डॉ. महेश परिमल
यह सरकार भी अजीब है, चुनाव करीब आते ही उसे अल्पसंख्यकों की याद आई। अब उसके हित में सोचने भी लगी। कई योजनाओं को अमल में लाने का प्रयास किया जा रहा है। कुछ तो अमल में ला भी दी गई हैं। सरकार ने इसे समझा, लेकिन यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि जब देश की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी, तो सरकार को यह क्यों समझ में नहीं आया कि इसके लिए भी कुछ करना चाहिए। खराब आर्थिक स्थिति का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए सरकार को शायद समझ में नहीं आया। क्या इसे सरकार की लापरवाही माना जाए, या फिर सरकार के आर्थिक सलाहकारों की विवशता। जब देश की आर्थिक स्थिति खराब है, तो विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए सरकार ने क्या किया? यह तय है कि जिस तेजी से डॉलर के मुकाबले रुपया गिरा है, उतनी तेजी वह वह उठ नहीं सकता। इसलिए एफडीआई प्राप्त करने के लिए सरकार को ही कुछ करना पड़ेगा। अन्यथा हालात और भी भयावह हो सकते हैं।
रिजर्व बैंक के नए गवर्नर रघुराम राजन कोई चमत्कार नहीं कर सकते। उनके आने से रुपए में कुछ सुधार अवश्य हुआ है, पर इसे उनकी उपलब्धि नहीं कहा जा सकता। उनकी असली परीक्षा उनके द्वारा तैयार की गई नीतियों की घोषणा के बाद ही होगी। वे तेजी के बैरामीटर नहीं हैं, जिसे देखकर रुपया संभलता ही जाए। इसमें सबसे बड़ी बात यही है कि सरकार विदेशी पूंजी निवेशकों को रोकने में पूरी तरह से विफल रही। इसके पीछे केवल दो लोगों को ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। पहले हैं हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और दूसरे हैं वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम। जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने विदेशी निवेशकों को लुभाने की नाकाम कोशिश की थी। जब उन्हें मनाने की आवश्यकता थी, तब उन्होंने सख्त रवैया अपनाया। एक विदेशी मोबाइल कंपनी पर 1200 करेाड़ का टैक्स लाद दिया, यही नहीं उसका भुगतान उसे पिछले वर्ष से करने का आदेश दे दिया। यह कंपनी 8 दिसम्बर 2010 को सुप्रीम कोर्ट में केस हार गई। उसके बाद सरकार ने एक आदेश के तहत यह कहा कि यह वसूली पिछले वर्ष से के बकाया भी देने होंगे। उक्त विदेशी कंपनी पर कानूनी शस्त्र का इस्तेमाल किया गया, इससे दूसरी कंपनियां भड़क उठी। मामला बिगड़ गया, पर सरकार ने कुछ नहीं किया। एक के बाद एक विदेशी निवेशकों ने अपना धन वापस खींचने का काम शुरू कर दिया। वित्त मंत्री विदेश जाकर विदेशी को भारत में पूंजी लगाने के लिए रोड शो के माध्यम से उन्हें आकर्षित करते रहे, पर उनके शो में कोई नहीं आया। इस दिशा में की गई मीटिंग को कोई रिस्पांस नहीं मिला।
इन हालात को प्रधानमंत्री ने कुछ हद तक समझा और उनका बयान आया कि सचमुच देश अभी मुश्किल हालात से गुजर रहा है। पर यह स्थिति आखिर क्यों सामने आई, इसे समझने की कोशिश नहीं हुई। विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। जब डन्हें मनाने की आवश्यकता थी, तब सरकार ने उनके खिलाफ सख्त कदम उठाए। अब जब बाजी हाथ से निकल गई है, तो सर पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं। अब सर पर हाथ रखने से कुछ नहीं होने वाला। शायद इसे भी सरकार समझने को तैयार नहीं है। देश को विदेशी निवेश के चालू वित्तीय वर्ष में 21 प्रतिशत का घाटा हुआ है। 2011-12 में एफडीआई 46.6 अरब डॉलर थी, जो 2012-13 में घटक 36.9 अरब डॉलर हो गई। इस आंकड़े से चीन की तुलना करें, तो 2012 में चीन में 111.6 अरब डॉलर की एफडीआई आई है। भारत के लिए यह चिंता की बात है कि पूरे विश्व के निवेशक यह जान गए हैं कि भारत में मंदी चल रही है और उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलने वाली।
