गुरुवार, 31 दिसंबर 2015
स्वागत नववर्ष के स्वर्णिम सूरज
हम स्वागत करते हैं, नववर्ष के स्वर्णिम सूरज का और चाहते हैं कि वो हमें इस नववर्ष पर कुछ ऐसे उपहार दे, जो हमें सफलता के मार्ग तक पहुँचाए -
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बुधवार, 30 दिसंबर 2015
बाल कविता -
बाल कविताओं का अपना एक अलग संसार होता है। आइए, सैर करें इस अनोखे संसार की -
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बाल कविता

हास्य व्यंग्य - अहा !!! निकल गया
कभी-कभी पति का मौन पत्नी की परेशानी का कारण बन जाता है और जब सच सामने आता है, तो आश्चर्य के सिवा और कुछ नहीं होता। कैसे, ये आप खुद ही सुन लीजिए -
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हास्य व्यंग्य

कहानी - चुटकी भर सिंदूर
चुटकी भर सिंदूर नारी की शक्ति है,जिसके बल पर वह जीवन में आए लाखों तूफानों का मुकाबला कर सकती है। कुछ इसी तरह का संकेत भारती परिमल की इस मार्मिक कहानी में छिपा है -
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शनिवार, 26 दिसंबर 2015
चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की कहानी - सुखमय जीवन
हिंदी जगत के प्रसिद्ध व्यंग्यकार, कथाकार तथा निबंधकार के रूप में अपनी अमिट पहचान बनानेवाले जनप्रिय लेखक चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की अमर कहानियों में से ही एक है - सुखमय जीवन। सहज एवं सरल लेखनशैली का परिचय इस कहानी में मिलता है -
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कहानी - उसने कहा था
लेखक चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' जी की कालजयी कहानियों में से एक है - उसने कहा था। आम हिन्दी पाठक ही नहीं, विद्वानों का एक बड़ा वर्ग भी उन्हें अमर कहानी ‘उसने कहा था’ के रचनाकार के रूप में ही पहचानता है। उनके प्रबल प्रशंसक और प्रखर आलोचक भी अमूमन इसी कहानी को लेकर उलझते रहे हैं।
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गुरुवार, 24 दिसंबर 2015
एक मासूम का पत्र - सांताक्लास के नाम
सांताक्लास को एक देवदूत के रूप में जाना जाता है, जो हर मासूम को अपनी झोली में से उपहार देता है और उसके चेहरे पर मुस्कान लाता है। हर मासूम उसका बेताबी से इंतजार करता है। आज एक मासूम पत्र के माध्यम से अपने दिल की बात प्यारे सांता तक पहुँचा रहा है -
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सोमवार, 21 दिसंबर 2015
आमिर का डर सच साबित हो गया
डॉ. महेश परिमल
सहिष्णुता
की बात करना अच्छा लगता है, पर सहिष्णु बनना बहुत मुश्किल काम है। दुनिया
भर के लोग तमाम तरह के जुनून से ग्रस्त हैं। इसमें भारत के लोगों का भी
समावेश किया जा सकता है। किसी को धर्म का जुनून है, तो किसी को भाषा का।
भारत में मुस्लिमों पर मजहब का जुनूनी होने का आरोप लगाया जाता है, तो
हिंदू, जैन और ईसाई भी कम मजहब जुनूनी नहीं हैं। हर कोई इसी जुनूनियत से
बुरी तरह से ग्रस्त दिखाई दे रहा है। सभी को अपने धर्म पर गर्व होना ही
चाहिए, पर यह गर्वोक्ति कहां तक सार्थक है कि केवल मेरा धर्म ही सबसे महान
है, इसे ही अंगीकार किया जाए। दूसरी ओर असांप्रदायिककता वादियों के जुनून
में किसी धार्मिक मनुष्य को कुचलकर आगे बढ़ जाने की प्रवृत्ति भी देखी जा
रही है। पूंजीवादी अपनी विचारधारा में बहते हुए जितने अधिक जुनूनी होते
हैं, उससे अधिक तो साम्यवादी हातेे हैं। हमारे देश में नारीवादियों को भी
अपने अधिकार के लिए आक्रामक बनते देखा गया है। इस संदर्भ में जब आमिर खान
का यह बयान सामने आया कि मेरी पत्नी कहती है कि अब भारत में रहने लायक
हालात नहीं है। तो ऐसा कहकर आमिर ने देश की प्रजा की कसौटी को परखा है।
इसके बाद पूरे देश ही नहीं बल्कि सात समुंदर पार से भी जो प्रतिक्रियाएं
आईं, उसे देखकर लगता है कि उस कसौटी में हम सब विफल हो गए। आमिर के बयान पर
हमारी प्रतिक्रियाएं थी, वे ही असहिष्णु थी। ऐसे में हम कैसे कह सकते हैं
कि हम सहिष्णु हैं। आमिर की पत्नी किरण राव ने आज के भारत के हालात को
देखकर कहा था कि अब उन्हें इस देश में रहने से डर लग रहा है। यह बात
उन्होंने अपने कलाकार पति से की थी। अब आमिर इस बात को बिना विचारे जगजाहिर
कर दिया। पर बयान के बाद आई प्रतिक्रियाओं से जिस तरह का विरोध हो रहा है,
उसे देखकर यह कहा जा सकता है कि आमिर खान या उनकी पत्नी का डर सच्चा साबित
हुआ।
हिंदूवादी पहले से ही आमिर खान का विरोध करते आ रहे हैं। उनकी प्रतिक्रिया
कुछ ऐसी थी कि यदि उन्हें भारत में डर लग रहा है, तो वे पाकिस्तान चले
जाएं। यदि वे पाकिस्तान जाना चाहें, तो उनके लिए टिकट की व्यवस्था भी की जा
सकती है। देश ने जिसे इतना सब कुछ दिया है, तो उसकी आलोचना करने की हिम्मत
आई कैसे तुममें? आखिर क्यों वेवकूफ हिंदू मुस्लिम कलाकारों के बारे में इस
तरह से कहने की आवश्यकता पड़ी? आमिर के चक्कर में इन हिंदूवादियों ने सलमान
और शाहरुख को भी लपेटे में ले लिया। इसके पहले आमिर की फिल्म ‘पीके’ में
धर्मभीरु लोगों पर कटाक्ष किया था, तब भी उनकी लोगों ने काफी खिल्ली उड़ाई
थी। तब भी आमिर खान के पोस्टर फाड़े और जलाए गए थे। उनकी यह दलील थी कि
आमिर खान ने इस्लाम के खिलाफ कटाक्ष क्यों नहीं किया? इस संदर्भ में जब
संगीतकार ए.आर. रहमान भी आमिर के साथ खड़े हो गए, तब लोगों को लगा कि इस
मामले में आमिर अकेले नहीं हैं। रहमान को भी मुस्लिम कट्टरपंथियों ने धमकी
दी थी। ईरान में बनी मोहम्मद पैगम्बर पर फिल्म में इस्लाम पर किसी तरह की
टिप्पणी नहीं की गई है और न ही मोहम्मद पैगम्बर का अपमान किया गया है। इसके
बाद भी केवल उस फिल्म में संगीत देने के एवज में मुम्बई की रजा अकादमी ने
रहमान का बहिष्कार करने की अपील की थी। आमिर ने हिंदू धर्मालंबियों का
गुस्सा देखने को मिला, उसी तरह रहमान को मुस्लिम धर्मालंबियों की नाराजगी
का शिकार होना पड़ा। ऐसे कई लोग हैं, जो विभिन्न धर्मों के लोगों के शिकार
होते ही रहते हैं। उनकी कोई खबर नहीं आती, पर ये सेलिब्रिटी हैं, इसलिए
इनके बारे में कुछ भी कहा जा सकता है। इनके बयान भी तुरंत सुर्खियां बन
जाते हैं।
आमिर भी भारत के 18 करोड़ मुस्लिमों की तरह देश का एक नागरिक है। उसे देश
में किसी भी प्रकार का डर लगता है, तो उसे कहने का अधिकार है। पर उसके कारण
उसे देशद्रोही करार देना न्यायोचित नहीं है। कानपुर की अदालत में मनोज
कुमार दीक्षित नामके वकील ने आमिर खान पर राजद्रोह के तहत मुकदमा चलाने की
अनुमति मांगकर हद ही कर दी। सेशन्स कोर्ट ने यह अपील पर तीन दिसम्बर को
सुनवाई करने के लिए कहा है। हमारी सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों को शांत
करने के लिए असहिष्णु बन जाती है। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार द्वारा तैयार
किए गए राजद्रोह के कानून का दुरुपयोग भी किया जा रहा है। इसी आधार पर आमिर
को परेशान करने की कोिशश की जा रही है। हमारे देश में ऐसा है कि जिस
व्यक्ति की चमड़ी को थोड़ा सा छिल दिया जाए, तो उसमें से असहिष्णुता के वाइरस
निकलने लगते हैं। दादरी में गाय के संभावित हत्यारे को शंका के आधार पर
जला दिया गया, तो मेंगलोर मंे गाय की रक्षा करने के लिए निकले हिंदू युवा
की हत्या कर दी गई। हमारा मीडिया हिंदुओं की असहिष्णुता को जितना अधिक
बढ़ाचढ़ाकर दिखाता है, उतना मुस्लिमों की असहिष्णुता को कभी नहीं बताता।
हमारे देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है, इसी आक्षेप के साथ अवार्ड वापस
करने वाले कितने जुनूनी बन गए हैं। उन्होेंने इस असहिष्णुता के प्रति
थोड़ी-सी भी सहिष्णुता दिखाई होती, तो छोटी सी बात इतनी अधिक तूल नहीं
पकड़ती। आमिर का विरोध करने वाले ही अब उनकी हिंदू पत्नी किरण राव को भी
चपेट में ले लिया है। वे अब किरण को यह सलाह देने लगे हैं कि यदि आमिर भारत
में ही रहकर तुम्हारी रक्षा नहीं करने में सक्षम नहीं हैं, तो देश छोड़ने
के बदले आमिर को ही छोड़ देना चाहिए। इस सलाह में हमें कहीं भी शालीनता
दिखाई नहीं देती, न ही नारी के प्रति अच्छे विचारों का प्रादुर्भाव होता
है। भारत की प्रजा असहिष्णु है, यह सच है, पर दुनिया के अन्य नागरिक भी
हमसे अधिक असहिष्णु हैं। इसलिए आमिर को यह समझ लेना चाहिए कि भारत छोड़कर वे
अन्य किसी देश में बस सकते हैं, ऐसा वे सोच भी नहीं सकते।
यह भी सच है कि आमिर अपने बयान पर अडिग रहते हुए यह भी कहा है कि भारत भी
मेरा देश है, मैं इस देश में रहकर गर्व का अनुभव करता हूँ। देश छोड़ने का
मेरा कोई इरादा नहीं है। पर एक सवाल आमिर से हर कोई पूछना चाहता है कि जब
वे अपनी फिल्म में हिंदू धर्म के पाखंड की पोल खोल रहे थे, तब उस फिल्म ने
आय के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। कुछ हद तक मुस्लिमों और ईसाई समाज में भी
हो रहे पाखंड पर भी कटाक्ष किया गया था, पर मुख्य रूप से कटाक्ष तो हिंदू
धर्म के पाखंडों को ही दर्शाया गया था। इसके बाद भी फिल्म सुपर-डुपर हिट
रही, क्योंकि अधिकांश दर्शक भी धार्मिक पाखंडों, ढोंग और अंधश्रद्धा के
खिलाफ पीके के सवालो को स्वीकार किया। इस मानसिकता में खुलापन नहीं है, तो
आखिर क्या है? तब किरण राव को भारत में रहने पर डर नहीं लगा? बस यही सवाल
है, जो आज हर भारतीय जानना चाहता है। हिंदू धर्म कितना सहिष्णु है, इस बात
का अंदाजा इस बात से साफ लग जाता है कि हमारे यहां लक्ष्मी पटाखे, गणेश छाप
बीड़ी भी मिल जाएंगी, पर हमारे विरोध कभी नहीं होता। पर ऐसा यदि दूसरे
धर्मों में हो, तो हंगामा हो जाएगा। यही देश है, जहाँ जीसस क्राइस्ट पर
बनने वाला धारावाहिक बीच में ही बंद कर दिया जाता है, इस्लाम के बारे में
आज तक किसी ने धारावाहिक से बताने की कोशिश भी नहीं की। संजय खान बजरंग बली
पर धारावाहिक बना सकते हैं, जो हिट भी साबित हो सकता है। टीपू सुल्तान पर
धारावाहिक बना सकते हैं, पर इस्लाम आखिर क्या है, यह बताने का साहस आज तक
जुटा नहीं पाए। तो आखिर सहिष्णु कौन है?
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच

शनिवार, 19 दिसंबर 2015
कविता - बढ़े चलो, बढ़े चलो - सोहनलाल द्विवेदी
सोहन लाल द्विवेदी (22 फ़रवरी 1906 - 1 मार्च 1988) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि हैं। ऊर्जा और चेतना से भरपूर रचनाओं के इस रचयिता को राष्ट्रकवि की उपाधि से अलंकृत किया गया। महात्मा गांधी के दर्शन से प्रभावित होकर द्विवेदी जी ने बालोपयोगी रचनाएँ भी लिखीं। प्रस्तुत है उनकी एक प्रेरणादायक कविता -
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कविता,
दिव्य दृष्टि

कहानी - अन्याय का विरोध - अंतोन चेखव
विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानी लेखक अंतोन चेखव 19वीं शताब्दी के मध्य में ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ कहानीकारों की अग्रिम पंक्ति में स्थान प्राप्त कर चुके थे। विश्व के सभी महान कथाकारों ने उनकी कहानी कला का लोहा माना है। सन् 1888 में उन्हें रूस का सर्वोच्च सम्मान 'पुश्किन पुरस्कार' प्राप्त हुआ। यहॉं उनकी एक सहज और सरल भावाभिव्यक्ति को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है -
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कहानी,
दिव्य दृष्टि

