मंगलवार, 31 जनवरी 2012

बनाए रखी राष्‍ट्रपिता की गरिमा


30 जनवरी को हरिभूमि के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

शनिवार, 28 जनवरी 2012

संवेदनाओं की ऋतु में अनवरत पूस की रात







दैनिक भास्‍कर में प्रकाशित मेरा आलेख

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गिरती महँगाई दर, साजिश तो नहीं




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हरिभूमि में आज प्रकाशित मेरा आलेख

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

कहाँ गए जटायु के वंशज



रविवार, 22 जनवरी 2012

परिवारों में दिलचस्‍प जोर आजमाइश






हरिभूमि में आज पेज दो पर प्रकाशित पंजाब पर मेरा चुनावी विश्‍लेषण
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http://74.127.61.178/haribhumi/epapermain.aspx

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

चुनावों में काला धन असर दिखाएगा


डॉ. महेश परिमल
भ्रष्टाचार राजनीति का ईंधन है और काला धन इस वाहन के पहिए। यह इससे साबित होता है कि पांच राज्यों में चुनाव की मात्र घोषणा से ही काला धन बाहर आने लगा है। अब तक करोड़ों रुपए बरामद किए जा चुके हैं। सबसे ज्यादा खराब हालत उत्तर प्रदेश और पंजाब की है, जहाँ रोज ही करोड़ों रुपए बरामद किए जा रहे हैं। इन दो राज्यों में अब तक 30 करोड़ रुपए बरामद किए जा चुके हैं। उत्तर प्रदेश में अब तक दस करोड़ रुपए बरामद किए गए हैं। इसमें लखीमपुर से ही दो करोड़,गेट्रर नोएडा में 12 लाख, मथुरा से दस लाख और कानपुर से चार लाख रुपए पकड़े गए हैं। इसी तरह पंजाब में पिछले 15 दिनों में 17 करोड़ रुपए बरामद किए गए। पंजाब में रकम के अलावा भारी मात्रा में ड्रग्स और शराब बरामद की गई है। पुजाब पुलिस ने 6 किलो हीरोइन और दो टन चरस-गांजा भी बरामद कर चुकी है। अभी तो यह केवल शुरुआत है। दो राज्यों की तस्वीर अभी सामने आई है। चुनाव आयोग सख्त हुआ है, इसमें कोई शक नहीं। पर जिस तरह से उत्तर प्रदेश में मायावती और हाथियों की मूर्ति को ढँकने के आदेश चुनाव आयोग ने दिए हैं, उससे लगता है कि गंभीर और दूरगामी निर्णय लेने में चुनाव आयोग कमजोर है। जो सख्ती आयोग में होनी चाहिए, वह दिखाई नहीं दे रही है। बल्कि उसके निर्णय हास्यास्पद होने लगे हैं। अब चुनाव आयोग उत्तर प्रदेश में मायावती और हाथियों की मूर्तियों को ढँकने में एक करोड़ रुपए खर्च कर रही है। इसी से पता चल जाता है कि उसके निर्णय कितने दूरगामी हैं? चुनाव में काले धन के इस्तेमाल पर आयोग अभी से सख्ती दिखाना शुरू कर दे, तो संभव है, इसके दूरगामी परिणाम दिखाई दें। इस दिशा में सरकार की नीयत भी साफ नहीं लग रही है। पिछले दो दशक से चुनाव सुधार विधेयक लटका हुआ है। यदि सरकार की नीयत साफ होती, तो इस पर विचार हो सकता था। पर लोकपाल विशेयक की तरह ही इस विधेयक का लटकना यह दर्शाता है कि चुनाव में काले धन का इस्तेमाल सभी दल कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी स्वीकारते हैं कि चुनाव के भारी भरकम खर्च के कारण काले धन और भ्रष्टाचार की समस्या होती है। इससे राजनीतिक दल परेशान भी होते हैं। वे इसके शुद्धिकरण के लिए चुनाव में सरकार द्वारा धन उपलब्ध कराने के हिमायती भी हैं। चुनाव सुधार की बातें देश के लिए नई नहीं हैं, लेकिन व्यावहारिक पक्ष यह है कि सारा मामला बातों या बयानों तक ही सीमित रहता है। कोई भी बड़ा राजनीतिक दल इसके लिए वास्तविक या गंभीर प्रयास नहीं करता। आज नगर निगम पार्षद का चुनाव लड़ने में लाखों खर्च होते हैं। निजी चर्चाओं में तो दस-पंद्रह लाख का हिसाब भी प्रत्याशी बता जाते हैं, जिसका कोई हिसाब कभी सरकारी खातों में नहीं मिलता। इसके चलते वार्ड का चुनाव भी कोई आम आदमी लड़ने का साहस नहीं जुटा पाता, जबकि वार्ड इतनी छोटी इकाई है कि इसका चुनाव व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और गैर राजनीतिक आधार पर भी लड़ा जा सकता है। चुनाव के इस भारी-भरकम खर्च पर रोक कैसे लगे? यह लाख टके का सवाल है। इसका उत्तर दो सिरों पर तलाशा जाना चाहिए। एक तो राज्य निर्वाचन आयोग की नजर भी उतनी ही पैनी हो जाए, जितनी भारत निर्वाचन आयोग की रहती है। ताकि कुछ तो शुद्धिकरण हो। दूसरा सिरा है जनता या मतदाता जो भारी-भरकम खर्च पर अपने प्रत्याशियों से सवाल करे।
