शनिवार, 28 सितंबर 2013

हाशिए पर जाते झुर्रीदार चेहरे

आज हरिभूमि के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

बुधवार, 25 सितंबर 2013

सर उठा रहा है आतंकवाद

डॉ. महेश परिमल
आतंकवाद आज हर देश की बड़ी समस्या बन गया है। इस पर नियंत्रण के सारे प्रयास विफल सिद्ध हो रहे हैं। हाल ही में पेशावर और नैरोबी में हुई घटनाएं इस बात की पुष्टि करती हैं कि आतंकवाद से मुकाबले के लिए अब सभी देशों को मिलकर काम करना होगा। एक संयुक्त मुहिम के तहत ही इस पर काबू पाया जा सकता है। पेशावर और नैरोबी की घटना से पूरा विश्व चौंक उठा है। आतंकवाद के निशाने पर अब कौन सा देश है? सभी तरफ से यह सवाल दागा जा रहा है। नैरोबी की घटना से यह जाहिर होता है कि वहां गुजराती ही आतंकियों के निशाने पर हैं। क्योंकि वहां की 80 प्रतिशत आबादी गुजरातियों की ही है। सरकार इसका कितना भी खंडन करे, पर जिस तरह से चुन-चुनकर लोगों को मारा गया है, उससे यही सिद्ध होता है कि गुजराती ही आतंकियों के निशाने पर थे।
विश्व के सभी देश आतंकियों के खिलाफ अपनी तरफ से कार्रवाई कर रहे हैं। ये आतंकी कहीं तो सरकार के ढीलेपन, कहंी केवल दहशत फैलाने के लिए, तो कहीं सामाजिक कमजोरियों को देखते हुए अपनी आतंकी कार्रवाई को अंजाम देते हैं। नफरत के खेतों में उगे आतंकवाद की बेल को पोषित करने वाला पाकिस्तान आज भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा है। अमेरिका की दोहरी नीति के कारण ऐसे देश पल रहे हैं। आज अमेरिका को पाकिस्तान की आवश्यकता है, इसलिए वह उसकी हरकतों को नजरअंदाज भी कर रहा है। आतंकवाद की घटनाएं अब किसी भी देश को झकझोरती नहीं। अब इन्हें उसकी आदत होने लगी है। अल कायदा का नेटवर्क इतना तगड़ा है कि कई देश उसके सामने लाचार हैं। आज आतंकियों के पास स्लीवर यूनिट की पूरी फौज है। उनका तंत्र बहुत ही शक्तिशाली है। नैरोबी से आने वाली खबरों में बताया गया है कि आतंकियों का निशाना केवल हिंदू लोग ही थे। जिन्हें उर्दू आती थी, उन्हें नहीं मारा गया, जिन्हें उर्दू नहीं आती थी, उनके चीथड़्रे उड़ा दिए गए। मां-बाप के सामने उनकी इकलौती संतान को मारने में भी आतंकियों के हाथ नहीं कांपे। यही नहीं उन्होंने गर्भवती महिलाओं को भी नहीं छोड़ा। इस तरह से दहशत फैलाने के लिए आतंकी अब उन स्थानों को निशाना बनाने में लगे हैं, जहां आम आदमी की आमदरफ्त होते रहती है। नैरोबी में फंसे हुए एक भुक्तभोगी के अनुसार मॉल में जगह-जगह पर लाशें बिछी पड़ी हैं। इससे ही अंदाजा लग जाता हे कि आतंकियों के मंसूबे कितने खतरनाक थे। इन आतंकियों के खिलाफ अभी तक संयुक्त मुहिम शुरू नहीं हुई है। हर देश अपनी तरह से आतंकवाद का मुकाबला कर रहा है। अपनी दोहरी नीति के कारण अमेरिका पाकिस्तान का बाल भी बांका नहीं कर पा रहा है। सभी जानते हैं कि आतंकवादियों को पनाह देने में पाकिस्तान सबसे ऊपर है। फिर भी उस पर काईवाई नहीं हो पा रही है। मुश्किल तब आ रही है, जब आतंकवाद की इस अग्नि में बुद्धिजीवियों का दबदबा बढ़ने लगा है। ये कथित बुद्धिजीवी आतंकवाद को फैलाने के लिए इंटरनेट का इस्तेमाल करने लगे हैं।
