मंगलवार, 31 मई 2016

एक कश की खातिर बेदम होती जिंदगियां














आज जागरण दिल्ली और नवभारत रायपुर में प्रकाशित मेरा आलेख

कविताएँ - जया जादवानी

कविता का अंश... हम सब का अस्तित्व गुज़र चुकी चीज़ें नहीं सोचतीं अपने होने के बारे में न वे याद रखती हैं कि अब वे नहीं हैं वे बस थीं समय की टिक टिक से परे जिस तरह प्रेम याद करने को कुछ भी तो नहीं है हवा पीछे पलटे बिना चुपचाप बह रही है फूल निरन्तर खिल रहे हैं चिड़िया अपनी उड़ानों के बाद कहाँ देख पाती है अपने पीछे के आसमानों की लम्बाई मैं इस सबसे आहिस्ते आहिस्ते गुज़र गयी जिसके बीच में मुझे रोपित कर दिया गया था उसी शाख पर खिली मैं जिस पर प्रक्रति ने उगाया था और फूल कर पक कर तोड़ ली गयी वे सारे मौसम मुझ पर से गुज़र गए शाख मेरा ‌बोझ संभाले खड़ी रही चुपचाप हम सब का अस्तित्व एक और अस्तित्व को पोषित करने में है कही यही बात नदी ने चुपके से कानों में मेरे सागर में विलीन होने से पहले ....... ऐसी ही अन्य मर्मस्पर्शी कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

कहानी - ऐसा भी होता है - देवी नागरानी

कहानी का अंश... कहाँ गई होगी वह? यूं तो पहले कभी नहीं हुआ कि वह निर्धारित समय पर घर न लौटी हो। अगर कभी कोई कारण बन भी जाता तो वह फ़ोन ज़रूर कर देती है। मेरी चिंता की उसे चिंता है, बहुत है. लेकिन आज उसकी चिंता की बेचैनी मुझे यूं घेरे हुए है, कि मेरे पाँव न घर के भीतर टिक पा रहे हैं और न घर के बाहर क़दम रख पाने में सफ़ल हो रहे हैं। कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ ? जब कुछ न सूझा तो फोन किया, पूछने के पहले प्रयास में असफ़लता मिली क्योंकि उस तरफ़ कोई फोन ही नहीं उठा रहा था, निरंतर घंटियाँ बजती रहीं, ऐसे जैसे घर में बहरों का निवास हो। जी हाँ, मेरी समधन के घर की बात कर रही हूँ! अब तो कई घंटे हो गए हैं, रात आठ बजे तक लौट आती है, अब दस बज रहे हैं। बस उस मौन-सी घड़ी की ओर देखती हूँ, तकती हूँ, घूरती हूँ, पर उसे भी क्या पता कि जीवन अहसासों का नाम है? अहसास क्या होता है? छटपटाहट क्या होती है? इंतज़ार क्या होता है? इन सभी भावनाओं से नावाकिफ...! और अचानक दिल की धड़कन तेज़ हो गई। फ़ोन की घंटी ही बज रही थी। हड्बड़ाहट में उठाने की कोशिश में बंद करने का बटन दब गया और बिचारा फ़ोन अपनी समूची आवाज़ समेटकर चुप हो गया। मैंने अपना माथा पीट लिया। आवाज़ तो सुन लेती, पूछ तो लेती कहाँ हो, क्यों अभी तक नहीं लौट पाई है ? मैंने अपनी सोच को ब्रेक दी, लम्बी सांस ली, पानी का एक गिलास पी लिया और फिर एक और पी लिया। शांत होने के प्रयासों में पलंग पर बैठ गई, और फ़ोन को टटोलकर देखा, कोई अनजान नंबर था, उसका नहीं जिसका इंतज़ार था। बिना सोचे समझे मैंने वही नंबर दबा दिया। घंटी बजी, बजती रही और फिर बंद हो गई। अब मेरा डर मुझे सहम जाने में सहकार दे रहा था, मेरे हाथ-पाँव ठंडे हो रहे थे, एक सिहरन बिजली की तरह भीतर फैलने लगी। मैंने बटन फिर दबाया, घंटी बजी, किसी ने उठाया और फिर रख दिया। अब मेरी परेशानी का और बढ़ जाना जायज़ था॰ रात का वक़्त, बेसब्री से उसका इंतज़ार और बातचीत का सिलसिला बंद, जैसे हर तरफ़ करफ़्यू लगा हुआ हो ! आख़िर फ़ोन की घंटी बजी, एक दो तीन बार...! मैंने बहुत ही सावधानी से उसे उठाया, बस कान के पास लाई ही थी कि एक कर्कश आवाज़ कानों से टकराई- ‘परेशान मत करो, आज वह घर लौटने वाली नहीं। अभी एक घंटे में उसकी शादी हो रही है, डिस्टर्ब मत करना।“ बेरहमी से कहते हुए फ़ोन काट दिया और मैं बेहोशी की हालत में बड़बड़ाई, कंपकंपाई और वहीं पलंग पर औंधे मुंह गिर पड़ी। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

पंचतंत्र की कहानियाँ - 12 - झूठी शान

झूठी शान... कहानी का अंश... एक जंगल में पहाड की चोटी पर एक किला बना था। किले के एक कोने के साथ बाहर की ओर एक ऊंचा विशाल देवदार का पेड था। किले में उस राज्य की सेना की एक टुकडी तैनात थी। देवदार के पेड पर एक उल्लू रहता था। वह भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलवां चरागाहों में आता। चरागाहों की लम्बी घासों व झाडियों में कई छोटे-मोटे जीव व कीट-पतंगे मिलते, जिन्हें उल्लू भोजन बनाता। निकट ही एक बडी झील थी, जिसमें हंसों का निवास था। उल्लू पेड पर बैठा झील को निहारा करता। उसे हंसों का तैरना व उडना मंत्रमुग्ध करता। वह सोचा करता कि कितना शानदार पक्षी हैं हंस। एकदम दूध-सा सफेद, गुलगुला शरीर, सुराहीदार गर्दन, सुंदर मुख व तेजस्वी आंखें। उसकी बडी इच्छा होती किसी हंस से उसकी दोस्ती हो जाए। एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाडी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाडी के निकट आया। उल्लू ने बात करने का बहाना ढूंढा 'हंस जी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूं। बडी प्यास लगी हैं।' हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला 'मित्र! पानी प्रकॄति द्वारा सबको दिया गया वरदान हैं। इस पर किसी एक का अधिकार नहीं।' उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। हंस ने पूछा 'मित्र! असंतुष्ट नजर आते हो। क्या प्यास नहीं बुझी?' उल्लू ने कहा 'हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई पर आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई हैं। वह कैसे बुझेगी?' हंस मुस्कुराया 'मित्र, आप कभी भी यहां आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूं, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीखूंगा।' इसके पश्चात हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज हैं। अपना असली परिचय देने के बाद। हंस अपने मित्र को निमन्त्रण देकर अपने घर ले गया। शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और जाने क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलाइची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया। आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 16

लेख के बारे में... बूढ़े सरगना ने हमारा बहुत-सा वक्त ले लिया। लेकिन हम उससे जल्द ही फुर्सत पा जाएंगे या यों कहो उसका नाम कुछ और हो जाएगा। मैंने तुम्हें यह बतलाने का वायदा किया था कि राजा कैसे हुए और वह कौन थे और राजाओं का हाल समझने के लिए पुराने जमाने के सरगनों का जिक्र जरूरी था। तुमने जान लिया होगा कि यह सरगना बाद को राजा और महाराजा बन बैठे। पहले वह अपनी जाति का अगुआ होता था। अंग्रेजी में उसे 'पैट्रियार्क' कहते हैं। 'पैट्रियार्क' लैटिन शब्द 'पेटर' से निकला है जिसके माने पिता के हैं। 'पैट्रिया' भी इसी लैटिन शब्द से निकला है जिसके माने हैं 'पितृभूमि'। फ्रांसीसी में उसे 'पात्री' कहते हैं। संस्कृत और हिंदी में हम अपने मुल्क को 'मातृभूमि' कहते हैं। तुम्हें कौन पसंद है? जब सरगना की जगह मौरूसी हो गई या बाप के बाद बेटे को मिलने लगी तो उसमें और राजा में कोई फर्क न रहा। वही राजा बन बैठा और राजा के दिमाग में यह बात समा गई कि मुल्क की सब चीजें मेरी ही हैं। उसने अपने को सारा मुल्क समझ लिया। एक मशहूर फ्रांसीसी बादशाह ने एक मर्तबा कहा था 'मैं ही राज्य हूँ।' राजा भूल गए कि लोगों ने उन्हें सिर्फ इसलिए चुना है कि वे इंतजाम करें और मुल्क की खाने की चीजें और दूसरे सामान आदमियों में बाँट दें। वे यह भी भूल गए कि वे सिर्फ इसलिए चुने जाते थे कि वह उस जाति या मुल्क में सबसे होशियार और तजरबेकार समझे जाते थे। वे समझने लगे कि हम मालिक हैं और मुल्क के सब आदमी हमारे नौकर हैं। असल में वे ही मुल्क के नौकर थे। आगे चल कर जब तुम इतिहास पढ़ोगी, तो तुम्हें मालूम होगा कि राजा इतने अभिमानी हो गए कि वे समझने लगे कि प्रजा को उनके चुनाव से कोई वास्ता न था। वे कहने लगे कि हमें ईश्‍वर ने राजा बनाया है। इसे वे ईश्‍वर का दिया हुआ हक कहने लगे। बहुत दिनों तक वे यह बेइंसाफी करते रहे और खूब ऐश के साथ राज्य के मजे उड़ाते रहे और उनकी प्रजा भूखों मरती रही। लेकिन आखिरकार प्रजा इसे बरदाश्त न कर सकी और बाज मुल्कों में उन्होंने राजाओं को मार भगाया। तुम आगे चल कर पढ़ोगी कि इंग्लैंड की प्रजा अपने राजा प्रथम चार्ल्स के खिलाफ उठ खड़ी हुई थी, उसे हरा दिया और मार डाला। इसी तरह फ्रांस की प्रजा ने भी एक बड़े हंगामे के बाद यह तय किया कि अब हम किसी को राजा न बनाएँगे। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए...

सोमवार, 30 मई 2016

मौत के आगोश में एक कश जिंदगी का... डॉ. महेश परिमल

विश्व धूम्रपान निषेध दिवस / अंतर्राष्ट्रीय तंबाकू निषेध दिवस को तम्बाकू से होने वाले नुक़सान को देखते हुए साल 1987 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सदस्य देशों ने एक प्रस्ताव द्वारा 7 अप्रैल 1988 से मनाने का फ़ैसला किया था। इसके बाद साल हर साल की 31 मई को तम्बाकू निषेध दिवस मनाने का फ़ैसला किया गया और तभी से 31 मई को तम्बाकू निषेध दिवस मनाया जाने लगा। इसी संदर्भ में डॉ. महेश परिमल का आलेख ‘मौत के आगोश में एक कश जिंदगी का’ यहाँ प्रस्तुत है। इसे आप ऑडियो की मदद से सुन सकते हैं। लेख के बारे में... देवानंद की एक फिल्म बरसों पहले आई थी, जिसमें वे गाते हुए कहते हैं... मैं हर फिक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया...’ वह समय ऐसा था, जब हर फिक्र को धुएँ में उड़ाया जा सकता था, पर अब ऐसी स्थिति नहीं है, अब तो लोग इससे भी आगे बढ़कर न जाने किस-किस तरह के नशे का सेवन करने लगे हैं।हमारे समाज में पुरुष यदि धूम्रपान करे, तो उसे आजकल बुरा नहीं माना जाता, किंतु यदि महिलाओं के होठों पर सुलगती सिगरेट देखें, तो एक बार लगता है कि ये क्या हो रहा है। पर सच यही है कि पूरे विश्व में धूम्रपान से हर साल करीब ५० लाख मौतें होती हैं, उसमें से ८ से ९ लाख लोग भारतीय होते हैं। इसके बाद भी हमारे देश में धूम्रपान करने वाली महिलाओं की संख्या में लगातर वृद्धि हो रही है।वे भी अब हर फिक्र को धुएँ में उड़ा रही हैं। कार्यालयों में ऊँचा पद सँभालने वाली महिलाओं, क्लब-पार्टी में युवतियों के मुँह से निकलने वाले धुएँ के छलले अब आम होने लगे हैं।यह उनके लिए स्टाइल स्टेटमेंट बन गया है। इसके पीछे होने को तो बहुत से कारण हो सकते हैं, पर सबसे उभरकर आने वाला कारण है काम का दबाव।आपाधापी और प्रतिस्पर्धा के इस युग में आजकल महिलाओं पर भी काम का दबाव बढ़ गया है। घर और ऑफिस दोनों जिम्मेदारी निभाते हुए वह इतनी थक जाती है कि शरीर को ऊर्जावान बनाने के लिए वह न चाहते हुए भी धूम्रपान का सहारा लेने लगी है। महानगर में रहने वाली युवतियाँ तो काम के दबाव में ऐसा कर रही हैं, यह समझ में आता है। इसके अलावा ऐसी युवतियों की संख्या भी बहुत अधिक है, जिन्होंने इसे केवल शौक के तौर पर अपनाया। पहले तो स्कूल-कॉलेज में मित्रों के बीच साथ देने के लिए एक सुट्टा लगा लिया, फिर धीरे-धीरे यह उनकी आदत में मिल हो गया।उधर पार्टियों में मिल होने वाली महिलाएँ एक-दूसरे की देखा-देखी में या फिर अपनी मित्र का साथ देने के लिए या फिर गँवार होने के आरोप से बचने के लिए केवल ''ट्राय`` के लिए अपने होठों के बीच सिगरेट रखती हैं, धीरे-धीरे यह नशा छाने लगता है। अपनी पसंदीदा अभिनेत्रियों को टीवी या फिल्म में जब युवतियाँ देखती हैं कि वे भी तनाव के क्षणों में किस तरह से सिगरेट के कश लगाती हैं, तब हम भी क्यों न तनाव में ऐसा करें? आज तो हालात और भी अधिक बुरे हैं। धूम्रपान से जुड़ी इन्हीं बुराइयों पर प्रकाश डालता है यह आलेख। आगे का लेख ऑडियो की मदद से सुनिए...

