक बार भले ही संभल जाए, पर इस मानव सर्जित आपदा से वह कैसे निबटेगा? सरकार की सख्ती ही उसे उबार सकती है?
आज यक्ष प्रश्न यह है कि वे कौन सी परिस्थितियां थीं, जिसने बेंगलोर से 6 हजार और हैदराबाद से 3 हजार लोग पलायन कर पूर्वोत्तर की ओर रवाना हो गए हैं। जब यह अफरा-तफरी चल रही थी, तब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार से बात कर इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने का वादा किया था। इसके बाद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे और असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी उनसे बात की थी। शेट्टार ने एक उच्च स्तरीय बैठक कर पूरे मामले की समीक्षा भी की थी। पर इससे क्या होता है। पुणो में जिस तरह से हुआ, उससे प्रशासन तो चौकन्ना नहीं हो पाया। पुणो के मामले में भी इंटरनेट का भरपूर उपयोग किया गया था। सरकार की वही नाकामी पूर्वोत्तर के लोगों में भय पैदा कर रही है। सरकार को जब जागना होता है, तब वह सोते रहती है। जब जागती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। ऐसा बार-बार हो रहा है। पुणो, बेंगलोर और हैदराबाद ये तीनों ही आईटी के क्षेत्र में जाने-पहचाने नाम हैं। इन शहरों में ही पूर्वोत्तर के लोग प्रभावित हुए हैं। इन्हीं शहरों के लिए ही इंटरनेट के फेसबुक में आपत्तिजनक सामग्री डालकर लोगों को भरमाया गया। सरकार को यह समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन किसलिए कर रहा है? सरकार ने आईटी के क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियां बनाई हैं, पर यह नहीं सोचा  कि यदि किसी छात्र के साथ धोखाधड़ी हो जाए, तो वह किस तरह से इंटरनेट का ही दुरुपयोग करके लोगों को भरमा सकता है। इंटरनेट पर आपत्तिजनक सामग्री डालकर लोगों को उत्तेजित करना निश्चित रूप से उन तत्वों का काम है, जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। सरकार ऐसे लोगों की पहचान कर कड़ी सजा दे, तभी लोगों में सरकार के प्रति विश्वास की भावना बलवती होगी।
सबक ले ही लेना चाहिए
इन मामलों से सरकार को यह सबक ले ही लेना चाहिए कि अफवाह उड़ते ही उसक माकूल जवाब देकर लोगों में विश्वास का वातावरण तैयार करे। यदि मुम्बई के गुनाहगारों को पकड़कर उन्हें सजा दी जाती, तो लोग राहत महसूस करते। ऐसे मामलों में न्यायतंत्र पर ऊँगली उठाई जा सकती है। कैसी विडम्बना है कि पहले असम में हिंसा का लम्बा दौर चलता है,उसके बाद मुम्बई में प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़क उठती है और अंत में अफवाहों के कारण लोग अपनी जान बचाने के लिए पलायन करने लगते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इस बार अफवाहों को फैलाने में इंटरनेट पर झूठी जानकारी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे स्पष्ट है कि अब इंटरनेट पर सरकार का नियंत्रण आवश्यक हो गया है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर यदि साइबर सेल को मजबूत बनाएं, तो यह देश की सुरक्षा के लिए वरदान सिद्ध होगा। देश में अशांति फैलाने वालों के मंसूबे भांपकर यदि पहले ही ठोस कार्रवाई की जाए, तो यह मुस्तैद सरकार की पहचान बन जाएगी। यदि ऐसा नहीं हो पाता, तो कमजोर होते सामाजिक ताने-बाने को बिखरने में वक्त नहीं लगेगा।