आतंकवादियों के पास आज मानव बम की पूरी फौज है। ये मानव बम अपनी विचारधारा के कारण आतंकवाद से जुड़ जाते हैं। उनका इस तरह से ब्रेन वॉश किया जाता है कि किसी की हत्या करना उन्हें अब गुनाह नहीं लगता। मानव बम बनकर जो जितनी अधिक जानें लेता है, उसे संगठन में उतना अधिक सम्मान मिलता है। छोटी उमर के ये मानव बम ये नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं? बचपन से ही उन्हें इस तरह से तैयार किया जा रहा है कि वे अपने धर्म को सबसे ऊपर समझते हैं। बाकी धर्म उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते। समृद्ध देश हमारा शोषण कर रहे हैं, यह कहकर वे उन देशों में हमला करने के लिए उन्हें मानसिक रूप् से तैयार कर रहे हैं। किसी भी जगह जब आतंक घटना हो जाती है, तब आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, इस नारे के साथ कई संगठन आगे आ जाते हैं। एक तरह से सूफियानी फौज सामने आ जाती है। पर ये संगठन भूल जाते हैं कि आतंकवाद को जहाँ पनाह मिल रही है, जहां आतंकवाद की बेल फल-फूल रही है, वह स्थान है पाकिस्तान और सोमालिया जेसे देश। अपनी दोहरी नीति के कारण अमेरिका पाकिस्तान के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने के लिए मजबूर है। आतंकवाद के खिलाफ अपनी सक्रियता दिखाते हुए पाकिस्तान भी कई बार कतिपय आतंकी संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा करता है, पर कुछ दिनों बाद वही आतंकी दूसरे नाम से अपना संगठन बना लेते हैं। आज आतंकवाद का यह धंधा खूब फल-फूल रहा है। आज उनके पास अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्र हैं। वे बम बना सकते हैं, राकेट लांचर बना सकते हैं, आश्चर्य यह होता है कि आखिर इसका प्रशिक्षण उन्हें देता कौन है? दूसरी बात यह है कि आखिर इनके पास इतने अधिक अत्याधुनिक हथियार कैसे आते हैं। इन कामों के लिए आखिर इन्हें धन कहाँ से मिलता है। ऐस कई सवाल हैं, जिनका जवाब लोग नहीं जानते। कई सरकारें में नहीं जानतीं। आतंकवाद आखिर पनपता कैसे है? आखिर इसके लिए कौन है जिम्मेदार? एक अकेला आतंकी कभी कुछ नहीं कर सकता, ये जब संगठित होते हैं, तभी किसी कार्रवाई को अंजाम देते हैं। नैरोबी की घटना एक सुनियोजित षड्यंत्र का परिणाम है। इसे सभी जानते-समझते हैं। आतंकवाद आज एक ऐसा रिसता घाव बन गया है, जो ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा है। इस आतंकवाद को कुचलने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। सभी देश मिलकर यदि इस दिशा में समवेत प्रयास करें, तो सचमुच इस पर काबू पाया जा सकता है?
आखिर कौन है यह व्‍हाइट विंडो
बताया गया है कि इस हमले के पीछे व्हाइट विडो का हाथ था। व्हाइट विडो के मान से मशहूर ये आतंकी महिला उसी आत्मघाती हमलावर की बीवी है, जिसने 2005 में लंदन के ट्यूब में आतंकी धमाका किया था. बताया जा रहा है सामंथा ल्यूथवेट यानी व्हाइट विडो की अगुवाई में मॉल पर हमला हुआ। केन्‍या के अधिकारियों के मुताबिक नैरोबी के मॉल में आतंकी हमले की साजिश के पीछे व्हाइट विडो थी। वहीं नैरोबी हमले की जिम्मेदारी लेने वाले आतंकी संगठन अल शबाब ने ट्वीट किया कि शेरफिया ल्यूथवेट एक बहादुर महिला है और हमें गर्व है कि वो हमारे साथ है.