कविताएँ - मनोज चौहान

कविता.... मेरी बेटी... मेरी बेटी अब हो गई है चार साल की स्कूल भी जाने लगी है वह करने लगी है बातें ऐसी कि जैसे सबकुछ पता है उसे । कभी मेरे बालों में करने लगती है कंघी और फिर हेयर बैण्ड उतार कर अपने बालों से पहना देती है मुझे हंसती है फिर खिलखिलाकर और कहती है कि देखो पापा लड़की बन गए । कभी-कभार गुस्सा होकर डांटने लग पड़ती है मुझे वह फिर मुंह बनाकर मेरी ही नकल उतारने लग जाती है वह मेरे उदास होने पर भी अक्सर हंसाने लगी है वह । रूठ बैठती है कभी तो चली जाती है दूसरे कमरे में बैठ जाती है सिर नीचा करके फिर बीच - बीच में सिर उठाकर देखती है कि क्या आया है कोई उसे मनाने के लिए। उसकी ये सब हरकतें लुभा लेती हैं दिल को दिनभर की थकान और दुनियादारी का बोझ सबकुछ जैसे भूल जाता हूँ । एक रोज उसकी किसी गलती पर थप्पड. लगा दिया मैंने सुनकर उसका रूदन विचलित हुआ था बहुत । इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए और ऐसी ही अन्य अन्य मर्मस्पर्शी कविताओं को सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

पंचतंत्र की कहानियाँ - 11 - झगड़ालू मेंढक

झगड़ालू मेंढक... कहानी का अंश... एक कुएं में बहुत से मेंढक रहते थे। उनके राजा का नाम था गंगदत्त। गंगदत्त बहुत झगडालू स्वभाव का था। आसपास दो तीन और भी कुएं थे। उनमें भी मेंढक रहते थे। हर कुएं के मेंढकों का अपना राजा था। हर राजा से किसी न किसी बात पर गंगदत्त का झगडा चलता ही रहता था। वह अपनी मूर्खता से कोई ग़लत काम करने लगता और बुद्धिमान मेंढक रोकने की कोशिश करता तो मौक़ा मिलते ही अपने पाले गुंडे मेंढकों से पिटवा देता। कुएं के मेंढकों में भीतर गंगदत्त के प्रति रोष बढता जा रहा था। घर में भी झगडों से चैन न था। अपनी हर मुसीबत के लिए दोष देता। एक दिन गंगदत्त का पडौसी मेंढक राजा से खूब झगडा हुआ। खूब तू-तू मैं-मैं हुई। गंगदत्त ने अपने कुएं में आकर बताया कि पडौसी राजा ने उसका अपमान किया हैं। अपमान का बदला लेने के लिए उसने अपने मेंढकों को आदेश दिया कि पडौसी कुएं पर हमला करें। सब जानते थे कि झगडा गंगदत्त ने ही शुरू किया होगा। कुछ स्याने मेंढकों तथा बुद्धिमानों ने एकजुट होकर एक स्वर में कहा 'राजन, पडौसी कुएं में हमसे दुगने मेंढक हैं। वे स्वस्थ व हमसे अधिक ताकतवर हैं। हम यह लडाई नहीं लडेंगे।' गंगदत्त सन्न रह गया और बुरी तरह तिलमिला गया। मन ही मन में उसने ठान ली कि इन गद्दारों को भी सबक सिखाना होगा। गंगदत्त ने अपने बेटों को बुलाकर भडकाया 'बेटा, पडौसी राजा ने तुम्हारे पिताश्री का घोर अपमान किया हैं। जाओ, पडौसी राजा के बेटों की ऐसी पिटाई करो कि वे पानी मांगने लग जाएं।' गंगदत्त के बेटे एक दूसरे का मुंह देखने लगे। आखिर बडे बेटे ने कहा 'पिताश्री, आपने कभी हमें टर्राने की इजाजत नहीं दी। टर्राने से ही मेंढकों में बल आता हैं, हौसला आता हैं और जोश आता हैं। आप ही बताइए कि बिना हौसले और जोश के हम किसी की क्या पिटाई कर पाएंगे?' अब गंगदत्त सबसे चिढ गया। एक दिन वह कुढता और बडबडाता कुएं से बाहर निकल इधर-उधर घूमने लगा। उसे एक भयंकर नाग पास ही बने अपने बिल में घुसता नजर आया। उसकी आंखें चमकी। जब अपने दुश्मन बन गए हो तो दुश्मन को अपना बनाना चाहिए। यह सोच वह बिल के पास जाकर बोला 'नागदेव, मेरा प्रणाम।' नागदेव फुफकारा 'अरे मेंढक मैं तुम्हारा बैरी हूं। तुम्हें खा जाता हूं और तू मेरे बिल के आगे आकर मुझे आवाज़ दे रहा हैं। गंगदत्त टर्राया 'हे नाग, कभी-कभी शत्रुओं से ज़्यादा अपने दुख देने लगते हैं। मेरा अपनी जाति वालों और सगों ने इतना घोर अपमान किया हैं कि उन्हें सबक सिखाने के लिए मुझे तुम जैसे शत्रु के पास सहायता मांगने आना पडा हैं। तुम मेरी दोस्ती स्वीकार करो और मजे करो।' नाग ने बिल से अपना सिर बाहर निकाला और बोला 'मजे, कैसे मजे?' गंगदत्त ने कहा 'मैं तुम्हें इतने मेंढक खिलाऊंगा कि तुम मुटाते-मुटाते अजगर बन जाओगे।' नाग ने शंका व्यक्त की 'पानी में मैं जा नहीं सकता। कैसे पकडूंगा मेंढक?' गंगदत्त ने ताली बजाई 'नाग भाई, यहीं तो मेरी दोस्ती तुम्हारे काम आएगी। मैने पडौसी राजाओं के कुओं पर नजर रखने के लिए अपने जासूस मेडकों से गुप्त सुरंगें खुदवा रखी हैं। हर कुएं तक उनका रास्ता जाता हैं। सुरंगें जहां मिलती हैं। वहां एक कक्ष हैं। तुम वहां रहना और जिस-जिस मेंढक को खाने के लिए कहूं, उन्हें खाते जाना।' नाग गंगदत्त से दोस्ती के लिए तैयार हो गया। क्योंकि उसमें उसका लाभ ही लाभ था। एक मूर्ख बदले की भावना में अंधे होकर अपनों को दुश्मन के पेट के हवाले करने को तैयार हो तो दुश्मन क्यों न इसका लाभ उठाए? नाग गंगदत्त के साथ सुरंग कक्ष में जाकर बैठ गया। गंगदत्त ने पहले सारे पडौसी मेंढक राजाओं और उनकी प्रजाओं को खाने के लिए कहा। नाग कुछ सप्ताहों में सारे दूसरे कुओं के मेंढक सुरंगों के रास्ते जा-जाकर खा गया। जब सब समाप्त हो गए तो नाग गंगदत्त से बोला 'अब किसे खाऊं? जल्दी बता। चौबीस घंटे पेट फुल रखने की आदत पड गई हैं।' आगे क्या हुआ? क्या गंगदत्त नाग के लालच से बच पाया? यह जानने के लिए ऑडियो की मदद लें...

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 15

सरगना का इख्तियार कैसे बढ़ा... लेख के बारे में... मुझे उम्मीद है कि पुरानी जातियों और उनके बुजुर्गों का हाल तुम्हें रूखा न मालूम होता होगा। मैंने अपने पिछले खत में तुम्हें बतलाया था कि उस जमाने में हर एक चीज सारी जाति की होती थी। किसी की अलग नहीं। सरगना के पास भी अपनी कोई खास चीज न होती थी। जाति के और आदमियों की तरह उसका भी एक ही हिस्सा होता था। लेकिन वह इंतजाम करनेवाला था और उसका यह काम समझा जाता था कि वह जाति के माल और जायदाद की देख-रेख करता रहे। जब उसका अधिकार बढ़ा तो उसे यह सूझी कि यह माल और असबाब जाति का नहीं, मेरा है। या शायद उसने समझा हो कि वह जाति का सरगना है इसलिए उस जाति का मुख्तार भी है। इस तरह किसी चीज को अपना समझने का खयाल पैदा हुआ। आज हर एक चीज को मेरा-तेरा कहना और समझना मामूली बात है। लेकिन जैसा मैं पहले तुमसे कह चुका हूँ उन पुरानी जातियों के मर्द और औरत इस तरह खयाल न करते थे। तब हर एक चीज सारी जाति की होती थी। आखिर यह हुआ कि सरगना अपने को ही जाति का मुख्तार समझने लगा। इसलिए जाति का माल व असबाब उसी का हो गया। जब सरगना मर जाता था तो जाति के सब आदमी जमा हो कर कोई दूसरा सरगना चुनते थे। लेकिन आमतौर पर सरगना के खानदान के लोग इंतजाम के काम को दूसरों से ज्यादा समझते थे। सरगना के साथ हमेशा रहने और उसके काम में मदद देने की वजह से वे इन कामों को खूब समझ जाते थे। इसलिए जब कोई बूढ़ा सरगना मर जाता, तो जाति के लोग उसी खानदान के किसी आदमी को सरगना चुन लेते थे। इस तरह सरगना का खानदान दूसरे से अलग हो गया और जाति के लोग उसी खानदान से अपना सरगना चुनने लगे। यह तो जाहिर है कि सरगना को बड़े इख्तियार होते थे और वह चाहता था कि उसका बेटा या भाई उसकी जगह सरगना बने। और भरसक इसकी कोशिश करता था। इसलिए वह अपने भाई या बेटे या किसी सगे रिश्तेदार को काम सिखाया करता था जिससे वह उसकी गद्दी पर बैठे। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए...

दोहे - जगजीत सिंह

हमारे ऑडियो ब्लॉग की एक सदस्य सुश्री देवी नागरानी जी ने हमें  प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह की आवाज में यह दोहों की रिकॉर्डिंग न्यू जर्सी अमेरिका से भेजी है। संत कबीर, रहीम, तुलसी आदि के नीति विषयक दोहे हमें जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं और मुश्किल घड़ी में हमारा मार्गदर्शन भी करते हैं। कबीरदास जी के कुछ दोहों को जगजीत सिंह ने अपनी आवाज देकर जीवंत बना दिया है। हम सुश्री देवी नागरानी का आभार व्यक्त करते हुए ये रिकॉर्डिंग आप तक पहुँचा रहे हैं। आप भी इसे सुनकर इसका आनंद लीजिए...

रहना नहीं देस विराना है... जगजीत सिंह

हमारे ऑडियो ब्लॉग की एक सदस्य सुश्री देवी नागरानी जी ने हमें प्रसिद्ध ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह की आवाज में यह रिकॉर्डिंग भेजी है। हम उनका आभार व्यक्त करते हुए ये रिकॉर्डिंग आप तक पहुँचा रहे हैं। आप भी इसे सुनकर इसका आनंद लीजिए...

