डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में जब भी कोई समस्या सामने आती है, तब पहले तो सरकार उसकी पूरी तरह से उपेक्षा करती है, उसके बाद जब स्थिति गंभीर होने लगती है, तब सरकार नींद से जागती है। पूरी तरह से चैतन्य होने में भी सरकार को काफी समय लग जाता है। इस दौरान समस्या काफी विकराल हो जाती है। उसके दुप्परिणाम भी सामने आने लगते हैं। तब सरकार कुछ सक्रिय होती है। असम समस्या को लेकर सरकार का यही रुख सामने आया है। पिछले एक महीने से कोकराझार से हिंसा की खबरें आ रहीं हैं। राज्य सरकार इस हिंसा को रोकने में पूरी तरह से विफल रही है। केंद्र सरकार की खामोशी के कारण असम की यह समस्या अब विकराल रूप धारण कर पूरे देश में फैल रही है। मुम्बई में हुई हिंसा इसी का उदाहरण है।
महाराष्ट्र में भी बंगलादेशी मुस्लिमों को भगाने के लिए शिवसेना और भाजपा ने कई बार मांग की। असम में बंगलादेशी घुसपैठियों का आना पिछले 40 वर्षो से जारी है। पहली बार 1971 में शरणार्थी के रूप में बंगलादेशी भारत आए। उस समय उनकी संख्या लाखों में थी। उनके लिए केंद्र सरकार ने देश में कई कर लगाए, ताकि शरणार्थियों की सहायता की जा सके। इसमें पोस्टल कर भी था। अब उन्हीं शरणार्थियों की संख्या करोड़ों में हो गई है। उनके आने के बाद उनके पुनर्वास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण ये शरणार्थी हमारे देश में अपराध की ओर बढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके राशन कार्ड भी बन गए और उन्हें भारत की नागरिकता भी प्राप्त हो गई। आज असम के कुल 27 जिलों में से 11 जिलों में उनकी बहुतायत है। सन 1971 के बाद बंगलादेशियों का आना रुका नहीं। आज भी कोलकाता में ऐसी ट्रेवल एजेंसियां हैं, जो देश के सुरक्षा बलों को रिश्वत देकर बंगलादेशियों को भारत ले आते हैं। आज कोकराझार में हालात यह है कि वहाँ मुस्लिमों ने इतनी अधिक जमीन खरीद ली है कि वहाँ के मूल बोडो निवासियों को डर लग रहा है कि हालात यही रहे, तो वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे। अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनकर आखिर वे कहाँ तक जी पाएंगे?
मुम्बई के आजाद मैदान में जो कुछ हुआ, उससे यह साबित होता है कि राज्य सरकार के अलावा केंद्र सरकार ने भी इस मामले को पहले तो कोई तूल नहीं दिया, बाद भी हायतौबा मचाने लगी। तब आदेश पर आदेश दिए जाने लगे। जब प्रदर्शन की अनुमति मांगी गई, तभी यदि सरकार सजग हो जाती, तो प्रदर्शनकारियों के मंसूबे की जानकारी हो जाती। आज पूरे देश में एक विशेष वर्ग भीतर ही भीतर धधक रहा है। इस वर्ग को किसी प्रकार से समझाने की कोशिश भी नहीं हो रही है। यह वर्ग स्वयं को असुरक्षित समझने लगा है। देश में कुछ तत्व सक्रिय हैं, जो उनकी इस मनोदशा में पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहता है। इस वर्ग द्वारा की जा रही इस तरह की हिंसा उन्हीं तत्वों के कारण हो रही है। यदि सरकार सामने आकर इस वर्ग को समझाए, उसे संरक्षण देने का वादा करे, तो यह वर्ग स्वयं को कभी असुरक्षित नहीं समझेगा। जैसा मुंबई हिंसा के बाद में इस वर्ग ने माफी भी मांगी। कई बार देश के नेताओं द्वारा इस वर्ग को संरक्षण देने का वादा कर स्वार्थ की रोटी सेकी जाती है। यह एक खतरनाक स्थिति है। सरकार को ऐसे मौकापरस्त नेताओं से सचेत रहना होगा।
सरकार आखिर असम समस्या को कब तक लटकाए रखना चाहती है। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री असम से ही राज्यसभा के सांसद भी हैं। इस स्थिति में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं? यदि है, तो उसके लिए आखिर किसकी राह देखी जा रही है। छह दशक से कोकराझार धधक रहा है। हमारे नेताओं को इतनी फुरसत नहीं है कि एक बार उस समस्या की गहराई में जाकर समझा जाए। असम के नाम पर मुंबई में जो कुछ हुआ, वह शर्मसार करने वाला है। इसमें सभी की लापरवाही सामने आई है। जब प्रदर्शन की अनुमति मांगी गई, तभी पुलिस और सरकार को सचेत हो जाना था। ऐसा नहीं हो पाया। दूसरी ओर प्रदर्शनकारियों में जो असामजिक तत्व घुस आए थे, उन पर निगाह रखी जानी थी। प्रदर्शन स्थल पर जले हुए वाहन देखकर ही पता चल जाता है कि प्रदर्शनकारियों के मंसूबे क्या थे? प्रदर्शनकारी असम सरकार पर यह आरोप लगा रहे थे कि वहाँ राहत शिविरों में एक विशेष वर्ग के साथ भेदभाव किया जा रहा है। आखिर कुछ तो बात होगी, जो यह मुंबई के लोगों को पता चल गई। यदि कहीं इस तरह की चूक हुई भी होती, तो सरकार को तुरंत ही इस दिशा में सख्त कार्रवाई कर मामले को शांत करना था। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। सरकार की इसी तरह की छोटी-छोटी लापरवाही आगे जाकर विकराल रूप ले लेती है। यह उसे कौन समझाए?
