शनिवार, 19 सितंबर 2015

निवेश से ही बदलेंगे हालात


हरिभूमि में आज प्रकाशित  मेरा आलेख

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

बिहार चुनाव:ओवैसी ने बिगाड़ा समीकरण

डॉ. महेश परिमल
बिहार चुनाव के पहले लालू-नीतिश ने गठबंधन कर स्वयं को एक बताया था। बड़े गर्व से वे कह रहे थे कि ये महागठबंधन है, हम भाजपा की आंधी को रोक कर रहेंगे। इसी बीच इस महागठबंधन से मुलायम यादव अलग हो गए। उन्हें मनाने की काफी कोशिशें हुई, पर उन्हें असफलता ही मिली। अभी वे इस गम से उबर ही नहीं पाए थे कि अचानक बिहार चुनाव में ओवैसी ने अपना दांव खेला। इससे लालू-नीतिश चारों खाने चित्त हो गए। रही-सही साख पर बट्‌टा लग गया। जिस मुस्लिम मतों को लेकर वे इतना अधिक गरिया रहे थे, उसे मुलायम-ओवैसी ने इतना बड़ा झटका दिया कि दोनों कहीं के नहीं रहे। भाजपा के लिए ओवैसी एक तुरुप का पत्ता साबित हुए। 1970 के दशक में एक फिल्म आई थी, दुश्मन, जिसका एक गीत था ‘दुश्मन-दुश्मन, जो दोस्तों से प्यारा है’, आज यही गीत भाजपा के लिए सही साबित हो रहा है। ओवैसी को किसी भी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनकी शख्सियत ही ऐसी है कि चाहकर भी कोई पार्टी उन्हें कम नहीं आंक सकती। इस समय बिहार चुनाव को लेकर भाजपा खेमे में खुशी का माहौल है। नीतिश-लालू के गठबंधन का ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। ओवैसी अपनी वक्तृत्व कला से नीतिश-लालू के वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं। ओवैसी केवल मुस्लिम मतों को अपनी तरफ कर सकते हैं, इसके अलावा उनकी आक्रामकता से भयभीत होने वाले हिंदू भी भाजपा का रुख कर सकते हैं। इससे नीतिश-लालू अलग-थलग पड़ जाएंगे, इसमें कोई दो मत नहीं।
भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, उसके पहले भारत के मुस्लिम जिन्ना की मुस्लिम लीग को अपना तारणहार मानती थी। पाकिस्तान बन जाने के बाद मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान चले गए। इसके बाद भारत में मुस्लिमों के मसीहा के भूमिका कांग्रेस ने निभाई थी। किसी सक्षम मुस्लिम नेता की अनुपस्थिति में भारत के मुस्लिम कांग्रेस के बाद समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि तथाकथित सेकुलर पार्टियों को अपना समर्थन देते थे। मुलायम सिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव आदि हिंदू नेता मुस्लिम मतों पर अपना प्रभाव रखते थे। तथाकथित सेकुलर नेताओं ने काफी कोशिशें की कि भाजपा के विजय रथ को रोका जाए। पर ऐसा नहीं हो पाया। इन्हें एक ऐसे मुस्लिम नेता की आवश्यकता थी, जो अपने प्रभाव से मुस्लिम मतों पर अपनी ओर खींच सके। अपने भाषण से आग उगलते नेता ओवैसी पर सबकी नजर थी। आधुनिक भारत के 18 करोड़ मुसलमानों के नेता बनने की खूबियां ओवैसी में है। उनका जन्म हैदराबाद के मुस्लिम परिवार में हुआ। हैदराबाद में 35 से 40 प्रतिशत की आबादी मुस्लिमों की है। ओवैसी की शिक्षा हैदराबाद की पब्लिक स्कूल में हुई। इसी स्कूल में माइक्रोसाफ्ट के सीईओ सत्या नाडेला भी पढ़ चुके हैं। गांधीजी की तरह ओवैसी ने भी लंदन जाकर बैरिस्टर की परीक्षा पास की। 46 वर्षीय उर्दू और अंग्रेेजी धाराप्रवाह बोलते हैं। मुस्लिमों को उत्तेजित करने के लिए उनकी जुबान तलवार की तरह काम करती है। यह सभी जानते हैं। उनकी भाषा ही उनकी ताकत है, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता।
असउद्दीन ओवैसी अपनी आक्रामक भाषा को माध्यम बनाकर एक राजनैतिक ताकत के रूप में उभरे हैं। मुस्लिमों को राजनैतिक रूप से संगठित कर उन्होंने मजलिस-ए-इत्तेहेदुल मुसलमिन (एकआईएम) नाम से अपनी पार्टी बनाई है। उनका गणित बहुत ही साफ है। उनके अनुसार भारत की कुल आबादी में 14 प्रतिशत मुस्लिम हैं, तो उन्हें संसद और अन्य राज्यों में भी 14 प्रतिशत सीट मिलनी चाहिए। ओवैसी मुस्लिम वोटों के जोर पर हैदराबाद में लाेकसभा चुनाव जीता। उनकी पार्टी ने तेेलंगाना विधानसभा में भी जीत हासिल की। अब वे मुस्लिमों के राष्ट्रीय नेता बनना चाहते हैं। देश की राजनैतिक पार्टियां पहले तो ओवैसी को हैदराबाद के मुस्लिम नेता के रूप में ही देखते थे। पर साल की शुरुआत में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने 24 प्रत्याशी खड़े किए थे। इनमें से दो ने जीेत हासिल की। मुम्बई जैसे महानगर में ओवैसी की पार्टी को भी एक सीट मिली थी। महाराष्ट्र की दो सीटों पर आेवैसी के दो प्रत्याशी दूसरे नम्बर पर थे।  उनकी पार्टी को कुल दस लाख मत प्राप्त हुए थे। बिहार के चुनाव में भाजपा गठबंधन और नीतिश-लालू के गठबंधन के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। संयोगों से एक दर्जन सीट पर कुछ खेल हो जाए, तो जीत की बाजी हार में बदल सकती है। असउद्दीन ओवैसी की पार्टी ने बिहार की सीमा पर 4 जिलों में 24 प्रत्याशी खड़े करने का निर्णय लिया है। नेपाल की सीमा से लगे किसनगंज, अरारिया, कटिहार और पूर्णिया आदि जिलों में मुस्लिमों की संख्या काफी है। ओवैसी ने अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान को खड़ा किया है। उनकी छवि दमदार नेताओं की है। इसके पहले वे लालू की पार्टी के विधायक थे। लोकसभा चुनाव के पहले वे नीतिश से जुड़ गए। नीतिश ने उन्हें किसनगंज से टिकट भी दी थी। अंतिम क्षणों में वे कांग्रेस के प्रत्याशी मौलाना हक के समर्थन में बैठ गए। इसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। वहां से भाजपा जीत गई।
भारत के मुस्लिमों को लगता है कि तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों के हिंदू नेता मुस्लिम हितों की रक्षा करने में नाकामयाब साबित हुए है, इसलिए वे आक्रामक मुस्लिम नेताओं की खोज मे हैं। असम में बंगाली मुसलमान खुद का इतना अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं कि उन्होंने अपने मौलाना बदरुद्दीन अजमल को जीताकर संसद में भेजा है। बदरुद्दीन अजमल असम में अपना रुतबा रखते हैं। इधर ओवैसी भी भारत के मुस्लिमों के मसीहा बनने की जुगत में हैं। बिहार के चुनाव उनके लिए एक चुनौती है। अब देखना यह है कि वे इस चुनौती को किस हद तक स्वीकार कर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 17 सितंबर 2015