चुनाव आयोग के अधिकार क्या हैं, इसे आम मतदाता पहले वाकिफ नहीं था। जब टी एन शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त का पद सँभाला, फिर उन्होंने जो आदेश दिए, तब लगा कि चुनाव आयोग इतना अधिक शक्तिशाली भी है। इसके पहले तो मतदान के एक दिन पहले तक तो सड़कें बनती थीं, बोरवेल किए जाते थे। जनता को कम्बल-धोती आदि बाँटे जाते थे। शेषन के आदेश के बाद ही समझ में आया कि आचार संहिता लागू होने के बाद जनता के हित में कोई सरकारी घोषणा नहीं की जा सकती। मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में उनकी नियुक्ति से पूर्व तो चुनाव आयोग केन्द्र सरकार का ही एक विभाग बन कर रह गया था जो कुछ भी करने से पूर्व सरकार की ओर ही निहारता था। पर जैसे ही श्री शेषन ने मुख्य चुनाव आयुक्त का कार्य सम्भाला चुनाव प्रRिया में तो जैसे Rान्ति ही आ गई। उनके लिए कोई नया कानून नहीं बना और न सरकार ने उन्हें कोई नया अधिकार ही दिया। पर जो भी कानून व अधिकार आयोग के पास थे, उसका ही ईमानदारी और कड़ाई से पालन कर उन्होंने दिखा दिया कि यदि व्यक्ति में ईमानदार इच्छाशक्ति हो तो वह कुछ भी कर सकता है। यह भी वह तब कर पाए जब उनकी कार्यशैली पर सरकार की भौहें चढ़ने लगी थी और सरकार उनके पर तक काटने की सोचने लगी। तभी एक सदस्यीय चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया गया। एक आयुक्त जो उस समय बनाए गए वह थे श्री एम.एस. गिल जिन्होंने तब श्री शेषन के रास्ते में रोडे अटकाने का बहुत बडा काम किया। बाद में गिल मुख्य चुनाव आयुक्त भी बने। यह अलग बात है कि जो लीक श्री शेषन बना गये उससे पीछे हटना उनके उत्तराधिकारियों के लिए भी सम्भव न हो सका।
पिछले लोक सभा चुनाव प्रचार के दौरान विदेशी बैंको में भारतीयों के काले धन को भारत लाने और दोषियों को सजा देने की बात उठी थी। तब भी सरकार ने इसे विपक्ष का चुनावी शोशा बतला कर इसे नजर अंदाज करने की कोशिश की थी। पिछले 25 महीनों में सरकार ने इस बारे किया कुछ नहीं। केवल कुछ कोरे वादे करने की हामी अवश्य भरी थी। इसी बीच विदेशी बैंकों में भारतीयों का काला धन कम नहीं हुआ, बल्कि बढ़ा ही है।
पिछले कुछ महीनों से इस बारे देश के उच्चतम न्यायालय ने भी कई बार सरकार को खरी खोटी युनाई। हैरानी की बात तो यह है कि यह सरकार उन महानुभावों के सम्मान और ‘स्वच्छ’ छवि की रक्षा करना चाहती है जिन्हें गैरकानूनी व आपराधिक ढंग से काला धन कमाने और उसे विदेशी बैंकों में जमा कर देश के साथ गददारी करने में शर्म नहीं आई। सरकार के पास अनेक नाम हैं जिन्होंने विदेशी बैकों में आपराधिक धन जमा करा रखा है पर ‘जनहित’ का ढकोसला लगा कर उनके नाम उजागर करने से डरती है। इसी बीच कांग्रेस सरकार व पार्टी की कई नामी हस्तियों के नाम चर्चा में हैं जिनके विदेशी बैंकों में खाते बताए जाते हैं। सरकार और सम्बन्धित व्यक्ति न इन आरोपों का खण्डन करते हैं और न ही इसे स्वीकारते हैं। सरकार यदि ईमानदार हो तो आज भी सरकार बहुत कुछ कर सकती है जिससे कि उन लोगों पर अंकुश लग सकता है जो काला धन अर्जित करने में लगे हुए हैं। केन्द्र में हमारे प्रधानमन्त्री व उनका मंत्रिमण्डल व प्रदेशों में हमारे मुख्यमंत्री व उनका मंत्रिमण्डल पहल करे और सभी एक शपथपत्र जारी करें कि उनका या उनके परिवार के व्यक्तियों का देश के बाहर किसी विदेशी बैंक में खाता नहीं है। यदि है तो इसका पूरा ब्यौरा प्रस्तुत करें। इसी प्रकार हमारे सभी सांसद व विधायक भी ऐसा ही करें। सभी संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति तथा सरकारों द्वारा नियुक्त व्यक्ति व नौकरशाह भी ऐसा ही करें। हमारे यहां चुनावों में काले धन का उपयोग आम बात है। विधानसभा चुनाव में एक प्रत्याशी की खर्च-सीमा 16 लाख रुपए तक की गई है, लेकिन एक अनुमान के अनुसार प्रमुख दलों के ज्यादातर प्रभावशाली प्रत्याशी 25 करोड़ रुपए तक प्रचार में बहा देते हैं। निर्धारित सीमा से ज्यादा खर्च काले धन से ही होता है। कुछ समय से चुनाव आयोग ने इस काले धन पर शिकंजा कसना शुरू किया है। बिहार और तमिलनाडु के विधानसभा चुनावों में करोड़ों रुपए का काला धन चुनाव आयोग के निर्देशों से ही पकड़ा गया था।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड के इस विधानसभा चुनाव में भी काले धन को बरामद करऩे के लिए चुनाव आयोग ने अभियान चला रखा है। दिक्कत यह है कि चुनाव आयोग के पास अपना कोई अमला नहीं है। वह सारे काम जिला और पुलिस प्रशासन से पूरे करवाता है। चुनाव आयोग ने निर्देश दिए हैं कि अगर कोई एक लाख रुपए से ज्यादा की नकदी ले जा रहा है, तो उसके कागजात होने जरूरी हैं, वर्ना वह काला धन मान कर जब्त कर लिया जाएगा। काला धन पकड़ने की जिम्मेदारी पुलिस और आयकर विभाग की है। पुलिस वाले सभी जिलों में गाड़ियों की जाँच कर रहे हैं। सामान की तलाशी ली जा रही है। अब तक कई करोड़ रुपए जब्त भी किए जा चुके हैं। लेकिन पुलिस ज्यादती की शिकायतें बहुत आ रही हैं। चिंता का विषय होना चाहिए।