व्‍हाइट विंडो यानी सामंथा ल्यूथवेट 7/7 के हमलावर जर्मेन लिंडसे की विधवा है. 7/7 हमले के कुछ ही दिनों बाद वो पूरे परिवार के साथ लंदन से गायब हो गई थी। बाद में वो सोमालिया के आतंकी संगठन अल शबाब से जुड़े गई और फिर वो व्हाइट विडो के नाम से मशहूर हो गई।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 21 सितंबर 2013

खो चुके हैं हम विदेशी निवेशकों का विश्वास

डॉ. महेश परिमल
यह सरकार भी अजीब है, चुनाव करीब आते ही उसे अल्पसंख्यकों की याद आई। अब उसके हित में सोचने भी लगी। कई योजनाओं को अमल में लाने का प्रयास किया जा रहा है। कुछ तो अमल में ला भी दी गई हैं। सरकार ने इसे समझा, लेकिन यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि जब देश की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी, तो सरकार को यह क्यों समझ में नहीं आया कि इसके लिए भी कुछ करना चाहिए। खराब आर्थिक स्थिति का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए सरकार को शायद समझ में नहीं आया। क्या इसे सरकार की लापरवाही माना जाए, या फिर सरकार के आर्थिक सलाहकारों की विवशता। जब देश की आर्थिक स्थिति खराब है, तो विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए सरकार ने क्या किया? यह तय है कि जिस तेजी से डॉलर के मुकाबले रुपया गिरा है, उतनी तेजी वह वह उठ नहीं सकता। इसलिए एफडीआई प्राप्त करने के लिए सरकार को ही कुछ करना पड़ेगा। अन्यथा हालात और भी भयावह हो सकते हैं।
रिजर्व बैंक के नए गवर्नर रघुराम राजन कोई चमत्कार नहीं कर सकते। उनके आने से रुपए में कुछ सुधार अवश्य हुआ है, पर इसे उनकी उपलब्धि नहीं कहा जा सकता। उनकी असली परीक्षा उनके द्वारा तैयार की गई नीतियों की घोषणा के बाद ही होगी। वे तेजी के बैरामीटर नहीं हैं, जिसे देखकर रुपया संभलता ही जाए। इसमें सबसे बड़ी बात यही है कि सरकार विदेशी पूंजी निवेशकों को रोकने में पूरी तरह से विफल रही। इसके पीछे केवल दो लोगों को ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। पहले हैं हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और दूसरे हैं वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम। जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने विदेशी निवेशकों को लुभाने की नाकाम कोशिश की थी। जब उन्हें मनाने की आवश्यकता थी, तब उन्होंने सख्त रवैया अपनाया। एक विदेशी मोबाइल कंपनी पर 1200 करेाड़ का टैक्स लाद दिया, यही नहीं उसका भुगतान उसे पिछले वर्ष से करने का आदेश दे दिया। यह कंपनी 8 दिसम्बर 2010 को सुप्रीम कोर्ट में केस हार गई। उसके बाद सरकार ने एक आदेश के तहत यह कहा कि यह वसूली पिछले वर्ष से के बकाया भी देने होंगे। उक्त विदेशी कंपनी पर कानूनी शस्त्र का इस्तेमाल किया गया, इससे दूसरी कंपनियां भड़क उठी। मामला बिगड़ गया, पर सरकार ने कुछ नहीं किया। एक के बाद एक विदेशी निवेशकों ने अपना धन वापस खींचने का काम शुरू कर दिया। वित्त मंत्री विदेश जाकर विदेशी को भारत में पूंजी लगाने के लिए रोड शो के माध्यम से उन्हें आकर्षित करते रहे, पर उनके शो में कोई नहीं आया। इस दिशा में की गई मीटिंग को कोई रिस्पांस नहीं मिला।
