शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

‘आप’ खत्म कर पाएगी वीआईपी संस्कृति?

डॉ. महेश परिमल
विधानसभा चुनाव परिणाम के पहले जो मोदी लहर थी, वह परिणाम के बाद अरविंद लहर में बदल गई। जब से ‘आप’ ने अपना प्रदर्शन दिखाया है, तब से अरविंद ‘टॉक आफ द नेशन’ हैं। अब तो हालत यह है कि ‘आप’ की छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों पर मीडिया ही नहीं, बल्कि लोगों की भी नजर है। राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से सरकार बनाने की मंजूरी मिलने के बाद से ‘आप’ सरकार के मंत्रिमंडल के शपथविधि को रामलीला मैदान में अंतिम रूप दिया जा रहा है। शपथ विधि समारोह बड़ा किंतु सादा होगा, ऐसा कहा जा रहा है। सरकारी बंगला और कार लेने के लिए ना कहने वाले अरविंद केजरीवाल और ‘आप’ दिल्लीका वीआईपी कल्चर खत्म कर देंगे, ऐसा समझा जा रहा है। वैसे भी दिल्ली का अधिकांश पुलिस बल वीआईपी सुरक्षा में ही लगा रहता है। इससे कम से कम उन्हें तो राहत ही मिलेगी। अब वे अपना ध्यान दूसरी आवश्यक मोर्चो पर देने की कोशिश करेंगे, ऐसा समझा जा सकता है।
हमें सत्तालोलुप नेता नहीं चाहिए, हमें क्रांतिकारियों की आवश्यकता है। ऐसा कहने वाले अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के गठन के तुरंत ही बाद अपने विधायक विनोद कुमार बिन्नी की बगावत को झेला। काफी मान-मनौव्वल के बाद वे अब यह कहने लगे हैं कि अब तो गेटकीपर भी बना दोगे, तो भी कुछ नहीं कहूंगा। वैसे बिन्नी की बगावत वाजिब थी। वे दो बार निर्दलीय प्रत्याशी की हैसियत से चुनाव जीत चुके हैं। राजकीय ठाट-बाट को उन्होंने काफी करीब से देखा है। मंत्रिमंडल के गठन के समय वे निश्ंिचत थे कि ये सभी तो नए-नवेले हैं, मैं तो अनुभवी हूं, इसलिए मेरी नियुक्ति तो तय है। पर जब उन्हें मंत्रिमंडल में नहीं लिया गया, तो उन्होंने बगावत कर दी। लेकिन अब सब ठीक है। अब तो वे कह रहे हैं कि सारा किया-कराया मीडिया का है। इस समय तो बिन्नी खामोश हैं, पर उनके भीतर का अनुभवी विधायक कभी न कभी तो मुंह खोलेगा ही। यह तय है। वैसे कांग्रेस अपना समर्थन कब वापस ले ले, यह भी पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता। इसके बाद भी ‘आप’ को लोग अभी भी सशंकित निगाहों से देख रहे हैं। क्योंकि सभी जानते हैं कि ‘आप’ ने जो चुनावी वादे किए हैं, वहीं उसके लिए खरी चुनौती हैं।
शनिवार 28 दिसम्बर को दिल्ली में एक नए प्रकार की सरकार आने वाली है। यह सरकार कई मामलों में अनोखी ही होगी। सबसे पहले तो यही है कि भावी मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जेड प्लस सुरक्षा लेने से इंकार कर दिया है, यही नहीं, उन्होंने सरकारी बंगला भी नहीं लेने की घोषणा की है। इस पर वे कहते हैं कि मैं तो सीधा-सादा आदमी हूं। अब तक मुझे किस तरह की सुरक्षा मिली थी? मै सुरक्षा बलों से घिरा नहीं रहना चाहता। यह अच्छी बात है, क्योंकि दिल्ली की अधिकांश पुलिस वीआईपी सुरक्षा में ही लगी रहती है। देश के दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्री अपने सुरक्षा कमांडो से धिरे रहते हैं। उनके करीब जाने से ही लोग थरथराने लगते हैं। लोग यह मानने लगे हैं कि दिल्ली के ये नए मुख्यमंत्री सादगी की कुछ नई इबारत लिखेंगे। इससे अब लोग कभी भी मुख्यमंत्री को मेट्रो में सफर करते देख सकते हैं। अब तक ऐसा केवल विदेशों में ही होता रहता है, अब हमारे देश में भी होगा। जब विधायक आपके दरवाजे आकर कहेगा कि मैं यहां का विधायक हूं, आपको हमारे प्रशासन से किसी प्रकार की तकलीफ हो, तो मुझे बताएं। केजरीवाल ने न केवल कहा, बल्कि