तमाम सतर्कता के बावजूद पुलिस और आयकर विभाग के लिए हर वाहन और व्यक्ति की तलाशी लेना संभव नहीं। धन की इस बरामदगी से इसकी पुष्टि हो जाती है कि अब ऐसे प्रत्याशियों की संख्या बढ़ती जा रही है जो रातों-रात पैसा खर्च कर चुनाव जीतने में यकीन करते हैं। धनी प्रत्याशी केवल प्रचार में ही निर्धारित सीमा से ज्यादा पैसा खर्च नहीं करते, बल्कि वे उसे मतदाताओं में बांटकर वोट खरीदने का भी काम करते हैं। यह लगभग तय है कि चुनाव आयोग की तमाम सख्ती के बावजूद पैसे के बल पर वोट खरीदने की कोशिश पर विराम नहीं लग पा रहा है। अतीत में प्रत्याशियों की ओर से मतदान के एक-दो दिन पहले रातों रात पैसे बांटने के उदाहरण सामने आ चुके हैं।  इस धनबल के आगे लोकतंत्र की हार के अतिरिक्त और कुछ नहीं। राजनीतिक दलों से बेहतर और कोई यह नहीं जानता कि चुनावों में धन की भूमिका बढ़ती चली जा रही है और पैसे वाले प्रत्याशियों के लिए चुनाव जीतना आसान हो गया है, लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं कि चुनाव प्रRिया में पैसे की भूमिका कम हो। चुनावों के दौरान अनाप-शनाप खर्च होने वाला धन मूलत: काला धन होता है, लेकिन राजनीतिक दल उन स्रोतों को बंद करने के लिए तैयार नहीं जहां से काला धन उपजता है। क्या इससे बड़ी विडंबना और कोई हो सकती है कि समाज का नेतृत्व करने और उसे दिशा देने वाली राजनीति काले धन से संचालित हंै? क्या यह हास्यास्पद नहीं कि राजनीतिक दल एक ओर साफ-सुथरी राजनीति की बात करते हैं और दूसरी ओर उसे काले धन से संचालित करने में जुटे हुए हैं? स्पष्ट है कि राजनीतिक दलों की भी नीयत साफ नहीं है।
संभवत: यही कारण है कि चुनाव सुधार पिछले दो दशकों से अटके पड़े हैं। अब तो चुनाव आयोग ने यह कह दिया कि सरकार की ओर से चुनाव सुधारों की अनदेखी की जा रही है। राजनीतिक दल जितना उदासीन काले धन की राजनीति पर हैं उतना ही बाहुबल की राजनीति पर भी और इसका ताजा प्रमाण यह है कि कोई भी दल बाहुबली छवि वाले नेताओं को अपना उम्मीदवार बनाने में संकोच नहीं कर रहा है। यदि टीएन शेषन के समय में चुनाव आयोग अपने अधिकारों को लेकर सजग और सRिय नहीं होता तो शायद मतदान केंद्रों पर कब्जा करने और विरोधी दलों के समर्थक माने जाने वाले मतदाताओं को डराने-धमकाने का सिलसिला भी कायम बना रहता। यदि राजनीतिक दल लोकतंत्र के प्रति आम आदमी की आस्था बनाए रखना चाहते हैं तो यह अपरिहार्य है कि संसद के अगले सत्र में लंबित पड़े चुनाव सुधारों को आगे बढ़ाया जाए। इसके लिए सत्तापक्ष के साथ-साथ विपक्ष के राजनीतिक दलों को भी पहल करनी होगी, क्योंकि निर्वाचन प्रणाली की विकृतियों से पूरी राजनीति ही बदनाम हो रही है।
सच तो यह भी है कि मतदाता आज के नेताओं से इतने अधिक निराश हो चुके हैं कि अब वे उनसे कोई अपेक्षा नहीं रखते। समाज में भी ‘नेता’ शब्द किसी अपशब्द से कम नहीं लगता। नेता बनते ही उनकी सम्पत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है। 5 वर्ष में वे इतना अधिक कमा लेते हैं कि अगला चुनाव आसानी से जीत जाते हैं। चुनाव भी बाहुबल बताने का एक जरिया बनकर रह गया है। एक ईमानदार शिक्षक चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। मतदाताओं के पास कोई विकल्प ही नहीं है। उनके सामने कौन नेता कितना कम भ्रष्ट है, यही जानना बाकी रहता है। वे कम भ्रष्ट नेता को अपना मत देते हैं, पर बाद में वही कम भ्रष्ट अधिक भ्रष्ट नेता बन जाता है। मतदाता कए बार फिर ठगे जाते हैं। ठगने का यह सिलसिला काफी वर्षो से चल रहा है। चुनाव आयोग भी कहीं न कहीं सरकार पर निर्भर है, इसलिए इससे कोई बड़ी अपेक्षा रखना भूल होगी।
  डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 17 जनवरी 2012