ऐसा बार-बार देखा गया है कि घटना होते ही सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ जाती है। पहले वह घटना के पूरे होने का इंतजार करती है, फिर उसका विश्लेषण करती है, फिर समीक्षा की जाती है, उसके बाद कार्रवाई की बात की जाती है। तब तक काफी देर हो जाती है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही आखिर पूर्वोत्तर के लोगों के लिए विशेष रेलगाड़ियों की व्यवस्था की गई। सरकार ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे पूर्वोत्तर के लोगों को यह यकीन हो जाए कि हमारे साथ किसी प्रकार का कोई बुरा नहीं होगा। सरकार उनकी सुरक्षा की गारंटी देने की भी स्थिति में नहीं है। फिर कैसे जागे उनमें विश्वास? दूसरी ओर जब प्रधानमंत्री पूर्वोत्तर के लोगों से जब यह अपील कर रहे थे कि घबराने की आवश्यकता नहीं, उनके जान-माल की रक्षा की जाएगी। उनके इस बयान में कहीं भी वह दृढ़ता दिखाई नहीं दी, जो ऐसे वक्त पर दिखाई जानी चाहिए। वोट की राजनीति और सहयोगी दलों की नाराजगी को सामने रखकर नीतियाँ बनाने वाली सरकार से आखिर क्या अपेक्षा की जा सकती है? भ्रष्टाचार के बाद अब देश के माथे पर हिंसा का कलंक लग गया है। सरकार की लाख कोशिश इस धब्बे को छुड़ा नहीं सकती। लोगों को नई आजादी चाहिए, लोग सरकार की धीमी गति से आजादी चाहते हैं। इस सरकार से कोई उम्मीद करना बेमानी है।
यह एक राष्ट्रीय शर्म है
होना तो यह चाहिए कि सभी दल मिलकर इस दिशा में ठोस प्रयास के लिए आगे आएं। इसे एक राष्ट्रीय शर्म मानकर केवल आरोप-प्रत्यारोप में न उलझें। विपक्ष केवल आरोप लगाकर खामोश न बैठे। उसका काम आरोप लगाकर बैठ जाना ही नहीं है। बल्कि सरकार के साथ तालमेल बिठाकर समस्या के समाधान की दिशा में प्रयास करना होता है। जिस विश्वास के साथ पूर्वोत्तर के लोग देश के अन्य राज्यों में जाकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है, अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ किया है,उस विश्वास को बनाए रखना सरकार का ही काम है। पूर्वोत्तर के लोगों पर की जाने वाली फब्तियों को लेकर अदालत ने एक सख्त निर्णय लिया है। पर इससे नस्लीय हिंसा पर तो काबू नहीं पाया जा सकता। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। धीमी गति से लिए गए निर्णय पर कभी भी तेजी से अमल नहीं होता। नई आजादी की पहली सुबह यही कह रही है कि पल्लू पकड़ राजनीति के दिन लद गए, अब समय है त्वरित गति से ठोस निर्णय लेने का। कच्छप गति से दौड़ तो जीती जा सकती है, पर दिलों को नहीं जीता जा सकता।
       डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 22 अगस्त 2012