सांसत में है मोदी सरकार

डॉ. महेश परिमल
मोदी सरकार के सामने संकट की घड़ी है। एक तरफ मानसून का कमजोर होना और दूसरी तरफ अमेरिकी सेंट्रल रिजर्व फेडरल बैंक(फेड) द्वारा आगामी 16 एवं 17 सितम्बर को होने वाली बैठक में ब्याज दर बढ़ाने की आशंका है। इन दोनों कारकों के कारण इस हफ्ते बाजार में काफी उथल-पुथल देखी जा सकती है। फेड यदि ब्याज दरें बढ़ाने का फैसला करता है, तो ग्लोबल स्तर पर सोने की कीमतों में तेज गिरावट आ सकती हैं। एक्सपर्ट्स का मानना है कि ऐसा होने पर घरेलू मार्केट में सोना 2000 रुपए प्रति 10 ग्राम तक सस्ता हो सकता है। इसके अलावा इंपोर्ट ड्यूटी में कटौती की उम्मीद, गोल्ड मोनेटाइजेशन स्कीम और चीन से घटती डिमांड सोने की कीमतों पर दबाव बना सकते हैं। शुक्रवार को दिल्ली सर्राफा बाजार में सोना 26,460 रुपए प्रति 10 ग्राम पर था। यानी ये दाम 25 हजार से नीचे आ सकते हैं। मद्रास ज्वेलर्स एंड डायमंड मर्चेंट एसोसिएशन के प्रेसिडेंट जयंतीलाल जे चेल्लानी ने बताया कि गोल्ड मोनेटाइजेशन स्कीम से घरों में रखा सोना बाहर आएगा, जिससे ग्लोबल मार्केट में डिमांड घटेगी और कीमतों में गिरावट आएगी। ऐसा होने पर ज्वेलर्स की बिक्री बढ़ेगी और कमाई इजाफा होगा। इसके अलावा देश पर एक और समस्या मंडरा रही है, वह है पेयजल की समस्या। कम बारिश से यह तो तय है कि लोगों ने पानी का अपव्यय कम नहीं किया है। हजारों नारों के बाद भी पानी के अपव्यय करने में किसी प्रकार की लगाम नहीं लगाई जा सकी है। मानसून ने जो आमद दिखाई थी, वह अब पूरी तरह से भ्रम साबित हुआ है। इसलिए देश में पीने के पानी का संकट मंडराने लगा है। लोग इससे अभी भले ही अनजान हों, पर गर्मी के पहले पानी को लेकर होने वाली जंग ही बता देगी कि यह समस्या कितनी विकराल साबित होगी। महंगाई पर किसी तरह का अंकुश न होने के कारण लोग पानी के लिए त्राहि-त्राहि करेंगे, यह तय है। देश के लिए यह अभी अग्निपरीक्षा का दौर है।
अमेरिकी सेंट्रल बैंक (फेड)  की नजर भारतीय बाजार पर है। वह भारतीय आर्थिक तंत्र का गहराई से अध्ययन कर रहा है।  अमेरिकी अर्थतंत्र ब्याज दर बढ़ाने के नाम पर दो भागों में विभाजित हो गया है। एक वर्ग का कहना है कि ब्याज दर बढ़ाई जानी चाहिए। इनका तर्क है कि डॉलर अब मजबूत हो गया है, इसलिए ब्याज दर बढ़ाने से देश को फायदा होगा।  देश में लगातार दूसरे साल सूखे जैसे हालात हैं। ऐसा भारत के 115 साल के इतिहास में चौथी बार होने जा रहा है। 1 जून से 10 सितंबर तक देशभर में 664.3 मिमी बारिश हुई है, जो कि सामान्य के मुकाबले 15 फीसदी कम है। साउथ इंडियन रीजनल गोल्ड फेडरेशन के प्रमुख पद्मनाभन ने बताया कि बारिश कम होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों से सोने की मांग घटी है। इसके कारण देश में सोने का इंपोर्ट 10 फीसदी घटने की संभावना है। ग्रामीण क्षेत्रों में 60 फीसदी से अधिक सोने की खपत होती है। इसके अलावा प्रमुख करंसी के मुकाबले डॉलर इंडेक्स 96 अंक के करीब पहुंच गया है। अमेरिका के मजबूत आर्थिक आंकड़ों के कारण डॉलर में तेजी देखने को मिल रही है। पैराडाइम कमोडिटी के सीईओ बीरेन वकील ने कहा कि पिछले एक साल के दौरान डॉलर इंडेक्स में 14 फीसदी से ज्यादा का उछाल आ चुका है। वकील के मुताबिक अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ीं, तो डॉलर इंडेक्स 100 के पार पहुंच सकता है। इसके कारण सोने की कीमतों में गिरावट की आशंका है।