इन हालात को प्रधानमंत्री ने कुछ हद तक समझा और उनका बयान आया कि सचमुच देश अभी मुश्किल हालात से गुजर रहा है। पर यह स्थिति आखिर क्यों सामने आई, इसे समझने की कोशिश नहीं हुई। विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। जब डन्हें मनाने की आवश्यकता थी, तब सरकार ने उनके खिलाफ सख्त कदम उठाए। अब जब बाजी हाथ से निकल गई है, तो सर पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं। अब सर पर हाथ रखने से कुछ नहीं होने वाला। शायद इसे भी सरकार समझने को तैयार नहीं है। देश को विदेशी निवेश के चालू वित्तीय वर्ष में 21 प्रतिशत का घाटा हुआ है। 2011-12 में एफडीआई 46.6 अरब डॉलर थी, जो 2012-13 में घटक 36.9 अरब डॉलर हो गई। इस आंकड़े से चीन की तुलना करें, तो 2012 में चीन में 111.6 अरब डॉलर की एफडीआई आई है। भारत के लिए यह चिंता की बात है कि पूरे विश्व के निवेशक यह जान गए हैं कि भारत में मंदी चल रही है और उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलने वाली।
भारत के लिए आघातजनक बात यह भी है कि वर्ल्ड इकॉनामी फोरम ने नवम्बर में भारत में आयोजित वार्षिक समिट स्थगित कर दिया है। पिछले 30 वर्षो में ऐसा पहली बार हुआ है। तीस वर्ष की परंपरा टूटी, इसका हमारे देश के आर्थिक सलाहकारों को मलाल नहीं। बाजार में जान फूंकने के लिए केबिनेट कमेटी ऑन इन्वेस्टमेंट ने 26 अगस्त को 36 प्रोजेक्ट में एक करोड़ 83 लाख करोड़ के प्रोजेक्ट पारित किए हैं, इसमें पॉवर, आइल, गैस, रोड, रेल्वे आदि का समावेश किया गया है। इसका मूल आशय निवेशकों का चक्र पूरा होता है और नौकरी के अवसर बढ़ते हैं, परंतु उद्योग क्षेत्र का कहना है कि वित्तीय घाटा, करंट एकाउंट, डेफीसीट, जीडीपी की ग्रोथ रेट ओर इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रीय प्रोडक्शन (आईआईपी) काफी मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। उद्योग जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि निवेशकों का विश्वास अब उठ गया है। कोई भी कंपनी कोई नया प्रोजेक्ट लाने को तैयार नहीं है। तो फिर रोजगार के अवसर कहां से तैयार होंगे? वित्त मंत्री चिदम्बरम कहते हैं कि धीरज रखो, पर कहां तक? विदेशी निवेशकों का विश्वास खोने के साथ-साथ सरकार भारतीय प्रजा का भी विश्वास अब खोने लगी है। ऐसे में विश्वासपूर्वक यह कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा।
   डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

संकट में हैं विघ्नहर्ता

डॉ. महेश परिमल
देश भर ही नहीं, अपितु सात समंदर पार भी गणोश जी विराज गए हैं। लोग भक्तिभाव में डूब गए हैं। हमारे देश में तो गणोश जी को लेकर विशेष आग्रह रहता है। आखिर इन्हें विघ्न विनाशक जो कहा जाता है। पर आजकल यह उत्सव पूरी तरह से व्यावसायिक रूप लेत जा रहा है। मुम्बई के पंडालों का भी अब करोड़ों में बीमा होने लगा है। जिस भावना के साथ इसे लोकमान्य तिलक ने इसे शुरू किया था, आज वह भावना कहीं दिखाई नहीं दे रही है। चंदे के बल पर मनाए जाने वाले