धीरे धीरे लोप जो जाएगा हॉटमेल





हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

मुंबई की हिंसा: जवाबदार कौन?

डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में जब भी कोई समस्या सामने आती है, तब पहले तो सरकार उसकी पूरी तरह से उपेक्षा करती है, उसके बाद जब स्थिति गंभीर होने लगती है, तब सरकार नींद से जागती है। पूरी तरह से चैतन्य होने में भी सरकार को काफी समय लग जाता है। इस दौरान समस्या काफी विकराल हो जाती है। उसके दुप्परिणाम भी सामने आने लगते हैं। तब सरकार कुछ सक्रिय होती है। असम समस्या को लेकर सरकार का यही रुख सामने आया है। पिछले एक महीने से कोकराझार से हिंसा की खबरें आ रहीं हैं। राज्य सरकार इस हिंसा को रोकने में पूरी तरह से विफल रही है। केंद्र सरकार की खामोशी के कारण असम की यह समस्या अब विकराल रूप धारण कर पूरे देश में फैल रही है। मुम्बई में हुई हिंसा इसी का उदाहरण है।
महाराष्ट्र में भी बंगलादेशी मुस्लिमों को भगाने के लिए शिवसेना और भाजपा ने कई बार मांग की। असम में बंगलादेशी घुसपैठियों का आना पिछले 40 वर्षो से जारी है। पहली बार 1971 में शरणार्थी के रूप में बंगलादेशी भारत आए। उस समय उनकी संख्या लाखों में थी। उनके लिए केंद्र सरकार ने देश में कई कर लगाए, ताकि शरणार्थियों की सहायता की जा सके। इसमें पोस्टल कर भी था। अब उन्हीं शरणार्थियों की संख्या करोड़ों में हो गई है। उनके आने के बाद उनके पुनर्वास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण ये शरणार्थी हमारे देश में अपराध की ओर बढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके राशन कार्ड भी बन गए और उन्हें भारत की नागरिकता भी प्राप्त हो गई। आज असम के कुल 27 जिलों में से 11 जिलों में उनकी बहुतायत है। सन 1971 के बाद बंगलादेशियों का आना रुका नहीं। आज भी कोलकाता में ऐसी ट्रेवल एजेंसियां हैं, जो देश के सुरक्षा बलों को रिश्वत देकर बंगलादेशियों को भारत ले आते हैं। आज कोकराझार में हालात यह है कि वहाँ मुस्लिमों ने इतनी अधिक जमीन खरीद ली है कि वहाँ के मूल बोडो निवासियों को डर लग रहा है कि हालात यही रहे, तो वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे। अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनकर आखिर वे कहाँ तक जी पाएंगे?