यह तो देश का एक साधारण आदमी भी जानता है कि मानसून यदि अच्छा होता है, तो देश का आर्थिक तंत्र भी मजबूत होता है। मानसून का कमजोर होना अकाल की संभावनाएँ बढ़ा देता है। वैसे देश के पास अनाज का पर्याप्त स्टॉक है, इसके बाद भी अनाज की वितरण व्यवस्था ठीक न होने के कारण यह अनाज सही हाथों तक पहुंच पाएगा, इसमें शक है। यह तो इसी बात से पता चलता है कि देश में पेट्राेल-डीजल के दाम बढ़ते ही महंगाई बढ़ जाती है, पर जब उनके दामों में कमी आती है, तो महंगाई कम नहीं होती। अब सरकार कमजोर मानसून के नाम पर महँगाई का एक और डोज देने के लिए तैयार हो रही है। बाजार का संकेत अब अर्थशास्त्री ही नहीं, बल्कि आम आदमी भी समझने लगा है। कम बारिश से महंगाई बढ़ती है,आवश्यक वस्तुओं की कमी होने लगती है। काफी समय से बाजार मंदी की चपेट में है। एक तरफ लोग बाजार में तेजी की आशा लिए बैठे हैं, तो दूसरी तरफ मंदी और अधिक तीव्र होने लगी है। अच्छे दिन की बात अब हवा होने लगी है। अमेरिका में रोजगार के अवसर बढ़ने लगे हैं। लोगों को नई नौकरियां मिलने लगी है। बेरोजगारी कम होने लगी है। इससे अमेिरका का अर्थतंत्र एक बार फिर सजग होकर उठ बैठा है। इसलिए ब्याज बढ़े, इसकी संभावना बढ़ गई है।
वैश्विक आर्थिक तंत्र छोटी-छोटी बाबतों पर आधारित है। हाल में भारत के उद्योगपतियों और प्रधानमंत्री के बीच बैठक हुई थी, तब ब्याजदर घटाने का मामला भी उठा था। भारत के उद्योगपति इस मुद्दे पर आगे बढ़ना चाह रहे थे। वे प्रधानमंत्री से इस बात की गारंटी चाहते थे कि ब्याजदर घटाई जाए। िकंतु प्रधानमंत्री ने इसे रिजर्व बैंक के ऊपर डाल दिया। इससे चर्चा का रुख ही बदल गया। ब्याज दर के मुद्दे पर वित्त मंत्री अरुण जेटली और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बीच शीत युद्ध जारी है। भारत में ब्याजदर घटाने की मांग की जा रही है, तो अमेरिका में ब्याज दर बढ़ाने की मांग की जा रही है। बारिश कम होने से उत्पादन पर असर होगा। कुछ लोगों का मानना है कि अगले दस दिनों में अच्छी बारिश नहीं हुई, तो यह तय है कि आम जनता की दीवाली बिगड़ जाएगी। इस समय त्योहार के बाद भी बाजार ठंडा है। व्यापारी सेल की तख्ती दुकानों में लगाए बैठे हैं। पर ग्राहक दिखाई नहीं दे रहे हैं। 16-17 की बैठक में जो भी निर्णय लिया जाएगा, उसका पूरा असर भारतीय बाजारों में दिखाई देगा। फिर वह चाहे उद्योग जगत हो या शेयर बाजार। कमजाेर बारिश से देश के 90 प्रतिशत लोग प्रभावित होते हैं, यह तय है। फेड के निर्णय के बाद यदि सोना 2000 रुपए सस्ता होता है, तो इसका असर सेंसेक्स बहुत बड़ा झटका देगा।  यह भारत का दुर्भाग्य है कि विश्व बाजार में क्रूड आइल का दाम कम होता है, ताे डॉलर मजबूत होता है, यदि इस समय डॉलर के दाम 58 रुपए होते हैं, तो देेेेश में पेट्रोल-डीजल आयात करना सस्ता हो जाएगा। इसका सीधा असर महंगाई पर पड़ेगा। सरकार का पूरा प्रयास है कि क्रूड आइल के कम होते भाव से रुपया मजबूत हो। मुकेश अंबानी, सायरस मिस्त्री, कुमार मंगलम, बिड़ला, सुनील भारती मित्तल जैसे उद्योग जगत के बाहुबलि अधिक निवेश के लिए सहमत हों और सरकार पर भरोसा रखें, तो परिस्थितियां पलट सकती हैं।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 12 सितंबर 2015