चुनाव सुधार की खोखली कवायद


 आज दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख
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http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2012-01-17&pageno=9

सोमवार, 16 जनवरी 2012

भारतीय चीन से तकनीक क्यों सीखना नहीं चाहते?

डॉ महेश परिमल
चीन में व्यापार करने जाने वाले भारतीय व्यापारियों पर पिछले दिनों जिस तरह से व्यवहार किया गया, उससे यही साबित होता है कि वहाँ भारतीय व्यापारी असुरक्षित हैं। आखिर क्या कारण है कि इतनी दूर जाकर भी माल लाने पर व्यापारियों को फायदा होता है? जिल्लत सहकर भी व्यापारी चीन से माल लाते हैं और भारी मुनाफा कमाते हैं। भारतीय व्यापारी यदि चीन जाकर वहाँ से माल के बजाए उनकी तकनीक सीखकर आएँ, तो फिर क्या आवश्यकता है, माल लाने की? आखिर वह कौन से कारण है कि चीन के व्यापारी को जो माल 9 लाख रुपए में पड़ता है,उसके लिए भारतीय व्यापारी को 60 लाख रुपए चुकाने होते हैं? इसकी वजह यही है कि वहाँ की सरकार लघु एवं गृह उद्योगों को खूब प्रोत्साहन देती है। यही कारण है कि वहाँ का माल भारत लाकर भी भारतीयों को सस्ता पड़ता है। यदि हमारे देश की सरकार भी चीन की तरह करे, तो चीन से माल लाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है।दीपावली पर हमने जो इलेक्ट्रानिक तोरण का इस्तेमाल किया, वह चीन से आयात किया हुआ था। होली में बच्चे जिन पिचकारियों का इस्तेमाल किया, वह चीन से आयातित था। हमारे बच्चे जिन खिलौनों से खेलते हैं, वह चीन का होता है।पूरे देश में चीन से हर साल अरबों रुपए का माल आता है। दिल्ली-मुम्बई में चाइना मेड माल के कई होलसेल बाजार हैं। हाल ही भारतीय व्यापारियों से चीन के शेझियांग प्रांत के यिवु शहर में जिस तरह का व्यवहार किया गया है, उससे भारतीय व्यापारियों में ¨चता व्याप्त है। भारतीय व्यापारी यिवु से इसलिए माल लाते हैं, क्योंकि यहाँ की कंपनियाँ डिस्काउंट देने में विख्यात हैं। यहाँ पर दुनिया भर से व्यापारी माल लेने आते हैं। भारत से करीब सौ व्यापारी नियमित रूप से यिवु जाते हैं और वहाँ से खरीदी करते हैं। भारत के कई व्यापारी तो पश्चिम एशिया के अरब देशों के एजेंट के रूप मंे काम करते हैं। अरब देशों में अराजकता की स्थिति के कारण वहाँ से ग्राहकी कम हो गई है। कई कंपनियों का दीवाला ही निकल गया है। इस कारण चीन के व्यापारी भारत के एजेंटों से खफा हो गए हैं। आश्चर्य की बात यह है कि यिवु के व्यापारियों के रोष के आगे वहाँ का प्रशासन तंत्र भी लाचार हो जाता है। वह भी चीनी व्यापारियों का ही पक्ष लेता है। अदालतें भी असहाय नजर आती हैं। इसलिए भारतीय दूतावास से यह आदेश जारी हुआ है कि भारतीय व्यापारी यिवु के व्यापारियों से माल न खरीदें। यहाँ मुश्किल यह है कि भातर में चीन से जो माल आता है, उसका 75 प्रतिशत तो केवल यिवु से ही आता है। यदि भारतीय यिवु से माल खरीदना बंद कर दें, तो वहाँ के व्यापारियों और उद्योपगतियों के सामने भूखे रहने की स्थिति आ सकती है। चीन में भारतीय व्यापारियों को प्रताड़ित करने की यह पहली घटना नहीं है। मुंबई के एक व्यापारी को चीनी भाषा न आने के कारण उसने यिवु के एक दुभाषिये को एजेंट के रूप में नियुक्त किया। इस एजेंट भारतीय व्यापारी के नाम पर खरीदी की और माल लेकर भाग गया। उक्त भारतीय व्यापारी जब यिवु गया, तो उसके साथ मारपीट की गई। भाषा के कारण भारतीय व्यापारियों को वहाँ एजेंट रखना अनिवार्य होता है। इन एजेंटों को दोनों तरफ से कमिशन मिलता है। ये एजेंट यदि किसी प्रकार का घालमेल करें, तो उसकी सजा भारतीय व्यापारियों को भोगनी होती है।