मुम्बई के आजाद मैदान में जो कुछ हुआ, उससे यह साबित होता है कि राज्य सरकार के अलावा केंद्र सरकार ने भी इस मामले को पहले तो कोई तूल नहीं दिया, बाद भी हायतौबा मचाने लगी। तब आदेश पर आदेश दिए जाने लगे। जब प्रदर्शन की अनुमति मांगी गई, तभी यदि सरकार सजग हो जाती, तो प्रदर्शनकारियों के मंसूबे की जानकारी हो जाती। आज पूरे देश में एक विशेष वर्ग भीतर ही भीतर धधक रहा है। इस वर्ग को किसी प्रकार से समझाने की कोशिश भी नहीं हो रही है। यह वर्ग स्वयं को असुरक्षित समझने लगा है। देश में कुछ तत्व सक्रिय हैं, जो उनकी इस मनोदशा में पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहता है। इस वर्ग द्वारा की जा रही इस तरह की हिंसा उन्हीं तत्वों के कारण हो रही है। यदि सरकार सामने आकर इस वर्ग को समझाए, उसे संरक्षण देने का वादा करे, तो यह वर्ग स्वयं को कभी असुरक्षित नहीं समझेगा। जैसा मुंबई हिंसा के बाद में इस वर्ग ने माफी भी मांगी। कई बार देश के नेताओं द्वारा इस वर्ग को संरक्षण देने का वादा कर स्वार्थ की रोटी सेकी जाती है। यह एक खतरनाक स्थिति है। सरकार को ऐसे मौकापरस्त नेताओं से सचेत रहना होगा।
सरकार आखिर असम समस्या को कब तक लटकाए रखना चाहती है। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री असम से ही राज्यसभा के सांसद भी हैं। इस स्थिति में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं? यदि है, तो उसके लिए आखिर किसकी राह देखी जा रही है। छह दशक से कोकराझार धधक रहा है। हमारे नेताओं को इतनी फुरसत नहीं है कि एक बार उस समस्या की गहराई में जाकर समझा जाए। असम के नाम पर मुंबई में जो कुछ हुआ, वह शर्मसार करने वाला है। इसमें सभी की लापरवाही सामने आई है। जब प्रदर्शन की अनुमति मांगी गई, तभी पुलिस और सरकार को सचेत हो जाना था। ऐसा नहीं हो पाया। दूसरी ओर प्रदर्शनकारियों में जो असामजिक तत्व घुस आए थे, उन पर निगाह रखी जानी थी। प्रदर्शन स्थल पर जले हुए वाहन देखकर ही पता चल जाता है कि प्रदर्शनकारियों के मंसूबे क्या थे? प्रदर्शनकारी असम सरकार पर यह आरोप लगा रहे थे कि वहाँ राहत शिविरों में एक विशेष वर्ग के साथ भेदभाव किया जा रहा है। आखिर कुछ तो बात होगी, जो यह मुंबई के लोगों को पता चल गई। यदि कहीं इस तरह की चूक हुई भी होती, तो सरकार को तुरंत ही इस दिशा में सख्त कार्रवाई कर मामले को शांत करना था। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। सरकार की इसी तरह की छोटी-छोटी लापरवाही आगे जाकर विकराल रूप ले लेती है। यह उसे कौन समझाए?
केंद्र सरकार के साथ मुश्किल यह है कि जो काम उसे पहले करना चाहिए, उसे वह बाद में करती है। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सरकार में काफी सक्षम लोग है, अनुभवी लोग हैं, उनके थ्ैअनुभवों का लाभ उठाया जाना चाहिए। ताकि समस्या को बढ़ने के पहले ही उसे सुलझा लिया जाए। अब यदि सरकार दूरदर्शिता से काम नहीं लेती, तो संभव है भविष्य में ऐसी कई समस्याएँ सामने आएंगी, जो अभी भले ही छोटी हैं, पर जब वे विकराल रूप धारण कर लेंगी, तब सरकार को हाथ-पैर चलाना भी मुश्किल होगा।
डॉ. महेश परिमल