मालधारी, पासधारियों का विश्व हिंदी सम्मेलन

डॉ. महेश परिमल
भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है। इस बार यह कई कारणों से चर्चा में है। पहला तो इसमें सेलिब्रिटी का समावेश। दूसरा कई बड़े साहित्यकारों की उपेक्षा। इसके अलावा उसमें प्रवेश के लिए पास सिस्टम का होना। इन तीन कारणों से हिंदी सम्मेलन आम आदमी से दूर हो गया है। यही आम आदमी अपनी अभिव्यक्ति के लिए रोज हिंदी का प्रयोग करता है। मीडिया के लिए यह आयोजन अपनी टीआरपी बढ़ाने का अच्छा साधन बन पड़ा है। आयोजन स्थल के बाहर कई टीवी-रेडियो पत्रकार लोगों से इस आयोजन पर उनके विचार जानते रहते हैं। तरह-तरह के लोग अपने विभिन्न विचारों से लोगों को अवगत करा रहे थे। कुछ नाखुश भी थे। कुछ ने ऐसे आयोेजन को बार-बार करने का अाग्रह भी किया। पर एक बात यह उभर कर आई कि इतने बड़े आयोजन में हिंदी कहां है? वह भी भोपाल जैसे शहर में, जहां आम बोलचाल की भाषा हिंदी ही है। यदि यही कार्यक्रम दक्षिण भारत में होता, तो हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा मिलता। हिंदी के लिए चिंता हिंदी प्रदेश से कहीं अधिक अन्य प्रदेशों में होनी चाहिए। जहां हिंदी फिल्में तो बड़े चाव से देखी जाती हैं, परजानते हुए वे हिंदी बोलना पसंद नहीं करते। हिंदी के विद्वानों को इस स्थिति पर गहराई से िवचार करना चाहिए।
जापान से भोपाल आए एक हिंदी प्रेमी रेडियो पर कह रहे थे कि हिंदी को विश्व भाषा बनाने के पहले यदि इसे देश की भाषा बनाई जाए, तो ही बेहतर होगा। उनका यह कहना कतई गलत नहीं है। आज हिंदी अपने ही देश में दुत्कारी जाती है। हिंदी को मान-सम्मान मिले, इस दिशा में विदेशों में अथक प्रयास हो रहे हैं, पर अपने ही देश में हिंदी असुरक्षित है। वह सिसक रही है, अपनी ही हालत पर। हिंदी-अंग्रेजी शब्दों को मिलाकर आज जो खिचड़ी बोली जा रही है, वह उसका सही रूप प्रस्तुत करने में पूरी तरह से असमर्थ है। भारतीय हिंदी को अपनी मां कहते नहीं अघाते, पर आज वे ही दूसरे की मां की सेवा करने में लगे हैं। प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में भारत की दूसरी भाषाओं के शब्दों को हिंदी में मिलाने की बात कहते हैं, पर हिंदी में कई ऐसे शब्द हैं, जो अपनी बात कहने में पूरी तरह से सक्षम हैं, उसके बाद भी उसके बजाए हम स्वयं अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। आज अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाला बच्चा यदि अंग्रेजी में कमजोर है, तो उसके लिए ट्यूशन की व्यवस्था कर दी जाती है, पर हिंदी में कमजोर होने पर इसकी चिंता नहीं की जाती। यह हमारी गुलामी मानसिकता का प्रतीक है। बच्चा अंग्रेजी में बात करे, तो हमें गर्व अनुभव होता है। पर उसके सबके सामने हिंदी में बोलने पर हम शर्मिंदगी महसूस होती है। आखिर इस स्थिति को क्या कहा जाए?
दरअसल बात यह है कि हमने अभी तक हिंदी को दिल से नहीं स्वीकारा। हम भले ही हिंदी के लिए कितनी भी वकालत कर ले, पर बच्चे को जब भी पढ़ाने का अवसर आएगा, तो उसे अंग्रेजी माध्यम में ही पढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। भोपाल में आयोजित इस हिंदी महाकुंभ में शामिल होने वाले कितने लोग ऐसे हैं, जिनके बच्चे हिंदी माध्यम शाला में अध्ययन करते होंगे? सभी का यही तर्क होगा कि बिना अंग्रेजी के कुछ भी संभव नहीं है। आज जंगली घासों की तरह गली-मोहल्लों में ऊग आई न जानें कितनी अंग्रेजी माध्यम की स्कूलें खुल गई हैं, जहाँ बच्चा किसी को प्रणाम या नमस्कार नहीं कर सकता। अब तो उनकी पाठयपुस्तकों से राम, मोहन, सीता के नाम गुम होने लगे हैं। भारतीय संस्कृति पर यह हमला हो रहा है और हम खामोश हैं। हिंदी भाषा आज अपने ही घर में अजनबी हो गई है। उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा रहा है। हिंदी अब केवल हिंदी दिवस पर होने वाले आयोजनों में ही अपने सही रूप में दिखती है। सरकारी संरक्षण के अभाव में वह विकृत हो रही है। जिस दिन सरकार दृढ़ता से यह संकल्प ले लें कि हिंदी ही हमारी राष्ट्रभाषा होगी, तो उसे राष्ट्रभाषा बनने से कोई रोक नहीं सकता, पर जरूरी यही है कि सरकार की नीयत में खोट न हो।
