शनिवार, 7 मई 2016
चिंतन - 3 - वृक्ष बोलते हैं
चिंतन का अंश...
सर जगदीश चंद्र बोस ने यह सिद्ध कर दिया है कि वृक्ष में भी जान होती है, वे भी सुख-दु:ख और संवेदनाओं को समझते हैं। यह भी तय हो गया कि वृक्ष इंसानों की भाषा समझते हैं। प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो गया है कि मानव यदि रोज अपने बगीचे के पेड़-पौधों में पानी डालते हुए उनसे अच्छी-अच्छी, प्यारी-प्यारी बातें करे, तो वे उसकी बात मानते हैं। बस यह सिद्ध नहीं हो पाया है कि वृक्ष बोलते हैं। यह सिद्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि खामोशी की कोई आवाज नहीं होती। वृक्ष जो कुछ भी सोचते हैं, उसे हम तक पहुँचाने की पूरी कोशिश भी करते हैं। हम ही हैं, जो वृक्ष की भाषा नहीं समझ पाते। यहाँ आकर मानव पंगु बन जाता है कि जब वृक्ष हमारी भाष समझते हैं, तो मानव उनकी भाषा क्यों नहीं समझ पाता?
कभी किसी एकांत में या फिर जंगल में जाकर सुनो, एकांत का संगीत, इसी संगीत में कहीं आवाज आएगी कि कोई कुछ बोल रहा है। आवाज की गहराई पर जाकर पता चलेगा कि अरे! ये तो वृक्ष की आवाज है। कुछ समय तक लगातार इस तरह का प्रयोग जारी रहा, तब आप वृक्ष की आवाज पहचानने लग जाएँगे। तब आपको पता चलेगा कि वृक्ष आजकल दु:खी हैं। कई बार हमने पेड़ से लगातार पानी रिसते देखा होगा। लोग कहते हैं कि पेड़ रो रहा है। इसके वैज्ञानिक कारण जो भी हो, पर जब हम यह जानते हैं कि पेड़ों में जान होती है, तो फिर उनकी सारी प्रक्रियाएँ भी मानव की तरह होंगी। इसलिए जब पेड़ बोलते हैं, तब हमें उनसे बातें करनी चाहिए। आज यदि हम उनकी भाषा समझने लग जाएँ, तो उनकी पीड़ाओं को शब्द दे पाएँगे।
पेड़ उनसे सदैव प्रसन्न रहते हैं, जो प्रकृति प्रेमी होते हैं। क्योंकि यही तो हैं, जिनसे पेड़ बचे हुए हैं। पौधरोपण एक यज्ञ है, पेड़ों की संख्या बढ़ाने का। जो इस यज्ञ को करता है, वही वास्तव में पेड़ों का सच्च साथी है। अपने साथियों की लगातार कम होती संख्या से आजकल वृक्ष द़:खी हैं। देखते ही देखते उनके सामने से सागौन, बबूल, शीशम, देवदार, चीड़, आम आदि के पेड़ गायब हो गए। कुछ तो रातों-रात कट गए, कुछ बेमौते मारे गए। इनके दु:ख का कारण यही है। आलीशान घरों, हवेलियों में बनने वाले फर्नीचर के रूप में ये पेड़ ही हैं, जो हमारे सामने विभिन्न आकार में होते हैं। कभी कुर्सी, कभी डायनिंग टेबल, कभी पलंग, कभी दीवान आदि रूप होते हैं, इन्हीं पेड़ों के। कभी हवाओं के साथ मस्ती से झूमने वाले आज यही पेड़ बंद कमरों में खामोश जिंदगी बिता रहे हैं। वृक्षों की दर्दभरी कहानी ऑडियो की मदद से सुनिए...
लेबल:
चिंतन,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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