रविवार, 19 अगस्त 2012

एक हॉट सेवा का आखिरी समय

एक हॉट सेवा का आखिरी समय
डॉ. महेश परिमल
भारत में इंटरनेट जब शैशवस्था में था, तब सभी का ई-मेल एड्रेस हॉटमेल ही होता था। अभी जो स्थिति जीमेल की है, ठीक उसी पोजीशन में हॉटमेल था। तब तो इंटरनेट कनेक्शन भी बड़ी मुश्किल से मिलता था। अगर मिल भी जाए तो कब वह अदृश्य हो जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता था। इसके बाद भी हॉटमेल की अपनी आइडी बताना एक गर्व की बात थी। हॉटमेल की लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज भी हॉटमेल का इस्तेमाल करने वाले सबसे अधिक लोग हैं। जीमेल दूसरे नंबर पर है और याहू तीसरे नंबर पर। लेकिन अब यह नंबर वन हॉटमेल कुछ समय बाद पूरी तरह से अदृश्य हो जाएगा। इंटरनेट के क्षेत्र में ई-मेल का उपयोग इतनी तेजी से हो रहा है कि इसने उसके पोस्टल सिस्टम की चूलों को हिलाकर रख दिया है। रही-सही कसर स्मार्ट फोन ने पूरी कर दी है। वह तो चलता-फिरता डाकघर ही बन गया है। एक समय ऐसा भी था, जब ई-मेल पर एक तस्वीर अटैच कर उसे कहीं भेजने में काफी समय लगता था। अब तो स्थिति यह आ गई है कि पूरे अखबार के 24 पन्नों को एक साथ कहीं भी चुटकियों में भेजा जा सकता है। यह सब लिखने का कारण यह है कि इन सभी के मूल में हॉटमेल ही है। इसी हॉटमेल ने सबीर भाटिया का नाम रौशन किया। आज भले ही यह नाम कम जाना-पहचाना हो, पर एक समय ऐसा भी था, जब आइटी क्षेत्र में सबीर भाटिया की तूती बोलती थी। पहले-पहल जब ई-मेल की सुविधाओं की बात चली तो इसमें लोगों को अधिक से अधिक स्पेस देने की एक होड़-सी मच गई थी। पहले ई-मेल खोलन वालों को एक निश्चित स्थान ही मिलता था। जैसे, 2जीबी या 4जीबी। जब यह स्थान ई-मेल से भर जाता, तब उपभोक्ता को यह सूचना दी जाती थी कि आप अपने एकाउंट से अनुपयोगी ई-मेल को डिलीट कर दें, ताकि आपको नए ई-मेल प्राप्त हो सकें। इसे लेकर कुछ प्रोवाइडरों ने कई स्कीम चलाई, जो पांच से 25 डॉलर लेकर अधिक स्थान देती थीं। जैसे-जैसे ई-मेल के प्रोवाइडर बढ़े, वैसे-वैसे इनके बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ती गई। इसकी सीधा लाभ उपयोक्ताओं को मिला। अब ई-मेल का उपयोग करने वालों को स्पेस की झंझट से मुक्ति मिल गई है। अब अनलिमिटेड स्पेस मिलने लगा है। अब तो हाल यह है कि उपयोक्ता के ई-मेल बॉक्स में पांच से दस हजार मेल रखे भी हों तो कोई फर्क नहीं पड़ता। हॉटमेल ने 4 जुलाई 1996 से ई-मेल सर्विस शुरू की थी। 1997 तक 90 लाख और उपयोक्ताओं को शामिल कर लिया। इस दौरान माइक्रोसॉफ्ट कंपनी इंटरनेट स्ट्रेटेजी में व्यस्त थी। माइक्रोसॉफ्ट ने द्वश्र