हमारे देश में ही हिंदी की स्थिति ठीक नहीं है। हमें अंग्रेजी की गुलामी की मानसिकता की जंजीरों को तोड़ना होगा, तभी कुछ बेहतर संभव हो पाएगा। हिंदी की एक शिक्षिका कहती हैं कि आज के बच्चों को हिंदी एक बोझ लगती है। हिंदी का कालखंड आता है, तो बच्चे कुछ परेशान से दिखते हैं। उनका कहना है कि यह भाषा जब हमें कुछ काम ही नहीं आएगी, तो हम इसे क्यों पढ़ें? उन्हें इस मानसिकता में लाने का काम उनके पालक ही कर रहे हैं। हिंदी की उपेक्षा की शुरुआत घर से ही होती है, उसके बाद शालाओं में उपेक्षित होती है। एक साधारण-सा मजदूर भी अपनी संतानों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाना चाहता है। घर के सामने हिंदी माध्यम की शाला होने के बाद भी वह दो हजार रुपए की वेन लगवाता है, बच्चे को अंग्रेजी माध्यम की स्कूल में भेजने के लिए। इसके लिए वह अनथक परिश्रम भी करता है। वह जानता है कि हिंदी से न तो उसका और न ही उसके बच्चे का विकास हो पाएगा। आज हमारे ही देश में हिंदी उपेक्षित है। इसे दूर करने का काम हमें ही करना है। आज हिंदी भाषी राज्यों की हिंदी माध्यम शालाओं में ताले लटकने के दिन आ गए हैं। लोग अँगरेजी माध्यम की स्कूलों में बच्चों के प्रवेश के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने लगे हैं। मोटी फीस ही नहीं, बल्कि चंदे के नाम पर भी भारी-भरकम राशि देने को तैयार है। ये लोग यह भूल जाते हैं कि मातृभाषा की मृत्यु नागरिकों की अस्मिता की मृत्यु है। हिंदी भाषा मात्र जीवित रहे, यही पर्याप्त नहीं, पर ये और अधिक समृद्ध बने, अधिक से अधिक प्राणवान बने, यह अत्यंत आवश्यक है। क्योंकि किसी भी भाषा के साथ अन्य प्रदेशों के नागरिकों और उनकी संस्कृति से ओतप्रोत होती है। इमर्सन कहते हैं कि जब कोई भाषा खत्म होती है, तब एक संस्कृति नष्ट होती है। ऐसी परिस्थिति में प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में देना ही उचित है। मातृभाषा से बच्चों में संस्कार का सिंचन होता है।
विदेशों में हिंदी को लेकर किसी तरह का पूर्वग्रह नहीं है। वहां हिंदी बोलने वालों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। मैंने अपने अमेरिका प्रवास में देखा कि यदि आप हिंदी जानते हैं और अंग्रेजी नहीं बोल पा रहे हैं, तो सामने वाले की पूरी कोिशश होगी कि वे आपकी बात को समझें और अपनी बात समझा सकें। मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब मैंने अमेरिका के अपने 20 दिनों के प्रवास में अंग्रेजी से कहीं अधिक हिंदी, गुजराती, बंगला, पंजाबी और छत्तीसगढ़ी का प्रयोग करना पड़ा। अमेरिकियों को पता चल जाए कि आप अंग्रेजी नहीं जानते, तो वे बहुत ही सरल अंग्रेजी में अपनी बात कहते हैं, उनकी पूरी कोशिश होती है कि वे आपको किसी तरह से भ्रम में नहीं रखना चाहते। वैसे भी पूरे अमेरिका में कहीं भी जाएं, हिंदी बोलने वाले मिल ही जाते हैं। भोपाल में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के संदर्भ में यही कहना है कि यहां आने वाले हिंदी की िकस तरह से सेवा करेंगे, यह किसी को नहीं पता। यहां आकर वे दर्शनीय स्थलों में घूमने के अधिक मजे ले रहे हैं, जिनके लिए विशेष व्यवस्था की गई है। सम्मेलन में कई ऐसे लोग मिले, जिनका उद्देश्य मेहमान बनकर अधिक से अधिक सरकारी सुविधाओं का उपभोग करना ही है। आयोजन में किस तरह की चर्चा हो रही है, इससे उनका कोई लेना-देना नहीं। सम्मेलन में कई ऐसे पासधारी दिखाई दिए, जिनका हिंदी से दूर-दूर तक कोई नाता ही नहीं है। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश के लिए कई वरिष्ठ साहित्यकारों को पूरी तरह से नकार भी दिया गया। इन्होंने अपनी बात एक पत्रवार्ता में भी रखी। संभव है इन्हें सरकार किसी खेमे का साहित्यकार मानती हो, पर इसका आशय यह तो नहीं हो जाता कि उनके अवदान को पूरी तरह से अनदेखा कर दिया जाए। आखिर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने कुछ तो योगदान दिया ही होगा?
हिंदी महज अभिव्यक्ति की ही भाषा नहीं है, बल्कि यह संस्कार देती है। विचारों का सिंचन करती है। हिंदी में वह लालित्य है, जो विचारों का सही मार्गदर्शन करती है। हिंदी में वह अपनापन है, जो किसी को भी अपना बना लेता है। अंग्रेजी में हम कितने भी गहरे अर्थों वाले शब्द ले आएँ, पर आंचल शब्द के करीब का भी शब्द वे नहीं ला पाएंगे। आंचल में जो गहराई है, वह ‘एंड आॅफ लेडिस क्लाथ’ में नहीं आ पाएगी। िववाह के तमाम संस्कार केवल वेडिंग में नहीं ही आ सकते। कपाल क्रिया का करीबी शब्द अंग्रेेजी में कभी नहीं मिल सकता। इस तरह से हिदी के हजारों शब्दों की सूची है, जिसका अंग्रेजी शब्द हो ही नहीं सकता। हां उसका सांकेतिक शब्द अवश्य मिल जाएंगे। रही बात दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध की, तो उसके लिए चिंतक के.सी. सारंगमठ का कहना है कि  दक्षिण की हिंदी विरोधी नीति वास्तव में दक्षिण की नहीं, बल्कि कुछ अंग्रेजी भक्तों की नीति है। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है  कि हमारे देश में हिंदी का विरोध करने वाले कितने लोग हैं, जो हिंदी के प्रशंसक का चोला पहनकर हमारे साथ-साथ हैं।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