शनिवार, 28 मई 2016

बाल कविताएँ - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

सबसे प्यारे.... कविता का अंश... सूरज मुझको लगता प्यारा लेकर आता है उजियारा । सूरज से भी लगते प्यारे टिम-टिम करते नन्हें तारे। तारों से भी प्यारा अम्बर बाँटे खुशियाँ झोली भर-भर। चन्दा अम्बर से भी प्यारा गोरा चिट्टा और दुलारा। चन्दा से भी प्यारी धरती जिस पर नदियाँ कल-कल करती । पेड़ों की हरियाली ओढ़े हम सबके है मन को हरती । हँसी दूध –सी जोश नदी –सा भोले मुखड़े मन के सच्चे । धरती से प्यारे भी लगते खिल-खिल करते नन्हें बच्चे । इन बच्चों में राम बसे हैं ये ही अपने किशन कन्हाई । इन बच्चों में काबा-काशी और नहीं है तीरथ है भाई । एेसी ही प्यारी-प्यारी कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

किस तरह से बदला जया ने इतिहास का प्रवाह

डॉ. महेश परिमल
तमिलनाड़ु में जयललिता की वापसी ने देश की राजनीति में कई समीकरण बदलकर रख दिए। पहला तो सभी चुनावी दिग्गजों की भविष्यवाणी पर करारा प्रहार कर दिया। दूसरा तमिलनाड़ु में करुणानिधि नाम के सूर्य को अस्ताचल में जाने को विवश कर दिया। तीसरी सबसे बड़ी बात, उन्होंने यह बता दिया कि राजनीति में नारेबाजी से ही काम नहीं चलता, कुछ करके भी दिखाना होता है। जयललिता ने जो कहा उसे करने में अपनी जान लगा दी। यही नहीं, वे जो कुछ कर रही थी, उसकी पूरी मानिटरिंग भी की। इसे अंजाम दिया, उस ईमानदार टीम ने, जो गांव-गांव ही नहीं, बल्कि शहर-शहर में खुले अम्मा इडली की छोटी-छोटी दुकानों की देखरेख करती थी। जयललिता को भले ही शहरों में अच्छी नजर से न देखा जाता हो, पर गांव में उनकी पकड़ आज भी है। उसने न केवल महिलाओं को रिझाया, बल्कि बच्चों के माध्यम से उनके पालकों को भी अपनी तमाम योजनाओं का लाभ दिलाया। अभी तक वहां दो प्रमुख दलों में एक के बाद एक का शासन आता था। लेकिन इस बार जयललिता ने अपनी पुनर्वापसी से कई लोगों की सोच पर तुषारापात ही कर दिया है।

तमिलनाड़ु का पिछले 25 वर्षों का इतिहास कहता है कि वहां कोई भी पार्टी दूसरी बार सत्ता पर काबिज नहीं होती। 1991 और 2016 के बीच जयललिता जयरामन ने तीन बार और करुणानिधि ने दो बार मुख्यमंत्री पद संभाला। परंपरा के अनुसार इस बार तो करुणानिधि को आना था, पर उनकी पार्टी की करारी हार ने सभी को चारों खाने चित्त कर दिया। पिछले कई महीनों से पूरे राज्य में सत्तारुढ़ दल के खिलाफ लहरें उठती दिखाई दे रही थी। करुणानिधि की सभाओं में भी काफी भीड़ दिखाई देती थी। इससे लोगों को लग गया था कि इस बार लोग जयललिता को वोट नहीं देंगे। वे लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगी। इसके बाद भी जया अम्मा ने चमत्कार कर बहुमत हासिल कर लिया। इससे तमिलनाड़ु का इतिहास ही बदल गया। तमिलनाड़ु में मतदान के पहले और बाद में जो भी सर्वेक्षण किए गए, उसमें से अधिकांश सर्वे की रिपोर्ट यही थी कि करुणानिधि जीतकर सरकार बनाएंगे। सोशल मीडिया का ट्रेंड स्पष्ट बता रहा था कि मतदाता जयललिता दोबारा मुख्यमंत्री पद पर नहीं देखना चाहते। पर जयललिता के जो समर्थक थे, वे गांव के गरीब लोग थे, ऑटो ड्राइवर थे और चायवाले थे। उन्हें फेसबुक, ट्विटर या व्हाट्स एप का उपयोग करने की आदत नहीं थी। जयललिता ने उन्हें ढेर सारी सौगातें देने का प्रलोभन देकर अपने पक्ष में माहौल बना लिया। सोशल मीडिया को बैरोमीटर मानने वाले पोल पंडित गोपनीय प्रवाह का आकलन करने में धोखा खा गए। इस चुनाव में डीएमके और अन्ना डीएमके के बीच कांटे की टक्कर दिखाई दे रही थी। करुणानिधि का बेटा स्टॉलिन ने पिछले 9 महीनों के दौरान ऐसा चक्रव्यूह रचा, जिससे उसकी जीत आसान हो जाए। उसने जयललिता को भ्रष्ट बताने के लिए क्या-क्या नहीं किया। उसने तो यह भी वादा कर रखा था कि उसकी सरकार आएगी, तो जयललिता को जेल होगी ही। इस संभावित जेल यात्रा का उसने खूब प्रचार किया। दूसरी ओर जयललिता ने पिछले 5 वर्षों में उन लोगों की सचमुच सहायता की, जिन्हें वास्तव में सहायता की आवश्यकता थी। उस कानून-व्यवस्था को तो सुधारा ही, साथ ही साथ प्रजा की परेशानियों को दूर करने की पूरी कोशिश की। खासकर बिजली की समस्या को दूर करने के लिए उसने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। अब प्रजा को बिजली की परेशानी से मुक्ति मिल गई।
करुणानिधि की चुनावी सभा में तमिलनाड़ु की जनता ने उनके साथ ए. राजा, दयानिधि मारन जैसे नेताओं को देखा। इससे लोगों को उनके घोटाले याद आ गए। जो उन्होंने 2 जी के नाम पर किए थे। जयललिता ने 2011 में सत्ता पर काबिज होने के बाद डीएमके के नेताओं के खिलाफ जमीन लूटने के 62,000 शिकायतें दर्ज कर करुणानिधि के साथियों का भ्रष्टाचारी चेहरा ही उजागर कर दिया। इसका सीधा असर मतदाताओं पर पड़ा। अपने 5 साल के शासन में उन्होंने मध्यम वर्ग और गरीबों का विशेष ध्यान रखा। उन्हें कई सौगातें देने की घोषणा की। इन घोषणाओं की राजनीतिक पंडित मजाक उड़ाते थे। पर उसे बाजी अपनी तरफ करना अच्छी तरह से आता था। उसने गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले सभी परिवारों को चार बकरे और एक गाय के अलावा एक मिक्चर ग्राइंडर और पंखा देने की घोषणा की, और उसे पूरा भी किया। सरकारी स्कू में पढ़ने वाले बच्चों को तीन जोड़ी यूनिफार्म, स्कूल बेग, कॉपी-किताबें आदि मुफ्त में दिए। कक्षा 11 वीं और 12 वीं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को सरकार की तरफ से मुफ्त में लेपटॉप दिए। तमिलनाड़ु की 50 प्रतिशत महिलाओं को जयललिता ने अपना मुख्य फोकस बनाया। अपने कार्यकाल में उसने लाखों युवतियों को उनकी शादी के समय 4 ग्राम सोना और 50 हजार रुपए नकद सहायता राशि के रूप में दी। अब अगले 5 वर्षों में 4 के बजाए 8 ग्राम सोना देने की घोषणा की है। यही नहीं, महिलाओं को सेनेटरी नेपकिन्स, फ्री अम्मा बेबी केयर किट्स आदि की सौगात दी। राज्य के कई स्थानों पर ऐसे शेल्टर होम तैयार किए गए, जहां माताएं अपने बच्चों को स्तनपान करा सके। एक रुपए में इडली और दो रुपए में दही-भात मिलने के सैकड़ों सेंटर तैयार किए। सभी सरकारी योजनाओं का लाभ लोगों तक पहुंचे, इसके लिए चुस्त प्रशासनिक व्यवस्था की गई। वह अच्छी तरह से जानती हैं कि गरीब आदमी का पेट भाषण या फिर आश्वासन से नहीं भरता। इसलिए उसने सीधे गरीबों का पेट भर जाए, इसकी व्यवस्था की। उसकी यह चाल कामयाब रही, जिसने उसे फिर से गद्दीनशीन कर दिया।
जयललिता ने कल्याणकारी योजनाओं का वादा कर मतदाताओं की नब्ज़ पर हाथ रख दिया। इसमें एक चतुराई उन्होंने यह की कि अपनी रैलियों में उन्होंने क्षेत्र विशेष की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया। कोयंबटूर में उन्होंने नहर योजना का वादा किया, जो वहां के किसानों की पुरानी मांग है। यह भी दावा कर दिया कि सरकार ने सलाहकार की सेवाएं ले भी ली हैं। धरमपुरी में उन्होंने कहा कि वह गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया से कहेंगी कि वे सात जिलों के किसानों की जमीन पर गैस पाइपलाइन लाइन न बिछाए। फिर जयललिता ने द्रमुक नेता करुणानिधि 
व उनके परिवार को सच्ची-झूठी बातों से बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। द्रमुक ने 2006 में लोगों को टीवी सेट बांटे थे। जयललिता ने कहा कि टीवी तो मुफ्त बांटे और कैबल कनेक्शन के तीन हजार रुपए ले लिए और इससे द्रमुक नेताओं ने 25,000 करोड़ रुपए कमा लिए। अपने दावे के लिए उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया। कहतीं कि वे सत्ता के लिए चाहे वादे कर रहे हों, लेकिन वे पूरे तभी होंगे जब करुणानिधि के परिवार को इससे फायदा हो। इस प्रकार चौतरफा चतुर रणनीति से जयललिता ने सत्ता में लगातार दूसरी बार लौटने का चमत्कार कर दिखाया। 
अंत में यही कि इस चुनाव द्वारा तमिलनाड़ु की राजनीति में करुणानिधि नाम का सितारा डूब गया है। उनके बेटे स्टालिन नामक नए सितारे का जन्म हुआ है। 2021 के चुनाव में करुणानिधि जीवित होंगे, तो  वे मुख्यमंत्री बनने की स्थिति में नहीं होंगे। अब यदि स्टालिन विपक्षी नेता की भूमिका में होते हैं, तो यह उनके भविष्य के लिए अच्छा अवसर होगा।
डॉ. महेश परिमल

पंचतंत्र की कहानियाँ - 10 - चापलूस मंडली

चापलूस मंडली...कहानी का अंश... जंगल में एक शेर रहता था। उसके चार सेवक थे चील, भेडिया, लोमडी और चीता। चील दूर-दूर तक उडकर समाचार लाती। चीता राजा का अंगरक्षक था। सदा उसके पीछे चलता। लोमडी शेर की सैक्रेटरी थी। भेडिया गॄहमंत्री था। उनका असली काम तो शेर की चापलूसी करना था। इस काम में चारों माहिर थे। इसलिए जंगल के दूसरे जानवर उन्हें चापलूस मंडली कहकर पुकारते थे। शेर शिकार करता। जितना खा सकता वह खाकर बाकी अपने सेवकों के लिए छोड जाया करता था। उससे मजे में चारों का पेट भर जाता। एक दिन चील ने आकर चापलूस मंडली को सूचना दी 'भाईयो! सडक के किनारे एक ऊंट बैठा हैं।' भेडिया चौंका 'ऊंट! किसी काफिले से बिछुड गया होगा।' चीते ने जीभ चटकाई 'हम शेर को उसका शिकार करने को राजी कर लें तो कई दिन दावत उडा सकते हैं।' लोमडी ने घोषणा की 'यह मेरा काम रहा।' लोमडी शेर राजा के पास गई और अपनी जुबान में मिठास घोलकर बोली 'महाराज, दूत ने खबर दी हैं कि एक ऊंट सडक किनारे बैठा हैं। मैंने सुना हैं कि मनुष्य के पाले जानवर का मांस का स्वाद ही कुछ और होता हैं। बिल्कुल राजा-महाराजाओं के काबिल। आप आज्ञा दें तो आपके शिकार का ऐलान कर दूं?' शेर लोमडी की मीठी बातों में आ गया और चापलूस मंडली के साथ चील द्वारा बताई जगह जा पहुंचा। वहां एक कमज़ोर-सा ऊंट सडक किनारे निढाल बैठा था। उसकी आंखें पीली पड चुकी थीं। उसकी हालत देखकर शेर ने पूछा 'क्यों भाई तुम्हारी यह हालात कैसे हुई?' ऊंट कराहता हुआ बोला 'जंगल के राजा! आपको नहीं पता इंसान कितना निर्दयी होता हैं। मैं एक ऊंटों के काफिले में एक व्यापार माल ढो रहा था। रास्ते में मैं बीमार पड गया। माल ढोने लायक़ नहीं रहा तो उसने मुझे यहां मरने के लिए छोड दिया। आप ही मेरा शिकार कर मुझे मुक्ति दीजिए।' ऊंट की कहानी सुनकर शेर को दुख हुआ। अचानक उसके दिल में राजाओं जैसी उदारता दिखाने की जोरदार इच्छा हुई। शेर ने कहा 'ऊंट, तुम्हें कोई जंगली जानवर नहीं मारेगा। मैं तुम्हें अभय देता हूं। तुम हमारे साथ चलोगे और उसके बाद हमारे साथ ही रहोगे।' चापलूस मंडली के चेहरे लटक गए। भेडिया फुसफुसाया 'ठीक हैं। हम बाद में इसे मरवाने की कोई तरकीब निकाल लेंगे। फिलहाल शेर का आदेश मानने में ही भलाई हैं।' इस प्रकार ऊंट उनके साथ जंगल में आया। कुछ ही दिनों में हरी घास खाने व आराम करने से वह स्वस्थ हो गया। शेर राजा के प्रति वह ऊंट बहुत कॄतज्ञ हुआ। शेर को भी ऊंट का निस्वार्थ प्रेम और भोलापन भाने लगा। ऊंट के तगडा होने पर शेर की शाही सवारी ऊंट के ही आग्रह पर उसकी पीठ पर निकलने लगी। वह चारों को पीठ पर बिठाकर चलता। एक दिन चापलूस मंडली के आग्रह पर शेर ने हाथी पर हमला कर दिया। दुर्भाग्य से हाथी पागल निकला। शेर को उसने सूंड से उठाकर पटक दिया। शेर उठकर बच निकलने में सफल तो हो गया, पर उसे चोंटें बहुत लगीं। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 14