गुरूभक्त एकलव्य की कथा
दृढ़ संकल्प के धनी एकलव्य की गुरूभक्ति से तो हम सभी परिचित हैं। इसी एकलव्य की संक्षिप्त कथा को यहॉं प्रस्तुत किया जा रहा है -
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कथा,
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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015
ललित निबंध - उम्र पचपन याद आता है बचपन
डाॅ. महेश परिमल के इस निबंध में बचपन की शरारतों को पचपन के होने तक सहेजकर रखने का संदेश छिपा है। यह सच हे कि बचपन कभी लौटकर नहीं आता, पर उसकी यादें हमें कभी बूढ़ा नहीं होने देती। हम चाहें तो उम्र के हर पड़ाव पर इसे भरपूर जी सकते हैं और अपने बच्चों को भी इसे जीने की प्रेरणा दे सकते हैं -
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दिव्य दृष्टि,
ललित निबंध

श्रीनिवास श्रीकांत की कविताऍं -
इन्होंने कविताओं के माध्यम से जीवन के अनेक भावों का सूक्ष्म मानचित्रीकरण किया है। इनके काव्य जगत का विस्तृत फलक मानवीय परिवेश से ब्रह़मांड के रहस्यों तक फैला है -
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कविता,
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गुरुवार, 17 दिसंबर 2015
सुब्रतो के बाद अब माल्या:समय बड़ा बलवान
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आज का सच

बुधवार, 16 दिसंबर 2015
सुबह के संयोग
डॉ. महेश परिमल
बहुत ही सुहानी होती है, सुबह की सैर। कभी देखी है आपने सुबह हाेने से पहले प्रकृति की तैयारी? कहते हैं प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखती है। जो अपनी सेहत के प्रति सजग रहते हैं, उनकी सुबह तो बहुत ही फलदायी होती है। गर्मी के मौसम में सुबह निकलना कोई बड़ी बात नहीं है। ठंड की सुबह में निकलो, तो जाने। सच में ठंड की सुबह या कह ले अलसभोर में हमारे सामने बहुत कुछ ऐसा होता है, जिसे हमने पहले कभी महसूस ही नहीं किया होता है। उसे महसूस करना हो, तो सुबह से अच्छा कोई समय हो ही नहीं सकता। बात करते हैं सुबह से पहले की सुबह की। सूरज निकलने में अभी करीब डेढ़ घंटे हैं। आप अपनी रजाई से नाता तोड़ें, यह बहुत ही मुश्किल काम है। पर वह तो आपको करना ही होगा। यदि डॉक्टर ने सुबह की सैर के लिए कह दिया है, तो यह आपकी विवशता हो सकती है। पर नहीं, आप संकल्प ले लें कि सुबह उठना ही है, तब कोई व्यवधान उपस्थित नहीं होगा। कहते हैं कि जिसने सुबह की नींद त्याग दी, वह योगी होता है। सुबह की मीठी नींद के लिए लोग अपने बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण काम भी छोड़ देते हैं, पर जो नींद को छोड़ देते हैं, वे महान होते हैं। स्वयं को अच्छे रास्ते पर लाने यह एक छोटा-सा गुण है।
अलसभोर आप निकलें, तो पाएंगे कि कुछ बुजुर्गों की चहल-कदमी, मंद गति से दौड़ते युवा, बतियाती महिलाएं, इक्का-दुक्का वाहनों का गुजरना, रेल्वे या बस स्टेंड जाते लोग, दूध वाली वैन, कभी कोई भजन मंडली, दूर से मस्जिद से उठती अजान की आवाज, सड़क पर पसरे लावारिस पशु, कभी कोई कुत्ता, गाय-भैंस या फिर कोई अन्य उपेक्षित पशु। बायींंंंं तरफ पंक्तिवार आते मकान, जिसमें डॉ. शरद गुप्ता, इंजीनियर सिद्दिकी, सरदार करतार सिंह, मोहन मालवीय, जे.के.परमार, श्रीमती अंजू साहा आदि नाम तो याद हो ही जाते हैं। कभी आकाश की ओर नजर घुमा लो, तो चंद्रमा के साथ पंक्ति में शुक्र तारा दिखाई देता है। कभी-कभार कुछ पक्षी तेज आवाज से साथ ही करीब से गुजरते हैं। अभी तो चिड़ियों की आवाजें नहीं आ रही हैं, पर उनके होने का आभास होने लगा है। वापस लौटते हुए कभी किसी घर पर नजर डाल दी जाए, जहां लिखा होता है कि कुत्तों से सावधान। इन घरों के मालिक अपने डॉगी के साथ घूमने िनकलते हैं। आगे चलकर वे डॉगी को लिए हुए सड़क के एक किनारे हो जाते हैं, जहाँ उनका डॉगी ‘पोट्टी’ करता है। थोड़ी देर बाद वे डॉगी के साथ आगे बढ़ जाते हैं। अमेरिका के फिलाडेल्फिया शहर में मैंने देखा कि वहां भी डॉगी को लेकर लोग घूमने निकलते हैं, तो पूरी तैयारी के साथ निकलते हैं। इस बीच यदि डॉगी ने कहीं ‘पोट्टी’ कर दी, तो डॉगी का मालिक अपने हाथ पर प्लास्टिक के दस्ताने पहनता है, जमीन से पूरी ‘पोट्टी’ उठाता है, फिर उसी दस्ताने को कुछ इस तरह से हाथ से बाहर करता है कि ‘पोट्टी’ दस्ताने के भीतर और साफ हाथ बाहर हो जाता है। उसके बाद भी उस स्थान को और भी अच्छे से साफ कर आगे की डस्टबीन में डाल दिया जाता है। ये सारा काम डॉगी का मालिक या मालकिन ऐसे करते हैं, मानों वह उनका अपना ही काम हो। सफाई के प्रति संवेदना यहीं से जागती है। हमें वहां तक पहुंचने में काफी वक्त लगेगा।
चिड़ियों की चहचहाट के साथ सुबह अब आगे बढ़ चुकी है, अब तो स्कूल की बसें में दिखाई देने लगी है। अखबार बांटने वाले युवा भी दिखाई देने लगे हैं। जो तेजी से अपना काम कर रहे होते हैं, क्योंकि इन्हीं में से कुछ को स्कूल और कॉलेज जाना हाेता है। अब सड़क पर काफी लोग दिखने लगे हैं। जिसमें युवतियां भी शामिल हैं। ऐसे में तीन युवकों के साथ एक युवती भी दिखाई दे जाए, तो आश्चर्य होता है। वह इसलिए कि वे किसी कंपनी के द्वारा अपने उत्पाद को बेचने के उद्देश्य से लोगों का स्वास्थ्य परीक्षण करते हैं। युवती इसलिए शामिल होती है कि सुबह सैर को निकली अन्य युवती को स्वास्थ्य परीक्षण कराने में किसी प्रकार की झिझक महसूस न हो। सोचता हूं कितने कठोर होते हैं कंपनी के नियम। ये सैर को नहीं निकले हैं, बल्कि अपने उत्पाद के प्रचार के लिए उन्होंने सुबह का समय चुना है। अब तो मंदिरों के घंटों की आवाजें भी आने लगी हैं। इस दौरान देखा गया कि सचमुच लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील हैं, क्योंकि सुबह की सैर को निकले बुजुर्गों या युवाओं को धूम्रपान करते नहीं देखा। शायद सेहत के सामने इसकी नहीं चलती। एक बात यह भी नोटिस की, किसी चेहरे पर खीझ नहीं होती। लोग इत्मीनान से चलते हुए आगे बढ़ते हैं। कुछ लोग मोबाइल से भजन सुनते हैं, तो कुछ लोग आधुनिक गीत। पर ये संगीत कभी कानफोड़ नहीं होता। मोबाइलधारी इसका विशेष खयाल रखते हैं, तब वे ईयरफोन का इस्तेमाल करते हैं। संगीत उन्हीं तक सीमित होता है।
सुबह के इन संयोगों के दर्शन केवल उन्हें ही होते हैं, जो सेहत के अलावा अपना अनुशासित जीवन जीना चाहते हैं। जो सुबह जल्दी उठते हैं, उनका दिन भी अच्छे से गुजरता है। सारे काम आराम से निपटते हैं। दोपहर नींद का हल्का और प्यारा सा झोंका भी आता है। जो केवल 15 या 20 मिनट में ही तरोताजा कर देता है। यह झोंका सुबह की मीठी नींद से भी प्यारा होता है। संकल्प के साथ शुरू हुई जीवन की यह सुबह हमें कई संदेश दे जाती है। तो आओ, इन संदेशों को जानने-समझने की एक छोटी-सी शुरुआत करते हैं, सुबह जल्दी उठकर, नींद से नाता तोड़कर, रजाई को एक और फेंककर। एक कोशिश...बस एक कोशिश.....
डॉ. महेश परिमल
बहुत ही सुहानी होती है, सुबह की सैर। कभी देखी है आपने सुबह हाेने से पहले प्रकृति की तैयारी? कहते हैं प्रकृति अपना संतुलन बनाए रखती है। जो अपनी सेहत के प्रति सजग रहते हैं, उनकी सुबह तो बहुत ही फलदायी होती है। गर्मी के मौसम में सुबह निकलना कोई बड़ी बात नहीं है। ठंड की सुबह में निकलो, तो जाने। सच में ठंड की सुबह या कह ले अलसभोर में हमारे सामने बहुत कुछ ऐसा होता है, जिसे हमने पहले कभी महसूस ही नहीं किया होता है। उसे महसूस करना हो, तो सुबह से अच्छा कोई समय हो ही नहीं सकता। बात करते हैं सुबह से पहले की सुबह की। सूरज निकलने में अभी करीब डेढ़ घंटे हैं। आप अपनी रजाई से नाता तोड़ें, यह बहुत ही मुश्किल काम है। पर वह तो आपको करना ही होगा। यदि डॉक्टर ने सुबह की सैर के लिए कह दिया है, तो यह आपकी विवशता हो सकती है। पर नहीं, आप संकल्प ले लें कि सुबह उठना ही है, तब कोई व्यवधान उपस्थित नहीं होगा। कहते हैं कि जिसने सुबह की नींद त्याग दी, वह योगी होता है। सुबह की मीठी नींद के लिए लोग अपने बहुत ही ज्यादा महत्वपूर्ण काम भी छोड़ देते हैं, पर जो नींद को छोड़ देते हैं, वे महान होते हैं। स्वयं को अच्छे रास्ते पर लाने यह एक छोटा-सा गुण है।
अलसभोर आप निकलें, तो पाएंगे कि कुछ बुजुर्गों की चहल-कदमी, मंद गति से दौड़ते युवा, बतियाती महिलाएं, इक्का-दुक्का वाहनों का गुजरना, रेल्वे या बस स्टेंड जाते लोग, दूध वाली वैन, कभी कोई भजन मंडली, दूर से मस्जिद से उठती अजान की आवाज, सड़क पर पसरे लावारिस पशु, कभी कोई कुत्ता, गाय-भैंस या फिर कोई अन्य उपेक्षित पशु। बायींंंंं तरफ पंक्तिवार आते मकान, जिसमें डॉ. शरद गुप्ता, इंजीनियर सिद्दिकी, सरदार करतार सिंह, मोहन मालवीय, जे.के.परमार, श्रीमती अंजू साहा आदि नाम तो याद हो ही जाते हैं। कभी आकाश की ओर नजर घुमा लो, तो चंद्रमा के साथ पंक्ति में शुक्र तारा दिखाई देता है। कभी-कभार कुछ पक्षी तेज आवाज से साथ ही करीब से गुजरते हैं। अभी तो चिड़ियों की आवाजें नहीं आ रही हैं, पर उनके होने का आभास होने लगा है। वापस लौटते हुए कभी किसी घर पर नजर डाल दी जाए, जहां लिखा होता है कि कुत्तों से सावधान। इन घरों के मालिक अपने डॉगी के साथ घूमने िनकलते हैं। आगे चलकर वे डॉगी को लिए हुए सड़क के एक किनारे हो जाते हैं, जहाँ उनका डॉगी ‘पोट्टी’ करता है। थोड़ी देर बाद वे डॉगी के साथ आगे बढ़ जाते हैं। अमेरिका के फिलाडेल्फिया शहर में मैंने देखा कि वहां भी डॉगी को लेकर लोग घूमने निकलते हैं, तो पूरी तैयारी के साथ निकलते हैं। इस बीच यदि डॉगी ने कहीं ‘पोट्टी’ कर दी, तो डॉगी का मालिक अपने हाथ पर प्लास्टिक के दस्ताने पहनता है, जमीन से पूरी ‘पोट्टी’ उठाता है, फिर उसी दस्ताने को कुछ इस तरह से हाथ से बाहर करता है कि ‘पोट्टी’ दस्ताने के भीतर और साफ हाथ बाहर हो जाता है। उसके बाद भी उस स्थान को और भी अच्छे से साफ कर आगे की डस्टबीन में डाल दिया जाता है। ये सारा काम डॉगी का मालिक या मालकिन ऐसे करते हैं, मानों वह उनका अपना ही काम हो। सफाई के प्रति संवेदना यहीं से जागती है। हमें वहां तक पहुंचने में काफी वक्त लगेगा।
चिड़ियों की चहचहाट के साथ सुबह अब आगे बढ़ चुकी है, अब तो स्कूल की बसें में दिखाई देने लगी है। अखबार बांटने वाले युवा भी दिखाई देने लगे हैं। जो तेजी से अपना काम कर रहे होते हैं, क्योंकि इन्हीं में से कुछ को स्कूल और कॉलेज जाना हाेता है। अब सड़क पर काफी लोग दिखने लगे हैं। जिसमें युवतियां भी शामिल हैं। ऐसे में तीन युवकों के साथ एक युवती भी दिखाई दे जाए, तो आश्चर्य होता है। वह इसलिए कि वे किसी कंपनी के द्वारा अपने उत्पाद को बेचने के उद्देश्य से लोगों का स्वास्थ्य परीक्षण करते हैं। युवती इसलिए शामिल होती है कि सुबह सैर को निकली अन्य युवती को स्वास्थ्य परीक्षण कराने में किसी प्रकार की झिझक महसूस न हो। सोचता हूं कितने कठोर होते हैं कंपनी के नियम। ये सैर को नहीं निकले हैं, बल्कि अपने उत्पाद के प्रचार के लिए उन्होंने सुबह का समय चुना है। अब तो मंदिरों के घंटों की आवाजें भी आने लगी हैं। इस दौरान देखा गया कि सचमुच लोग अपने स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील हैं, क्योंकि सुबह की सैर को निकले बुजुर्गों या युवाओं को धूम्रपान करते नहीं देखा। शायद सेहत के सामने इसकी नहीं चलती। एक बात यह भी नोटिस की, किसी चेहरे पर खीझ नहीं होती। लोग इत्मीनान से चलते हुए आगे बढ़ते हैं। कुछ लोग मोबाइल से भजन सुनते हैं, तो कुछ लोग आधुनिक गीत। पर ये संगीत कभी कानफोड़ नहीं होता। मोबाइलधारी इसका विशेष खयाल रखते हैं, तब वे ईयरफोन का इस्तेमाल करते हैं। संगीत उन्हीं तक सीमित होता है।
सुबह के इन संयोगों के दर्शन केवल उन्हें ही होते हैं, जो सेहत के अलावा अपना अनुशासित जीवन जीना चाहते हैं। जो सुबह जल्दी उठते हैं, उनका दिन भी अच्छे से गुजरता है। सारे काम आराम से निपटते हैं। दोपहर नींद का हल्का और प्यारा सा झोंका भी आता है। जो केवल 15 या 20 मिनट में ही तरोताजा कर देता है। यह झोंका सुबह की मीठी नींद से भी प्यारा होता है। संकल्प के साथ शुरू हुई जीवन की यह सुबह हमें कई संदेश दे जाती है। तो आओ, इन संदेशों को जानने-समझने की एक छोटी-सी शुरुआत करते हैं, सुबह जल्दी उठकर, नींद से नाता तोड़कर, रजाई को एक और फेंककर। एक कोशिश...बस एक कोशिश.....
डॉ. महेश परिमल
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ललित निबंध