.ष्श्रद्व और ट्रैवल पोर्टल श्र्व3श्चद्गस्त्रद्बड्ड के माध्यम से ट्रैफिक लेना शुरू किया। अक्टूबर 1997 में याहू के साथ मिलकर एक कंपनी शुरू की, जिसका नाम था रॉकेट मेल। बाद में इसे पूरी तरह से याहू में ही विलीन कर दिया गया। इंटरनेट जाइंट माइक्रोसॉफ्ट ने जब हॉटमेल को 400 मिलियन डॉलर में खरीदा, तब एक्वीफीशन के क्षेत्र में यह सबसे बड़ा सौदा था। वर्ष 1997 के अंतिम महीने में जब इस डीलिंग की चर्चा शुरू हुई, तब कहीं जाकर एक वर्ष बाद यह सौदा हो पाया था। हालांकि तब भी हॉटमेल का नाम चल रहा था, लेकिन उसके मालिक बदल गए थे। हॉटमेल को खरीदने के पीछे उसे मिलने वाला ट्रैफिक था। इसे ही प्राप्त करने के लिए यह सौदा किया गया, ताकि भविष्य में इससे कमाई की जा सके। जब हॉटमेल का माइक्रोसॉफ्ट के साथ सौदा हुआ, तब सबीर भाटिया भारत में हीरो बन गए थे। सबीर भाटिया ने 400 मिलियन डॉलर का सौदा किया, तब देश की सर्वोच्च आइटी कंपनी इंफोसिस का मुनाफा 68.33 मिलियन डॉलर था। तब भी हॉटमेल ने माइक्रोसॉफ्ट की छत्रछाया में अपने विकास की गति जारी रखी। वर्ष 2005 में हॉटमेल के 200 मिलियन यूजर्स थे। इस दौरान यूजर्स स्पैम मेल की शिकायत करने लगे। हॉटमेल के सामने सिक्युरिटी की समस्या भी थी। इससे हॉटमेल को आसानी से हैक किया जाने लगा। जिन उपयोक्ताओं ने लंबे समय से हॉटमेल का उपयोग नहीं किया, वे बाद में भी अपना हॉटमेल नहीं खोल पा रहे थे। हद तो तब हो गई, जब उपयोक्ता अपने पुराने मेल भी देखने से वंचित रह गए। दूसरी तरफ अन्य प्रोवाइडर प्रतिस्पर्धा में आ गए। इन्होंने उपयोक्ताओं को कई तरह की सुविधाएं देनी शुरू कर दी। लोगों का रुझान हॉटमेल से हटकर याहू या फिर जीमेल की ओर होने लगा। आज भले ही हॉटमेल के यूजर्स 325 मिलियन हों, पर सच तो यह है कि अब लोग उससे ऊबने लगे हैं। उसमें कोई नया प्रयोग नहीं हो रहा है। आज जीमेल में नित नए प्रयोग हो रहे हैं। लोग बदलाव चाहते हैं, जिसकी पूर्ति जीमेल से हो रही है। आज जीमेल के यूजर्स 298.2 मिलियन और याहू के 298 मिलियन यूजर्स हैं। अब कहा यह जा रहा है कि हॉटमेल की सुविधाएं आउटलुक पर शिफ्ट हो जाएंगी यानी वे अकाउंट आउटलुक द्वारा ऑपरेट हो सकेंगे। इंटरनेट की दुनिया में हॉटमेल का इतिहास गौरवपूर्ण रहा है। आज माइक्रोसॉफ्ट ने उसे परदे के पीछे धकेल दिया है। समय बदलता रहता है। जो समय के साथ बदलते हैं, लोग उसे हाथोंहाथ लेते हैं। जिस तरह से नोकिया कंपनी ने अपने मॉडल को सुधारने की जो कोशिशें की, उससे उपभोक्ता संतुष्ट नहीं हो पाए। दूसरी ओर सैमसंग ने ग्राहकों की जरूरतों को ध्यान में रखकर ही अपने उत्पाद तैयार किए, जिसे उपभोक्ताओं ने सहजता के साथ स्वीकारा। उसके बाद एप्पल ने मानो दुनिया ही बदल दी। उसने अपने उत्पाद को मानो ग्राहकों से पूछकर ही तैयार किया। आज लोग उसे हाथोंहाथ ले रहे हैं। अपनी तमाम खूबियों के साथ एप्पल के उत्पाद आज सबसे अधिक बिकने वाले उत्पाद हैं। नोकिया और सैमसंग को पछाड़ना मामूली बात नहीं थी, पर एप्पल ने एक आम उपभोक्ता की जरूरत का ध्यान रखा और अपने उत्पाद को उसके सामने रखा। आज एप्पल के लगातार बढ़ते जाने के पीछे यही कारण है। नोकिया को घमंड था कि हमारा उत्पाद सबसे बढि़या है, इसमें किसी तरह के सुधार की गुंजाइश ही नहीं है। उसके इस घमंड का लाभ सैमसंग ने उठाया। इन दोनों की कमजोरियों का लाभ पूरी तरह से एप्पल ने उठाया। आज हॉट मेल अतीत का हिस्सा बनने जा रहा है। उसके पीछे भी यही कहानी है। इसलिए समय की चाल को पहचानो और उससे कदमताल करो, सफलता आपके पांव चूमेगी।