लेख के बारे में... मुझे भय है कि मेरे खत कुछ पेचीदा होते जा रहे हैं। लेकिन अब जिंदगी भी तो पेचीदा हो गई है। पुराने जमाने में लोगों की जिंदगी बहुत सादी थी और अब हम उस जमाने पर आ गए हैं जब जिंदगी पेचीदा होनी शुरू हुई। अगर हम पुरानी बातों को जरा सावधानी के साथ जाँचें और उन तब्दीलियों को समझने की कोशिश करें जो आदमी की जिंदगी और समाज में पैदा होती गईं, तो हमारी समझ में बहुत-सी बातें आ जाएँगी। अगर हम ऐसा न करेंगे तो हम उन बातों को कभी न समझ सकेंगे जो आज दुनिया में हो रही हैं। हमारी हालत उन बच्चों की-सी होगी जो किसी जंगल में रास्ता भूल गए हों। यही सबब है कि मैं तुम्हें ठीक जंगल के किनारे पर लिए चलता हूँ ताकि हम इसमें से अपना रास्ता ढूँढ़ निकालें। तुम्हें याद होगा कि तुमने मुझसे मसूरी में पूछा था कि बादशाह क्या हैं और वह कैसे बादशाह हो गए। इसलिए हम उस पुराने जमाने पर एक नजर डालेंगे जब राजा बनने शुरू हुए। पहले-पहल वह राजा न कहलाते थे। अगर उनके बारे में कुछ मालूम करना है तो हमें यह देखना होगा कि वे शुरू कैसे हुए। मैं जातियों के बनने का हाल तुम्हें बतला चुका हूँ। जब खेती-बारी शुरू हुई और लोगों के काम अलग-अलग हो गए तो यह जरूरी हो गया कि जाति का कोई बड़ा-बूढ़ा काम को आपस में बाँट दे। इसके पहले भी जातियों में ऐसे आदमी की जरूरत होती थी जो उन्हें दूसरी जातियों से लड़ने के लिए तैयार करे। अक्सर जाति का सबसे बूढ़ा आदमी सरगना होता था। वह जाति का बुजुर्ग कहलाता था। सबसे बूढ़ा होने की वजह से यह समझा जाता था कि वह सबसे ज्यादा तजरबेदार और होशियार है। यह बुजुर्ग जाति के और आदमियों की ही तरह होता था। वह दूसरों के साथ काम करता था और जितनी खाने की चीजें पैदा होती थीं वे जाति के सब आदमियों में बाँट दी जाती थीं। हर एक चीज जाति की होती थी। आजकल की तरह ऐसा न होता था कि हर एक आदमी का अपना मकान और दूसरी चीजें हों और आदमी जो कुछ कमाता था वह आपस में बाँट लिया जाता था क्योंकि वह सब जाति का समझा जाता था। जाति का बुजुर्ग या सरगना इस बाँट-बखरे का इंतजाम करता था। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए...

समय की ढलान पर ठहरी झुर्रियाँ - डॉ. महेश परिमल

लेख के बारे में... आज के बदलते समाज की कड़वी सच्चाई है - वृद्धाश्रम। इसमें कोई दो मत नहीं कि आज जिन हाथों को थामकर मासूम झूलाघर में पहुँचाए जा रहे हैं, कल वही मासूम हाथ युवावस्था की देहरी पार करते ही उन काँपते हाथों को वृद्धाश्रम पहुचाएँगे। पहुँचाने की प्रक्रिया जारी रहेगी, बस हाथ बदल जाएँगे और जगह बदल जाएगी। कितनी भयावह सच्चाई है यह! इसकी भयावहता का अनुभव तब हुआ जब अखबार में यह खबर पढ़ी कि बड़े शहर के एक वृद्धाश्रम में अगले पंद्रह वर्षों तक के लिए किसी भी बुजुर्ग को नहीं लिया जाएगा, क्यांेकि वहाँ की सारी सीटें रिजर्व हैं! तो क्या हमारे यहाँ वृद्धों की संख्या बढ़ रही हैं नहीं हमारी संवेदनाएँ ही शून्य हो रही हैं। हमारे अपनेपन का ग्राफ कम से कमतर होता चला जा रहा है। दिल को दहला देने वाली ये खबर और इस खबर के पीछे छिपी सच्चाई मानवता को करारा चाँटा है। जब एक पिता अपने मासूम और लाडले को उँगली थामकर चलना सिखाता है, तो दिल की गहराइयों में एक सपना पलने लगता है - आज उँगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सीखलाऊँ कल हाथ पकड़ना मेरा जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ। ऐ मेरे लाडले आज मैंने तुझे सहारा दिया है कल जब मुझे सहारे की जरूरत हो तो मुझे बेसहारा न कर देना। लेकिन आज के बदलते समाज में बहुत ही कम ऐसे भाग्यशाली हैं, जिनका ये सपना सच हो रहा है। आज बुजुर्ग हमेशा हाशिए पर होते हैं। जिस तरह तट का पानी हमेशा बेकार होता है, डूबता सूरज नमन के लायक न होकर केवल मनोरम दृश्य होता है ठीक उसी तरह जीवन की साँझ का थका-हारा मुसाफिर भुला दिया जाता है या फिर वृद्धाश्रम की शोभा बना दिया जाता है। अनुभव की इस गठरी को घर के एक कोने में उपेक्षित रख दिया जाता है। आशा भरी नजरों से निहारती बूढ़ी आँखों को कभी घूर कर देखा जाता है तो कभी अनदेखा कर दिया जाता है। कभी उसे झिड़कियों का उपहार दिया जाता है तो कभी हास्य का पात्र बनाकर मनोरंजन किया जाता है। नई पीढ़ी हमेशा अपनी पुरानी पीढ़ी पर ये आरोप लगाती आई है कि इन बुजुर्गों को समय के साथ चलना नहीं आता। वे हमेशा अपनी मनमानी करते हैं। अपनी इच्छाएँ दूसरों पर थोपते हैं। स्वयं की पसंद का कुछ न होने पर पूरे घर को सर पर उठा लेते हैं और बड़बड़ाते रहते हैं। गड़े मुर्दे उखाड़ने की आदत बना लेते हैं। इसीलिए युवा उनसे दूर भागने का प्रयास करते हैं। उनकी साठ के बाद की सठियाई हरकतों पर नाराज होते हैं। बुजुर्गों पर लगाए गए ये सारे आरोप अपनी जगह पर सच हो सकते हैं पर यदि उनकी जगह पर खुद को रख कर देखें तो ये आरोप सच होकर भी शत प्रतिशत सच नहीं कहे जा सकते। ये भी हो सकता है कि खुद को उनकी जगह पर रखने के बाद हमारी सोच में ही बदलाव आ जाए। आज बुजुर्गों ने नई पीढ़ी के साथ कदमताल करने का प्रयास किया है। इसी का परिणाम है कि हम बुजुर्गो को माॅल में घूमते हुए देखते हैं पिज्जा-बर्गर खाते हुए देखते हैं प्लेन में सफर करते हुए देखते हैं स्कूटी पर बैठे हुए देखते हैं पार्क में टहलते हुए योगा करते हुए किसी हास्य क्लब में हँसी के नए-नए प्रकार पर अभिनय करते इन बुजुर्गों के चेहरों पर कोई लाचारगी या विवशता नहीं दिखती बल्कि वे इन कामों को दिल से करते हैं। उम्र के पड़ाव पार करते इन बुजुर्गों ने समय की चाल पहचानी है तभी तो वे नए जोश के साथ इस राह पर निकल पड़े हैं जहाँ वे नई पीढ़ी को उनकी हाँ में हाँ मिलाकर खुशियाँ दे सकें। अनुभवों का ये झुर्रीदार संसार हमारी धरोहर है। यदि समाज या घर में आयोजित कार्यक्रमों में कुछ गलत हो रहा है तो इसे बताने के लिए इन बुजुर्गों के अलावा कौन है जो हमारी सहायता करेगा विवाह के अवसर पर जब एकाएक किसी रस्म अदायगी के समय वर या वधू पक्ष के गोत्र बताने की बात आती है तो घर के सबसे बुजुर्ग की ही खोज होती है। आज की युवा पीढ़ी भले ही इन्हें अनदेखा करती हो, पर यह भी सच है कि कई रस्मों की जानकारी बुजुर्गों के माध्यम से ही मिलती है। आज कई घरों में नाती-पोतों के साथ कम्प्यूटर पर गेम खेलते बुजुर्ग मिल जाएँगे या फिर आज के फैशन पर युवा पीढ़ी से बातचीत करती बुजुर्ग महिलाएँ भी मिल जाएँगी। यदि आज के बुजुर्ग ये सब कर रहे हैं तो उन पर लगा ये आरोप तो बिलकुल बेबुनियाद है कि वे आज की पीढ़ी के साथ कदमताल नहीं करते हैं। बल्कि वे तो समय के साथ चलने का पूरा प्रयास कर रहे हैं। हम ही उनके चाँदी-से चमकते बालों से उम्र का अंतर महसूस कर उन्हें हाशिए की ओर धकेलने का प्रयास कर रहे हैं। बुजुर्ग हमारे साथ समय गुजारना चाहते हैं। कुछ अपनी कहना चाहते हैं और कुछ हमारी सुनना चाहते हैं। पर हमारे पास उनकी बात सुनने का समय ही नहीं है इसलिए हम अपने विचार उन पर थोपकर उनसे किनारा कर लेते हैं। क्या आपको याद है - अपनेपन से भरा कोई पल आपने उनके साथ बिताया है! दिनभर केवल उनकी सुनी है और उनके अपनापे के सागर में गोते लगाए हैं! लगता है, एक अरसा बीत गया है हमने तो उन्हें स्नेह की दृष्टि से देखा ही नहीं है। जब भी देखा है स्वार्थी आँखों से देखा है कि यदि हम घर से बाहर जा रहे हैं तो वे घर की सही देखभाल करें या बच्चों को सँभाले या फिर शांत बैठे रहें। यदि वे घर के छोटे-मोटे काम जैसे कि सब्जी लाना बिजली या टेलीफोन बिल भरना बच्चों को स्कूल के स्टाॅप तक छोड़ना आदि कामों में सहायता करते हैं तो वे हमारे लिए सबसे अधिक उपयोगी हैं लेकिन यदि इन कामों में भी उनका सहयोग नहीं मिल पाता है तो ये धीरे-धीरे बोझ लगने लगते हैं। अपने मन में पलती-बढ़ती इन गलत धारणाओं को बदल दीजिए। इन बुजुर्गों के अनुभव के पिटारे में कई रहस्यमय कहानियाँ कैद हैं। इनके पोपले मुँह में स्नेह की मीठी लोरियाँ समाई हैं। भले ही इनकी याददाश्त कमजोर हो रही हों पर अचार की विविध रेसिपी का खजाना, छोटी-मोटी बीमारी पर घरेलू उपचार का अचूक नुस्खा इन्हें मुँहजबानी याद है। ये इसे बताने के लिए लालायित रहते हैं, बस इनसे पूछने भर की देर है। आज इस प्यारी और अनुभवी धरोहर से हम ही किनारा कर रहे हैं। घर के आँगन में गूँजती ठक-ठक की आवाज हमारे कानों को बेधती है। आज ये आवाज वृद्धाश्रमों में कैद होने लगी है। झुर्रियों के बीच अटकी हुई उनकी आँसूओं की गर्म बूँदें हमारी भावनाओं को जगाने में विफल साबित हो रही है। हमारी उपेक्षित दृष्टि में उनके लिए दयाभाव नहीं है। हमारी संवेदनहीनता वास्तव में एक शुरुआत है- उस अंधकार की ओर जाने की जहाँ हम भी एक दिन खो जाएँगे। अंधकार के गर्त में स्वयं को डूबोने से कहीं ज्यादा अच्छा है इन अनुभवों कं झुर्रिदार चेहरों को हम उजालों का संसार दें। इनकी रौशनी से खुद का ही संसार रौशन करें। इस लेख का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