इस उत्सव पर भी ऊंगलियां उठ रही है। शोर का पर्याय बन चुके इस उत्सव में भक्ति कम ही देखने को मिल रही है। भक्ति के नाम पर प्रतिस्पर्धा ही अधिक दिखाई दे रही है। भला उनके गणोश से हमारे गणोश जी छोटे क्यों? इस तरह की भावना ने आज इस उत्सव के स्वरूप को ही बिगाड़कर रख दिया है। मीडिया ने अपनी तरह से यह संदेश देने की कोशिश की है कि लोग माटी की ही मूर्ति को ही घर में जगह दें और उसे एक बरतन में विसर्जित कर दें, ताकि उसके पानी से घर में छिड़काव कर या फिर पौधों में डाल दिया जाए। इससे हमें लगेगा कि गणोश जी ने हमारे ही घर में शरण ली है। इसके बाद भी कई घरों एवं सार्वजनिक स्थानों पर प्लास्टर ऑफ पेरिस की मूर्तियों को स्थापना की गई है।
गणोश जी की बात करें, तो यह प्रथम आराध्य देवता हैं। इसके अलावा इन्हें तत्वज्ञान का देवता भी माना जाता है। उन्हें गणनायक भी कहा जाता है। महाराष्ट्र के कई शहरों में गणोश जी के दर्शन के लिए लम्बी कतारें लगी होती हैं। लोग घंटों तक प्रतीक्षा करते हैं दर्शन के लिए। कहा जाता है कि गणपति जी के एक-एक अंग का महत्व है। ये एक प्रामाणिक देवता हैं। रिद्धी-सिद्घी के दाता हैं। बॉलीवुड के कलाकारों में गणपति की स्थापना को लेकर विशेष रूप से दिलचस्पी होती है। सलमान खान के घर भी गणपति की स्थापना होती है। नाना पाटेकर अपना सारा काम छोड़कर इन दस दिनों में स्वयं को पूरी तरह से गणपति की भक्ति के लिए समर्पित कर देते हैं। उनके यहां बहुत सी हस्तियां गणपति दर्शन के लिए आती हैं। दन दिनों श्रद्धा-भक्ति बढ़ाने वाले कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। कुछ लोग इसी जुगत में होते हैं कि किस तरह से प्रजा उनके गणपति दर्शन के लिए आएं। कई स्थानों पर प्रतियोगिताएं रखी जाती हैं। ताकि लोग उसमें शामिल होने के बहाने भीड़ बढ़ाएं।
गणोश जी के सभी अंगों का विशेष महत्व है। उनका मस्तक हाथी का है, अन्य किसी प्राणी का मस्तक उनके घड़ के साथ लगाया गया है। इसमें एक विशेषता यह है कि सभी प्राणियों में सबसे बुद्धिमान हाथी को माना गया है। बुद्धिहीन मानव यदि समाज का पथप्रदर्शक बनने की चेष्टा करता है, तो अव्यवस्थाएं फैलने लगती हैं। इसलिए लीडर को हमेशा बुद्धिमान और तेजस्वी होना चाहिए। हाथी के कान सूपे की तरह होते हैं। सूपे का काम है कि अनाज को कचरे से अलग करना। यही नहीं वह अनाज को अपने पास रखता है और कचरे को फेंक देता है। इसका आशय यही है सभी की बातों को सुनकर उसका सारांश ही ग्रहण किया जाए। बाकी बातों को कचरा समझकर उसे उड़ाकर फेंक दिया जाए। बड़ा कान प्रतीक है श्रवण शक्ति का। गणपति के हाथी जैसी छोटी आंखें मानव जीवन की सूक्ष्म दृष्टि रखने की प्रेरणा देती है। जमीन पर पड़ी छोटी से छोटी चीज भी देख सके और उसे उठा लेने की क्षमता हाथी में होती है। मानव को अपनी दृष्टि ऐसी ही सूक्ष्म रखनी चाहिए। इससे मावन कई दोषों से बचा रह सकता है। हाथी की बड़ी नाक दूर तक सूंघने की शक्ति रखती है। यह दूरदर्शी होने का प्रतीक है। लीडर को हमेशा दूरद्रष्टा होना चाहिए। प्रत्येक गतिविधि की गंध उसे मिलती रहे, ताकि वह सतर्क हो सके। गणोश