जब से चीन से सस्ता माल आने लगा है, तब से भारतीय उद्योग को काफी नुकसान होने लगा है। यहाँ के कारीगर बेकार होने लगे हैं। चीन के लघु उद्योग तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। भारतीय कारीगरों की बेकारी ने चीनी उद्योग को मालामाल कर दिया है। चीन में जिस माल की कीमत 9 लाख रुपए है, उसके लिए भारतीयों को 60 लाख रुपए चुकाने होते हैं। इसलिए भारत के साथ व्यापार करने में चीन को भारी मुनाफा होता है। भारत को जितनी गरज है, उससे अधिक गरज चीन की है। इस बात को अभी तक किसी ने समझने की कोशिश नहीं की है। यह भी सच है कि चीनी माल से अब भारतीयों का मोहभंग होने लगा है। एक तो उसकी गुणवत्ता निम्न दर्जे की होती है। उस पर इस्तेमाल किए गए रंगों से स्वास्थ्य को हानि होती है। दिल्ली के व्यापारियों ने एकजुट होकर कहा है कि यदि भारतीय व्यापारियों के साथ चीन में इस तरह से र्दुव्‍यवहार होता रहेगा, तो वे चीनी माल का बहिष्कार कर भारतीय माल ही बेचेंगे। वैसे दिल्ली के व्यापारियों का यह भी कहना है कि वे काफी बरसों से चीन के साथ व्यापार कर रहे हैं, उन्हें अब तक किसी प्रकार का खराब अनुभव नहीं हुआ है। उनका कहना है कि यिवु शहर में भारतीय व्यापारियों की काफी इज्जत की जाती है। पर जो व्यापारी उधारी करते हैं और समय पर नहीं चुकाते, तो उनका व्यवहार बदल जाता है। उसके बाद तो वे कानून हाथ में लेने से नहीं हिचकते। इन दिनों यिवु के व्यापारी भारतीय व्यापारियों से इसलिए नाराज चल रहे हैं, क्योंकि कई भारतीय माल लेकर गुम हो गए हैं। चीनी इस तरह की दगाबाजी सहन नहीं करते। इस दौरान यदि उन्हें कोई ईमानदार भारतीय व्यापारी भी मिल जाए, तो वे उसके साथ मारपीट करते हैं। भारतीय व्यापारी चीन से केवल माल लेकर आते हैं, वहाँ की तकनीक नहीं लाते। यदि वे वहाँ से तकनीक लाएँ और हमारे ही देश में सस्ता माल बनाएँ, तो भला चीनी माल क्यों खरीदा जाए? चीनी तकनीक के अलावा वहाँ की सरकार द्वारा लघु और गृह उद्योगों को प्रोत्साहन देने की नीति भी माल को सस्ता बनाती है। भारत ने वर्ल्ड ट्रेड आर्गनाइजेशन के जिन दस्तावेज पर हस्ताखर किए थे, उसके आधार पर आयात से ड्यटी हटा दी गई थी। इसी कारण भारत के बाजारों में चीन के सस्ते और गुणवत्ता में हलके माल आने शुरू हो गए। देश का मध्यम वर्ग आज भी चीन के बने उत्पादों का इस्तेमाल करता है। किंतु उच्च वर्ग ने चीन के उत्पादों से मुँह फेर लिया है। यह सोचने वाली बात है कि चीन से उत्पाद भारत आता है, इसके परिवहन खर्च के बाद भी देश में इतना सस्ता मिल रहा है। तो फिर भारत में ही बने उत्पाद इतने सस्ते क्यों नहीं हो सकते? इस सवाल का जवाब भारतीय उद्योगपतियों, व्यापारियों, ग्राहकों और सरकार को देना चाहिए।
डॉ. महेश परिमल

रविवार, 15 जनवरी 2012

पतंग हमें परवाज का सबक सिखाती है




14 जनवरी को दैनिक भास्‍कर के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख
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शुक्रवार, 13 जनवरी 2012