शुक्रवार, 27 मई 2016

कविताएँ - डॉ. दीप्ति गुप्ता

कविता का अंश... मेरे अन्दर का आकाश कभी स्वच्छ, निरभ्र, साफ-सुथरा धुला-धुला,असीम उल्लास बिखेरता मुझे उत्साहित करता है, प्रेरित करता है !…..... तब मैं चहकी-चहकी, महकी-महकी थिरकी - थिरकी, काम में मगन लिए अथक मन, प्रफुल्लित रहती हूँ दिन में दमकता सूरज रात में चमकता चाँद टिमटिम तारों की दीपित आभा एक सुहाना गुनगुना आभास मन्द - मन्द शीतल फुहार का अहसास भर देता मन में ढेर उजास ! पर ..........................., कभी-कभी मेरे अन्दर का आकाश अँधेरा, मटमैला घटाओं से घिरा अनन्त निराशा उड़ेलता मुझे हतोत्साहित करता, डराता तब मैं चुप - चुप सहमी-सहमी थमी - थमी, काम से उखड़ी लिए थका मन..............., निरूत्साहित रहती हूँ ! न दिन में सूरज, न रात में चाँद सितारे भी जैसे सो जाते लम्बी तान एक ठहरे से दर्द का आभास तूफान से पहली की खामोशी का अहसास कर देता मन को बहुत उदास ! ऐसी ही अन्य कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

कविता - मौन - गौरव भारती

कविता का अंश... मैं और यह शाम, निकल पड़ते हैं अक्सर थामे हाथ, सूर्य जब छिप जाता है गगन में कहीं दूर, पंछियाँ जब घर लौटने को हो जाती हैं मजबूर। ज्यों ज्यों शाम गहराने लगती है, कुछ है जो राग अपना गाने लगती है, मैं ढूँढने लगता हूँ ज़िंदगी यहाँ-वहाँ, वह लावारिस, ललचाई निगाहों से - मुझे निहारने लगती है। समझ नहीं पाता निहितार्थ उसका मैं, आँखें चुरा कर मुक्ति पाता हूँ, मुड़ कर देखता हूँ जो पीछे, आत्मग्लानि से ख़ुद को भरा पाता हूँ। हर गली मोहल्ले चौक-चौराहे पर, ज़िंदगी को फटेहाल सिकुरें गठरी सा देखता हूँ, कुछ कहती है ये निगाहें जो घेरे है मुझे, सुर्ख़ होठों पर है प्रश्न जिसे मैं निहार पाता हूँ। विचारों की घुर्नियाँ छेड़ने लगतीं हैं मुझे, अजीब सा कोलाहल कानों को थपथपाने लगता है, वे पूछते हैं अपनी सुबह के बारे में, मैं निरुत्तर ख़ुद को बहुत गिरा हुआ पाता हूँ। नहीं है मेरे पास वादों की लड़ियाँ, सपने दिखा तोड़ने वाला होता हूँ मैं कौन? उसके सवालों का है नहीं कोई मुकम्मल जवाब, बेबस, लाचार इसलिए रह जाता हूँ मैं, मौन। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

पंचतंत्र की कहानियाँ - 9 - घंटीधारी ऊँट

घंटीधारी ऊँट...कहानी का अंश... एक बार की बात हैं कि एक गांव में एक जुलाहा रहता था। वह बहुत गरीब था। उसकी शादी बचपन में ही हो गई थी। बीवी आने के बाद घर का खर्चा बढना था। यही चिन्ता उसे खाए जाती। फिर गांव में अकाल भी पड़ा। लोग कंगाल हो गए। जुलाहे की आय एकदम खत्म हो गई। उसके पास शहर जाने के सिवा और कोई चारा न रहा। शहर में उसने कुछ महीने छोटे-मोटे काम किए। थोडा-सा पैसा अंटी में आ गया और गांव से खबर आने पर कि अकाल समाप्त हो गया हैं, वह गांव की ओर चल पडा। रास्ते में उसे एक जगह सडक किनारे एक ऊंटनी नजर आई। ऊटंनी बीमार नजर आ रही थी और वह गर्भवती थी। उसे ऊंटनी पर दया आ गई। वह उसे अपने साथ अपने घर ले आया। घर में ऊंटनी को ठीक चारा व घास मिलने लगी तो वह पूरी तरह स्वस्थ हो गई और समय आने पर उसने एक स्वस्थ ऊंट बच्चे को जन्म दिया। ऊंट बच्चा उसके लिए बहुत भाग्यशाली साबित हुआ। कुछ दिनों बाद ही एक कलाकार गांव के जीवन पर चित्र बनाने उसी गांव में आया। पेंटिंग के ब्रुश बनाने के लिए वह जुलाहे के घर आकर ऊंट के बच्चे की दुम के बाल ले जाता। लगभग दो सप्ताह गांव में रहने के बाद चित्र बनाकर कलाकार चला गया। इधर ऊंटनी खूब दूध देने लगी तो जुलाहा उसे बेचने लगा। एक दिन वहा कलाकार गांव लौटा और जुलाहे को काफ़ी सारे पैसे दे गया, क्योंकि कलाकार ने उन चित्रों से बहुत पुरस्कार जीते थे और उसके चित्र अच्छी कीमतों में बिके थे। जुलाहा उस ऊंट बच्चे को अपना भाग्य का सितारा मानने लगा। कलाकार से मिली राशि के कुछ पैसों से उसने ऊंट के गले के लिए सुंदर-सी घंटी ख़रीदी और पहना दी। इस प्रकार जुलाहे के दिन फिर गए। वह अपनी दुल्हन को भी एक दिन गौना करके ले आया। ऊंटों के जीवन में आने से जुलाहे के जीवन में जो सुख आया, उससे जुलाहे के दिल में इच्छा हुई कि जुलाहे का धंधा छोड क्यों न वह ऊंटों का व्यापारी ही बन जाए। उसकी पत्नी भी उससे पूरी तरह सहमत हुई। अब तक वह भी गर्भवती हो गई थी और अपने सुख के लिए ऊंटनी व ऊंट बच्चे की आभारी थी। जुलाहे ने कुछ ऊंट ख़रीद लिए। उसका ऊंटों का व्यापार चल निकला। अब उस जुलाहे के पास ऊंटों की एक बडी टोली हर समय रहती। उन्हें चरने के लिए दिन को छोड़ दिया जाता। ऊंट बच्चा जो अब जवान हो चुका था उनके साथ घंटी बजाता जाता। एक दिन घंटीधारी की तरह ही के एक युवा ऊंट ने उससे कहा 'भैया! तुम हमसे दूर-दूर क्यों रहते हो?' घंटीधारी गर्व से बोला 'वाह तुम एक साधारण ऊंट हो। मैं घंटीधारी मालिक का दुलारा हूं। मैं अपने से ओछे ऊंटों में शामिल होकर अपना मान नहीं खोना चाहता।' उसी क्षेत्र में वन में एक शेर रहता था। शेर एक ऊंचे पत्थर पर चढकर ऊंटों को देखता रहता था। उसे एक ऊंट और ऊंटों से अलग-थलग रहता नजर आया। जब शेर किसी जानवर के झुंड पर आक्रमण करता हैं तो किसी अलग-थलग पड़े को ही चुनता हैं। घंटीधारी की आवाज़ के कारण यह काम भी सरल हो गया था। बिना आंखों देखे वह घंटी की आवाज़ पर घात लगा सकता था। आगे क्या हुआ, ये जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 13

खेती से पैदा हुई तब्दीलियाँ... लेख के बारे में...अपने पिछले खत में मैंने कामों के अलग-अलग किए जाने का कुछ हाल बतलाया था। बिल्कुल शुरू में जब आदमी सिर्फ शिकार पर बसर करता था, काम बँटे हुए न थे। हर एक आदमी शिकार करता था और मुश्किल से खाने भर को पाता था। पहले मर्दों और औरतों के बीच में काम बँटना शुरू हुआ होगा, मर्द शिकार करता होगा और औरत घर में रहकर बच्चों और पालतू जानवरों की निगरानी करती होगी। जब आदमियों ने खेती करना सीखा तो बहुत-सी नई-नई बातें निकलीं। पहली बात यह हुई कि काम कई हिस्सों में बँट गया। कुछ लोग शिकार खेलते और कुछ खेती करते और हल चलाते। ज्यों-ज्यों दिन गुजरते गए आदमी ने नए-नए पेशे सीखे और उनमें पक्के हो गए। खेती करने का दूसरा अच्छा नतीजा यह हुआ कि लोग गॉंव और कस्बों में आबाद होने लगे। खेती के पहले लोग इधार-उधार घूमते-फिरते थे और शिकार करते थे। उनके लिए एक जगह रहना जरूरी नहीं था। शिकार हर एक जगह मिल जाता था। इसके सिवाय उन्हें गायों, बकरियों और अपने दूसरे जानवरों की वजह से इधर-उधर घूमना पड़ता था। इन जानवरों को चराने के लिए चरागाह की जरूरत थी। एक जगह कुछ दिनों तक चरने के बाद जमीन में जानवरों के लिए काफी घास न पैदा होती थी और सारी जाति को दूसरी जगह जाना पड़ता था। जब लोगों को खेती करना आ गया तो उनका जमीन के पास रहना जरूरी हो गया। जमीन को जोत-बो कर वे छोड़ न सकते थे। उन्हें साल भर तक लगातार खेती का काम लगा ही रहता था और इस तरह गॉंव और शहर बन गए। दूसरी बड़ी बात जो खेती से पैदा हुई वह यह थी कि आदमी की जिंदगी ज्यादा आराम से कटने लगी। खेती से जमीन में खाना पैदा करना सारे दिन शिकार खेलने से कहीं ज्यादा आसान था। इसके सिवा जमीन में खाना भी इतना पैदा होता था जितना वह एकदम खा नहीं सकते थे इससे वह हिफाजत से रखते थे। एक और मजे की बात सुनो। जब आदमी निपट शिकारी था तो वह कुछ जमा न कर सकता था या कर भी सकता था तो बहुत कम, किसी तरह पेट भर लेता था। उसके पास बैंक न थे। जहाँ वह अपने रुपए व दूसरी चीजें रख सकता। उसे तो अपना पेट भरने के लिए रोज शिकार खेलना पड़ता था, खेती में उसे एक फसल में जरूरत से ज्यादा मिल जाता था। इस फालतू खाने को वह जमा कर देता था। इस तरह लोगों ने फालतू अनाज जमा करना शुरू किया। लोगों के पास फालतू खाना इसलिए हो जाता था कि वह उससे कुछ ज्यादा मेहनत करते थे जितना सिर्फ पेट भरने के लिए जरूरी था। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजए...