जी के दो दांत में से एक पूरा है और एक आधा। पूरा दांत श्रद्धा का है और आधा दांत मेधा का है। जीवन में विकास के लिए श्रद्धा की आवश्यकता होती है, ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा। ईश्वर के प्रति आपका समर्पण कम होगा, तो चलेगा, पर श्रद्धा कम नहीं होनी चाहिए। बुद्धि और श्रद्धा एक साथ चलते हैं। श्रद्धा का सहारा लेकर मानव बौद्धिक निर्णय लेता है। आधा दांत बुद्धि की मर्यादा का सूचक है, तो दूसरा दांत अटूट श्रद्धा का प्रतीक है।
गणपति जी के चार हाथ हैं। एक हाथ में अंकुश, दूसरे में पाश, तीसरे में मोदक और चौधे हाथ आशीर्वाद से परिपूर्ण है। वासना एवं विकारों पर अंकुश आवश्यक है। पाश का काम इंद्रियों को शिक्षित करना है। मोदक आनंद का प्रतीक है, वह सात्विक आहार का सूचक है। चौथा हाथ श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देने के लिए तत्पर है। गणोश जी को लंबोदर शायद इसीलिए कहा गया है कि वे सारी बातों सुनकर को अपने पेट में पचा लेते हैं। जो भी श्रद्धालु उनके पास जाता हे, अपनी दुखभरी कहानी सुनाता है। गणोश जी उनकी बातों को सुनकर अपने पेट में रख लेते हैं। भगवान के पाँव छोटे हैं। वे दौड़ नहीं सकते। उनका न दौड़ पाना यह दर्शाता है कि किसी भी कार्य को संपादित करने में जल्दबाजी न करें। ये छोटे पैर बुद्धिमत्ता के सूचक हैं। पृथ्वी की परिक्रमा की शर्त में अपने भाई कार्तिकेय को गणपति ने अपनी बुद्धि से हरा दिया। उनका वाहन चूहा है। विष्णु का वाहन गरुड़ और शंकर का वाहन नंदी है। विष्णु और शंकर के वाहन इतने बड़े हैं कि वे किसी के दरवाजे पर प्रवेश नहीं कर सकते। जबकि गणपति के वाहन किसी के भी घर आसानी से प्रवेश कर सकते हैं। उनसे सीखने वाली बात यह है कि चूहा जब किसी को काटता है, तो वह फूंक मारता है। अर्थात पहले चेतावनी देता है। उसके काटने के पहले इस फूंक की जानकारी किसी को नहीं होती। अंतिम बात गणपति जी को दूर्वा बहुत प्रिय है। दूर्वा यानी दूब या घास। इसकी कोई कीमत नहीं होती। ये जहां ऊगती है, वहां कोई नहीं जाता। यानी इसे कोई भाव नहीं देता, जिसे कोई भाव नहीं देता, उसे गणपति भाव देते हैं। इसमें कोई सुगंध भी नहीं है। गणपति को गंधहीन चीज पसंद है।
गणोश जी की स्थापना कर उन्हें पूजने की परंपरा बरसों से चली आ रही है। परंतु सार्वजनिक गणशोत्सव में गणपति की स्थापना के पीछे संगठन और एकता की भावना है। गणपति को दस दिन पूजने के बाद उनकी जो हालत होती है, यह देखने वाला आज कोई नहीं है। मूर्ति यदि माटी की होती है, तो वह पानी में घुल जाती है। पर यदि वह प्लास्टर ऑफ पेरिस की है, तो वह पानी में नहीं घुलती और उसे प्रदूषित करती है। दूसरी ओर नदी, नाले और समुद्र में विसर्जित की गई मूर्तियां कुछ दिनों बाद टुकड़ों-टुकड़ों में दिखाई देती है। कही सर, कहीं घड़, कहीं हाथ और कहीं पांव, विघ्नहर्ता की यह दशा देखकर कई बार रोना आता है। ये कैसी पूजा, हमारे आराध्य की यह हालत। इसके लिए आखिर दोषी कौन है। जिसे हम विघ्नहर्ता मान रहे हैं, आज उनका विघ्न हरने वाला कौन बचा है? कोई बता सकता है?
   डॉ. महेश परिमल

Post Labels