भारत के लिए आघातजनक बात यह भी है कि वर्ल्ड इकॉनामी फोरम ने नवम्बर में भारत में आयोजित वार्षिक समिट स्थगित कर दिया है। पिछले 30 वर्षो में ऐसा पहली बार हुआ है। तीस वर्ष की परंपरा टूटी, इसका हमारे देश के आर्थिक सलाहकारों को मलाल नहीं। बाजार में जान फूंकने के लिए केबिनेट कमेटी ऑन इन्वेस्टमेंट ने 26 अगस्त को 36 प्रोजेक्ट में एक करोड़ 83 लाख करोड़ के प्रोजेक्ट पारित किए हैं, इसमें पॉवर, आइल, गैस, रोड, रेल्वे आदि का समावेश किया गया है। इसका मूल आशय निवेशकों का चक्र पूरा होता है और नौकरी के अवसर बढ़ते हैं, परंतु उद्योग क्षेत्र का कहना है कि वित्तीय घाटा, करंट एकाउंट, डेफीसीट, जीडीपी की ग्रोथ रेट ओर इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रीय प्रोडक्शन (आईआईपी) काफी मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। उद्योग जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि निवेशकों का विश्वास अब उठ गया है। कोई भी कंपनी कोई नया प्रोजेक्ट लाने को तैयार नहीं है। तो फिर रोजगार के अवसर कहां से तैयार होंगे? वित्त मंत्री चिदम्बरम कहते हैं कि धीरज रखो, पर कहां तक? विदेशी निवेशकों का विश्वास खोने के साथ-साथ सरकार भारतीय प्रजा का भी विश्वास अब खोने लगी है। ऐसे में विश्वासपूर्वक यह कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा।
डॉ. महेश परिमल
यह सरकार भी अजीब है, चुनाव करीब आते ही उसे अल्पसंख्यकों की याद आई। अब उसके हित में सोचने भी लगी। कई योजनाओं को अमल में लाने का प्रयास किया जा रहा है। कुछ तो अमल में ला भी दी गई हैं। सरकार ने इसे समझा, लेकिन यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है कि जब देश की आर्थिक स्थिति खराब होने लगी, तो सरकार को यह क्यों समझ में नहीं आया कि इसके लिए भी कुछ करना चाहिए। खराब आर्थिक स्थिति का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए सरकार को शायद समझ में नहीं आया। क्या इसे सरकार की लापरवाही माना जाए, या फिर सरकार के आर्थिक सलाहकारों की विवशता। जब देश की आर्थिक स्थिति खराब है, तो विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए सरकार ने क्या किया? यह तय है कि जिस तेजी से डॉलर के मुकाबले रुपया गिरा है, उतनी तेजी वह वह उठ नहीं सकता। इसलिए एफडीआई प्राप्त करने के लिए सरकार को ही कुछ करना पड़ेगा। अन्यथा हालात और भी भयावह हो सकते हैं।
रिजर्व बैंक के नए गवर्नर रघुराम राजन कोई चमत्कार नहीं कर सकते। उनके आने से रुपए में कुछ सुधार अवश्य हुआ है, पर इसे उनकी उपलब्धि नहीं कहा जा सकता। उनकी असली परीक्षा उनके द्वारा तैयार की गई नीतियों की घोषणा के बाद ही होगी। वे तेजी के बैरामीटर नहीं हैं, जिसे देखकर रुपया संभलता ही जाए। इसमें सबसे बड़ी बात यही है कि सरकार विदेशी पूंजी निवेशकों को रोकने में पूरी तरह से विफल रही। इसके पीछे केवल दो लोगों को ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। पहले हैं हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और दूसरे हैं वित्त मंत्री पी. चिदम्बरम। जब प्रणब मुखर्जी वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने विदेशी निवेशकों को लुभाने की नाकाम कोशिश की थी। जब उन्हें मनाने की आवश्यकता थी, तब उन्होंने सख्त रवैया अपनाया। एक विदेशी मोबाइल कंपनी पर 1200 करेाड़ का टैक्स लाद दिया, यही नहीं उसका भुगतान उसे पिछले वर्ष से करने का आदेश दे दिया। यह कंपनी 8 दिसम्बर 2010 को सुप्रीम कोर्ट में केस हार गई। उसके बाद सरकार ने एक आदेश के तहत यह कहा कि यह वसूली पिछले वर्ष से के बकाया भी देने होंगे। उक्त विदेशी कंपनी पर कानूनी शस्त्र का इस्तेमाल किया गया, इससे दूसरी कंपनियां भड़क उठी। मामला बिगड़ गया, पर सरकार ने कुछ नहीं किया। एक के बाद एक विदेशी निवेशकों ने अपना धन वापस खींचने का काम शुरू कर दिया। वित्त मंत्री विदेश जाकर विदेशी को भारत में पूंजी लगाने के लिए रोड शो के माध्यम से उन्हें आकर्षित करते रहे, पर उनके शो में कोई नहीं आया। इस दिशा में की गई मीटिंग को कोई रिस्पांस नहीं मिला।
इन हालात को प्रधानमंत्री ने कुछ हद तक समझा और उनका बयान आया कि सचमुच देश अभी मुश्किल हालात से गुजर रहा है। पर यह स्थिति आखिर क्यों सामने आई, इसे समझने की कोशिश नहीं हुई। विदेशी निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। जब डन्हें मनाने की आवश्यकता थी, तब सरकार ने उनके खिलाफ सख्त कदम उठाए। अब जब बाजी हाथ से निकल गई है, तो सर पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं। अब सर पर हाथ रखने से कुछ नहीं होने वाला। शायद इसे भी सरकार समझने को तैयार नहीं है। देश को विदेशी निवेश के चालू वित्तीय वर्ष में 21 प्रतिशत का घाटा हुआ है। 2011-12 में एफडीआई 46.6 अरब डॉलर थी, जो 2012-13 में घटक 36.9 अरब डॉलर हो गई। इस आंकड़े से चीन की तुलना करें, तो 2012 में चीन में 111.6 अरब डॉलर की एफडीआई आई है। भारत के लिए यह चिंता की बात है कि पूरे विश्व के निवेशक यह जान गए हैं कि भारत में मंदी चल रही है और उन्हें सरकार की तरफ से किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलने वाली।
भारत के लिए आघातजनक बात यह भी है कि वर्ल्ड इकॉनामी फोरम ने नवम्बर में भारत में आयोजित वार्षिक समिट स्थगित कर दिया है। पिछले 30 वर्षो में ऐसा पहली बार हुआ है। तीस वर्ष की परंपरा टूटी, इसका हमारे देश के आर्थिक सलाहकारों को मलाल नहीं। बाजार में जान फूंकने के लिए केबिनेट कमेटी ऑन इन्वेस्टमेंट ने 26 अगस्त को 36 प्रोजेक्ट में एक करोड़ 83 लाख करोड़ के प्रोजेक्ट पारित किए हैं, इसमें पॉवर, आइल, गैस, रोड, रेल्वे आदि का समावेश किया गया है। इसका मूल आशय निवेशकों का चक्र पूरा होता है और नौकरी के अवसर बढ़ते हैं, परंतु उद्योग क्षेत्र का कहना है कि वित्तीय घाटा, करंट एकाउंट, डेफीसीट, जीडीपी की ग्रोथ रेट ओर इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रीय प्रोडक्शन (आईआईपी) काफी मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। उद्योग जगत से जुड़े लोगों का कहना है कि निवेशकों का विश्वास अब उठ गया है। कोई भी कंपनी कोई नया प्रोजेक्ट लाने को तैयार नहीं है। तो फिर रोजगार के अवसर कहां से तैयार होंगे? वित्त मंत्री चिदम्बरम कहते हैं कि धीरज रखो, पर कहां तक? विदेशी निवेशकों का विश्वास खोने के साथ-साथ सरकार भारतीय प्रजा का भी विश्वास अब खोने लगी है। ऐसे में विश्वासपूर्वक यह कैसे कहा जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आएगा।
डॉ. महेश परिमल
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