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

मुम्‍बई में हिंसा सजग होते, तो नहीं आती यह नौबत

दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2012-08-14&pageno=9

गुरुवार, 9 अगस्त 2012

मानसून सत्र, चिदम्बरम और चुनौतियां

डॉ. महेश परिमल
आखिर चिदम्बरम को अपना प्रिय और पसंदीदा मंत्रालय मिल गया। वित्त मंत्री का पद उन्होंने भले ही संभाल लिया हो, पर सच तो यह है, उन्हें यह पद जयललिता को नाराज करके मिला है। अब जयललिता मौके की तलाश में है, वह कभी भी सरकार को आसानी से संकट में डाल सकती है। उधर वित्त मंत्री का पद किसी कांटों के ताज से कम नहीं है। सरकार ने एफडीआई के मामले में कितने समझौते किए, पर वह अभी तक लटक रहा है। दूसरी ओर कंपनी बिल पिछले 8 साल से लगातार अव्यवस्थाओं की भेंट चढ़ रहा है। महँगाई बढ़ रही है। सरकार की कोशिशें कामयाब नहीं हो पा रहीं है। वैसे भी चिदम्बरम के वित्त मंत्रालय संभालने से प्रजा में एक तरह की आर्थिक निराशा में बढ़ोत्तरी ही हुई है। कल से संसद का सत्र प्रारंभ हो रहा है। विपक्ष इस बार सरकार को घेरने की पूरी कोशिश में है। कई ऐसे मुद्दे हैं, जिस पर सरकार को जवाब देना है। देखना यह है कि बिना प्रणब मुखर्जी के इस बार सरकार की नैया कैसे पार लगती है?
यह तो तय है कि इस बार संसद का मानसून सत्र निश्चित रूप से हंगामेदार होगा। एफडीआई को लाने के लिए सरकार तैयार है, किंतु घटक दल ऐसा नहीं चाहते हैं, इसलिए यह मुद्दा विवादास्पद हो सकता है। दूसरी महंगाई थमने का नाम नहीं ले रही है। वित्त मंत्री को वर्षात तक गुजरात, हिमाचल प्रदेश, त्रिपुरा समेत अन्य राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखना है, बल्कि 17 महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव को सामने रखकर आíथक रणनीति बनानी है। इसके पहले अन्ना हजारे के आंदोलन को देखते हुए विदेशी कंपनियां भारत में पूंजी निवेश करने से डर रही थीं, अब अन्ना का आंदोलन सिमट चुका है। इसलिए एक बार फिर एफडीआई के लिए रास्ता खुला दिखाई दे रहा है। इसमें सबसे बड़े बाधक तो सरकार के सहयोगी दल ही हैं। दूसरी ओर कर्ज में डूबी एयरलाइंस है। इन किस्सों से देश का आर्थिक तंत्र डांवाडोल होता जा रहा है। मुश्किल इस बात की है कि एक महीने तक प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्रालय अपने पास रखा, लेकिन वे ऐसा कुछ नहीं कर पाए, जिससे लोगों को कुछ राहत मिल पाए।
इस समय वित्त मंत्री चिदम्बरम के पास सबसे बड़ी चुनौती है, 2012 के अंत में गुजरात, हिमाचल प्रदेश और त्रिपुरा समेत तीन अन्य राज्यों में विधानसभा चुनाव। इस चुनावों का मुख्य मुद्दा महंगाई हो सकता है। इसी तरह 2014 में लोकसभा चुनाव हैं, जो अभी केवल 17 महीने ही दूर हैं। तब तक महंगाई काफी ऊपर जा चुकी होगी। आवश्यक जिसंों के भाव आसमान तक पहुंच चुके होंगे। यह सभी कारक चुनाव में मतदाताओं को कांग्रेस और उनके सहयोगी दलों के खिलाफ वोट डालने के लिए विवश कर सकते हैं। जिसका सीधा लाभ विपक्ष को मिलेगा, इसमें कोई शक नहीं। प्रजा आíथक मंदी और महंगाई के बोझ से त्रस्त हो चुकी है। चिदम्बरम इस दिशा में कुछ ऐसा करें, जिससे प्रजा को राहत मिले, तो प्रजा के सामने एक अच्छा संदेश जाएगा। सरकार सबसिडी की समस्या से निजात पाना चाहती है। अधूरे प्रोजेक्ट के कारण होने वाले घाटे को सरकार कम करना चाहती है। लेकिन सहयोगी दलों का पूरा सहयोग नहीं मिल पा रहा है। कृषि मंत्री शरद पवार पहले ही कह चुके हैं कि मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसे घुमाते ही महंगाई कम हो जाएगी। अब चिदम्बरम से यह आशा की जा सकती है कि वे बिना जादू की छड़ी के महंगाई दूर करने का प्रयास करें।