मानसून की बेरुखी के नतीजे

आज दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में प्रकाशित मेरा आलेख

सोमवार, 7 सितंबर 2015

बिहार चुनाव और भूमि अधिग्रहण बिल


डॉ. महेश परिमल
भूमि अधिग्रहण विधेयक के मामले में सभी यह समझने लगे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे छोड़कर अपनी कायरता का परिचय दिया है। लेकिन लोग यह भूल रहे हैं कि प्रधानमंत्री जिस तबीयत के व्यक्ति हैं, उसमें यह बात शामिल है कि किसी एक बात पर चिपके रहना उनकी आदत में नहीं है। वे हमेशा कुछ नया करने की सोचते रहते हैं। इसके पीछे भले ही बिहार विधानसभा चुनाव एक कारक हो,पर भूमि अधिग्रहण विधेयक का सहारा लेकर विपक्ष ने जिस तरह से हावी होने की कोशिश की है, उससे लगता है कि वे अब विपक्ष को कोई भी ऐसा अवसर नहीं देना चाहते, जिससे वह मुखर हो। इसलिए िवधेयक वापस लेकर उन्होंने यह बता दिया कि विपक्ष अब यह सोच ले कि वह जो चाहता है, वह नहीं हो पाएगा। उनकी इस चाल में चाणक्य नीति के दर्शन होते हैं। जिस दिन बिहार में नीतिश-सोनिया-लालू की सभा हुई, उसी दिन प्रधानमंत्री ने भूमि अधिग्रहण विधेयक को वापस लेकर यह साबित कर दिया कि अभी उनके पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है, इसलिए इस तरह का कोई जोखिम लेना उचित नहीं है। कुछ वर्ष बाद ही जब राज्यसभा में उनकी पार्टी का बहुमत हो जाएगा, तब विधेयक लाकर पारित कराया जा सकता है।
एक तरफ बिहार में प्रतिष्ठा की जंग चल रही है। सोनिया-नीतिश-लालू की जोड़ी बिहार में भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहीे है। ऐसे में भाजपा ने बिहार में जीत का झंडा फहराने का संकल्प ले लिया है। बिहार में आज सबसे बड़ा मुद्दा किसानों की जमीन छीन लेने का है। भाजपा के पास इन आक्षेपों का कोई जवाब नहीं था। राज्यसभा में बहुमत के अभाव में सरकार की लाचारी दिखाई दे रही थी। इसे कांग्रेस भले ही अपनी विजय माने, पर सच तो यह है कि इस जीत को वह किसी भी तरह से बिहार में नहीं भुना पाएगी। प्रधानमंत्री ने जब से भूमि अधिग्रहण विधेयक को वापस लेने की घोषणा की है, तब से किसानों ने राहत का अनुभव किया है। उन्हें मिली मानसिक शांति से अब वे इस पर गंभीरता से सोचने लगे हैं। प्रधानमंत्री ने अपनी इस घोषणा के बाद इस मुद्दे को ही खत्म कर ठंडा करने की कोशिश की है। जो सफल साबित हुई। भूमि अधिग्रहण विधेयक को वापस लेने को लोग भले ही प्रधानमंत्री की कमजोरी मानें, पर देर-सबेर इसका लाभ भाजपा को ही मिलेगा, यह तय है। वैसे भी एक ही मुद्दे पर चिपके रहना राजनीति का स्वभाव नहीं है। यह प्रधानमंत्री का ‘मास्टर स्ट्रोक’ था, जिसके दूरगामी परिणाम दिखाई देंगे। एक तरह से जिस भूमि अधिग्रहण विधेयक को बिहार में मुद्दा बनाकर इसके आधार पर जो रणनीति बनाई जा रही थी, उस पर प्रधानमंत्री की घोषणा ने पानी फेर दिया। एक तरह से विपक्ष के हाथ से यह मुद्दा ही छीन लिया गया। अब विपक्ष इसे प्रधानमंत्री की कमजोरी साबित करना चाहेगा, तो भाजपा यह कह देगी कि हमने यह निर्णय किसानों के हित में लिया है। अब यदि विपक्ष किसानों का सचमुच हितैषी है, तो उसे सरकार का सहयोग करना चाहिए। एक मंच पर जब सोनिया-नीतिश-लालू बैठ सकते हैं, तो फिर राहुल गांधी क्यों नहीं बैठ सकते? अब राहुल कभी भी लालू के साथ बैठने से रहे।
बिहार में राजनीति के समीकरण उलझे हुए हैं। लालू-नीतिश के बीच मन-मुटाव है। आपस में उलझते भी रहते हैं। नीतिश-लालू-कांग्रेंस का महागठबंधन भविष्य में पूरी तरह से बिखर जाएगा, यह तय है। ये तीनों अहंकारी स्वभाव के हैं, अहंकार कभी न कभी तो बाहर आएगा ही। अभी नहीं तो चुनाव के बाद। बिहार को जंगलराज की तरफ ले जाने में इन तीनों का ही हाथ है। अब वहां रैलियों का सिलसिला शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री ने कल जो हुंकार भरी, उससे माहौल एक बार फिर गरमा गया है। एक के बाद एक सभाओं और रैलियों का आयोजन हो रहा है। सभाओं में भीड़ से लोग वोट को देख रहे हैं। पर वे यह भूल रहे हैं कि भीड़ में वोट का प्रतिबिम्ब न देखें। भीड़ भरमा भी सकती है। सभाओं में लालू अपनी वाचालता से लोगों को हंसाने का सामर्थ्य रखते हैं, पर ऐसा आखिर कब तक चलेगा। अभी वे नीतिश के पक्ष में बोल रहे हैं, पर वे कब उनके खिलाफ हो जाएं, कहा नहीं जा सकता। इसके विरोध में भाजपा नीतिश-लालू की नीतियों को गलत साबित करने में जुटी हुई है। भाजपा ने बिहार में अपने कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर दी है, जो जमीन से जुड्कर काम कर रही है। बिहार के लोग भी अब बदलाव चाहते हैं। जनता आजिज आ चुकी है, लालू-नीतिश की कार्यशैली से। इस सोच का फायदा उठाने में भाजपा कोई कसर बाकी रखना नहीं चाहती। वह किसी भी रूप में दिल्ली वाली गलती नहीं दोहराना चाहती।
इस चुनाव में नीतिश को अपनी नैया डूबती दिखाई दे रही है। इसलिए उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का सहारा लिया था। उधर कांग्रेसाध्यक्ष सोनिया गांधी को भी अपने साथ कर लिया। बिहार के लोगों को आश्चर्य इस बात का है कि यह आदमी चुनाव जीतने के लिए अपने ही सिद्धांतों के खिलाफ जा रहा है। कांग्रेस की हमेशा बुराई करने वाला आज उनकी प्रशंसा कर रहा है। राहुल गांधी की नजरों में न तो नीतिश और न ही लालू किसी काम के हैं, इसलिए वे उनकी रैलियों से हमेशा दूर ही रहते हैं। बिहार के चुनाव को प्रतिष्ठापूर्ण बनाकर नीतिश कुमार ने एक तरह से भाजपा को चुनौती दी है। उसकी अग्निपरीक्षा ली है। भाजपा की एक-एक चाल का जवाब नीतिश कुमार दे रहे हैं। किंतु अभी चुनाव की घोषणा भी नहीं हुई है। भाजपा ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। अभी तो प्रत्याशियों का चयन भी नहीं हुआ है। इसलिए यह कहना अभी जल्दबाजी होगी कि भाजपा ने नीतिश-लालू के सामने घुटने टेक दिए हैं। भाजपा सधे कदमोंे से बिहार कूच की तैयारी कर रही है। वह अपनी गलतियों को दोहराना पसंद नहीं करती, इसलिए अभी से यह नहीं कहा जा सकता कि बिहार चुनाव का ऊंट किस करवट बैठेगा।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 1 सितंबर 2015