कविताएँ - राजेंद्र प्रताप सिंह

कविता का अंश... जीवन दात्री धरती,रक्त रंजित हो रही, फूलों की बगिया, पुष्प रहित हो रही। औरों की प्यास बुझाते हुए, स्वयं प्यासी हो गयी, मानव की प्यास बुझने का नाम नहीं लेती। अतृप्त मानव खून का प्यासा हो रहा, पानी से नहीं, अब तो खून से भी नहीं बुझती। कौरव पाण्डवों से नहीं, कौरवों से ही लड़ रहे पाण्डव अज्ञातवास में है, कौरव युद्ध जारी है। धृतराष्ट् को दिखता नहीं, युधिष्ठिर जुऐ में व्यस्त है। कृष्ण असहाय से मूक दर्शक बन दूर चले गए। द्वारिका भी है गृह युद्ध में झुलसे हुए, राम ,हनुमान भी अयोध्या में हैं उलझे हुए, शिव भी विषपान कर, हिम पर्वत पर चले गए। सीता हरण भी हो गया, रावण को खोजते ही रहे, अब कौन बचाए ?इस धरती को आतंक से सच तो यह है कि सभी व्यस्त हैं अपने मंगल में, हे मानव ! अब तो जागो खुद के दंगल से । बाहर निकलो ,अपने अंतर्मन के दवंद्व से। ऐसी ही अन्य कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

बाल कविता - चिड़ियों ने बाज़ार लगाया - उषा बंसल

कविता का अंश... चिड़ियों ने बाज़ार लगाया एक कुंज को ख़ूब सजाया तितली लाई सुंदर पत्ते, मकड़ी लाई कपड़े-लत्ते बुलबुल लाई फूल रँगीले, रंग -बिरंगे पीले-नीले तोता तूत और झरबेरी, भर कर लाया कई चँगेरी पंख सजीले लाया मोर, अंडे लाया अंडे चोर गौरैया ले आई दाने, बत्तख सजाए ताल-मखाने कोयल और कबूतर कौआ, ले कर अपना झोला झउआ करने को निकले बाज़ार, ठेले पर बिक रहे अनार कोयल ने कुछ आम खरीदे, कौए ने बादाम खरीदे, गौरैया से ले कर दाने, गुटर कबूतर बैठा खाने . करे सभी जन अपना काम, करते सौदा, देते दाम कौए को कुछ और न धंधा, उसने देखा दिन का अंधा, बैठा है अंडे रख आगे, तब उसके औगुन झट जागे उसने सबकी नज़र बचा कर, उसके अंडे चुरा-चुरा कर कोयल की जाली में जा कर, डाल दिये चुपचाप छिपा कर फिर वह उल्लू से यों बोला, 'क्या बैठ रख खाली झोला' उल्लू ने जब यह सुन पाया 'चोर-चोर' कह के चिल्लाया हल्ला गुल्ला मचा वहाँ तो, किससे पूछें बता सके जो कौन ले गया मेरे अंडे, पीटो उसको ले कर डंडे बोला ले लो नंगा-झोरी, अभी निकल आयेगी चोरी। आगे की कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

कहानी - वो तस्वीर - उषा बंसल

कहानी का अंश... निशा आज कुछ फुर्सत में थी। उसने सोचा कि आज पुराना सामान छाँट कर कूड़ा कुछ कम कर दूँ। इस विचार से उसने अल्मारी खोली ही थी कि उसकी निगाह एलबम पर पड़ गई। उसका हाथ अनायास ही एलबम पर पहुँच गया। एलबम निकालते हुए मन ने टोका कि पुरानी यादों में उलझ जाओगी तो कूड़ा कैसे कम कर पाओगी? पर एलबम के आकर्षण चतुरा बुद्धि पर भारी पड़ गया। बस दस मिनट में फोटो देखकर सामान छाँटने में लग जाऊँगी...सिर्फ दस मिनट। क्या और कितना हर्ज हो जायेगा इन दस मिनट में। एलबम उठाकर वो आराम कुर्सी पर बैठ गई। एलबम के पन्ने पलटने के साथ यादों की परतें भी मस्तिष्क में करवटें बदलने लगीं। निशा की नज़र एक 4-5 वर्ष की तस्वीर पर अटक गई। यूँ तो फोटो साधारण थी बच्ची भी कोई अप्सरा न थी। वो न कोई परी या डाईन थी। वो तस्वीर थी एक बच्ची की, जो बिना मेज़पोश की मेज़ पर बैठी थी। उसने मामूली छींटदार फ्राक पहिन रखा था। उसके पैर नंगे थे। आँख में लगा काजल फूले हुए गालों तक फैला था। आँखों की कोर से लुढ़कने को बेताब दो नमकीन पानी की बूँदे अटकी थीं। श्वेत–श्याम वह तस्वीर निशा के जेहन पर छा गई। उसकी नज़र मानो तस्वीर से चिपक कर रह गई। वो तस्वीर उसकी अपनी थी। जो मात्र तस्वीर ही नहीं वरन् उसका गुज़रा बचपन व उसका अपना बीता कल था। इतनी छोटी थी वो तब पर भी उससे जुड़ी सभी घटनायें बड़ी बारीकी से उसकी यादों में बसी थीं? क्या इतनी कम उम्र की बातें भी याद रह सकती हैं? ये ऐसी बात है जिसकी कभी घर में किसी प्रसंगवश चर्चा भी नहीं हुई थी। उस समय वह साढ़े चार साल की रही होगी। उसके पिताजी आफिस में काम करते थे। निशा उनकी चौथी कन्या थी। पिताजी को पूरी उम्मीद थी कि उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। लेकिन हाय रे भाग्य, फिर लड़की हो गई। उनकी सभी आशायें निराशा में बदल गईं। जीवन में होने वाला सुप्रभात रात्री की कालिमा से आवृत हो गया। उन्होंने अपनी आशा के निराशा में बदल जाने के अनुरूप उस बच्ची का नाम निशा रख दिया। पिताजी को निशा से नफ़रत सी थी। गलती कोई करे डाँट निशा को पड़ जाती थी। निशा पिताजी से इतना डरने लगी कि उनके ड्योढ़ी में पैर रखते ही वह घर के किसी कोने में छिप जाती थी। निशा के जन्म के ढाई साल बाद उनके घर कुलदीपक पुत्र का जन्म हुआ। निशा की माँ इसे निशा का भाग्य बताकर फूली न समाती थीं। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

गुरुवार, 26 मई 2016

कविता - अंजना वर्मा

कलम दौड़ी जा रही है... कविता का अंश... जनवरी का महीना है, आधी रात से ऊपर का वक्त, सन्नाटा लगा रहा है गश्त, झन्न बोल रही है उसकी सीटी, इंसान जड़ हो गया है बिस्तर में, पेड़ों की पत्तियाँ भी जमकर काठ हो गई है, ठंड के बिच्छूओं के अनगिनत डंको से, सड़क हो गई है अचेत.... नीली चादर पर दूधिया झीनी मसहरी में चांद सोया हुआ है गहरी नींद में.. आगे की कविता ऑडियो की मदद से सुनिए...

मैथिलीशरण गुप्त की कविता - मनुष्यता

कविता का अंश... विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी¸ मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी। हुई न यों सु–मृत्यु तो वृथा मरे¸ वृथा जिये¸ नहीं वहीं कि जो जिया न आपके लिए। यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। उसी उदार की कथा सरस्वती बखानवी¸ उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती। उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती; तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती। अखण्ड आत्मभाव जो असीम विश्व में भरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिये मरे।। सहानुभूति चाहिए¸ महाविभूति है वही; वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही। विरूद्धवाद बुद्ध का दया–प्रवाह में बहा¸ विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे? अहा! वही उदार है परोपकार जो करे¸ वहीं मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े¸ समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े–बड़े। परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी¸ अभी अमत्र्य–अंक में अपंक हो चढ़ो सभी। रहो न यों कि एक से न काम और का सरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। "मनुष्य मात्र बन्धु है" यही बड़ा विवेक है¸ पुराणपुरूष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है। फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद है¸ परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं। अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए¸ विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए। घटे न हेल मेल हाँ¸ बढ़े न भिन्नता कभी¸ अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी। तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे¸ वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। रहो न भूल के कभी मदांध तुच्छ वित्त में सन्त जन आपको करो न गर्व चित्त में अन्त को हैं यहाँ त्रिलोकनाथ साथ में दयालु दीन बन्धु के बडे विशाल हाथ हैं अतीव भाग्यहीन हैं अंधेर भाव जो भरे वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।। इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

बाल कविताएँ - मैथिलीशरण गुप्त

कविता का अंश... सरकस होकर कौतूहल के बस में, गया एक दिन मैं सरकस में। भय-विस्मय के खेल अनोखे, देखे बहु व्यायाम अनोखे। एक बड़ा-सा बंदर आया, उसने झटपट लैम्प जलाया। डट कुर्सी पर पुस्तक खोली, आ तब तक मैना यौं बोली। ‘‘हाजिर है हजूर का घोड़ा,’’ चौंक उठाया उसने कोड़ा। आया तब तक एक बछेरा, चढ़ बंदर ने उसको फेरा। टट्टू ने भी किया सपाटा, टट्टी फाँदी, चक्कर काटा। फिर बंदर कुर्सी पर बैठा, मुँह में चुरट दबाकर ऐंठा। माचिस लेकर उसे जलाया, और धुआँ भी खूब उड़ाया। ले उसकी अधजली सलाई, तोते ने आ तोप चलाई। एक मनुष्य अंत में आया, पकड़े हुए सिंह को लाया। मनुज-सिंह की देख लड़ाई, की मैंने इस भाँति बड़ाई- किसे साहसी जन डरता है, नर नाहर को वश करता है। मेरा एक मित्र तब बोला, भाई तू भी है बम भोला। यह सिंही का जना हुआ है, किंतु स्यार यह बना हुआ है। यह पिंजड़े में बंद रहा है, नहीं कभी स्वच्छंद रहा है। छोटे से यह पकड़ा आया, मार-मार कर गया सिखाया। अपने को भी भूल गया है, आती इस पर मुझे दया है। इस कविता के अलावा एक और कविता ऑडियो की मदद से सुनिए...

राजेन्द्र अविरल की कविताएँ

कविता का अंश... लाशें बोलेंगी..? कुछ नहीं होगा हमसे, क्योंकि .. अब जिन्दा चुप रहेंगे और लाशें बोलेंगी / चिल्लायेंगे गिद्ध और कौवे कुत्ते और भेड़िये नोचेंगे जिन्दा /लाशों को गीदड़ भागेंगे, उल्टे पैर गाँवो की ओर मेमने रोएंगे , शेर मिमियांएंगे , बुद्धि कसमसाएगी , चालाकी फुसफुसाएगी अहिंसा सकपकाएगी ,शांति बिलबिलाएगी, अब प्रतिहिंसा फिर हिनहिनाएगी शोलों पे जमीं राख अब खुद ब खुद उड़ जाएगी . गुम्बदों के गुबार , छा जाएंगे दिलों पर अंधेरा रातों का , मिट जाएगा आतिशबाजी में बहरे भी सुन सकेंगे,सब धमाके अब संवेदनाएं मर जाएंगी शुभकामनाएं सड़ जाएंगी रिश्ते के धागे पड़ने लगेंगे छोटे उम्मीदों की पतंगे कटती जाएंगी नगाड़ों के शोर भले ही थम जाएं पर नहीं जन्मेगी शांति मौन, वाचालों पर भारी होगा नौटंकियां बन्द होंगी और मुर्दों को जीने का हक नहीं होगा आगे की कविता एवं अन्य कविता ऑडियो की मदद से सुनिए...

क्षितिज के उस पार - देवी नागरानी

कहानी का अंश... हाँ वो शिला ही थी!! कैसे भूल कर सकती थी मैं पहचान ने में उसे, जिसे बरसों देखा, साथ गुजारा, पल पल उसके बारे में सोचा. शिला थी ही ऐसी, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी हुई एक सजीव आत्मा जो तन को ओढ़कर इस सँसार की सैर को निकली हो. जिस राह से वो गुजरती, गुजरने वाले थम जाते थे, जैसे जम से जाते थे. उनकी आँखे पत्थरा जाती, जैसे किसी नूर को सामने पाया हो. हाँ वही हूर शिला मेरी प्रिय सहेली आज मेरे सामने से गुजर रही है, खुद से होकर बेखबर. बारह वर्ष कोई इतना लंबा अरसा तो नहीं होता, जहाँ इन्सान इस कदर बदल जाये, न फ़कत रँग रूप में, पर जिसके पूरे अस्तित्व की काया पलट हो जाए. वो कालेज के जमाने भी खूब हुआ करते थे, जब मैं और शिला साथ साथ रहा करते थे, एक कमरे में, एक ही क्लास में और लगभग पूरा वक्त साथ खाना, साथ पढ़ना, साथ समय बिताना. क्या ओढ़ना, क्या बिछाना ऐसी हर सोच से परे, आजाद पँछियों की तरह चहकते हुए, हर पल का लुत्फ लेते हुए, हर साल कालेज में टाप करते हुए अब हम दोनों फाइनल साल में पहुँचीं. चार साल का अरसा कोई कम तो नहीं होता, किसी को जानने के लिये, पहचानने के लिये. "अरे शिला!" मैंने उसके करीब जाते ही अपनेपन से उसे पुकारा. अजनबी सी आँखें बिना भाव मेरी ओर उठी, उठकर फिर झुकी और वह कदम आगे बढ़ाकर चल पड़ी, ऐसे जैसे मैं कोई अजनबी थी. "शिला, मैं तुम्हारी सहेली सवी, कैसी हो?" जैसे सुना ही न हो, या चाहकर भी सुनना न चाहती हो, कुछ ऐसा अहसास मन में उठा. ऐसा क्या हो सकता है जो इस बदलाव का कारण बने? इठलाती, बलखाती, हर कदम पर थिरकती हुई शिला, जैसे किसी शिल्पकार की तराशी कोई छवि, दिन भर गुनगुनाती अपने आस पास एक खुशबू फैलाती, आज इतनी बेरँग, रूखी बिना अहसास क्यों? मेरी उत्सुकता बढ़ी, मैंने आगे बढ़कर उसके साथ कदम मिलाकर चलते हुए धीरे से फिर उसका हाथ थाम लिया. " शिला, मैं तो वही सवी, सविता हूँ, पर तुम शिला होकर भी शिला नहीं हो, यह मैं नहीं मानती. कैसा है समीर?" इस सवाल से उसके चेहरे के रंग में जो बदलाव आया वो देखने जैसा था. चेहरे पर तनाव के बादल गहरे हो गये, आँखों में उदासी के साए ज्यादा घने और तन सिमटकर छुई मुई सा, जैसे वह सिमट कर अपना अस्तित्व छुपा लेना चाहती हो. मैंने उसकी कलाई पकड़ ली. जब उसने छुड़ाने की कोशिश की तो ज्यादा पुख्त़गी से पकड़ी, और हाँ उसने भी फिर छुडाने की कोशिश नहीं की. शायद अपनेपन की गर्मी से पत्थर पिघलने लगा था. उसी प्यार की आँच में पिघलकर ही तो वह समीर के साथ चली गई, दूर बहुत दूर किसी और दुनियाँ में. पीछे छोड़ गई अपनी प्यारी सहेली सविता को, अपने अंतिम वर्ष की पढ़ाई को, अपने आने वाले उज्जल भविष्य को. शायद उस प्यार की पनाह ने उससे वह रौशनी छीन ली थी, जिस कारण उसे सिर्फ समीर, उसकी चित्रकारी, और तूलिका पर निखरे रँग आस पास दिखाई पड़ रहे थे. जाने क्या था वह, कैसे खुमार था, प्यार का जुनून ही रहा होगा, जो उसने अपना भविष्य समीर के नाम लिख दिया. और एक दिन अचानक वह उसके साथ शादी कर अचानक मेरे सामने आ खड़ी हुई. आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

