शुक्रवार, 27 मई 2016
कविता - मौन - गौरव भारती
कविता का अंश...
मैं और यह शाम,
निकल पड़ते हैं अक्सर थामे हाथ,
सूर्य जब छिप जाता है गगन में कहीं दूर,
पंछियाँ जब घर लौटने को हो जाती हैं मजबूर।
ज्यों ज्यों शाम गहराने लगती है,
कुछ है जो राग अपना गाने लगती है,
मैं ढूँढने लगता हूँ ज़िंदगी यहाँ-वहाँ,
वह लावारिस, ललचाई निगाहों से -
मुझे निहारने लगती है।
समझ नहीं पाता निहितार्थ उसका मैं,
आँखें चुरा कर मुक्ति पाता हूँ,
मुड़ कर देखता हूँ जो पीछे,
आत्मग्लानि से ख़ुद को भरा पाता हूँ।
हर गली मोहल्ले चौक-चौराहे पर,
ज़िंदगी को फटेहाल सिकुरें गठरी सा देखता हूँ,
कुछ कहती है ये निगाहें जो घेरे है मुझे,
सुर्ख़ होठों पर है प्रश्न जिसे मैं निहार पाता हूँ।
विचारों की घुर्नियाँ छेड़ने लगतीं हैं मुझे,
अजीब सा कोलाहल कानों को थपथपाने लगता है,
वे पूछते हैं अपनी सुबह के बारे में,
मैं निरुत्तर ख़ुद को बहुत गिरा हुआ पाता हूँ।
नहीं है मेरे पास वादों की लड़ियाँ,
सपने दिखा तोड़ने वाला होता हूँ मैं कौन?
उसके सवालों का है नहीं कोई मुकम्मल जवाब,
बेबस, लाचार इसलिए रह जाता हूँ मैं, मौन।
इस कविता का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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मैं कौन? अपने आप को ढूंढना सरल नहीं है, इस नश्वर संसार में
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना