कविता.... मेरी बेटी...
मेरी बेटी अब हो गई है
चार साल की
स्कूल भी जाने लगी है वह
करने लगी है बातें ऐसी
कि जैसे सबकुछ पता है उसे ।
कभी मेरे बालों में
करने लगती है कंघी
और फिर हेयर बैण्ड उतार कर
अपने बालों से
पहना देती है मुझे
हंसती है फिर खिलखिलाकर
और कहती है कि देखो
पापा लड़की बन गए ।
कभी-कभार गुस्सा होकर
डांटने लग पड़ती है मुझे वह
फिर मुंह बनाकर मेरी ही नकल
उतारने लग जाती है वह
मेरे उदास होने पर भी
अक्सर हंसाने लगी है वह ।
रूठ बैठती है कभी
तो चली जाती है दूसरे कमरे में
बैठ जाती है सिर नीचा करके
फिर बीच - बीच में सिर उठाकर
देखती है कि
क्या आया है कोई
उसे मनाने के लिए।
उसकी ये सब हरकतें
लुभा लेती हैं दिल को
दिनभर की थकान
और दुनियादारी का बोझ
सबकुछ जैसे भूल जाता हूँ ।
एक रोज
उसकी किसी गलती पर
थप्पड. लगा दिया मैंने
सुनकर उसका रूदन
विचलित हुआ था बहुत ।
इस अधूरी कविता को पूरा सुनने के लिए और ऐसी ही अन्य अन्य मर्मस्पर्शी कविताओं को सुनने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
सोमवार, 30 मई 2016
कविताएँ - मनोज चौहान
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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