केंद्र सरकार के साथ मुश्किल यह है कि जो काम उसे पहले करना चाहिए, उसे वह बाद में करती है। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सरकार में काफी सक्षम लोग है, अनुभवी लोग हैं, उनके थ्ैअनुभवों का लाभ उठाया जाना चाहिए। ताकि समस्या को बढ़ने के पहले ही उसे सुलझा लिया जाए। अब यदि सरकार दूरदर्शिता से काम नहीं लेती, तो संभव है भविष्य में ऐसी कई समस्याएँ सामने आएंगी, जो अभी भले ही छोटी हैं, पर जब वे विकराल रूप धारण कर लेंगी, तब सरकार को हाथ-पैर चलाना भी मुश्किल होगा।
डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में जब भी कोई समस्या सामने आती है, तब पहले तो सरकार उसकी पूरी तरह से उपेक्षा करती है, उसके बाद जब स्थिति गंभीर होने लगती है, तब सरकार नींद से जागती है। पूरी तरह से चैतन्य होने में भी सरकार को काफी समय लग जाता है। इस दौरान समस्या काफी विकराल हो जाती है। उसके दुप्परिणाम भी सामने आने लगते हैं। तब सरकार कुछ सक्रिय होती है। असम समस्या को लेकर सरकार का यही रुख सामने आया है। पिछले एक महीने से कोकराझार से हिंसा की खबरें आ रहीं हैं। राज्य सरकार इस हिंसा को रोकने में पूरी तरह से विफल रही है। केंद्र सरकार की खामोशी के कारण असम की यह समस्या अब विकराल रूप धारण कर पूरे देश में फैल रही है। मुम्बई में हुई हिंसा इसी का उदाहरण है।
महाराष्ट्र में भी बंगलादेशी मुस्लिमों को भगाने के लिए शिवसेना और भाजपा ने कई बार मांग की। असम में बंगलादेशी घुसपैठियों का आना पिछले 40 वर्षो से जारी है। पहली बार 1971 में शरणार्थी के रूप में बंगलादेशी भारत आए। उस समय उनकी संख्या लाखों में थी। उनके लिए केंद्र सरकार ने देश में कई कर लगाए, ताकि शरणार्थियों की सहायता की जा सके। इसमें पोस्टल कर भी था। अब उन्हीं शरणार्थियों की संख्या करोड़ों में हो गई है। उनके आने के बाद उनके पुनर्वास की समुचित व्यवस्था न होने के कारण ये शरणार्थी हमारे देश में अपराध की ओर बढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके राशन कार्ड भी बन गए और उन्हें भारत की नागरिकता भी प्राप्त हो गई। आज असम के कुल 27 जिलों में से 11 जिलों में उनकी बहुतायत है। सन 1971 के बाद बंगलादेशियों का आना रुका नहीं। आज भी कोलकाता में ऐसी ट्रेवल एजेंसियां हैं, जो देश के सुरक्षा बलों को रिश्वत देकर बंगलादेशियों को भारत ले आते हैं। आज कोकराझार में हालात यह है कि वहाँ मुस्लिमों ने इतनी अधिक जमीन खरीद ली है कि वहाँ के मूल बोडो निवासियों को डर लग रहा है कि हालात यही रहे, तो वे अल्पसंख्यक हो जाएंगे। अपने ही देश में अल्पसंख्यक बनकर आखिर वे कहाँ तक जी पाएंगे?