पंचतंत्र की कहानियाँ - 8 - गधा रहा गधा ही

कहानी का अंश... एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरुरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौड़ा हो जाता। एक दिन शेर ने एक बिगडैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड़ दिया। किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगो की मार से काफ़ी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परन्तु शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड जाए। शेर ने एक दिन उसे सुझाया 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करुं? तू जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।' गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था। गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पांय लागूं चाचा। बहुत कमज़ोर हो गए हो, क्या बात हैं?' गधे ने अपना दुखड़ा रोया 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।' गीदड़ ने उसे न्यौता दिया 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।' गधे ने कान फडफडाए 'राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।' 'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।' गीदड़ बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई है तुम उसके साथ घर बसा लेना।' आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 12

मजहब की शुरुआत और काम का बँटवारा... लेख के बारे में... पिछले खत में मैंने तुम्हें बतलाया था कि पुराने जमाने में आदमी हर एक चीज से डरता था और खयाल करता था कि उस पर मुसीबतें लानेवाले देवता हैं जो क्रोधी हैं और इर्ष्‍या करते है। उसे ये फर्जी देवता जंगल, पहाड़, नदी, बादल सभी जगह नजर आते थे। देवता को वह दयालु और नेक नहीं समझता था, उसके खयाल में वह बहुत ही क्रोधी था और बात-बात पर झल्ला उठता था। और चूँकि वे उसके गुस्से से डरते थे इसलिए वे उसे भेंट देकर, खासकर खाना पहुँचा कर, हर तरह की रिश्वत देने की कोशिश करते रहते थे। जब कोई बड़ी आफत आ जाती थी, जैसे भूचाल या बाढ़ या महामारी जिसमें बहुत-से आदमी मर जाते थे, तो वे लोग डर जाते थे और सोचते थे कि देवता नाराज हैं। उन्हें खुश करने के लिए वे मर्दों-औरतों का बलिदान करते, यहाँ तक कि अपने ही बच्चों को मार कर देवताओं को चढ़ा देते। यही बड़ी भयानक बात मालूम होती है लेकिन डरा हुआ आदमी जो कुछ कर बैठे, थोड़ा है। इसी तरह मजहब शुरू हुआ होगा। इसलिए मजहब पहले डर के रूप में आया और जो बात डर से की जाए बुरी है। तुम्हें मालूम है कि मजहब हमें बहुत सी अच्छी-अच्छी बातें सिखाता है। जब तुम बड़ी हो जाओगी तो तुम दुनिया के मज़हबों का हाल पढ़ोगी और तुम्हें मालूम होगा कि मजहब के नाम पर क्या-क्या अच्छी और बुरी बातें की गई हैं। यहाँ हमें सिर्फ यह देखना है कि मजहब का खयाल कैसे पैदा हुआ और क्योंकर बढ़ा। लेकिन चाहे वह जिस तरह बढ़ा हो, हम आज भी लोगों को मजहब के नाम पर एक दूसरे से लड़ते और सिर फोड़ते देखते हैं। बहुत-से आदमियों के लिए मजहब आज भी वैसी ही डरावनी चीज है। वह अपना वक्त फर्जी देवताओं को खुश करने के लिए मंदिरों में पूजा, चढ़ाने और जानवरों की कुर्बानी करने में खर्च करते हैं। इससे मालूम होता है कि शुरू में आदमी को कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। उसे रोज का खाना तलाश करना पड़ता था, नहीं तो भूखों मर जाता। उन दिनों कोई आलसी आदमी जिंदा न रह सकता था। कोई ऐसा भी नहीं कर सकता था कि एक ही दिन बहुत-सा खाना जमा कर ले और बहुत दिनों तक आराम से पड़ा रहे। जब जातियाँ (फिरके) बन गईं, तो आदमी को कुछ सुविधा हो गई। एक जाति के सब आदमी मिल कर उससे ज्यादा खाना जमा कर लेते थे जितना कि वे अलग-अलग कर सकते थे। तुम जानती हो कि मिल कर काम करना या सहयोग, ऐसे बहुत से काम करने में मदद देता है जो हम अकेले नहीं कर सकते। एक या दो आदमी कोई भारी बोझ नहीं उठा सकते लेकिन कई आदमी मिल कर आसानी से उठा ले जा सकते हैं। दूसरी बड़ी तरक्‍की जो उस जमाने में हुई वह खेती थी। तुम्हें यह सुन कर ताज्जुब होगा कि खेती का काम पहले कुछ चींटियों ने शुरू किया। मेरा यह मतलब नहीं है कि चींटियाँ बीज बोतीं, हल चलातीं या खेती काटती हैं। मगर वे कुछ इसी तरह की बातें करती हैं। अगर उन्हें ऐसी झाड़ी मिलती है, जिसके बीज वे खाती हों, तो वे बड़ी होशियारी से उसके आस-पास की घास निकाल डालती हैं। इससे वह दरख्त ज्यादा फलता-फूलता है और बढ़ता है। शायद किसी जमाने में आदमियों ने भी यही किया होगा जो चींटियाँ करती हैं। तब उन्हें यह समझ क्या थी कि खेती क्या चीज है। इसके जानने में उन्हें एक जमाना गुजर गया होगा और तब उन्हें मालूम हुआ होगा कि बीज कैसे बोया जाता है। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से लीजिए...

बुधवार, 25 मई 2016

लघुकथाएँ - मनोज चौहान

शहर का डॉक्टर...लघुकथा का अंश.. राजवीर की प्रमोशन हुई तो उसे मैनेजमेंट ट्रेनिंग के लिए कंपनी की ओर से शहर भेज दिया गया। वो पेशे से एक इलेक्ट्रिकल इंजिनियर था। पहाड़ी प्रदेश में ही पले – बढे राजवीर को शहर का गर्म और प्रदूषित बातावरण रास नहीं आया और उसे सांस से सम्बंधित कुछ समस्या हो गई। ट्रेनिंग इंस्टीटूट से एक दिन की छुट्टी लेकर वो एक डॉक्टर की क्लिनिक पर चेक - अप करवाने गया। उसके दो सहकर्मी साथी भी उसके साथ थे। अभी वो क्लिनिक में प्रविष्ट हुए ही थे कि इतने में एक देहाती सी दिखने वाली घरेलु महिला अपने खून से लथपथ बच्चे को उठाकर अन्दर आई। वो एकदम डरी और सहमी हुई सी थी। उसका करीब 2 साल का बच्चा अचेत अवस्था में था। राजवीर, उसके दोस्त और क्लिनिक का स्टाफ सभी उस औरत और बच्चे की तरफ देखने लगे। उस महिला के साथ एक व्यक्ति भी आया था जिसने बताया कि ये महिला सड़क के किनारे अपने बच्चे को उठाये रो रही थी। सड़क क्रॉस करने की कोशिश में किसी मोटरसाइकिल वाले ने टक्कर मार दी और वो भाग खड़ा हुआ। महिला बच्चे समेत नीचे गिर गई थी और बच्चे के सिर पर गंभीर चोट आ गई थी। डॉक्टर ने बच्चे को हिलाया – डुलाया और उसके दिल की धड़कन चैक की। एक क्षण के लिए तो लग रहा था की जैसे उसमें जान ही नहीं है। महिला का रुदन जैसे राजवीर के हृदय को चीरता सा जा रहा था। डॉक्टर ने बच्चे का घाव देखा और उसे साफ़ किया। इतने में बच्चा होश में आकर रोने लगा तो महिला की जान में जान आई। डॉक्टर ने उसके सिर पर तीन टांके लगाये। बच्चे की मरहम पट्टी कर डॉक्टर ने बिल उस महिला के हाथ में थमा दिया। जिसे देखकर वो देहाती महिला अव्वाक रह गई। महिला के साथ आया हुआ व्यक्ति कुछ पैसे देने लग गया। राजवीर और उसके दोस्त पहले ही डॉक्टर का बिल चुकाने का मन बना चुके थे। सबने मिलकर बिल चुका दिया। मगर उस शहर के डॉक्टर में इतनी भी करुणा नहीं थी की वो कम से कम अपनी फीस ही छोड़ देता, मरहम – पट्टी और दवा की बात तो और थी। राजवीर सोच रहा था क्या इसी को शहर कहते है उसके भीतर विचारों का एक असीम सागर हिलोरे ले रहा था। विचारों की इसी उहा – पोह में कब उसकी टर्न आ गई , उसे पता ही नहीं चला। डॉक्टर से बैठने का संकेत पाकर वो रोगी कुर्सी पर बैठ गया। डॉक्टर ने चैक – अप शुरू कर दिया था। ऐसी ही अन्य लघुकथा का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए... यदि आपको लघुकथाएँ पसंद आती हैं, तो आप सीधे लेखक को ही दूरभाष के माध्यम से बधाई प्रेषित कर सकते हैं। संपर्क - 09418036526

नदी - सात कविताएँ - गोवर्धन यादव

कविता का अंश... (1) आकाश में- उमड़ते-घुमड़ते बादलों को देख बहुत खुश है नदी, कि उसकी बुढ़ाती देह फ़िर जवान हो उठेगी. चट्टानों के बीच गठरी सी सिमटी फ़िर कल-कल के गीत गाती पहले की तरह बह निकलेगी. (२) अकेली नहीं रहना चाहती नदी खुश है वह यह सोचकर, कि कजरी गाती युवतियां सिर पर जवारों के डलिया लिए उसके तट पर आएंगी पूजा-अर्चना के साथ, वे मंगलदीप बारेगीं उतारेगीं आरती मचेगी खूब भीड़-भाड़ यही तो वह चाहती भी थी. (३) पुरुष धोता है अपनी मलिनता स्त्रियां धोती है गंदी कथड़ियां बच्चे उछल-कूद करते हैं - छपाछप पानी उछालते गंदा होती है उसकी निर्मल देह फ़िर भी यह सोचकर खुश हो लेती है नदी,कि चांद अपनी चांदनी के साथ नहाता है रात भर उसमें उतरकर यही शीतलता पाकर उसका कलेजा ठंडा हो जाता है. अन्य कविताओं का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए... यदि आपको कविता पसंद आती है, तो आप सीधे कवि से दूरभाष के माध्यम से संपर्क कर उन्हें बधाई प्रेषित कर सकते हैं। संपर्क - 07162-246651,9424356400