राग दरबारी और मैला आँचल ई बुक में


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मंगलवार, 10 जनवरी 2012

सेक्स टूरिज्म का स्वर्ग गोवा





डॉ महेश परिमल


गोवा में इन दिनों मस्ती की बहार है। देशी-विदेशी लोगों का जमघट लगा है। समुद्री किनारे लोगों की मस्ती देखते ही बनती है। रात भर तेज आवाजों के साथ ये सभी नाचते रहते हैं। इस दौरान बहुत कुछ हो जाता है। रात भर सेक्स का खुला खेल चलता रहता है। रेव पार्टी के नाम से यहाँ विदेशियों ने एक तरह से सेक्स रैकेट ही चला रखा है। ड्रग्स का खुलेआम क्रय-विक्रय हो रहा है। अब तक गोवा के समुद्र तट रेव पार्टियों और ड्रग्स के लिए जाने जाते थे, पर अब हत्या, बलात्कार जैसे अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। यहाँ आने वाले विदेशी अपनी संस्कृति के नाम पर सभी बुराइयों को फैेला रहे हैं। इन विदेशियों के रहने के लिए समुद्री तटों पर इनके आवास बनाए जा रहे हैं। सैकड़ों पॉश हॉटल खुल गए हैं। ये सभी गोवा की जमीन से मीठा पानी निकालकर बरबाद कर रहे हैं और प्रदूषण फैला रहे हैं। विदेशियों से डॉलर प्राप्त करने के मोह में गोवा सरकार राज्य की संस्कृति का नीलाम कर रही है। यदि सरकार और पुलिस तंत्र इसी तरह उदासीन रहा, तो गोवा एक बार फिर विदेशियों के चंगुल में फँस सकता है।पूरे गोवा के लिए यह कमाई का सीजन है। इसलिए पूरा मुबई इन दिनों बेरोजगार हो गया है। यहाँ काम करने वाली तमाम बार गर्ल इन दिनों गोवा में हैं। जो विदेशियों के बीच रहकर रोज 5 से 10 हजार रुपए कमा रही हैं। समुद्री तट पर आयोजित होने वाली रेव पार्टियों की एंट्री फीस ही करीब 500 डॉलर यानी 20 हजार रुपए है। इतनी मोटी रकम विदेशी ही आसानी से दे सकते हैं। इन रेव पार्टियों में रात भर तेज आवाजों के साथ ड्रग्स का नशा करके लोग नाचते रहते हैं। इसलिए यदि गोवा का सेक्स टूरिज्म का स्वर्ग कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। जब से थाइलैंड और कबोडिया सरकार ने सेक्स का आनंद लेने के लिए आने वाले पर्यटकों पर प्रतिबंध लगाया है, तब से गोवा ऐसे लोगों का स्वर्ग बन गया है। यह भी सच है कि अब गोवावासी इस दिशा में प्रयासरत हैं कि ऐसी रेव पार्टियों पर प्रतिबंध लगाया जाए, इसलिए सरकार कभी-काी दिखावे के लिए कुछ कर लेती है। पर भ्रष्ट पुलिस तंत्र के संरक्षण में यहाँ अब भी बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जो कानून के खिलाफ है। यहाँ आने वाले विदेशी सैलानियों की नजर मासूम बच्चों पर होती है। जिन्हें ये हॉटल ले जाकर इनका आनंद लेते हैं। इसलिए अब यहाँ की कई हॉटलों में यह लिखा जा रहा है कि यहाँ बच्चों को लेकर आना मना है। यहाँ समुद्र किनारे खड़े किए गए तबुओं में युजिक सिस्टम लगाया जाता है, तेज शोर के बीच करीब दस हजार युवक-युवतियाँ डांस करती हैं। चाइल्ड सेक्स टूरिज्म के मामले में गोवा अब थाईलैंड, कबोडिया और वियेतनाम के साथ स्पर्धा में उतर गया है। गोवा एयरपोर्ट पर विदेशी पर्यटकों के चार्टर्ड विमान उतर रहे हैं। ये विदेशी गोवा में केवल ड्रग्स और सेक्स का आनंद लेने के लिए ही आते हैं। सेक्स टूरिज्म के नाम पर यहाँ की 5 स्टार होटलें करोड़ों की कमाई कर रही हैं। विदेशी पर्यटकों में कई पेडोफिल्स होते हैं, जो केवल मासूमों में ही दिलचस्पी लेते हैं। यहाँ इनकी भी आपूर्ति करने वाले लोग हैं, जो विभिन्न तरीके से पुरुषों की इस भूख को शांत करने का जतन करते हैं। समुद्री तट पर भीख माँगने वाले बच्चे भी इनके शिकार हो जाते हैं। विदेशी इन बच्चों को आसानी से उपहार आदि देकर अपने जाल में फँसा लेते हैं।