मुम्बई के आजाद मैदान में जो कुछ हुआ, उससे यह साबित होता है कि राज्य सरकार के अलावा केंद्र सरकार ने भी इस मामले को पहले तो कोई तूल नहीं दिया, बाद भी हायतौबा मचाने लगी। तब आदेश पर आदेश दिए जाने लगे। जब प्रदर्शन की अनुमति मांगी गई, तभी यदि सरकार सजग हो जाती, तो प्रदर्शनकारियों के मंसूबे की जानकारी हो जाती। आज पूरे देश में एक विशेष वर्ग भीतर ही भीतर धधक रहा है। इस वर्ग को किसी प्रकार से समझाने की कोशिश भी नहीं हो रही है। यह वर्ग स्वयं को असुरक्षित समझने लगा है। देश में कुछ तत्व सक्रिय हैं, जो उनकी इस मनोदशा में पूरा-पूरा लाभ उठाना चाहता है। इस वर्ग द्वारा की जा रही इस तरह की हिंसा उन्हीं तत्वों के कारण हो रही है। यदि सरकार सामने आकर इस वर्ग को समझाए, उसे संरक्षण देने का वादा करे, तो यह वर्ग स्वयं को कभी असुरक्षित नहीं समझेगा। जैसा मुंबई हिंसा के बाद में इस वर्ग ने माफी भी मांगी। कई बार देश के नेताओं द्वारा इस वर्ग को संरक्षण देने का वादा कर स्वार्थ की रोटी सेकी जाती है। यह एक खतरनाक स्थिति है। सरकार को ऐसे मौकापरस्त नेताओं से सचेत रहना होगा।
सरकार आखिर असम समस्या को कब तक लटकाए रखना चाहती है। यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। हमारे प्रधानमंत्री असम से ही राज्यसभा के सांसद भी हैं। इस स्थिति में यह जानना आवश्यक हो जाता है कि क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं? यदि है, तो उसके लिए आखिर किसकी राह देखी जा रही है। छह दशक से कोकराझार धधक रहा है। हमारे नेताओं को इतनी फुरसत नहीं है कि एक बार उस समस्या की गहराई में जाकर समझा जाए। असम के नाम पर मुंबई में जो कुछ हुआ, वह शर्मसार करने वाला है। इसमें सभी की लापरवाही सामने आई है। जब प्रदर्शन की अनुमति मांगी गई, तभी पुलिस और सरकार को सचेत हो जाना था। ऐसा नहीं हो पाया। दूसरी ओर प्रदर्शनकारियों में जो असामजिक तत्व घुस आए थे, उन पर निगाह रखी जानी थी। प्रदर्शन स्थल पर जले हुए वाहन देखकर ही पता चल जाता है कि प्रदर्शनकारियों के मंसूबे क्या थे? प्रदर्शनकारी असम सरकार पर यह आरोप लगा रहे थे कि वहाँ राहत शिविरों में एक विशेष वर्ग के साथ भेदभाव किया जा रहा है। आखिर कुछ तो बात होगी, जो यह मुंबई के लोगों को पता चल गई। यदि कहीं इस तरह की चूक हुई भी होती, तो सरकार को तुरंत ही इस दिशा में सख्त कार्रवाई कर मामले को शांत करना था। पर सरकार ने ऐसा नहीं किया। सरकार की इसी तरह की छोटी-छोटी लापरवाही आगे जाकर विकराल रूप ले लेती है। यह उसे कौन समझाए?
केंद्र सरकार के साथ मुश्किल यह है कि जो काम उसे पहले करना चाहिए, उसे वह बाद में करती है। तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सरकार में काफी सक्षम लोग है, अनुभवी लोग हैं, उनके थ्ैअनुभवों का लाभ उठाया जाना चाहिए। ताकि समस्या को बढ़ने के पहले ही उसे सुलझा लिया जाए। अब यदि सरकार दूरदर्शिता से काम नहीं लेती, तो संभव है भविष्य में ऐसी कई समस्याएँ सामने आएंगी, जो अभी भले ही छोटी हैं, पर जब वे विकराल रूप धारण कर लेंगी, तब सरकार को हाथ-पैर चलाना भी मुश्किल होगा।
डॉ. महेश परिमल