गुरुवार, 3 दिसंबर 2015
ललित निबंध - लिखो पाती प्यार भरी
यह डॉ. महेश परिमल की ललित निबंधों की पहली किताब है। जिसे मध्यप्रदेश शासन द्वारा दुष्यंत कुमार स्मृति साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया है। प्रस्तुत निबंध किताब का पहला ललित निबंध है, जिसमें पत्रों की महिमा को बताने की एक कोशिश की गई है -
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ललित निबंध

बुधवार, 2 दिसंबर 2015
देश में शांति का माहौल
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अभिमत

महाभारत कथा भाग - 13
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महाभारत कथा भाग - 12
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महाभारत कथा भाग - 11
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महाभारत कथा भाग - 10
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महाभारत कथा भाग - 9
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महाभारत कथा भाग - 8
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महाभारत कथा भाग - 7
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महाभारत कथा भाग - 6
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महाभारत कथा भाग - 5
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महाभारत कथा भाग - 4
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महाभारत कथा भाग - 3
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महाभारत कथा भाग - 2
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महाभारत कथा भाग - 1
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मंगलवार, 1 दिसंबर 2015
राजेन्द्र निशेश की कुछ कविताऍं -
राजेन्द्र निशेश ने अपनी कविताओं में कोमल भावनाओं को उकेरा है। आप भी इन कविताओं का आनंद लीजिए -
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खिलखिलाती प्रकृति का अट्टहास
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लेख