गोवा में चलने वाले चाइल्ड सेक्स रेकेट का खुलासा बीबीसी के पत्रकार एलन पुरी ने किया है। कुछ समय पहले ही वे गोवा तट पर पहुँचे और सैलानियों की तरह घूमते रहे। इन पर वहाँ के एक दलाल की नजर पड़ी, तो युवतियों की आपूर्ति करने का वादा किया। जब पत्रकार ने कहा कि उसे तो 13 वर्ष की किशोरी चाहिए, तो दलाल ने उसकी भी व्यवस्था होने की जानकारी दी। उनके साथ ये सब मापुसा तट पर हुआ। इन दिनों यहाँ छोटी उम्र की लड़कियों की इतनी अधिक माँग है कि मुबई से रोज ही ऐसी कई किशोरियाँ भेजी जा रहीं हैं। कई बार विदेशी सैलानी बच्चे के साथ होटल के रुम में पकड़े भी गए, पर पुलिस ने मोटी रकम लेकर उन्हें छोड़ दिया। अब इसका दूसरा रूप भी सामने आने लगा है। मसाज पॉर्लर के रूप में। समुद्री तट पर सैकड़ों मसाज पार्लर हैं, जहाँ अर्धनग्न युवतियों पुरुषों का मसाज करती हैं। एक घंटे के मसाज का 2 से 5 हजार रुपए लिए जाते हैं। कालंगुृटा बीच के आसपास ऐसे अनेक मसाज पॉर्लर चल रहे हैं। एक बार गोवा के एक नागरिक ने फोन पर पुलिस को यह सूचना दी कि इन मसाज पॉर्लरों में दो आतंकवादी छिपे हुए हैं। तब पुलिस ने इन पॉर्लरों पर छापा मारा। इस दौरान अनेक युवतियों को पुरुषों के साथ अर्धनग्न अवस्था में बाहर कर तलाशी ली। पर पुलिस ने किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की। देश के अनेक राज्यों से भागे हुए बच्चे भी यहीं मिल जाएँगे। यहाँ आकर वे मूँगफल्ली या चूड़ियाँ बेचते हुए पाए जाते हैं। ये आसानी से विदेशियों का शिकार बन जाते हैं। डॉलर और रुबल के लालच में गोवा सरकार अब विदेशियों के हाथों खेल रही है। इन दिनों समुद्रीतट पर रुसियों को विशेष सुविधाएँ दी जा रही हैं। यहाँ रुसी अपने लिए बंगले बनवा रहे हैं। इसके लिए वे रुस से ही कारीगरों को बुलवा रहे हैं। जो बंगला नहीं बनवा पा रहे हैं, वे किराए से ले रे हैं। वास्तव में इनके माध्यम से ड्रग्स का कारोबार चल रहा है। गोवा के समुद्रीतट पर तबू तानकर अनेक होटलें बन गई हैं, सरकार ने केवल 25 को ही लायसेंस दिया है, पर बिना लायसेंस के कई होटलें चल रहीं हैं। यहाँ आकर विदेशी भारतीय बच्चों को गोद लेने का नाटक करते हैं। उसके बाद उन बच्चों के साथ सेक्स करते हैं। कई तो झूठे दस्तावेज के आधार पर बच्चों को अपने साथ विदेश ले जाते हैं ओर वहाँ पर उनका शारीरिक शोषण करते हैं।पिछले दस वर्षो में गोवा में रशियन सैलानियों की संया में जिस तरह से इजाफा हुआ है, वह विचारणीय है। 1997 में गोवा में 400 रुसी सैलानी आए थे। पिछले वर्ष यह आँकड़ा 31 हजार 293 तक पहुँच गया है। इस वर्ष यह आँकड़ा 40 हजार पार कर जाने की पूरी संभावना है। गोवा एयरपोर्ट में रुसी भाषा में होर्डिग देखकर ही इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। यहाँ जितने चार्टर्ड प्लेन आते हैं, उनमें से 75 प्रतिशत रुस से ही आते हैं। कई तो अपने निजी जेट विमान से यहाँ आ रहे हैं। कइयों ने यहाँ की 5 स्टार होटलों में एक-एक साल के लिए रुम बुक करवा रखे हैं। इसके एडवांस की रकम भी चुका दी गई है। आखिर इतने अधिक रुसियों के आने का मतलब क्या है? वजह साफ है कि इनके माध्यम से यहाँ ड्रग्स और अवैध शस्त्र का व्यापार किया जा रहा है। गोवा के कई इलाके तो ऐसे हैं, जहाँ रुसियों की संया इतनी अधिक है कि लोग उस स्थान को मिनी रुस के नाम से जानते हैं। इन सारी गतिविधियों से राज्य सरकार अनभिज्ञ है, ऐसा हो नहीं सकता। यदि लगातार ऐसा चलता रहा, तो इसकी पूरी संभावना है कि गोवा एक बार फिर विदेशियों के हाथों में चला जाए।