सोती पकड़ी गई गुजरात सरकार

डॉ. महेश परिमल
इस बार हमेशा सचेत रहने वाली गुजरात सरकार ऊंघती पकड़ी गई है। इससे सरकार को यह सबक लेना होगा कि राजनीति बंद कमरों में नहीं, बल्कि खुले मैदानों में होती है। अब तक सरकार स्वयं को बहुत ही सयानी समझ रही थी। अब उसे यह अहसास हो गया है कि उससे कहीं कोई चूक अवश्य हो गई है। अभी तो चूक का पता नहीं चल पाएगा, पर सरकार यदि शांति से विचार करे, तो उसे यह समझ में आ जाएगा कि जो नेता दस लाख से अधिक की भीड़ जमा कर सकता है, उसमें कहीं न कहीं तो नेतृत्व क्षमता होगी ही। उसकी बातें सुन ली जाती, तो शायद आज यह हालात नहीं होते। हार्दिक पटेल की उपेक्षा कर सरकार स्वयं ही उपेक्षित हो गई है। अब हालत यह है कि सांसद-विधायक अपनी प्रजा के पास जाने के लिए छटपटा रहे हैं। प्रधानमंत्री की शांति की अपील कोई काम की नहीं रही। पुलिस की बर्बरता सामने आ गई है। सरकार और पुलिस दोनों को ही संयम की आवश्यकता थी, पर दोनों ही इसमें विफल रहे।
गुजरात में आरक्षण को लेकर चल रहे पाटीदारों के आंदोलन से यह बात तय हो गई है कि अब समझ ठंडे कमरे में गर्म बहस का नहीं रहा। अब तो खुले मैदान की राजनीति की जानी चाहिए। हार्दिक पटेल ने मैदान की राजनीति की है। आंदोलन के पहले चरण में उसकी विजय हुई है और सरकार ऊंघती हुई पकड़ी गई है। हार्दिक पटेल को अनदेखा करना महंगा पड़ा। भाजपा सरकार के पास मैदान में राजनीति करने का अनुभव नहीं है। वह ठंडे कमरों में गर्म बहस करती रही है। इस आंदोलन में सरकारी तंत्र बुरी तरह से विफल रहा है। पुलिस विभाग भी आंदोलन का सही आकलन करने में विफल रही। 25 की रैली को देखते हुए गलियों-चौराहों में पुलिस की चाक-चौबंद व्यवस्था थी। पुलिस की तैनाती ही काफी नहीं होती, विवेकशील पुलिस की तैनाती होनी चाहिए थी, जो नहीं हो पाई। यदि इस दौरान पुलिस ने दिमाग से काम लिया होता, तो शायद हालात इतने बेकाबू नहीं होते। दोपहर तीन बजे से ही यह पता चल गया था कि हालात बेकाबू हो सकते हैं। दोपहर बाद दुकानें बंद कराने वाली भीड़ के सामने पुलिस चुपचाप बैठी तमाशा देखती रही। आश्रम रोड पर भी पुलिस मूकदर्शक बनी बैठी रही। पुलिस को यह आदेश था कि सभी आंदोलनकारियों को शांति से आगे बढ़ने देना चाहिए। पर आगे चलकर संयम का अभाव पुलिस और पाटीदारों दोनों में ही दिखाई दिया। इसमें नेताओं को भी शामिल किया जा सकता है।
पूरे गुजरात में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व में जिन पाटीदारों का नाम सम्मान के साथ लिया जाता रहा हो, वही पाटीदार समाज आज एक विवादास्पद मामले को लेकर आंदोलन कर रहा है, इससे उनकी छवि खराब हुई है। ऐसा कोई भी देश नहीं बचा, जहां इन पाटीदारों ने ख्याति का झंडा न गाड़ा हो। 25 की शाम को हुए दंगे ने यह साबित कर दिया कि जो पालता है, वही बरबाद भी करता है। गुजरात का ऐसा कोई गांव नहीं है, जहां कोई पाटीदार न हो। भाजपा जिनके बल पर आगे बढ़ी है, उन्हीं की उपेक्षा कर उनकी मांगें न सुनकर, उन्हें अनदेखा कर जो गलती की है, उसका खामियाजा उसे भुगतना ही होगा। इस आंदोलन से एक बात विशेष रूप से सामने आई है, वह यह कि  दोनों ही दंभ के शिकार हैं। सरकार यह मानती है कि आरक्षण न देकर हम पाटीदारों को मना लेंगे और पाटीदार यह मानते हैं कि आखिर सरकार हमारे ही दम पर चल रही है। इसे तो हम मनवाकर ही रहेंगे। इस दंभ ने ही आज गुजरात की हालत खराब कर दी है। इसमें सबसे अधिक पीसे गए हैं, रोज कमाने-खाने वाले। पाटीदार एक सम्पन्न जाति है, उनके पास अथाह सम्पत्ति है। यही नहीं उनके पास आत्मबल की कतई कमी नहीं है। अगर वे वास्तव में आरक्षण चाहते हैं, तो अपने साथियों को ही ऊपर उठाने का काम करें, तो सरकार भी उन पर नाज करेगी। आज वे ऐसा कर भी रहे हैं, पता नहीं आरक्षण पाकर वे कितने बाहुबलि हो जाएंगे।