पंचतंत्र की कहानियाँ - 7 - गजराज व मूषकराज

कहानी के बारे में... प्राचीन काल में एक नदी के किनारे बसा नगर व्यापार का केन्द्र था। फिर आए उस नगर के बुरे दिन, जब एक वर्ष भारी वर्षा हुई। नदी ने अपना रास्ता बदल दिया। लोगों के लिए पीने का पानी न रहा और देखते ही देखते नगर वीरान हो गया अब वह जगह केवल चूहों के लायक़ रह गई। चारों ओर चूहे ही चूहे नजर आने लगे। चूहों का पूरा साम्राज्य ही स्थापित हो गया। चूहों के उस साम्राज्य का राजा बना मूषकराज चूहा। चूहों का भाग्य देखो, उनके बसने के बाद नगर के बाहर ज़मीन से एक पानी का स्त्रोत फूट पड़ा और वह एक बड़ा जलाशय बन गया। नगर से कुछ ही दूर एक घना जंगल था। जंगल में अनगिनत हाथी रहते थे। उनका राजा गजराज नामक एक विशाल हाथी था। उस जंगल क्षेत्र में भयानक सूखा पड़ा। जीव-जन्तु पानी की तलाश में इधर-उधर मारे-मारे फिरने लगे। भारी भरकम शरीर वाले हाथियों की तो दुर्दशा हो गई। हाथियों के बच्चे प्यास से व्याकुल होकर चिल्लाने व दम तोडने लगे। गजराज खुद सूखे की समस्या से चिंतित था और हाथियों का कष्ट जानता था। एक दिन गजराज की मित्र चील ने आकर खबर दी कि खंडहर बने नगर के दूसरी ओर एक जलाशय हैं। गजराज ने सबको तुरंत उस जलाशय की ओर चलने का आदेश दिया। सैकडों हाथी प्यास बुझाने डोलते हुए चल पडे। जलाशय तक पहुंचने के लिए उन्हें खंडहर बने नगर के बीच से गुजरना पडा। हाथियों के हजारों पैर चूहों को रौंदते हुए निकल गए। हजारों चूहे मारे गए। खंडहर नगर की सडकें चूहों के खून-मांस के कीचड से लथपथ हो गई। मुसीबत यहीं खत्म नहीं हुई। हाथियों का दल फिर उसी रास्ते से लौटा। हाथी रोज उसी मार्ग से पानी पीने जाने लगे। काफ़ी सोचने-विचारने के बाद मूषकराज के मंत्रियों ने कहा 'महाराज, आपको ही जाकर गजराज से बात करनी चाहिए। वह दयालु हाथी हैं।' मूषकराज हाथियों के वन में गया। एक बडे पेड़ के नीचे गजराज खड़ा था। मूषकराज उसके सामने के बड़े पत्थर के ऊपर चढा और गजराज को नमस्कार करके बोला 'गजराज को मूषकराज का नमस्कार। हे महान हाथी, मैं एक निवेदन करना चाहता हूं।' आवाज़ गजराज के कानों तक नहीं पहुंच रही थी। दयालु गजराज उसकी बात सुनने के लिए नीचे बैठ गया और अपना एक कान पत्थर पर चढे मूषकराज के निकट ले जाकर बोला 'नन्हें मियां, आप कुछ कह रहे थे। कॄपया फिर से कहिए।' मूषकराज बोला 'हे गजराज, मुझे चूहा कहते हैं। हम बड़ी संख्या में खंडहर बनी नगरी में रहते हैं। मैं उनका मूषकराज हूं। आपके हाथी रोज जलाशय तक जाने के लिए नगरी के बीच से गुजरते हैं। हर बार उनके पैरों तले कुचले जाकर हजारों चूहे मरते हैं। यह मूषक संहार बंद न हुआ तो हम नष्ट हो जाएंगे।' गजराज ने दुख भरे स्वर में कहा “मूषकराज, आपकी बात सुन मुझे बहुत शोक हुआ। हमें ज्ञान ही नहीं था कि हम इतना अनर्थ कर रहे हैं। हम नया रास्ता ढूढ लेंगे।' मूषकराज कॄतज्ञता भरे स्वर में बोला 'गजराज, आपने मुझ जैसे छोटे जीव की बात ध्यान से सुनी। आपका धन्यवाद। गजराज, कभी हमारी जरुरत पडे तो याद जरुर कीजिएगा।' गजराज ने सोचा कि यह नन्हा जीव हमारे किसी काम क्या आएगा। सो उसने केवल मुस्कुराकर मूषकराज को विदा किया। कुछ दिन बाद पडौसी देश के राजा ने सेना को मज़बूत बनाने के लिए उसमें हाथी शामिल करने का निर्णय लिया। राजा के लोग हाथी पकड़ने आए। जंगल में आकर वे चुपचाप कई प्रकार के जाल बिछाकर चले जाते हैं। सैकडों हाथी पकड़ लिए गए। एक रात हाथियों के पकड़े जाने से चिंतित गजराज जंगल में घूम रहे थे कि उनका पैर सूखी पत्तियों के नीचे छल से दबाकर रखे रस्सी के फंदे में फंस जाता हैं। जैसे ही गजराज ने पैर आगे बढाया रस्सा कस गया। रस्से का दूसरा सिरा एक पेड़ के मोटे तने से मज़बूती से बंधा था। गजराज चिंघाडने लगा। उसने अपने सेवकों को पुकारा, लेकिन कोई नहीं आया। कौन फंदे में फंसे हाथी के निकट आएगा? एक युवा जंगली भैंसा गजराज का बहुत आदर करता था। जब वह भैंसा छोटा था तो एक बार वह एक गड्ढे में जा गिरा था। उसकी चिल्लाहट सुनकर गजराज ने उसकी जान बचाई थी। चिंघाड सुनकर वह दौड़ा और फंदे में फंसे गजराज के पास पहुंचा। गजराज की हालत देख उसे बहुत धक्का लगा। वह चीखा 'यह कैसा अन्याय हैं? गजराज, बताइए क्या करुं? मैं आपको छुडाने के लिए अपनी जान भी दे सकता हूं।' गजराज बोले 'बेटा, तुम बस दौड़कर खंडहर नगरी जाओ और चूहों के राजा मूषकराज को सारा हाल बताना। उससे कहना कि मेरी सारी आस टूट चुकी है। भैंसा अपनी पूरी शक्ति से दौड़ा-दौड़ा मूषकराज के पास गया और सारी बात बताई। मूषकराज तुरंत अपने बीस-तीस सैनिकों के साथ भैंसे की पीठ पर बैठा और वो शीघ्र ही गजराज के पास पहुंचे। चूहे भैंसे की पीठ पर से कूदकर फंदे की रस्सी कुतरने लगे। कुछ ही देर में फंदे की रस्सी कट गई व गजराज आज़ाद हो गए। सीख- आपसी सद्भाव व प्रेम सदा एक दूसरे के कष्टों को हर लेते हैं। इस कहानी का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...

पिता के पत्र पुत्री के नाम - 11

जातियों का बनना... लेख के बारे में... मैंने पिछले खतों में तुम्हें बतलाया है कि शुरू में जब आदमी पैदा हुआ तो वह बहुत कुछ जानवरों से मिलता था। धीरे-धीरे हजारों वर्षों में उसने तरक्‍की की और पहले से ज्यादा होशियार हो गया। पहले वह अकेले ही जानवरों का शिकार करता होगा, जैसे जंगली जानवर आज भी करते हैं। कुछ दिनों के बाद उसे मालूम हुआ कि और आदमियों के साथ एक गिरोह में रहना ज्यादा अक्ल की बात है और उसमें जान जाने का डर भी कम है। एक साथ रहकर वह ज्यादा मजबूत हो जाते थे और जानवरों या दूसरे आदमियों के हमलों का ज्यादा अच्छी तरह मुकाबला कर सकते थे। जानवर भी तो अपनी रक्षा के लिए अकसर झुंडों में रहा करते हैं। भेड़, बकरियाँ और हिरन, यहाँ तक कि हाथी भी झुंडों में ही रहते हैं। जब झुंड सोता है, तो उनमें से एक जागता रहता है और उनका पहरा देता है। तुमने भेड़ियों के झुंड की कहानियाँ पढ़ी होंगी। रूस में जाड़ों के दिनों में वे झुंड बांधाकर चलते हैं और जब उन्हें भूख लगती है, जाड़ों में उन्हें ज्यादा भूख लगती भी है, तो आदमियों पर हमला कर देते हैं। एक भेड़िया कभी आदमी पर हमला नहीं करता लेकिन उनका एक झुंड इतना मजबूत हो जाता है कि वह कई आदमियों पर भी हमला कर बैठता है। तब आदमियों को अपनी जान लेकर भागना पड़ता है और अक्सर भेड़ियों और बर्फ वाली गाड़ियों में बैठे हुए आदमियों में दौड़ होती है। इस तरह पुराने जमाने के आदमियों ने सभ्यता में जो पहली तरक्‍की की वह मिल कर झुंडों में रहना था। इस तरह जातियों (फिरकों) की बुनियाद पड़ी। वे साथ-साथ काम करने लगे। वे एक दूसरे की मदद करते रहते थे। हर एक आदमी पहले अपनी जाति का खयाल करता था और तब अपना। अगर जाति पर कोई संकट आता तो हर एक आदमी जाति की तरफ से लड़ता था। और अगर कोई आदमी जाति के लिए लड़ने से इन्कार करता तो बाहर निकाल दिया जाता था। अब अगर बहुत से आदमी एक साथ मिल कर काम करना चाहते हैं तो उन्हें कायदे के साथ काम करना पड़ेगा। अगर हर एक आदमी अपनी मर्जी के मुताबिक काम करे तो वह जाति बहुत दिन न चलेगी। इसलिए किसी एक को उनका सरदार बनना पड़ता है। जानवरों के झुंडों में भी तो सरदार होते हैं। जातियों में वही आदमी सरदार चुना जाता था जो सबसे मजबूत होता था इसलिए कि उस जमाने में बहुत लड़ाई करनी पड़ती थी। अगर एक जाति के आदमी आपस में लड़ने लगें तो जाति नष्ट हो जाएगी। इसलिए सरदार देखता रहता था कि लोग आपस में न लड़ने पाएँ। हाँ, एक जाति दूसरी जाति से लड़ सकती थी और लड़ती थी। यह तरीका उस पुराने तरीके से अच्छा था जब हर एक आदमी अकेला ही लड़ता था। आगे की जानकारी ऑडियो की मदद से प्राप्त कीजिए...

मंगलवार, 24 मई 2016

कहानी - वो लड़की - जयश्री जाजू

कहानी का अंश... मैं छत पर बैठी थी,सर्दियों की गुनगुनाती धूप में | अचानक मेरी नज़र उस अकेली बैठी लड़की पर गई ; आश्चर्य इसलिए हो रहा था क्योंकि कुछ लडकियाँ वहाँ पर हँसी मजाक में तल्लीन थी | यह लड़की अकेली गुमसुम निर्विकार किसी से कोई सरोकार नहीं ; चुपचाप बैठी थी | उस लड़की में मेरी जिज्ञासा बढ़ी | मैं छत से नीचे उतर आई | चाय बनाकर चुस्कियाँ लेने लगी | दिमाग में उसी लड़की की छवि घूम रही थी | मैं उसे झटक देना चाहती थी किन्तु वह मुझपर हावी होती जा रही थी | खैर समय सरक रहा था | हमेशा की भांति, तैयार होकर बाजार में सामान खरीदने गई | घर का थोडा सामान लिया | दो घंटे कैसे गुजरे पता ही नहीं चला , इन दो घंटों में उस लड़की का याद न आना मुझे चकित कर गया | सच में इंसान कितनी जल्दी चीजों को भूल जाता है | मुझे याद आता है वो दिन जब पिताजी का देहांत हुआ और हम चीख-चीख कर रो रहे थे | ये क्या बिलकुल तीन चार दिन के बाद माहौल हलका फुल्का होने लगा | मैं सोचती हूँ यदि ईश्वर इंसान को विस्मृति न देता तो इंसान दुखों को कहाँ तक ढोता फिरता | ये क्या आज मैं उस लड़की को फिर से देख रही हूँ | ठीक वैसे ही अकेली | आज वह बाजार में कुछ खरीद रही थी या देख रही थी , पता नहीं | मैंने अपनी जरुरत का सामान लिया और रिक्शा को आवाज देने लगी | ये क्या वह भी बिलकुल मेरे समीप आ गई और कहने लगी "क्या मैं भी आपके साथ आ सकती हूँ |" मैंने कहा "हाँ मुझे कोई आपत्ति नहीं , लेकिन क्या तुम मुझे जानती हो |" उसने कहा "हाँ , आप हमारे मोहल्ले में तो रहती है |" मैंने रिक्शा किया उसे बिठाया और रिक्शे वाले को पता बताकर मैं भी बैठ गई | मेरे मन में प्रश्न घूम रहा था और मैंने पूछ ही लिया - "मैंने तो तुम्हे छत से एक बार ही देखा था , लेकिन तुम मुझे कैसे जानती हो |" उसने कहा "मैं मेरे कमरे की खिड़की से आपको रोज देखती हूँ |" मैंने पूछा " अच्छा वो जो लड़कियाँ खेलती रहती है तुम्हारी बहने हैं |" उसने संक्षिप्त उत्तर दिया "नहीं" मैंने पूछा " तुम्हारी इच्छा नहीं होती उनके साथ खेलने की |" इसके आगे की कहानी जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...

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