कांग्रेस का एक गुट सुशील कुमार शिंदे को गृह मंत्री और चिदम्बरम को वित्त मंत्री बनाए जाने से खुश नहीं है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि कांग्रेस ने  शिंदे और चिदम्बरम को महत्वपूर्ण मंत्रालय देकर जुआ ही खेला है। निश्चित रूप से यह जुआ आगे जाकर अपना असर दिखाएगा। वैसे भी चिदम्बरम अभी तक 2 जी टेलिकाम घोटाले से उबरे नहीं है। इसके बाद भी सरकार ने अपनी मनमानी की है। चिदम्बरम कभी भी जनता की आशाओं के अनुरूप नहीं उतर पाए हैं। सरकार के सामने महंगाई कम करने और आर्थिक मंदी के असर को हल्का करने की चुनौती है। इसके लिए सरकार ने जो भी रणनीति तैयार की, वे सभी नाकामयाब साबित हुई। वैसे भी चिदम्बरम जो भी फैसले लेते हैं, तो उसका सुब्रमण्यम स्वामी उसका खुलकर विरोध करते हैं। चिदम्बरम का चुनाव संबंधी मामला तमिलनाडु की अदालत में चल रहा है। वहां की मुख्यमंत्री जयललिता उनकी कट्टर विरोधी हैं। चिदम्बरम को वित्त मंत्रालय देकर सरकार ने जयललिता को नाराज किया है। इसका खामियाजा सरकार को भुगतना ही होगा। निकट भविष्य में जयललिता अपना असली स्वरूप दिखाएंगी ही, यह तय है।
आठ साल से अटका कंपनी बिल
सौ दिनों में महंगाई कम करने का वादा करके प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह एक बार फिर झूठे साबित हुए हैं। प्रणब दा की अनुपस्थिति में जो डॉ. मनमोहन सिंह कर सकते हैं, उसे चिदम्बरम नहीं कर सकते। यह एक सच्चई है,जिसे सरकार को स्वीकारना ही होगा। देश में आर्थिक परिवर्तन लाने वाले डॉ. मनमोहन सिंह यदि चाहते, तो देश में परिवर्तन की हवा चला सकते थे। पर वित्त मंत्रालय एक महीने तक उनके पास होने के बाद भी वे कुछ नहीं कर पाए। कंपनी बिल भी 8 वर्ष से अटका पड़ा है। इस बार उसे संसद में पेश किया जाना है। इस बिल में छोटे शेयर होल्डर,कंपनियों की जवाबदारी, ट्रांसफर ऑफ सिक्योरिटी, पब्लिक डिपाजिट,पोस्टल से मतदान आदि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों का समावेश है। यह बिल पिछले आठ वर्षो से क्यों लटका पड़ा है, यह समझ से परे है। जहां दूसरे बिल जल्दबाजी में पारित हो जाते हैं, वहीं इस बिल को महिला बिल की तरह न जाने क्यों हर बार रोक लिया जाता है। अभी तक यह बिल 2004, 2008 और 2011 में लोकसभा में पेश किया जा चुका है।
अब वित्तमंत्री के रूप में चिदम्बरम के सामने कई चुनौतियाँ हैं। जीडीपी के सबसे बड़ी समस्या है। वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण देश में उत्पन्न डर के माहौल को दूर करना आवश्यक है। सहयोगी दलों को इस बात के लिए राजी करना भी एक चुनौती है कि एफडीआई से देश को किसी प्रकार का नुकसान नहीं होगा। चूंकि राष्ट्रपति चुनाव के दौरान जद यू ने अपना समर्थन दिया था, इसलिए एफडीआई को लेकर सबसे अधिक विरोध यही दल कर रहा है। इन्हें मनाना बहुत मुश्किल है। शेयर बाजार के खिलाड़ी चिदम्बरम पर अपना भरोसा जताते हैं। इसके पहले जब वे वित्त मंत्री थे, तब भी उन्होंने शेयर बाजार की तेजी को महसूस किया था। अब एक बार फिर वित्त मंत्रालय उनके हाथ में है, तो बाजार कई नकारात्मक कारकों का सामना कर रहा है। वैसे भी जब वैश्विक आर्थिक मंदी को महसूस किया जा रहा हो, तो देश के बाजारों में तात्कालिक रूप से तेजी की हवा चले, ऐसी कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही है। भारतीय प्रजा की दिलचस्पी शेयर बाजार की तेजी से अधिक महंगाई के कम होने की तरफ अधिक है। त्योहार के दिन करीब हैं, ऐसे में प्रजा चाहती है कि महंगाई अपना असर न दिखाए, इसे कम करना ही है। तभी वे अपने वोट का असर चुनाव में दिखा पाएंगे।
     डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 8 अगस्त 2012

जरुरी है जीवन में टाइम रॉबर की पहचान

 दैनिक भास्‍कर के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख

सोमवार, 6 अगस्त 2012

असम, अन्‍ना और अकाल





हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख


शनिवार, 4 अगस्त 2012

सीमाऍं लॉघते पोस्‍टर / मॉं के दूध से वंचित क्‍यों है बच्‍चे
















दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण एवं हरिभूमि के के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरे आलेख

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