शुक्रवार, 6 मई 2016
चिंतन - 1 हमारी वनश्री
चिंतन का अंश...
वन का दूसरा आशय हरियाली भी है। भला किसे अच्छी नहीं लगती, हरी-हरी वसुंधरा, यहाँ से वहाँ तक हरितिमा की फैली हुई चादर, आँखों को राहत देने वाले लुभावने दृश्य। जब भी हम प्रकृति के संग होते हैं, एक अजीब सी राहत महसूस करते हैं। हमें ऐसा लगता है, जैसे हम प्रकृति की गोद में हैं। जहाँ वह हमें माँ की तरह दुलार कर रही है। प्रकृति की इस रंगत को वनों से सहारा दिया है। जहाँ वन होंगे, वहाँ भूमि का कटाव नहीं होगा। वहाँ सघन पेड़ होंगे। यही सघन पेड़ बादलों को लुभाते हैं और बारिश के लिए लालायित करते हैं। इसलिए यह पर्यावरण बचाना है, तो वनों को संरक्षित रखना होगा। वन सुरक्षित रहेंगे, तभी हमारी वन संपदाएँ भी सुरक्षित रहेंगी। वन संपदाओं पर ही मानव स्वास्थ्य निर्भर है।
वनों से हमें शुद्ध वायु ही नहीं, बल्कि कई जड़ी-बूटियाँ भी प्राप्त होती हैं। पूरा आयुर्वेद वनों से प्राप्त जड़ी-बूटियों पर आश्रित है। हमारे देश के वनों में वन संपदा के रूप में प्रचूर मात्रा में जड़ी-बूटियाँ हैं। इसी से हमारे स्वास्थ्य की रक्षा होती है।् हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वनों में वायु होती है, यही वायु हमारी आयु में वृद्धि करती है। आज लोगों को स्वच्छ वायु ही नही मिल रही है, ऐसे में वन हमारे लिए बहुत ही आवश्यक हो जाते हैं। वन संपदा का संरक्षण एक समस्या है, क्योंकि लगातार घटते वन क्षेत्रों के कारण वन संपदा का भी दोहन हो रहा है। वनों को लेकर हमारी आवश्यकताएँ बढ़ रहीं हैं, इसलिए वन संपदा की रक्षा के लिए अधिक से अधिक पौधरोपण करना आज की महती आवश्यकता है। वन रहेंगे, तभी मानव जीवन संभव है। बिना वनों के मानव जीवन की कल्पना करना बेमानी है। दोनों ही परस्पर निर्भर हैं। वनों को लेकर अब हमारी चिंता बढ़ी है। सरकार ने भी इस दिशा में कुछ प्रयास किए हैं, जिसके अच्छे परिणाम सामने आए हैं। वन नीति के सख्ती से अमल में लाए जाने के कारण बन संपदा के दोहन पर रोक लगी है। यही नहीं औषधीय पौधों के संरक्षण और नए पौधे उगाने की दिशा में भी सार्थक प्रयास हो रहे हैं।
दुनिया भर में जंगलों की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने वाली नई तकनीक से पता चलता है कि भविष्य में वनों की हालत को लेकर जो चिंता जताई गई है, स्थिति उतनी भी ख़राब नज़र नहीं आती है। शोधकर्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने कहा है कि उन्होंने जंगलों की पहचान के बारे में जो अध्ययन किया है उससे पता चलता है कि दुनिया भर में वनों की कमी वाली स्थिति से बेहतरी की तरफ अब कोई पड़ाव नजर आने वाला है। इस अध्ययन में दुनिया भर में लकड़ियों के भंडार और वन संपदा का अनुमान लगाने की कोशिश की गई है यानी अध्ययन में सिफऱ् उस इलाक़ों का अध्ययन भर ही नहीं किया गया जो पेड़ों से ढँके हुए हैं। इस अध्ययन के परिणाम अमरीकी पत्रिका प्रोसीडिंग्स ऑफ़ नेशनल एकैडेमी ऑफ़ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।
वनों को लेकर हमें अपनी सोच का दायरा बढ़ाना होगा। वन से हम जब भी कुद लें, तो उसे कुछ देने के बारे में भी सोचें। निश्चित रूप से वन को हम जो कुछ भी देंगे, वह दोगना होकर हमें मिलेगा। तपती गर्मी में किसी घने पेड़ की छाया मानव को जो राहत देती है, वह किसी संपदा से कम नहीं होती। वनों के आसपास निवास करने वाले आदिवासी वनों पर ही आश्रित होते हैं। कई मामलों में ये वन की रक्षा भी करते हैं। वनों से प्राप्त होने वाली जड़ी-बूटियों का इन्हें ज्ञान होता है। अपना घरेलू इलाज वे वनों से प्राप्त औषधियों से ही कर लेते है। इस चिंतन का आनंद ऑडियो की मदद से लीजिए...
लेबल:
चिंतन,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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