सोमवार, 30 नवंबर 2015
असंभव है राइट टू एजुकेशन एक्ट को अमल में लाना
डॉ. महेश परिमल
इस सच से कोई इंकार कर ही नहीं सकता कि सरकार के सभी निर्णय प्रजा के हित में ही होते हैं। यह भी सच है कि अदालत के सभी निर्णय अमल में लाने लायक होते हैं। हमारे देश में बाल विवाह पर रोक लगी है, इसके बाद भी देश भर में बाल विवाह हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने द्विचक्रीय वाहनों के चालकों को हेलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया है, उसके बाद भी लाखों लोग बिना हेलमेट के वाहन चला रहे हैं। इससे यातायात पुलिस की कमाई बढ़ गई है। राइट टू एजेकेशन के मामले में भी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि अब उसके पास यह क्षमता नहीं है कि वह गरीब वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके। सरकार की इसी कमजोरी का लाभ निजी शिक्षण संस्थाएं उठा रही हैं। आज ये संस्थाएं पालकों को लूटने का साधन बन गई हैं। शिक्षा का व्यवसायीकरण भी इसी कारण हो गया है। समाज में भी आज पालक अपने बच्चों के लिए मोटी रािश की फीस देकर गौरवान्वित होते हैं। समाज की यही प्रवृत्ति आज गरीब-अमीर के बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। जब तक समाज की यह प्रवृत्ति नही बदल जाती, तब तक आरटीआई जैसे कई कानून आ जाएं, शिक्षा की स्थिति बदलने वाली नहीं है। इस स्थिति में शिक्षा का उद्धार तो संभव ही नहीं है।
केंद्र सरकार ने 2009 में राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने इसका अनुमोदन कर दिया। इस कारण देश के सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल जाएगी और उनके लिए निजी शालाओं के दरवाजे खुल जाएंगे। यह मानना गलत होगा। आरटीआई के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। एक बाधा तो स्वयं सरकार है। एक अंदाज के अनुसार देश के सभी गरीब बच्चों को निजी शालाओं में मु त शिक्षा देनी हो, तो सरकार को उसके पीछे हर वर्ष 2.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। अभी सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर वर्ष 21 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया है। इसका उपयोग राज्य सरकारों की निष्क्रियता के कारण नहीं हो पा रहा है। हमारी सरकार बरसों तक इस सपने के साथ जीवित है कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की जवाबदारी सरकार की है। इस समझ के आधार पर सरकार द्वारा गांव और शहरों में लाखों की सं या में प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं बनवाई और उसके संचालन के लिए अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इसके अलावा सरकार हजारों निजी शिक्षण संस्थाओं को ग्रांट देकर उसे जिंदा रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। एक तरफ सरकारी स्कूलों एवं सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की हालत और गुणतत्ता लगातार बिगड़ रही है, तो दूसरी तरफ ऐसी निजी शिक्षण संस्थाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो सरकार से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेती। सरकारी स्कूलों से गरीब और मध्यम वर्ग का विश्वास इस कदर उठ गया कि भले ही कर्ज लेना पड़े, पर बच्चों को निजी संस्थाओं से ही शिक्षा दिलवानी है। इस कारण ऐसी शालाओं को और भी बल मिला, वह मनमाने डोनेशन और फीस लेकर बच्चों को शिक्षा देने लगी। इससे शिक्षा का एक समानांतर अर्थतंत्र खड़ा हो गया। सरकारी संस्थाओं के शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के मामले में सरकारी तंत्र पूरी तरह से विफल साबित हुआ। उनका आत्मविश्वास इतना गिर गया कि वे गरीब बच्चे भी निजी शालाओं में पढ़ सकें, इसके लिए सरकार को राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाना पड़ा।
सभी निजी शालाओं में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्रवेश देने का आदेश सुप्रीमकोर्ट ने दिया, सरकार ने इसे अमल में लाने का बीड़ा उठाया। इससे सरकार की ही फजीहत हुई। यदि सरकारी शालाओं में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता बेहतर होती, तो क्या गरीब और मध्यम वर्ग के पालकों को मोटी राशि की फीस देकर निजी शालाओं में पढ़ाने की आवश्यकता होती? सुप्रीमकोर्ट के आदेश में निजी शालाओं के संचालकों को चिंतित कर दिया है। इसमें भी कुछ शाला संचालक ऐसे हैं जो इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में केवल उच्च पदस्थ अधिकारियों एवं ऐश्वर्यशाली लोगों की संतानें ही शिक्षा प्राप्त करती हैं। इसके लिए वे उन पालकों से मोटी रकम भी वसूलते हैं। आज भी यदि कोई निजी शाला शुरू करता है, तो उसका उद्देश्य केवल धन कमाना ही होता है। ऐसे में संचालक यदि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को अपनी शाला में प्रवेश देते हैं, तो एक पॉश स्कूल के रूप में बनाई गई छवि दागदार हो जाएगी। इससे उनका मुनाफा कम हो जाएगा। ऐसे में इन बच्चों की शिक्षा का भार उन धनाढ्य बच्चों के पालकों पर आ जाएगा, जिनके बच्चे उन शालाओं में शिक्षा प्राप्त करते हैं। पालकों की चिंता वाजिब है, क्योंकि शाला का मुनाफा घटेगा, तो उसकी भरपाई शाला के अन्य बच्चों से ही तो होगी। आज पॉश शालाओं के संचालकों ने अपनी स्कूल की छबि एक हाईप्रोफाइल स्कूल के रूप में तैयार की है, तो यह उनके धंधे के लिए अच्छी नीति हो सकती है, पर इससे उनकी शाला में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता सुधर जाएगी, यह आवश्यक नहीं है। न तो सरकार यह समझने को तैयार है और न ही शाला संचालक कि शिक्षा कभी बेची नही जाती। आज पॉश स्कूलों के संचालक इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में श्रेष्ठीजन की संतानों को ही शाला में प्रवेश दिया जाता है। शाला संचालक के इस अहंकार में पालकों का ाी अहंकार शामिल है, इसी कारण वे शाला को मनचाही फीस और डोनेशन देने में नहीं हिचकते। इस कारण वे कभी नहीं चाहेंगे कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को भी उसी शाला में प्रवेश मिले, जहां उनकी संतानें शिक्षा प्राप्त करती हैं। इससे उनके अहम को चोट भी लग सकती है। पर वे यह भूल जाते हैं कि उसी शाला में भ्रष्ट व्यापारी, अधिकारी, नेता, मंत्री और तस्कर, माफियाओं के बच्चे भी शिक्षा प्राप्त कर रहे होते हैं। इनके कुसंस्कार से उनके बच्चे भी तो प्रभावित हो सकते हैं। इसीलिए यह मानना आवश्यक नहीं है कि जिन शालाओं की फीस मोटी होती है, उन्हीं शालाओं के विद्यार्थियों का स्तर ऊंचा होता है।
निजी शाला संचालकों को यह भय है कि 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को अनिवार्य शिक्षा के तहत प्रवेश दिए जाने पर उनकी फीस का भुगतान उन्हें ही करना होगा। सच्चाई यह है कि आरटीआई के तहत इन बच्चों की फीस सरकार को ही चुकाना है। अब यह बात अलग है कि सरकार के पास अपनी ही शालाओं को देने वाले ग्रांट के लिए धन नहीं है, तब वह निजी शाला संचालकों को किस तरह से गरीब बच्चों की फीस चुका पाएगी। एक अंदाज के मुताबिक यदि देश भर में आरटीआई एक्ट को अमल में लाया जाए, तो सरकार को उसके पीछे 2.3 लाख करोड़ करने होंगे। केंद्र और राज्य सरकार मिलकर अब तक 21 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है। बाकी की राशि कैसे और कहां से आएगी,इसका खुलासा सरकार नहीं कर रही है। आरटीआई के तहत स्कूल में विद्यार्थी और शिक्षकों का गुणोत्तर 30:1 होना चाहिए, आज 60 प्रतिशत शालाएं ऐसी हैं, जो इसे नहीं मानतीं। इस अमल में लाया जाए, तो उन्हें और शिक्षकों की भर्ती करनी होगी यानी और अधिक खर्च करना होगा। आज देश में आधुनिक शिक्षा प्राप्त शिक्षकों की कमी को देखते हुए शाला संचालक ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। राइट टू एजुकेशन एक्ट आदर्श रूप में एक नायाब कानून है, पर सभी आदर्श व्यवहार में लाएं जाएं, यह आवश्यक नहीं है। आरटीआई की भावना ऐसी है कि गरीब और अमीर बच्चे एक साथ स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें और अपने घर के करीब की ही शाला में जाएं। यह सच्चाई तभी संभव है, जब सभी शालाओं में उत्तम शिक्षकों की व्यवस्था हो। श्रेष्ठ सुविधाओं से युक्त हो। सभी स्कूलों में गुणवत्तायुक्त शिक्षा दी जाती हो। यह आदर्श स्थिति निकट भविष्य में हमारे देश में देखने को मिलेगी, ऐसा नहीं लगता। जब तक यह स्थिति साकार नहीं होती, तब तक धनाढ्य वर्ग के बच्चों के पालक मोटी रकम देकर अपने बच्चों को निजी शालाओं में भेजते रहेंगे। कोई भी कानून नागरिकों और समाज के सहयोग के बिना सफल हो ही नहीं सकता। देखना यह है कि सरकार का यह आरटीआई किस हद तक गरीब और मध्यम वर्ग को राहत दे सकता है।
इस सच से कोई इंकार कर ही नहीं सकता कि सरकार के सभी निर्णय प्रजा के हित में ही होते हैं। यह भी सच है कि अदालत के सभी निर्णय अमल में लाने लायक होते हैं। हमारे देश में बाल विवाह पर रोक लगी है, इसके बाद भी देश भर में बाल विवाह हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने द्विचक्रीय वाहनों के चालकों को हेलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया है, उसके बाद भी लाखों लोग बिना हेलमेट के वाहन चला रहे हैं। इससे यातायात पुलिस की कमाई बढ़ गई है। राइट टू एजेकेशन के मामले में भी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि अब उसके पास यह क्षमता नहीं है कि वह गरीब वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके। सरकार की इसी कमजोरी का लाभ निजी शिक्षण संस्थाएं उठा रही हैं। आज ये संस्थाएं पालकों को लूटने का साधन बन गई हैं। शिक्षा का व्यवसायीकरण भी इसी कारण हो गया है। समाज में भी आज पालक अपने बच्चों के लिए मोटी रािश की फीस देकर गौरवान्वित होते हैं। समाज की यही प्रवृत्ति आज गरीब-अमीर के बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। जब तक समाज की यह प्रवृत्ति नही बदल जाती, तब तक आरटीआई जैसे कई कानून आ जाएं, शिक्षा की स्थिति बदलने वाली नहीं है। इस स्थिति में शिक्षा का उद्धार तो संभव ही नहीं है।
केंद्र सरकार ने 2009 में राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने इसका अनुमोदन कर दिया। इस कारण देश के सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल जाएगी और उनके लिए निजी शालाओं के दरवाजे खुल जाएंगे। यह मानना गलत होगा। आरटीआई के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। एक बाधा तो स्वयं सरकार है। एक अंदाज के अनुसार देश के सभी गरीब बच्चों को निजी शालाओं में मु त शिक्षा देनी हो, तो सरकार को उसके पीछे हर वर्ष 2.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। अभी सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर वर्ष 21 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया है। इसका उपयोग राज्य सरकारों की निष्क्रियता के कारण नहीं हो पा रहा है। हमारी सरकार बरसों तक इस सपने के साथ जीवित है कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की जवाबदारी सरकार की है। इस समझ के आधार पर सरकार द्वारा गांव और शहरों में लाखों की सं या में प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं बनवाई और उसके संचालन के लिए अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इसके अलावा सरकार हजारों निजी शिक्षण संस्थाओं को ग्रांट देकर उसे जिंदा रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। एक तरफ सरकारी स्कूलों एवं सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की हालत और गुणतत्ता लगातार बिगड़ रही है, तो दूसरी तरफ ऐसी निजी शिक्षण संस्थाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो सरकार से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेती। सरकारी स्कूलों से गरीब और मध्यम वर्ग का विश्वास इस कदर उठ गया कि भले ही कर्ज लेना पड़े, पर बच्चों को निजी संस्थाओं से ही शिक्षा दिलवानी है। इस कारण ऐसी शालाओं को और भी बल मिला, वह मनमाने डोनेशन और फीस लेकर बच्चों को शिक्षा देने लगी। इससे शिक्षा का एक समानांतर अर्थतंत्र खड़ा हो गया। सरकारी संस्थाओं के शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के मामले में सरकारी तंत्र पूरी तरह से विफल साबित हुआ। उनका आत्मविश्वास इतना गिर गया कि वे गरीब बच्चे भी निजी शालाओं में पढ़ सकें, इसके लिए सरकार को राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाना पड़ा।
सभी निजी शालाओं में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्रवेश देने का आदेश सुप्रीमकोर्ट ने दिया, सरकार ने इसे अमल में लाने का बीड़ा उठाया। इससे सरकार की ही फजीहत हुई। यदि सरकारी शालाओं में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता बेहतर होती, तो क्या गरीब और मध्यम वर्ग के पालकों को मोटी राशि की फीस देकर निजी शालाओं में पढ़ाने की आवश्यकता होती? सुप्रीमकोर्ट के आदेश में निजी शालाओं के संचालकों को चिंतित कर दिया है। इसमें भी कुछ शाला संचालक ऐसे हैं जो इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में केवल उच्च पदस्थ अधिकारियों एवं ऐश्वर्यशाली लोगों की संतानें ही शिक्षा प्राप्त करती हैं। इसके लिए वे उन पालकों से मोटी रकम भी वसूलते हैं। आज भी यदि कोई निजी शाला शुरू करता है, तो उसका उद्देश्य केवल धन कमाना ही होता है। ऐसे में संचालक यदि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को अपनी शाला में प्रवेश देते हैं, तो एक पॉश स्कूल के रूप में बनाई गई छवि दागदार हो जाएगी। इससे उनका मुनाफा कम हो जाएगा। ऐसे में इन बच्चों की शिक्षा का भार उन धनाढ्य बच्चों के पालकों पर आ जाएगा, जिनके बच्चे उन शालाओं में शिक्षा प्राप्त करते हैं। पालकों की चिंता वाजिब है, क्योंकि शाला का मुनाफा घटेगा, तो उसकी भरपाई शाला के अन्य बच्चों से ही तो होगी। आज पॉश शालाओं के संचालकों ने अपनी स्कूल की छबि एक हाईप्रोफाइल स्कूल के रूप में तैयार की है, तो यह उनके धंधे के लिए अच्छी नीति हो सकती है, पर इससे उनकी शाला में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता सुधर जाएगी, यह आवश्यक नहीं है। न तो सरकार यह समझने को तैयार है और न ही शाला संचालक कि शिक्षा कभी बेची नही जाती। आज पॉश स्कूलों के संचालक इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में श्रेष्ठीजन की संतानों को ही शाला में प्रवेश दिया जाता है। शाला संचालक के इस अहंकार में पालकों का ाी अहंकार शामिल है, इसी कारण वे शाला को मनचाही फीस और डोनेशन देने में नहीं हिचकते। इस कारण वे कभी नहीं चाहेंगे कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को भी उसी शाला में प्रवेश मिले, जहां उनकी संतानें शिक्षा प्राप्त करती हैं। इससे उनके अहम को चोट भी लग सकती है। पर वे यह भूल जाते हैं कि उसी शाला में भ्रष्ट व्यापारी, अधिकारी, नेता, मंत्री और तस्कर, माफियाओं के बच्चे भी शिक्षा प्राप्त कर रहे होते हैं। इनके कुसंस्कार से उनके बच्चे भी तो प्रभावित हो सकते हैं। इसीलिए यह मानना आवश्यक नहीं है कि जिन शालाओं की फीस मोटी होती है, उन्हीं शालाओं के विद्यार्थियों का स्तर ऊंचा होता है।
निजी शाला संचालकों को यह भय है कि 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को अनिवार्य शिक्षा के तहत प्रवेश दिए जाने पर उनकी फीस का भुगतान उन्हें ही करना होगा। सच्चाई यह है कि आरटीआई के तहत इन बच्चों की फीस सरकार को ही चुकाना है। अब यह बात अलग है कि सरकार के पास अपनी ही शालाओं को देने वाले ग्रांट के लिए धन नहीं है, तब वह निजी शाला संचालकों को किस तरह से गरीब बच्चों की फीस चुका पाएगी। एक अंदाज के मुताबिक यदि देश भर में आरटीआई एक्ट को अमल में लाया जाए, तो सरकार को उसके पीछे 2.3 लाख करोड़ करने होंगे। केंद्र और राज्य सरकार मिलकर अब तक 21 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है। बाकी की राशि कैसे और कहां से आएगी,इसका खुलासा सरकार नहीं कर रही है। आरटीआई के तहत स्कूल में विद्यार्थी और शिक्षकों का गुणोत्तर 30:1 होना चाहिए, आज 60 प्रतिशत शालाएं ऐसी हैं, जो इसे नहीं मानतीं। इस अमल में लाया जाए, तो उन्हें और शिक्षकों की भर्ती करनी होगी यानी और अधिक खर्च करना होगा। आज देश में आधुनिक शिक्षा प्राप्त शिक्षकों की कमी को देखते हुए शाला संचालक ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। राइट टू एजुकेशन एक्ट आदर्श रूप में एक नायाब कानून है, पर सभी आदर्श व्यवहार में लाएं जाएं, यह आवश्यक नहीं है। आरटीआई की भावना ऐसी है कि गरीब और अमीर बच्चे एक साथ स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें और अपने घर के करीब की ही शाला में जाएं। यह सच्चाई तभी संभव है, जब सभी शालाओं में उत्तम शिक्षकों की व्यवस्था हो। श्रेष्ठ सुविधाओं से युक्त हो। सभी स्कूलों में गुणवत्तायुक्त शिक्षा दी जाती हो। यह आदर्श स्थिति निकट भविष्य में हमारे देश में देखने को मिलेगी, ऐसा नहीं लगता। जब तक यह स्थिति साकार नहीं होती, तब तक धनाढ्य वर्ग के बच्चों के पालक मोटी रकम देकर अपने बच्चों को निजी शालाओं में भेजते रहेंगे। कोई भी कानून नागरिकों और समाज के सहयोग के बिना सफल हो ही नहीं सकता। देखना यह है कि सरकार का यह आरटीआई किस हद तक गरीब और मध्यम वर्ग को राहत दे सकता है।
डॉ. महेश परिमल
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डॉ. महेश परिमल - एक लहर की गुजारिश
डॉ. परिमल के इस लेख में भोपाल के बड़े तालाब की एक लहर की गुजारिश को कोमल संवेदनाओं के साथ प्रस्तुत करने की एक अनूठी पहल देखने को मिलती है -
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नल-दमयन्ती की अमर प्रेम कथा
राजा नल और दमयन्ती के नाम से हम सभी परिचित हैं। उनके प्रेम प्रसंग से संबंधित पौराणिक कथा को यहॉं प्रस्तुत किया जा रहा है -
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बुधवार, 25 नवंबर 2015
बाल कहानी - बिना गणित का शहर
गणित विषय से नफरत करनेवाला लल्लू पहूँच गया बिना गणित के शहर में। पहले तो काफी खुश हुआ लेकिन धीरे-धीरे परेशानियॉं बढ़ने लगी और वह दुखी हो गया। क्यों, कैसे आदि सवालों के जवाब जानिए इस बाल कहानी के माध्यम से -
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ईश्वर की पाती हमारे नाम
जब इंसान अपनी भागती-दौड़ती दिनचर्या में इतना अधिक व्यस्त हो जाता है कि स्वयं के लिए भी समय नहीं निकाल पाता है, तो ईश्वर को भी एक पत्र द्वारा अपनी बात उस तक पहुँचानी पड़ती है, किस तरह से, वो आप ही सुन लीजिए -
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मंगलवार, 24 नवंबर 2015
फिल्म अभिनेत्री शर्मिला टैगोर के बारे में -
एक संवेदनशील अभिनेत्री के रूप में शर्मिला टैगोर की बंगला और हिंदी सिनेमा जगत में अपनी एक अलग पहचान रही है।
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महाशक्तियों की अवैध संतान है आतंकवाद
डॉ. महेश परिमल
लम्बे समय से भारत पाकिस्तान द्वारा प्रायाेजित आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाज उठाता रहा है। पर अमेरिका एवं अन्य देशों ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। इस समय जब फ्रांस में हुए आतंकी हमले के बाद रुस के साथ मिलकर फ्रांस ने सीरिया में जो तबाही मचाई है, उसके बाद यह उम्मीद बंधती है कि अब भारत के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार होगा। वेसे देखा जाए, तो आतंकवाद सत्तालोलुप महाशक्तियों की अवैध संतान का ही एक रूप है। इस समय आतंकवाद को पुन: परिभाषित करने की मांग उठ रही है। ऐसे में आतंकवाद पर विचार करते समय यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि सत्तारूढ़ दल के खिलाफ यदि विद्राेह किया जाए, तो उसे क्रांति कहा जाए या आतंकवाद। अक्सर ऐसा होता है कि शासकों द्वारा किए गए अत्याचारों के खिलाफ जब आवाज उठाई जाती है, विरोध किया जाता है, तब शासक इसे आतंक या विद्रोह की संज्ञा देते हैं, पर एक लम्बे संघर्ष के बाद विरोधी शक्तियां जीत जाती हैं, तो पहले किए गए उनके विद्रोह को क्रांति कहा जाता है। इसलिए आतंकवाद की परिभाषा मुश्किल है। आज हम भगतसिंह, चंद्रशेखर, सुभाष चंद्र बोस को भले की क्रांतिकारी कहें, पर अंग्रेज उन्हें क्रांतिकारी न मानकर हमेशा आतंकवादी ही मानते रहे। इसलिए जो शासक पक्ष की दृष्टि में आतंक है, वह कथित आतंकियों की दूष्टि में एक क्रांति है। आज फ्रांस ने रुस के साथ मिलकर आईएसआईएस के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए सीरिया पर हमला कर दिया है। अभी फ्रांस भले ही इस लड़ाई में रुस का साथ ले रहा हो, पर उसने यूरोपियन यूनियन से आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया है। अगले सप्ताह होने वाली यूरोपियन यूनियन की बैठक में यह मुद्दा विशेष रूप से उछलेगा। यदि इस बैठक में कोई महत्वपूर्ण निर्णय ले लिया जाता है, तो निश्चित रूप में आतंकवाद पर अंकुश रखने के लिए एक भूमिका तैयार हो ही जाएगी। ऐसा होने से यूरोप की संयुक्त सेना सीरिया के मोर्चे पर आईएस का सामना करेगी। इस दौरान आईएस ने अपने नए वीडियो में अमेरिका, यूरोप के देशों को शोषक, साम्राज्यवादी और अपना हित साधने वाला बताया है। यह भी तय है कि उपरोक्त सभी देश इस्लाम विरोधी होने के कारण आईएस इनका सामना करता रहेगा। अभी आईएस के निशाने पर वाशिंगटन और रुस हैं, इन पर हमले की चेतावनी भी उसने दी है। पहले भी वह इस तरह की धमकी देता रहा है, पर पेरिस पर हुए हमले के बाद अब इसे गंभीरता से लिया जा रहा है।
फ्रांस पर हमले के बाद जी 20 की बैठक में भी आर्थिक मामलों के बदले आतंकवाद का मुद्दा छाया रहा। एक बार फिर भारत को अपने पुराने आतंकवाद विरोधी प्रस्ताव काे याद दिलाने का मौका मिला है। इसके पहले भी भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में आतंकवाद के संबंध में वैश्विक स्तर पर उठाने का प्रयास कर चुका है। विडम्बना यह है कि अमेरिका और यूरोप समेत कई देश आतंकवाद का शिकार होने के बाद भी आतंकवाद पर वैश्विक स्तर पर व्याख्या करने की कोशिश तक नहीं हुई। आतंकवाद किसे कहा जाए, यह एक गंभीर प्रश्न है। स्थापित सत्ता के खिलाफ आवाजें उठती ही रहती हैं। सत्ता के खिलाफ हथियार उठाना यदि आतंकवाद है, तो आवाज उठाने वाले इसे गुलामी की जंजीरें तोड़ना बताते हैं। आजादी प्राप्त करने का एक हथियार है सशस्त्र विरोध। इसलिए आतंकवाद की व्याख्या करते समय इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है कि सशस्त्र विरोध किन हालात में हुआ? एक की नजर में जो आतंकवाद है, दूसरे की नजर में वही गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए की गई क्रांति। इसके बाद भी यह तय है कि आतंकवाद के खिलाफ पूरा विश्व कभी भी एकजुट हो ही नहीं सकता। इसका मुख्य कारण यही है कि जो एक देश के लिए आतंकवाद है, वही दूसरे देश के लिए आजादी की लड़ाई है। यदि यह न भी हो, तो अंतत: वैश्विक राजनीति का एक हिस्सा तो है ही। उदाहरण के रूप में पाकिस्तान भारत के साथ हमेशा दुश्मनी बनाए रखता है, इसके लिए वह आतंक का सहारा भी लेता है, स्पष्ट है कि आतंकवाद के नाम पर वह भारत को हमेशा परेशान करता है और करता रहेगा। सऊदी अरब का एक चेहरा बहुत ही सीधा-सादा है, जिसमें वह आतंकवाद का विरोध करता दिखाई देता है। पर दूसरी ओर वही आतंकवादियों को हरसंभव मदद भी करता है। यही ईरान भी कर रहा है। क्योंकि यह दोनों देशों ने अपने आप को िशया और सुन्नी के धार्मिक रक्षक घोषित कर रखा है। हालात जब ऐसे हों, तो बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? इससे ही भारत ने संयुक्तराष्ट्र संघ में सीसीआईटी (काम्प्रेहोन्सेव कन्वेशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म) प्रस्ताव लाने का प्रयास किया है। भारत का लक्ष्य पाकिस्तान और उससे जुड़े आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक को-ऑपरेशन के रूप में पहचाने जाते मुस्लिम देशों का संगठन है, जो भारत में कार्यरत आतंकवादियों को शरण दे रहा है। सीसीआईटी का प्रस्ताव पारित होने से आतंकवाद की
व्याख्या स्पष्ट होगी और आतंकी समूहों पर कार्रवाई करने की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा। इसके बाद भी ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका भारत के इस प्रस्ताव को पारित होने देगा। आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने में अमेरिका इसलिए खिलाफ है, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब से आतंकवाद ने अपने पैर पसारने शुरू किए हैं, उसके पीछे अमेरिका और यूरोपीय देशों की कुत्सित विचारधारा ही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में अपना एकछत्र राज स्थापित करने के लिए अमेरिका और रुस जैसी महाशक्तियों के बीच होड़ जम गई, इसी के साथ दोनों देशों के बीच शीत युद्ध शुरू हो गया। दोनों देशों में अणु शस्त्रों के भंडार करने शुरू कर दिए। पूरा विश्व पूंजीनिवेशवाद और साम्यवाद की तर्ज पर छावनी में विभक्त हो गया। इस शीतयुद्ध के दौरान रुस समर्थक देशों में क्यूबा, उत्तर कोरिया, वियेतनाम आदि देशों को अमेरिका आतंकखोर देश लगता था। अमेरिका ने इन सभी देशों के खिलाफ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से युद्ध शुरू कर दिया। रुस के विघटन के साथ ही शीतयुद्ध की समाप्ति हो गई। इस दौरान अमेरिका ने स्थानीय यहूदीलॉबी को राजी रखने के लिए अरब विरुद्ध इजरायल के जंग में इजरायल की खूब मदद की। परिणामस्वरूप अलग-थलग पड़े अरब राष्ट्रों ने इजरायल को सबक सिखाने के लिए और उसे गोद में बिठाने वाले अमेरिका के खिलाफ आतंकवादी संगठन तैयार किए। ब्लेक सेप्टेम्बर समेत अन्य कई संगठनों ने जिस तरह से आतंक मचाया, उसके पीछे मुख्य रूप से अमेरिका ही जवाबदार था। 80 के दशक में रशिया के सहयोग से अफगानिस्तान में काफी खून-खराबा हुआ। अफगानिस्तान में अपने पांव पसारने के लिए अमेरिका और रुस दोनों ने ही अपने-अपने समर्थक देशों को मैदान मं उतारा। उस समय रुस के िखलाफ लड़ने वाले देशों को नार्दन एलायंस तालिबान के रूप में पहचाना जाता था। इसी तालिबान को अमेरिका ने भारी मात्रा में शस्त्र और आर्थिक रूप से सहायता की थी। समय के साथ ही तालिबान ने अलकायदा को जन्म दिया और आज वही अल कायदा अमेरिका के लिए खतरा बन गया है। इसके अलावा आज जो इस्लामिक स्टेट्स आफ ईराक एंड सीरिया पूरे देश का ध्यान खींच रहा है, वह भी अमेिरकी करतूतों का ही परिणाम है। अमेरिका की नीति मुख्य रूप से खनिज तेल की प्राप्ति के आसपास घूमती रहती है। विकास की प्रेरक शक्ति के रूप में खनिज तेल का महत्व अच्छी तरह से समझने वाले अमेरिका ने तेल से भरपूर वाले देशों को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। उदाहरण के रूप में सऊदी अरब इस समय खनिज तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है। ये अमेरिका का हितैषी है। इसके बाद भी यह देश इस्लामिक विश्व में सबसे प्रभावशाली माना जाता है। 9/11 के हमले के बाद सऊदी अरब द्वारा मदरसों को धार्मिक कारणों से दी जाने वाली मदद के नाम पर दी जाने वाली राशि आतंकियों तक पहुंचने की जानकारी हाथ लगी। इससे अमेरिका सचेत हो गया, अब उसने सऊदी अरब पर कड़ी नजर रखनी शुरू कर दी है। उधर सुन्नी देश सऊदी अरब को काबू में रखने के लिए अमेरिका ने अपनी कट्टर शत्रुता भुलाकर शिया देश ईरान को हवा देने की नीति अपनाई। ईरान के साथ ही अमेरिका के संबध खनिज तेल के कारण ही बिगड़ते रहे हैं। 80 के दशक में अयातुल्ला खुमैनी ने अमेरिकी कंपनियों के आदेश की परवाह न करते हुए उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया। ईरान के शाह रजा पहलवी को अमेरिका की शरण लेनी पड़ी। तब से दोनों देशों के बीच कट्टर शत्रुता का सूत्रपात हुआ। अमेरिका की यह नीति है कि जो देश खनिज तेल से भरपूर हैं, वे उसकी दासता स्वीकार करे, या फिर संघर्ष के लिए तैयार रहें। ईराक में सद्दाम हुसैन ने अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोल था। लिबिया में कर्नल गद्दाफी भी अमेरिका को अपना कट्टर दुश्मन मानता था। सीरिया में बशर अल असद की सरकार ने भी अमेरिकी कंपनियों के उस आदेश का विरोध किया था, जिसमें खनिज तेल की कीमत लिबिया नहीं, बल्कि अमेरिकी कंपनियां तय करेंगी। इससे अमेरिका ने वहां आंतरिक विद्रोेह को जगा दिया और कर्नल गद्दाफी को भी मरवा दिया। ईरान में सद्दाम हुसैन का भी खात्मा करवा दिया। सीरिया में बशर अल असद का तख्तापलट हो रहा था, तब वहां आईएस का तूफान आ खड़ा हुआ। वास्तव यह आईएस सद्दाम हुसैन के वही साथी हैं, जिनके पास कोई काम नहीं था और अमेरिका से बदला लेना चाहते हैं। इनके पास सशस्त्र संसाधन हैं, इसलिए अल कायदा ने उसे अपनी तरफ से सहायता की। ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद अल कायदा कमजोर होने लगा था, इसलिए अल बगदादी के नेतृत्व में आईएस ने अपना जाल फैलाया। आज उसी आईएस अमेरिका समेत कई देश परेशान हैं। दरअसल तो इन सभी देशों की सीमाहीन सत्तालोलुपता, विस्तारवाद और अतिशय शोषणखोरी के कारण ही आतंकवाद का जन्म होता रहा है। चोर के घर में मुंह छिपाकर रोने वाली कहावत अमेरिका एवं यूरोपीय देशों पर सही उतरती है। अब जब उस पर आतंकी हमला हुआ है, तब वह समझ रहा है कि आतंकवाद खराब है। इसके पहले भारत ने कई बार आतंकवाद पर अपना रोना रोया था, तब उस पर कोई असर नहीं हुआ। आज वही आतंकवाद को कोसने में सबसे आगे है।
डॉ. महेश परिमल
लम्बे समय से भारत पाकिस्तान द्वारा प्रायाेजित आतंकवाद के खिलाफ अपनी आवाज उठाता रहा है। पर अमेरिका एवं अन्य देशों ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। इस समय जब फ्रांस में हुए आतंकी हमले के बाद रुस के साथ मिलकर फ्रांस ने सीरिया में जो तबाही मचाई है, उसके बाद यह उम्मीद बंधती है कि अब भारत के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार होगा। वेसे देखा जाए, तो आतंकवाद सत्तालोलुप महाशक्तियों की अवैध संतान का ही एक रूप है। इस समय आतंकवाद को पुन: परिभाषित करने की मांग उठ रही है। ऐसे में आतंकवाद पर विचार करते समय यह सोचना आवश्यक हो जाता है कि सत्तारूढ़ दल के खिलाफ यदि विद्राेह किया जाए, तो उसे क्रांति कहा जाए या आतंकवाद। अक्सर ऐसा होता है कि शासकों द्वारा किए गए अत्याचारों के खिलाफ जब आवाज उठाई जाती है, विरोध किया जाता है, तब शासक इसे आतंक या विद्रोह की संज्ञा देते हैं, पर एक लम्बे संघर्ष के बाद विरोधी शक्तियां जीत जाती हैं, तो पहले किए गए उनके विद्रोह को क्रांति कहा जाता है। इसलिए आतंकवाद की परिभाषा मुश्किल है। आज हम भगतसिंह, चंद्रशेखर, सुभाष चंद्र बोस को भले की क्रांतिकारी कहें, पर अंग्रेज उन्हें क्रांतिकारी न मानकर हमेशा आतंकवादी ही मानते रहे। इसलिए जो शासक पक्ष की दृष्टि में आतंक है, वह कथित आतंकियों की दूष्टि में एक क्रांति है। आज फ्रांस ने रुस के साथ मिलकर आईएसआईएस के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए सीरिया पर हमला कर दिया है। अभी फ्रांस भले ही इस लड़ाई में रुस का साथ ले रहा हो, पर उसने यूरोपियन यूनियन से आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया है। अगले सप्ताह होने वाली यूरोपियन यूनियन की बैठक में यह मुद्दा विशेष रूप से उछलेगा। यदि इस बैठक में कोई महत्वपूर्ण निर्णय ले लिया जाता है, तो निश्चित रूप में आतंकवाद पर अंकुश रखने के लिए एक भूमिका तैयार हो ही जाएगी। ऐसा होने से यूरोप की संयुक्त सेना सीरिया के मोर्चे पर आईएस का सामना करेगी। इस दौरान आईएस ने अपने नए वीडियो में अमेरिका, यूरोप के देशों को शोषक, साम्राज्यवादी और अपना हित साधने वाला बताया है। यह भी तय है कि उपरोक्त सभी देश इस्लाम विरोधी होने के कारण आईएस इनका सामना करता रहेगा। अभी आईएस के निशाने पर वाशिंगटन और रुस हैं, इन पर हमले की चेतावनी भी उसने दी है। पहले भी वह इस तरह की धमकी देता रहा है, पर पेरिस पर हुए हमले के बाद अब इसे गंभीरता से लिया जा रहा है।
फ्रांस पर हमले के बाद जी 20 की बैठक में भी आर्थिक मामलों के बदले आतंकवाद का मुद्दा छाया रहा। एक बार फिर भारत को अपने पुराने आतंकवाद विरोधी प्रस्ताव काे याद दिलाने का मौका मिला है। इसके पहले भी भारत संयुक्त राष्ट्र संघ की बैठक में आतंकवाद के संबंध में वैश्विक स्तर पर उठाने का प्रयास कर चुका है। विडम्बना यह है कि अमेरिका और यूरोप समेत कई देश आतंकवाद का शिकार होने के बाद भी आतंकवाद पर वैश्विक स्तर पर व्याख्या करने की कोशिश तक नहीं हुई। आतंकवाद किसे कहा जाए, यह एक गंभीर प्रश्न है। स्थापित सत्ता के खिलाफ आवाजें उठती ही रहती हैं। सत्ता के खिलाफ हथियार उठाना यदि आतंकवाद है, तो आवाज उठाने वाले इसे गुलामी की जंजीरें तोड़ना बताते हैं। आजादी प्राप्त करने का एक हथियार है सशस्त्र विरोध। इसलिए आतंकवाद की व्याख्या करते समय इस बात पर विशेष रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है कि सशस्त्र विरोध किन हालात में हुआ? एक की नजर में जो आतंकवाद है, दूसरे की नजर में वही गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए की गई क्रांति। इसके बाद भी यह तय है कि आतंकवाद के खिलाफ पूरा विश्व कभी भी एकजुट हो ही नहीं सकता। इसका मुख्य कारण यही है कि जो एक देश के लिए आतंकवाद है, वही दूसरे देश के लिए आजादी की लड़ाई है। यदि यह न भी हो, तो अंतत: वैश्विक राजनीति का एक हिस्सा तो है ही। उदाहरण के रूप में पाकिस्तान भारत के साथ हमेशा दुश्मनी बनाए रखता है, इसके लिए वह आतंक का सहारा भी लेता है, स्पष्ट है कि आतंकवाद के नाम पर वह भारत को हमेशा परेशान करता है और करता रहेगा। सऊदी अरब का एक चेहरा बहुत ही सीधा-सादा है, जिसमें वह आतंकवाद का विरोध करता दिखाई देता है। पर दूसरी ओर वही आतंकवादियों को हरसंभव मदद भी करता है। यही ईरान भी कर रहा है। क्योंकि यह दोनों देशों ने अपने आप को िशया और सुन्नी के धार्मिक रक्षक घोषित कर रखा है। हालात जब ऐसे हों, तो बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे? इससे ही भारत ने संयुक्तराष्ट्र संघ में सीसीआईटी (काम्प्रेहोन्सेव कन्वेशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म) प्रस्ताव लाने का प्रयास किया है। भारत का लक्ष्य पाकिस्तान और उससे जुड़े आर्गेनाइजेशन आफ इस्लामिक को-ऑपरेशन के रूप में पहचाने जाते मुस्लिम देशों का संगठन है, जो भारत में कार्यरत आतंकवादियों को शरण दे रहा है। सीसीआईटी का प्रस्ताव पारित होने से आतंकवाद की
व्याख्या स्पष्ट होगी और आतंकी समूहों पर कार्रवाई करने की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा। इसके बाद भी ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका भारत के इस प्रस्ताव को पारित होने देगा। आतंकवाद के खिलाफ एकजुट होने में अमेरिका इसलिए खिलाफ है, क्योंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब से आतंकवाद ने अपने पैर पसारने शुरू किए हैं, उसके पीछे अमेरिका और यूरोपीय देशों की कुत्सित विचारधारा ही है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व में अपना एकछत्र राज स्थापित करने के लिए अमेरिका और रुस जैसी महाशक्तियों के बीच होड़ जम गई, इसी के साथ दोनों देशों के बीच शीत युद्ध शुरू हो गया। दोनों देशों में अणु शस्त्रों के भंडार करने शुरू कर दिए। पूरा विश्व पूंजीनिवेशवाद और साम्यवाद की तर्ज पर छावनी में विभक्त हो गया। इस शीतयुद्ध के दौरान रुस समर्थक देशों में क्यूबा, उत्तर कोरिया, वियेतनाम आदि देशों को अमेरिका आतंकखोर देश लगता था। अमेरिका ने इन सभी देशों के खिलाफ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से युद्ध शुरू कर दिया। रुस के विघटन के साथ ही शीतयुद्ध की समाप्ति हो गई। इस दौरान अमेरिका ने स्थानीय यहूदीलॉबी को राजी रखने के लिए अरब विरुद्ध इजरायल के जंग में इजरायल की खूब मदद की। परिणामस्वरूप अलग-थलग पड़े अरब राष्ट्रों ने इजरायल को सबक सिखाने के लिए और उसे गोद में बिठाने वाले अमेरिका के खिलाफ आतंकवादी संगठन तैयार किए। ब्लेक सेप्टेम्बर समेत अन्य कई संगठनों ने जिस तरह से आतंक मचाया, उसके पीछे मुख्य रूप से अमेरिका ही जवाबदार था। 80 के दशक में रशिया के सहयोग से अफगानिस्तान में काफी खून-खराबा हुआ। अफगानिस्तान में अपने पांव पसारने के लिए अमेरिका और रुस दोनों ने ही अपने-अपने समर्थक देशों को मैदान मं उतारा। उस समय रुस के िखलाफ लड़ने वाले देशों को नार्दन एलायंस तालिबान के रूप में पहचाना जाता था। इसी तालिबान को अमेरिका ने भारी मात्रा में शस्त्र और आर्थिक रूप से सहायता की थी। समय के साथ ही तालिबान ने अलकायदा को जन्म दिया और आज वही अल कायदा अमेरिका के लिए खतरा बन गया है। इसके अलावा आज जो इस्लामिक स्टेट्स आफ ईराक एंड सीरिया पूरे देश का ध्यान खींच रहा है, वह भी अमेिरकी करतूतों का ही परिणाम है। अमेरिका की नीति मुख्य रूप से खनिज तेल की प्राप्ति के आसपास घूमती रहती है। विकास की प्रेरक शक्ति के रूप में खनिज तेल का महत्व अच्छी तरह से समझने वाले अमेरिका ने तेल से भरपूर वाले देशों को अपनी गिरफ्त में ले रखा है। उदाहरण के रूप में सऊदी अरब इस समय खनिज तेल का सबसे बड़ा उत्पादक है। ये अमेरिका का हितैषी है। इसके बाद भी यह देश इस्लामिक विश्व में सबसे प्रभावशाली माना जाता है। 9/11 के हमले के बाद सऊदी अरब द्वारा मदरसों को धार्मिक कारणों से दी जाने वाली मदद के नाम पर दी जाने वाली राशि आतंकियों तक पहुंचने की जानकारी हाथ लगी। इससे अमेरिका सचेत हो गया, अब उसने सऊदी अरब पर कड़ी नजर रखनी शुरू कर दी है। उधर सुन्नी देश सऊदी अरब को काबू में रखने के लिए अमेरिका ने अपनी कट्टर शत्रुता भुलाकर शिया देश ईरान को हवा देने की नीति अपनाई। ईरान के साथ ही अमेरिका के संबध खनिज तेल के कारण ही बिगड़ते रहे हैं। 80 के दशक में अयातुल्ला खुमैनी ने अमेरिकी कंपनियों के आदेश की परवाह न करते हुए उनके खिलाफ विद्रोह कर दिया। ईरान के शाह रजा पहलवी को अमेरिका की शरण लेनी पड़ी। तब से दोनों देशों के बीच कट्टर शत्रुता का सूत्रपात हुआ। अमेरिका की यह नीति है कि जो देश खनिज तेल से भरपूर हैं, वे उसकी दासता स्वीकार करे, या फिर संघर्ष के लिए तैयार रहें। ईराक में सद्दाम हुसैन ने अमेरिका के खिलाफ मोर्चा खोल था। लिबिया में कर्नल गद्दाफी भी अमेरिका को अपना कट्टर दुश्मन मानता था। सीरिया में बशर अल असद की सरकार ने भी अमेरिकी कंपनियों के उस आदेश का विरोध किया था, जिसमें खनिज तेल की कीमत लिबिया नहीं, बल्कि अमेरिकी कंपनियां तय करेंगी। इससे अमेरिका ने वहां आंतरिक विद्रोेह को जगा दिया और कर्नल गद्दाफी को भी मरवा दिया। ईरान में सद्दाम हुसैन का भी खात्मा करवा दिया। सीरिया में बशर अल असद का तख्तापलट हो रहा था, तब वहां आईएस का तूफान आ खड़ा हुआ। वास्तव यह आईएस सद्दाम हुसैन के वही साथी हैं, जिनके पास कोई काम नहीं था और अमेरिका से बदला लेना चाहते हैं। इनके पास सशस्त्र संसाधन हैं, इसलिए अल कायदा ने उसे अपनी तरफ से सहायता की। ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद अल कायदा कमजोर होने लगा था, इसलिए अल बगदादी के नेतृत्व में आईएस ने अपना जाल फैलाया। आज उसी आईएस अमेरिका समेत कई देश परेशान हैं। दरअसल तो इन सभी देशों की सीमाहीन सत्तालोलुपता, विस्तारवाद और अतिशय शोषणखोरी के कारण ही आतंकवाद का जन्म होता रहा है। चोर के घर में मुंह छिपाकर रोने वाली कहावत अमेरिका एवं यूरोपीय देशों पर सही उतरती है। अब जब उस पर आतंकी हमला हुआ है, तब वह समझ रहा है कि आतंकवाद खराब है। इसके पहले भारत ने कई बार आतंकवाद पर अपना रोना रोया था, तब उस पर कोई असर नहीं हुआ। आज वही आतंकवाद को कोसने में सबसे आगे है।
डॉ. महेश परिमल
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आज का सच