ये पाटीदार गुजरात के गौरव हैं। गुजरात में अपना उद्योग लगाने के लिए सरकार इनके लिए लाल जाजम बिछाती है। इन्हें तमाम सुविधाएं देने का वादा करती है। तब सब कुछ अच्छा लगता है। पर इन्हें आरक्षण देने के नाम पर सरकार इनसे बात ही नहीं करना चाहती। आखिर यह सरकार की दोमुंही नीति नहीं, तो और क्या है? अन्ना हजारे ने जब अपना आंदोलन शुरू किया था, तब कई मंत्री उनसे मिलने जाते थे, पर जब पाटीदारों ने अपना आंदोलन शुरू किया, तो किसी ने उनसे बातचीत की पहल नहीं की, आखिर क्यों? क्या गुजरात सरकार के मंत्रियों को अपने केबिन में बैठे रहना ही पसंद है। यदि ऐसा है, तो वे कब सीख पाएंगे, जमीन की राजनीति? गुजरात ने पूरे 13 वर्षों बाद कर्फ्यू के दर्शन किए हैं। ये सरकार की ढीली नीति का परिणाम है। परिस्थितियों पर तुरंत काबू पाने में अक्षमता का जीता-जागता प्रमाण है। इन्हीं हालात ने आज गुजरात को अशांत कर दिया है। सरकार भले ही हार्दिक पटेल को दुश्मन नम्बर वन माने, पर उसे अनदेखा कर बहुत बड़ी गलती की है। सरकार उससे बात करने को ही तैयार नहीं है। पाटीदारों के कई आवेदन आए और रद्दी की टोकरी में चले गए। सरकार के पास उन आवेदनों को पढ़ने का समय ही नहीं है। सरकार ने यह नहीं सोचा कि जो इंसान अमदावाद में दस लाख और सूरत में सात लाख लोगों को इकट्‌ठा कर सकता है, उसमें कुछ तो दम होगा। क्या उनके मंत्रिमंडल में ऐसा कोई नेता है, जो इतनी भीड़ इकट्‌ठी कर सके। इस स्थिति में हार्दिक पटेल की उपेक्षा करना उचित होगा? सरकार यही नहीं समझ पाई। यही चूक उसके लिए गले की फांस बन गई।
सरकार को गुजरात के युवाओं की ताकत को समझने की आवश्यकता है। अगर सरकार प्रजा के साथ नहीं चल सकती, तो फिर उसका काम ही क्या है? जिस प्रजा ने सरकार को सत्ता सौंपी, यदि उसकी बात न मानी जाए, तो प्रजा विरोध तो करेगी ही। बिहार के चुनाव सामने हैं। प्रधानमंत्री अपने भाषण में गुजरात मॉडल जिक्र करते हैं, ऐसे में अब यदि वे गुजरात मॉडल की बात करें, तो कौन उनकी बात मानेगा? सरकार का पुलिस पर नियंत्रण नहीं रहा। यदि कहीं पुलिस शराब के अड्‌डे बंद करने जाती है, तो महज कुछ लोग ही उन्हें खदेड़ देते हैं, ऐसे में पुलिस की लाचारगी सामने आती है। वही पुलिस आम जनता के सामने इतनी अधिक हिंसक हो जाती है कि मानो देश में तानाशाही चल रही हो। तस्वीरों में पुलिस जिस तरीके से महिलाओं पर डंडे फटकारती दिखाई दे रही है, उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसका मानवीयता से कोई वास्ता नहीं है। उनका गुस्सा उनके चेहरे पर ही दिखाई देता है। अब यह समझ नहीं आता कि गुस्सा आम आदमी के प्रति है या सरकार के प्रति। अब यह भी माना जाने लगा कि एक सोची-समझी साजिश के तहत गुजरात को बदनाम करने की योजना तैयार की गई है। ताकि बिहार चुनाव पर भाजपा किसी भी तरह से जीत न पाए। यह भी कहा जा रहा है कि हार्दिक पटेल केजरीवाल के इशारे पर चल रहे हैं। पिछले दो महीनों से वह अरविंद केजरीवाल और बिहार के मुख्यमंत्री के सम्पर्क में हैं। पर जो केजरीवाल अपनी दिल्ली ही नहीं संभाल पा रहे हों, वे किसी को क्या सुझाव दे सकते हैं। यह समझ से परे है। हां दूसरे आरोप में कुछ दम है।
सभी जानते हैं कि बिहार में बिना जाति की गोटी बिठाए चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए गुजरात के माध्यम से प्रधानमंत्री की छवि को खराब किया जा सके। ताकि आम जनता में यह संदेश जाए कि जिस सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री अपने ही राज्य में आरक्षण आंदोलन को दबा नहीं सकते, वे भला देश को कैसे और किस तरह चला पाएंगे? कुछ भी हो, इतना तो तय है कि गुजरात में पाटीदार आंदोलन को लेकर यदि सरकार कुछ सबक ले सके, तो बेहतर, अन्यथा आरक्षण की यह आग पूरे देश में फैलते देर नहीं लगेगी।
डॉ. महेश परिमल

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