मंगलवार, 31 मई 2016
कहानी - ऐसा भी होता है - देवी नागरानी
कहानी का अंश...
कहाँ गई होगी वह? यूं तो पहले कभी नहीं हुआ कि वह निर्धारित समय पर घर न लौटी हो। अगर कभी कोई कारण बन भी जाता तो वह फ़ोन ज़रूर कर देती है। मेरी चिंता की उसे चिंता है, बहुत है. लेकिन आज उसकी चिंता की बेचैनी मुझे यूं घेरे हुए है, कि मेरे पाँव न घर के भीतर टिक पा रहे हैं और न घर के बाहर क़दम रख पाने में सफ़ल हो रहे हैं। कहाँ जाऊँ, किससे पूछूँ ? जब कुछ न सूझा तो फोन किया, पूछने के पहले प्रयास में असफ़लता मिली क्योंकि उस तरफ़ कोई फोन ही नहीं उठा रहा था, निरंतर घंटियाँ बजती रहीं, ऐसे जैसे घर में बहरों का निवास हो। जी हाँ, मेरी समधन के घर की बात कर रही हूँ! अब तो कई घंटे हो गए हैं, रात आठ बजे तक लौट आती है, अब दस बज रहे हैं। बस उस मौन-सी घड़ी की ओर देखती हूँ, तकती हूँ, घूरती हूँ, पर उसे भी क्या पता कि जीवन अहसासों का नाम है? अहसास क्या होता है? छटपटाहट क्या होती है? इंतज़ार क्या होता है? इन सभी भावनाओं से नावाकिफ...! और अचानक दिल की धड़कन तेज़ हो गई। फ़ोन की घंटी ही बज रही थी। हड्बड़ाहट में उठाने की कोशिश में बंद करने का बटन दब गया और बिचारा फ़ोन अपनी समूची आवाज़ समेटकर चुप हो गया। मैंने अपना माथा पीट लिया। आवाज़ तो सुन लेती, पूछ तो लेती कहाँ हो, क्यों अभी तक नहीं लौट पाई है ? मैंने अपनी सोच को ब्रेक दी, लम्बी सांस ली, पानी का एक गिलास पी लिया और फिर एक और पी लिया। शांत होने के प्रयासों में पलंग पर बैठ गई, और फ़ोन को टटोलकर देखा, कोई अनजान नंबर था, उसका नहीं जिसका इंतज़ार था। बिना सोचे समझे मैंने वही नंबर दबा दिया। घंटी बजी, बजती रही और फिर बंद हो गई। अब मेरा डर मुझे सहम जाने में सहकार दे रहा था, मेरे हाथ-पाँव ठंडे हो रहे थे, एक सिहरन बिजली की तरह भीतर फैलने लगी। मैंने बटन फिर दबाया, घंटी बजी, किसी ने उठाया और फिर रख दिया। अब मेरी परेशानी का और बढ़ जाना जायज़ था॰ रात का वक़्त, बेसब्री से उसका इंतज़ार और बातचीत का सिलसिला बंद, जैसे हर तरफ़ करफ़्यू लगा हुआ हो ! आख़िर फ़ोन की घंटी बजी, एक दो तीन बार...! मैंने बहुत ही सावधानी से उसे उठाया, बस कान के पास लाई ही थी कि एक कर्कश आवाज़ कानों से टकराई- ‘परेशान मत करो, आज वह घर लौटने वाली नहीं। अभी एक घंटे में उसकी शादी हो रही है, डिस्टर्ब मत करना।“ बेरहमी से कहते हुए फ़ोन काट दिया और मैं बेहोशी की हालत में बड़बड़ाई, कंपकंपाई और वहीं पलंग पर औंधे मुंह गिर पड़ी। आगे की कहानी ऑडियो की मदद से जानिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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