डॉ महेश परिमल

सोमवार, 9 जनवरी 2012

ड्रग्‍स जैसा घातक मोबाइल का नशा









दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के पेज9 पर प्रकाशित भारती परिमल का आलेख

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शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

चुनौतियों से भरा साल 2012



हरिभूमि के सभी संस्‍करणों के संपादकीय पेज पर आज प्रकाशित मेरा आलेख

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गुरुवार, 5 जनवरी 2012

ममता से मोहभंग के मायने





दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में आज प्रकाशित मेरा आलेख

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मंगलवार, 3 जनवरी 2012

छत्तीसगढ़ में बढ़ रही है ‘छिछान’ प्रवृत्ति


डॉ. महेश परिमल


इस तस्‍वीर को देख रहे हैं आप? गौर से देखें, छत्तीसगढ़ में इस पक्षी को ‘छिछान’ कहते हैं। इस पक्षी की यह विशेषता होती है कि प्रशिक्षित होने के बाद यह अन्य पक्षियों को मारकर अपने मालिक को देता है। स्वयं तो यह कीड़े-मकोड़े खाता है, पर अपने मालिक के लिए अपनी ही जाति के पक्षियों को मारकर देता है। देखने में यह गिद्ध जैसा दिखाई देता है। अंग्रेजी में इस शिक्रा कहा जाता है। ‘छिछान’ की जो प्रवृत्ति है, वह इन दिनों छत्तीसगढ़ में विशेष रूप से देखने में आ रही है। मध्यप्रदेश से अलग होने के बाद पूरे छत्तीसगढ़ में जहाँ एक ओर विकास का रथ तेजी से आगे बढ़ रहा है, वहीं रोजगार के लिए लोग अभी भी पलायन कर रहे हैं। खेती-किसानी के लिए लोगों को मजदूर नहीं मिल रहे हैं। दूसरी तरफ स्टेशन पर दूसरे राज्यों में रोजगार प्राप्त करने के लिए लोगों की भीड़ लगी है। बाहर से लोग आकर वहाँ खेती कर रहे हैं, तो वहीं के मूल निवासी दूसरे राज्यों में स्वयं को सुरक्षित समझते हैं। लोग कहते हैं कि छतीसगढ़ तेजी से विकास कर रहा है। बात सच है, पर यह विकास क्या आर्थिक है या सामाजिक? इसे जानने की फुरसत किसी को नहीं है। बाहर से आए हुए कुछ रसूखदारों के हाथों में ऐसे अधिकार आ गए हैं, जिससे वे वहीं के निवासियों से काम करवाते हैं। परदे के पीछे पूरा खेल उन्हीं का होता है। पर सामने निरीह छत्तीसगढ़ी ही दिखाई देते हैं। जिनका सर्वस्व लुट गया है, वे ही दूसरों को और अधिक अधिकार सम्मत बना रहे हैं। शायद इसे ही कहते हैं ‘छिछान’ प्रवृत्ति।पूरे छत्तीसगढ़ में बदलाव की बयार बह रही है। हर कोई विकास की बातें कर रहा है। इस विकास ने राज्य के सांस्कृतिक मूल्यों को किस तरह से प्रभावित किया है। यह कोई जानना नहीं चाहता। ‘मितान’ जैसी शुद्ध परंपरा अब मैली होने लगी है। पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव इतना जबर्दस्त है कि बबा, दाई, ददा, बहिनी, दीदी, भौजी जैसे शब्द बच्चों के मुँह से नहीं निकल पा रहे हैं, सभी रिश्ते अंकल-आंटी में ही सिमट गए हैं। बच्चे न जाने अपनी बला से, पर इन शब्दों का अर्थ बताने की जहमत भी कोई उठाना नहीं चाहता। न तो शालाओं में न ही किसी सामाजिक कार्यक्रमों में। छत्तीसगढ़ी भाषा केवल गाँवों में ही सुनने को मिल रही है।राजधानी की सड़कें चमक रहीं हैं, पर सुदूर जशपुर जिले में सड़कों के नाम पर जो कुछ है, उसे सड़क तो कदापि नहीं कहा जा सकता। गाँवों में आज भी पटवारी की तबीयत बढ़ती रकम के साथ अच्छी होने लगती है। अस्पतालों में डॉक्टर हों न हों, पर मरीज की कतारें अवश्य होती हैं। यह सच है कि विकास सदैव विध्वंस के रास्ते से आता है, पर इसका यह आशय तो कदापि नहीं कि विध्वंस ही इतना भयानक हो, जिससे विकास ही अवरुद्ध हो जाए। पूरे राज्य कमें कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला। लोगों का भोलापन न जाने कहाँ चला गया। सादगी के नजारे कहीं कहीं ही देखने को मिल रहे हैं। धीरे-धीरे शायद यह भी लुप्त हो जाए। न तो नगरी में दुबराज चावल की सुगंध ही मिल रही है और न ही आरंग के बड़े में वह स्वाद है। छत्तीसगढ़ के एक बड़े भू-भाग में घूमकर सब कुछ देखने को मिला, पर ‘छत्तीसगढ़पन’ के दर्शन कम ही हुए। बच्चों में वैसी चंचलता भी देखने को नहीं मिली। शालाओं में वे अब छत्तीसगढ़ी नहीं बोलते, बल्कि हिंदी में ही अधिक से अधिक अंग्रेजी के शब्दों को लाने का प्रयास करते दिखते हैं।संभवत: मेरी ही नजरों का धोखा होगा, जहाँ मैं छत्तीसगढ़पन खोज रहा हूंँ, वहाँ कभी मैं पला-बढ़ा था। मुझे तो आज भी वहाँ की माटी का सौंधापन खींच ले जाता है। बारब-बार जाता हूँ, पर हर बार निराश ही होता हूँ। क्या हो गया मेरे छत्तीसगढ़ को? किसकी नजर लग गई भला मेरे छत्तीसगढ़ को? मेरे इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? छिछान तो केवल एक पक्षी मात्र है, वह तो वही करेगा, जो उसे सिखाया जाएगा। पर यहाँ की मेहनतकश लोगों की कद्र यहीं नहीं है। आखिर उन्हें क्यों जाना पड़ रहा है अपनी माटी से दूर होकर। वह भी दूसरे राज्यों में, क्या उन्हें वह सम्मान मिलता होगा, जो उन्हें अपने छत्तीसगढ़ में मिलता है? आखिर वह कौन-सा कारण है कि मजदूर दूसरे राज्यों में जाकर जिल्लत सहते हैं, गाली खाते हैं, हर तरह से शोषित होते हैं, फिर भी वहीं काम करना चाहते हैं। कुछ तो ऐसा मिलता ही होगा उन्हें, जो यहाँ नहीं मिलता होगा।

डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 2 जनवरी 2012

नक्‍सलवाद को सही नेतृत्‍व की तलाश








नई दुनिया रायपुर बिलासपुर के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

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