सोमवार, 23 नवंबर 2015
गाेपालदास नीरज की कुछ ग़ज़लें
कवि गोपलदास नीरज वे पहले व्यक्ति हैं जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया। पहले पद्म श्री से, उसके बाद पद्म भूषण से। यही नहीं, फ़िल्मों में सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिये उन्हें लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार भी मिला। यहॉं प्रस्तुत हैं उनकी कुछ यादगार ग़ज़लें -
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ग़ज़ल,
दिव्य दृष्टि

गुलज़ार की कुछ कविताऍं -
गुलज़ार नाम से प्रसिद्ध सम्पूर्ण सिंह कालरा हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गीतकार होने के साथ ही साथ एक कवि, पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक हैं। उनकी रचनाऍं मुख्य रूप से पंजाबी, उर्दू तथा हिंदी में हैं। इसके अलावा ब्रजभाषा, हरियाणवी और मारवाड़ी में भी रचनाऍं लिखी हैं। यहॉं उनकी कुछ प्रसिद्ध कविताओं का आनंद लीजिए -
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कविता,
दिव्य दृष्टि

शनिवार, 21 नवंबर 2015
लघुकथाऍं
कुछ शिक्षाप्रद लघुकथाऍं -
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दिव्य दृष्टि,
बाल कहानी

शुक्रवार, 20 नवंबर 2015
सुभद्राकुमारी चौहान की कहानी - हींगवाला
सुभद्राकुमारी चौहान हिंदी की प्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेलयात्रा सहने के पश्चात अपनी अनुभूतियों को कहानी के माध्यम से भी व्यक्त किया। हींगवाला एक ऐसी ही मार्मिक कहानी है। इसमें उन्होंने सहज और सरल भाषाशैली का प्रयोग किया है।
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कहानी,
दिव्य दृष्टि

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की कविताऍं
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' हिंदी कविता के छायावादी यु्ग के प्रमुख चार स्तंभों में से एक माने जाते हैं। अपने समकालीन कवियों से अलग उन्होंने अपनी कविता में कल्पनाशीलता का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिंदी में मुक्त छंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

मैथिलीशरण गुप्त की कविताऍं
मैथिलीशरण गुप्त हिंदी के कवि थे। आपने खडीबोली को एक काव्य भाषा के रूप में निर्मित करने के लिए अथक प्रयास किया। हिंदी कविता के इतिहास में गुप्त जी का सबसे बडा योगदान है। पवित्रता, नैतिकता और परंपरागत मानवीय संबंधों की रक्षा गुप्त जी के काव्य के विशेष गुण हैं।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

गुरुवार, 19 नवंबर 2015
कविता - कुरूक्षेत्र कथा
यह कविता महाभारत की पौराणिक कथा से संबंधित है।
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कविता,
दिव्य दृष्टि

सुभद्राकुमारी चौहान की कविताऍं
हिंदी की सुप्रसिद्ध कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान की कविताओं में उमंग और उत्साह का सतत प्रवाह समाया होता है। आप भी इन कविताओं का आनंद लीजिए -
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कविता,
दिव्य दृष्टि

बुधवार, 18 नवंबर 2015
हरीश परमार की बाल कविताऍं - 3
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता

हरीश परमार की बाल कविताऍं - 2
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता

मंगलवार, 17 नवंबर 2015
बाल कविता - सर्दी आर्इ
सर्दी का मौसम छोटे-बडे् सभी को प्यारा लगता है। रंग-बिरंगे गरम कपडे पहनकर झूमते-गाते बच्च्ो इस मौसम का भरपूर मजा लेते हैं। तो आप भी मजा लीजिए सर्दी से जुडी इस बाल कविता का -
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दिव्य दृष्टि,
बाल कविता

घमंड हारा, सादगी जीती
डॉ. महेश परिमल
बिहार चुनाव के बाद यह साफ हो गया है कि वहां यदि कुछ हारा है, तो वह है
घमंड और जीता है, तो वह है आम आदमी। बिहार की जनता को मूर्ख मानना ही
सबसे बड़ी मूर्खता साबित हुई। बिहार की जनता ने बता दिया कि हम आपका भाषण
सुन तो लेंगे, पर करेंगे वही, जो हम चाहते हैं। बिहार की जनता ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक तरह से आईना दिखा दिया है। 1990 में
लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोका था, इस बार उसने मोदी का
विजयी रथ रोक दिया। आडवाणी का रथ रोके जाने पर सरकार पलट गई थी। पर
नरेंद्र मोदी का रथ रोककर लालू यादव का पूरा परिवार ही किंग मेकर बन गया।
शिकारी को किस तरह से उसके ही जाल में फंसाया जाता है, यह लालू ने इस
चुनाव में बता दिया है। इस जीत से लालू ने कई मरणासन्न लोगों को जीवनदान
दिया है। विशेषकर कांग्रेस को, अब तक कांग्रेस हाशिए पर थी, पर इस जीत से
कांग्रेस में भी जोश आ गया है। वह भी अब खुलकर मोदी का विरोध करने लगी
है। अब तो उसने लालू-नीतिश की सरकार में शामिल होने का भी फैसला ले लिया
है। कांग्रेस के मुंह में हंसते-हंसते मानो बताशा आ गया हो। उसे एक
मोटीवेशनल इंजेक्शन की आवश्यकता थी, जो अब बिहार में भाजपा की करारी हार
से मिल गया है। देश में असहिष्णुता के खिलाफ आंदोलन चलाने वाले एक तरफ
होंगे और सारे विपक्ष एक साथ मोदी सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे, यह तय
है।
बिहार को खोना मोदी सरकार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है। अब तक राज्यसभा
कोई विधेयक पारित करवाने में जितनी परेशानी आती थी, उससे भी अधिक परेशानी
अब आएगी। राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होने के कारण जो फजीहत होगी सो
अलग। अब सानमे आने लगा है कि मोदी आवश्यकता से अधिक आत्मविश्वासी हो गए
थे। बिहारियों को यह बिलकुल भी पसंद नहीं आया कि कोई बाहरी उनके आदमी को
‘इडियट’ कहे। उस समय तो उन्होंने उन्हें सुन लिया, पर समय आने पर अपनी
बात रख दी। इसके अलावा मोदी ने अपने भाषण में जो कुछ कहा, लालू-नीतीश ने
उसे दूसरे ही स्वरूप में जनता के सामने लाया। पेकेज देने के मामले में
मोदी कुछ अधिक ही उदार दिखने लगे थे। जबकि इसके पहले कांग्रेस शासन में
राहुल गांधी कहते थे कि हमने इस राज्य का इतन धन दिया, तो उसके एवज में
मोदी कहते थे कि यह धन क्या उन्हें उनके मामा ने दिया था। देश का धन है,
देश में ही लगाया, तो इसमें कौन-सा बड़प्पन दिेखा रहे हो। यह बात वे बिहार
के लिए पेकेज की घोषणा करते समय भूल गए। उन्होंने जिस तरह से पेकेज की
घोषणा की, उससक लगा कि वे यह राशि अपनी जेब से दे रहे हैं। जबकि वे बिहार
को उसका हक दे रहे थे। वै कोई खैरात नहीं बांट रहे थे। पेकेज का यह पासा
भी उलटा पड़ गया। भाजपा को उसकी यह तिकड़ी भारी पड़ी। मोदी, जेटली और शाह ने
मिलकर जो व्यूह रचना तैयार की थी, वह धूल-धूसरित हो गई। पूरी पार्टी में
इसी तिकड़ी की ही चल रही है। इस आशय की शिकायत गृहममंत्री राजनाथ सिंह ने
संघ प्रमुख से भी की थी। आज भी यह तिकड़ी पूरी पार्टी को दिशा-निर्देश दे
रही है।
भाजपा के लिए यह आत्ममंथन का समय है। आगे चुनाव को देखते हुए उसे अपना
दंभ छोड़ना होगा। न तो अच्छे दिन आए, न आएंगे। क्योंकि अच्छे दिन लाने की
संभावनाएँ होने के बाद भी सरकार ऐसा कुछ नहीं कर पाई, जिससे आम लोगों को
महंगाई से राहत मिले। क्रूड आइल जब सस्ता था, तब जो रािश बची, उसे ही यदि
महंगाई पर अंकुश लगाने में खर्च कर दिया गया होता, तो हालात ऐसे न होते।
महंगाई की मार झेलते हुए चुनाव हुए, तो जनता अपना रोष तो प्रकट करेगी ही।
दालों की महंगी स्थिति को भी काबू करने में सरकार ने ऐसा कोई प्रयास नहीं
किया, जिससे लोगों को राहत मिलती। न मुनाफाखोरों पर कार्रवाई की, न ही
जमाखोरों पर अंकुश लगाया। सभी को खुली छूट मिल गई। भाजपा की काफी बदनामी
हुई, इसे वह भले ही विदेशी षड्यंत्र माने, पर सच तो यह है कि महंगाई से
जूझती जनता के लिए सरकार के कदम नाकाफी थे। विदेश प्रवास कर
प्रधानमंत्री देश की साख बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, पर वे यह भूल रहे
हैं कि देश में ही उनकी साख धूमिल हो रही है। देश में आज जो अराजकता की
स्थिति है, उसे दूर करने के लिए भी ऐसा कुछ नहीं किया, पहले तो उन्हें
अपने ही नेताओं की जबान बंद रखनी थी। इस दौरान भाजपा नेताओं की जबान से
मानों अंगारे निकल रहे हों। कोई लगाम ही नहीं। कुछ भी बोले जा रहा है।
जिसने पार्टी के खिलाफ कुछ भी कहा, नेता उसी को निशाना बनाने लगते हैं।
जरा उसकी सुन तो लेते, कहीं वह सच तो नहीं बोल रहा है। पार्टी में सच
बोलने की सजा बहुत ही सख्त है, यह तो अब तक कांग्रेस में देखा जाता था,
पर लगता है भाजपा ने इसे अपना लिया है।
बिहार एक अनुत्पादक राज्य है। यहां बेरोेजगारी बहुत है। कई ऐसी शकर मिलें
हैं, जो बंद पड़ी हैं। लोग रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में जा रहे
हैं। आज शायद ही कोई ऐसा राज्य हो, जहाँ बिहारी अपनी रोजी-रोटी की तलाश
में न पहुंचे हों। महाराष्ट्र और गुजरात में बिहारियों की भरमार है। इससे
ही बिहार की बेराजगारी का पता चल जाता है। फिर भी बिहार सबको प्यारा है।
इसलिए वोट देने के लिए सुदूर प्रांतों से बिहारियों ने आकर अपना वोट दिया
और इतिहास ही रच डाला। इन्हें अपने क्षेत्र में बुलाने के लिए लालू यादव
ने जो अनुनय-विनती की, उसी के कारण मतदाता एक तरह से उसकी गोद में ही बैठ
गए। समय बड़ा बलवान है, यह भी इस चुनाव से पता चलता है। भाजपा ने यहां भी
अपनी ढुल-मुल नीति जारी रखी। आखिर तक उन्हें मुख्यमंत्री पद के लिए कोई
योग्य उम्मीदवार नहीं मिला। अंदर ही अंदर भाजपा में कलह थी। वह इससे उबर
नहीं पाई। इसके अलावा भाजपाध्यक्ष ने कई ऐसे लोगों को टिकट दे दी, जो
आपराधिक प्रवृत्ति के थे, इससे लोगों को लगा कि यदि ये जीत गए, तो फिर
गुंडागर्दी शुरू हो जाएगी। इसलिए भाजपा को हराया जाए। दूसरी ओर प्रचार के
लिए लोग दिल्ली से बुलाए गए। स्थानीय लोगों की घोर उपेक्षा की गई। इससे
लोगों में भाजपा के प्रति नाराजगी दिखाई दी। दिल्ली में जिस तरह से किरण
बेदी को सामने लाया गया था, एक तरह से वही गलती फिर दोहराई गई। इस बार
उसके पास मुख्यमंत्री का चेहरा ही तय नहीं था। दिल्ली चुनाव से भाजपा को
सबक लेना था, जो वह नहीं ले पाई। भाजपा महागठबंधन की व्यूह रचना को नहीं
समझ पाई। एक तरफ लालू-नीतिश ने बिहार संभाला, तो दिल्ली में भाजपा को
बदनाम करने का काम कांग्रेस ने किया। असहिष्णुता के नाम पर आंदोलन चलाने
में कांग्रेस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उधर अरुण शौरी ने पार्टी को
बदनाम कर दिया। शत्रुघ्न सिन्हा भी अपने बड़बोलेपन के कारण पार्टी को निशा
बनाते रहे हैं। उन्हें पार्टी ने अलग करने का काम भाजपा ने ताक पर रख
दिया। इससे उसकी कमजोरी सामने आ गई। उन्हें चुनाव से दूर रखा गया। अपनी
अवहेलना वे सहन नहीं कर पाए, अब भाजपा की करारी हार के बाद वे खुलकर
नीतिश की प्रशंसा कर रहे हैं।
चुनाव में हार-जीत तो चलती ही रहती है, इसका मतलब यह नहीं हो जाता कि
हारने वाला चुपचाप बैठ जाए। ऐसा लगता है कि भाजपा में अब कीलर इंस्टीक्ट
ढीला पड़ गया है। अरुण शौरी, राम जेठमलानी, शत्रुघ्न सिन्हा जेसे लोगों ने
भाजपा को बदनाम किया। सिन्हा को पार्टी ने अलग करने का मन बना लेने के
बाद भी उसकी घोषणा को ताक पर रख दिया गया। अब तो काफी देर हो गई है।
उन्हें अब पार्टी से निकाला जाता है, तो वे हीरो बन जाएंगे। इस बार भाजपा
को गलत रास्ते पर लाने वाले तमाम कारक जो परिणाम के पहले भाजपा की जीत का
सर्वेक्षण कर रहे थे, वे सभी चारों खाने चित्त हो गए। ज्योतिषियों ने भी
खूब कहा था कि भाजपा को बहुत आगे जाना है, अब वे स्वयं ही अपने लिए
रास्ता तलाश कर रहे हैं। कमल कीचड़ में ही खिलता है, अब भाजपा ऐसा कहना
छोड़कर जो वादे किए हैं, उसके कमल खिलाए, तो लोगों को कुछ राहत मिले।
चुनाव परिणामों ने भाजपा के गाल पर जो तमाचा जड़ा है, उसकी गूंज दूर तक
जानी चाहिए, ताकि सभी को पता चल जाए कि अहंकार का अंत किस तरह से होता
है। देखा जाए, तो इस चुनाव में घमंड हारा है, सादगी की जीत हुई है।
डॉ. महेश परिमल
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सुधा नारायण मूर्ति की कहानी - बंबई से बैंगलूर तक का एक टिकट
जानीमानी समाज सेविका एवं लेखिका सुधा नारायण मूर्ति की यह कहानी मानवीय संवेदना एवं उदारता का परिचय देती है। किसी के आंसूओं को पोंछना और मुस्कान देना ही सच्ची मानवता है। यही हमारा सामाजिक कर्तव्य भी है।
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सोमवार, 16 नवंबर 2015
भीष्म साहनी की कहानी - माता-विमाता
भीष्म साहनी को हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद की परंपरा का अग्रणी लेखक माना जाता है। वे मानवीय मूल्यों के लिए हिमायती रहे और उन्होंने विचारधारा को अपने ऊपर कभी हावी नहीं होने दिया। वामपंथी विचारधारा के साथ जुड़े होने के साथ-साथ वे मानवीय मूल्यों को कभी आंखो से ओझल नहीं करते थे। आपाधापी और उठापटक के युग में भीष्म साहनी का व्यक्तित्व बिल्कुल अलग था। उन्हें उनके लेखन के लिए तो स्मरण किया ही जाएगा लेकिन अपनी सहृदयता के लिए वे चिरस्मरणीय रहेंगे। भीष्म साहनी हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने अभिनेता बलराज साहनी के छोटे भाई थे। उन्हें १९७५ में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, १९७५ में शिरोमणि लेखक अवार्ड (पंजाब सरकार), १९८० में एफ्रो एशियन राइटर्स असोसिएशन का लोटस अवार्ड, १९८३ में सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड तथा १९९८ में भारत सरकार के पद्मभूषण अलंकरण से विभूषित किया गया। उनके उपन्यास तमस पर १९८६ में एक फिल्म का निर्माण भी किया गया था। भीष्म जी एक ऐसे साहित्यकार थे जो बात को मात्र कह देना ही नहीं बल्कि बात की सच्चाई और गहराई को नाप लेना भी उतना ही उचित समझते थे। वे अपने साहित्य के माध्यम से सामाजिक विषमता व संघर्ष के बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ने का आह्वाहन करते थे। उनके साहित्य में सर्वत्र मानवीय करूणा, मानवीय मूल्य व नैतिकता विद्यमान है। प्रस्तुत है, उनकी एक संवेदनशील कहानी...
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शनिवार, 14 नवंबर 2015
ज्ञानप्रकाश विवेक की कविताऍं
आठवें दशक के उत्तरार्ध में उभरे ज्ञानप्रकाश विवेक लोकप्रिय एवं बहुचर्चित रचनाकारों में से एक हैं। यहॉं उनकी कुछ कविताऍं प्रस्तुत की जा रही हैं।
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बुधवार, 11 नवंबर 2015
बाल कहानी - कंचा
कहानीकार टी. पद़मनाभन की यह कहानी कल्पनालोक की सैर कराते हुुए अप्पू की बालसुलभ जिज्ञासा का परिचय देती है।
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शुक्रवार, 6 नवंबर 2015
घाटी से आया ठंडी हवाओं का झोंका
डॉ. महेश परिमल
देश के प्रधानमंत्री की जब चारों तरफ से आलोचना हो रही है। लेखक, बुद्धिजीवी, कलाकार और विपक्ष के नेता आदि सभी उन्हें खुले आम चुनौती दे रहे हों, अपना विरोध प्रकट कर रहे हों, तो ऐसे में यह सोचा जाना भी मूर्खता होगी कि कोई पराया उनकी प्रशंसा भी करेगा। इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा उस अशांत क्षेत्र से की गई है, जो हमेशा दर्शनीय तो रहा है, पर किसी विस्फोटक से कम नहीं। यह क्षेत्र है घाटी, जी हां कश्मीर की घाटी से, वहां के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने प्रधानमंत्री की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। इससे ऐसा लग रहा है कि भयंकर दावानल से घिरे व्यक्ति को ठंडी हवाओं के झोंके मिल रहे हों। सहिष्णुता के मामले पर आज आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू है, ऐसे में घाटी से आई ठंडी हवा राहत दे गई। किसी ने तो सोचा कि वे कुछ अच्छा भी कर रहे हैं। मुफ्ती के बयान से न केवल मोदी बल्कि अन्य लोग भी चौंक गए। सचमुच यह भारतीय राजनीति के इतिहास की बहुत बड़ी घटना है, जब किसी ने संकट में घिरे व्यक्ति की इस तरह से तारीफ की। जम्मू-कश्मीर में भाजपा के सहयोगी और पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व को लेकर एक बड़ी टिप्पणी की है. उन्होंने कहा कि वे इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते हैं कि नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक व्यक्ति हैं। दादरी घटना पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी सबका साथ सबका विकास की बात करते हैं, अत: उन्हें थोड़ा समय दिया जाना चाहिए। मुफ्ती मोहम्मद ने उक्त बातें एक अंग्रेजी अखबार को दिये इंटरव्यू में कही. ्उन्होंने कहा कि मुझे उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी जल्दी ही भाजपा नेताओं द्वारा दिये जा रहे विवादित बयानों पर रोक लगा देंगे। गोमांस पर हुए विवाद के लिए भी उन्होंने नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानने से इनकार कर दिया.उन्होंने कहा कि हमारे प्रदेश में गोहत्या पर प्रतिबंध है, इसलिए इस मुद्दे को तूल देना बेमानी है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अक्सर उनके विपक्षी यह आरोप लगाते रहे हैं कि वे सांप्रदायिक हैं और उन्हें अल्पसंख्यकों के दुख-दर्द से कोई लेना-देना नहीं है।
जो केवल विरोध करते हैं, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि उनका और कोई काम ही नहीं है, वे केवल विरोध करना ही जानते हैं। कुछ लोग केवल उनका साथ देते हैं, ताकि लोग यह न समझें कि उन्हें विरोध करना नहीं आता। कुछ लोग केवल मौन रहते हैं, वे जानते हैं कि केवल विरोध करने से ही कुछ नहीं होता, विरोध के लिए ठोस मुद्दा होना जरूरी है। देश के बुद्धिजीवी, साहित्यकारों के अलावा राम जेठमलानी और अरुण शौरी प्रधानमंत्री की कार्यशैली की निंदा कर रहे हैं। जेठमलानी को अब कोई गंभीरता से नहीं लेता। अरुण शौरीे की कुंठा केवल उन्हें मंत्रीपद न मिलने की वजह से बढ़ गई है, यह स्पष्ट हो गया है। उस बयान के बाद उनकी हालत यह हो गई है कि अब उनसे भाजपा का कोई नेता नहीं मिलता। एकदम अलग-थलग हो गए हैं, वे इन दिना। इनके अलावा जब प्रधानमंत्री पर चारों तरफ से प्रहार हो रहे हों, तब उनके पार्टी के लोगों को उनका बचाव करना पड़ रहा है, ऐसीे स्थिति में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने प्रधानमंत्री की प्रशंसा कर उन्हें चौंका दिया है। पिछले दिनों सामने आए उनके बयानों ने और किसी को राहत दी हो या नहीं, पर स्वयं प्रधानमंत्री को इससे राहत मिली है, यह कहा जा सकता है। यह इसलिए भी आश्चर्यजनक है कि उनकी तरफ से इस तरह के बयान की कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। प्रधानमंत्री का बचाव करने वालों की भीड़ में एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं था। सभी मुस्लिम नेताओं के निशाने पर केवल नरेंद्र मोदी ही हैं। इसलिए प्रधानमंत्री खेमे को आश्चर्य हो रहा है। जबकि अभी कुछ दिनों पहले ही कश्मीर विधानसभा में भाजपा के एक नेता द्वारा विपक्ष के नेता को थप्पड़ मारने की घटना हो चुकी है।
मोदी द्वारा चुनाव प्रचार के दौरान लोगों को दिए गए वचनों को अमल में लाने का समय अब समाप्त हो चुका है। इसके बाद महंगाई के लगातार बढ़ने से लोग त्रस्त हो गए हैं। एक तरफ महंगाई की चीख-पुकार और दूसरी तरफ बीफ पर लोगों के विवादास्पद बयान। इस आशय के बयान जब भी किसी ने जारी किए हैं, उन बयानों ने विवाद तो पैदा किया ही है, इसके अलावा लोगों में कटुता भी पैदा की है। केवल पुरस्कार और सम्मान वापस कर देने से ही विरोध व्यक्त हो जाता हो, तो यह बहुत बड़ी बात नहीं होती। जो इस तरह से विरोध कर रहे हैं, उनके पास विरोध करने का कोई तय माद्दा ही नहीं है। वे इस बात का ख्ुलासा ही नहीं कर पा रहे हैं कि पुरस्कार-सम्मान वापस कर देने मात्र से क्या कुछ लोग बीफ खाना बंद कर देंगे। यह प्रधानमंत्री इस आशय की अपील भी करें, तो क्या उसका उन लोगों पर कोई असर भी होगा? ये सब लोग मिलकर केवल प्रधानमंत्री को बदनाम करना चाहते हैं। इस देश में ऐसी बहुत सी घटनाएँ हुई हैं, जब इन बुद्धिजीवियों को अपनी सक्रियता का अहसास दिलाना था। उस समय वे सभी खामोश थे, जो आज बुरी तरह से चीख रहे हैं। यही लोग जब अभिनेत्री विद्या बालन के पास जाकर उससे पुरस्कार वापसी की मांग करने लगे, तो विद्याबालन ने बहुत ही सादगी के साथ उन्हें यह कहते हुए विदा कर दिया कि मुुझे मिला सम्मान देश का सम्मान है। यह किसी व्यक्ति विशेष के कहने पर नहीं मिला है, देश में शौचालय बनाने और उसका उपयोग करने का जो अभियान चला, उसका मैं हिस्सा बनी, लोग जागरूक हुए, तो सरकार ने मुझे सम्मानित किया। यह सम्मान मेरा नहीं, देश का सम्मान है, जो मुझे सामाजिक कार्यों को देखते हुए दिया गया है। मैं इस सम्मान का वापस नहीं करने वाली। दादरी कांड जैसी घटनाएं तो इस देश में पहले भी हुई हैं, तब तो इतना अधिक बवाल नहीं हुआ। इस समय ही ऐसा क्यों किया जा रहा है? इसका जवाब उनके पास नहीं था, इसलिए वे लौट आए। विद्याबालन ने ऐसे लोगों को एक नई राह दिखाई है। पर जिनकी मानसिकता संकीर्ण हो, वे ऐसी राह पर कभी नहीं चलना चाहेंगे। विद्याबालन का सवाल आज भी वहीं के वहीं है, उसका जवाब कोई देने को तैयार नहीं है, न तो ये बुद्धिजीवी और न ही विपक्ष का कोई नेता।
कांग्रेस अपना विश्वास लगातार खो रही है। अब उसे अपनी अस्मिता का खयाल आने लगा है। अपनी सक्रियता को वह इस तरह से विरोध कर बताना चाहती है। सरकार के हर फैसले का विरोध करना उसने अपना एक सूत्रीय अभियान बना लिया है। समय-समय पर प्रधानमंत्री उनका जवाब देते रहते हैं, पर वह अपनी आदतों से बाज नहीं आ रही है। केवल कुछ लोगों के हाथ की कठपुतली बनी कांग्रेस आज अपना खोया हुआ विश्वास प्राप्त करना चाहती है, उसके पास विरोध के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन वह भूल रही है कि एक समय ऐसा भी आया था, जब जनता ने ही कांग्रेस को उखाड़ फेंका था। जनता ही सर्वशक्तिमान है, उसके पास केवल वोट देने का अधिकार है, इस प्रजातंत्र में वही सबसे बड़ा हथियार है। लोग कांग्रेस के घोटालों से आजिज आ चुके थे, इसलिए उन्होंने भाजपा के हाथों में देश की बागडोर सौंपी। यदि भाजपा ने भी वही किया, तो वह इसे भी उखाड़ फेंकने में संकोच नहीं करेगी। आज राज्यसभा में भाजपा का बहुमत न होने के कारण कई बिल अटक गए हैं। भविष्य में यदि कांग्रेस के हाथ में देश की बागडोर आती है, तो तय है कि राज्यसभा में भाजपा का बहुमत हो जाए, वह भी उस समय वही करेगी, जो आज कांग्रेस कर रही है, तो शायद उसे समझ में आ जाएगा कि केवल विरोध के लिए विरोध करना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है।
जिस घाटी में 70 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी हो, वहां के मुख्यमंत्री ने प्रधानमंत्री की तारीफ की, तो यह निश्चित रूप से राहत देने वाली खबर है। प्रशंसा तो सभी की होती है। पर वास्तव में जब उसे प्रशंसा की आवश्यकता होती है, तब नहीं मिलती, तो अखरता है, पर जब विपत्तियों से घिरे व्यक्ति को कोई ऐसा व्यक्ति सहारा दे, जिससे कोई अपेक्षा ही नहीं रखी गई थी, तो ऐसा लगता है कि किसी ने उनके लिए अच्छा सोचा।
डॉ. महेश परिमल
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बाल कहानी - अपूर्व अनुभव
यह कथा मूल रूप से जापानी भाषा में लिखा गया संस्मरण है। इसमें तोमोए में पढ्नेवाले दो बच्चों के विषय में बताया गया है।
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गुरुवार, 5 नवंबर 2015
महादेवी वर्मा की कहानी - गिल्लू
गिल्लू कहानी का एक ऐसा पात्र है, जिसे पढते हुए मन संवेदनाओं से भर उठता है। महादेवी वर्मा ने अपनी लेखनी के चमत्कार से इस नन्हे पात्र को इतना प्रिय बना दिया है कि स्वयमेव इस पात्र से रिश्ता जुडता-सा प्रतीत होता है।
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बाल कहानी

महादेवी वर्मा की कहानी - बिन्दा
हिंदी साहित्य जगत की प्रसिद्ध लेखिका महादेवी वर्मा की यह कहानी मानवीय संवेदनाओं का सशक्त उदाहरण है। जिसमें उन्होंने बाल सखी बिन्दा के प्रति स्वयं की मनोव्यथा को चित्रत किया है।
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कहानी,
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बुधवार, 4 नवंबर 2015
जयशंकर प्रसाद की रचना - आँसू
छायावादी काव्यधारा के कवि जयशंकर प्रसाद की अमर कृति ऑंसू केवल विरह या पीडा का काव्य नहीं है, बल्कि वह जीवन और जगत के प्रति एक रचनाकार की दृष्टि का परिचायक और उन्नायक है। हिंदी काव्य जगत में 'ऑसू' का विशेष महत्व है।
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कविता,
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सोमवार, 2 नवंबर 2015
कविता - तुम्हारा शहर
अभिमन्यु सिंह चारण की कविता तुम्हारा शहर को पढ्ते हुए शहर की सच्चाई और गॉंव की सौंधी महक का अंतर भावनाओं में उतर आता है। आप भी आनंद लीजिए, इस कविता का।
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साहिर लुधियानवी की नज्म
साहिर लुधियानवी उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रगतिशील शायर हैं। आज बरसों बाद भी उनकी लेखनी की जादूगरी लोगों को अपनी ओर खींचती है।
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रविवार, 1 नवंबर 2015
रेडियो फीचर : सिसकता बचपन
12 जून को अंतरराष्ट्रीय बालदिवस मनाया जाता है। वर्ष 2015 में उन बच्चों पर केंद्रित फीचर का प्रसारण आकाशवाणी भोपाल ने किया। इसे तैयार किया राकेश ढौंडियाल ने, और लिखा डॉ. महेश परिमल ने।
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फीचर

शनिवार, 31 अक्तूबर 2015
अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं - 4
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कविता,
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अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं - 3
अमृता प्रीतम सिर्फ नाम ही काफी है, इसलिए नाम पढ्कर इनकी कविताओं का आनंद लीजिए -
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अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं - 2
अमृता प्रीतम सिर्फ नाम ही काफी है, इसलिए आनंद लीजिए कविताओं का -
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अमृता प्रीतम की प्रतिनिधि कविताऍं 1
अमृता प्रीतम सिर्फ नाम ही काफी है, इसलिए नाम पढ्कर आनंद लीजिए कुछ प्रतिनिधि कविताओं का-
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जानबूझकर हुआ गिरफ्तार
दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख
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शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2015
रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी - काबुलीवाला
महान साहित्यकार रविन्द्रनाथ्ा टैगार की कहानी काबुलीवाला एक मर्मस्पर्शी कहानी है। परदेस में रहते हुए अपनों से दूर होना और खास करके अपनी प्यारी बिटिया से दूर होने का दुख इस कहानी में सजीव हो उठा है।
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कहानी,
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जयशंकर प्रसाद की कहानी - छोटा जादूगर
साहित्यकार जयशंकर प्रसाद का नाम हिंदी साहित्य जगत में काफी जाना पहचाना है। उनकी रचित कहानी छाेटा जादूगर एक मार्मिक एवं भावपूर्ण कहानी है।
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गुरुवार, 29 अक्तूबर 2015
नुक्कड नाटक ब्रेकिंग न्यूज
इस नाटक में दहेज प्रथा, बेटा बेटी में भेदभाव, भ्रष्टाचार, गिरते नैतिक मूल्य जैसी सामाजिक समस्याओं को उजागर किया गया है।
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नाटक

गीत मा बाप ने भूलशो नहीं
जीवन में कितनी भी सफलता मिल जाए, उन सफलताओं का महत्व तभी होता है, जब उनके साथ माता पिता की दुआएँ शामिल होती हैं। माता पिता की दुआएँ तभी शामिल होती हैं, जब हम जीवन के हर मोड पर उन्हें याद रखें और उनका दिल न दुखाऍं। कुछ इन्हीं भावों से भरा है ये गुजराती गीत मा बाप ने भूलशो नहीं...
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नरोत्तमदास की कविता सुदामा चरित
कवि नरोत्तमदास ने सरल ब्रज भाषा में अपना काव्य लिखा है। सुदामा चरित, ध्रुव चरित और विचारमाला उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं। उनमें से केवल सुदामा चरित ही उपलब्ध है। अन्य दो कृतियॉं उपलब्ध नहीं है। तो आनंद लेते हैं, सुदामा चरित काव्य रचना का...
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बुधवार, 28 अक्तूबर 2015
गिरीश पंकज की कुछ गजलें
गिरीश पंकज मूल रूप से व्यंग्यकार हैं। इनकी कई किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। विदेशों में आयोजित कई हिंदी सम्मेलनों में इन्होंने शिरकत की है। अभी उनकी कृतियों पर पी-एच.डी. हो रही है।
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मन्नू भंडारी की कहानी अकेली
अकेली एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। कहानीकार ने कहानी के पात्र सोमा बुआ की मनोव्यथा का बडा मार्मिक चित्रण किया है।
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