अपनी सादगी का परिचय देते हुए राष्ट्रपति से मिलने अपनी साधारण मारुति 800 से राष्ट्रपति भवन पहुंचे। उनके स्थान पर दूसरा कोई होता, तो ढोल-नगाड़ों के साथ राष्ट्रपति भवन जाता और रास्ता जाम कर देता। देखना यही है कि ये सादगी कब तक कायम रह सकती है। इस बार रामलीला मैदान अपनी सादगी के लिए जाना जाएगा। शपथ ग्रहण समारोह चकाचौंध करने वाला नहीं होगा। आम आदमी पार्टी ने किसी को भी आमंत्रण पत्र नहीं भेजा है। जिन्हें आना है, वे आ सकते हैं, जिन्हें नहीं आना है, उनके लिए कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं है। शपथ विधि के लिए कोई खास या अच्छा मुहूर्त की भी परवाह नहीं की गई। इसके पहले तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने मलमास शुरू होने के पहले ही शपथ ग्रहण कर चुके हैं। मतलब यही है कि जो कुछ हो रहा है, अच्छा हो रहा है। कुछ अलग ही हो रहा है। दुनिया का यह नियम भी है कि यदि कुछ नया और अलग हो रहा हो, तो उस पर पहले तो शंका ही की जाती है। अभी तो सब यही कह रहे हैं कि ये सब कुछ अधिक समय तक नहीं चल पाएगा। पर कई लोगों का यह भी कहना है कि जो कुछ चल रहा है, उसे चलने तो दो। अभी तो चल रहा है ना? आप यदि चाहेंगे कि सब अच्छा हो, तो अच्छा ही रहेगा। यह तो लोगों की इच्छा पर भी निर्भर करता है।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को यह भी सोचना और देखना होगा कि सरकार केवल मंत्रिमंडल या नेताओं से ही नहेीं चलती। इसे चलाते हैं सरकारी बाबू और अधिकारी। यदि इन लोगों के काम का रवैया नहीं बदला गया, तो समझो सब कुछ बेकार है। भ्रष्टाचार का मूल तो यही प्रशासन है। किस फाइल को आगे बढ़ाना है किसे दबाना है, इसे प्रशासन तंत्र से जुड़े लोग इसे अच्छी तरह से समझते हैं।  दिल्ली के बाबू तो और भी अधिक शातिर हैं। इन्हें नियंत्रण में लाना बहुत ही आवश्यक है। केजरीवाल मंत्रिमंडल को इन बाबुओं और अधिकारियों को ठीक करने में ही पसीना छूट सकता है। वैसे अरविंद केजरीवाल ऐसे एकमात्र मुख्यमंत्री नहीं होंगे, जिसे उनकी सादगी से पहचाना जाएगा। अभी भी देश में दो-तीन मुख्यमंत्री ऐसे हैं, जो सादगी की मिसाल हैं। इनमें सबसे पहला नाम है त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार का। इनके पास कुछ सम्पत्ति ढाई लाख रुपए की है। जब इन्होंने चुनाव के पहले अपना नामांकन पत्र भरा, तो उसमें उन्होंने जानकारी दी कि उनके हाथ में नकद राशि है 1080 रुपए और बैंक एकाउंट में है कुल 9720 रुपए। सभी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उनका घर चलाने के लिए उन्हें पार्टी की ओर से हर महीने 5 हजार रुपए मिलते हैं। अपनी सादगी के बारे माणिक कहते हैं कि मुझे इससे अधिक की आवश्यकता ही नहीं है। मैं देश का सबसे गरीब मुख्यमंत्री हूं। यह मेरे लिए गर्व की बात है।
सादगी में इसके बाद नाम लिया जाता है पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का। साधारण साड़ी और साधारण स्लीपर, वे पहले भी पहनती थीं, अब भी पहनती हैं। उन्हें भी दिखावा करना पसंद नहीं है। वे जो हैं, वही हैं। गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर भी अपनी सादगी के लिए पहचाने जाते हैं। वे भी किसी तरह के दिखावे से दूर रहते हैं। दिखावा उन्हें पसंद ही नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी अपनी सादगी के लिए पहचाने जाते थे। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री बाबुभाई जशभाई पटेल की सादगी की चर्चा आज भी गुजरात के बुजुर्ग करते हैं। इस परंपरा को अरविंद केजरीवाल आगे ही बढ़ा रहे हैं, ऐसा कहा जा सकता है। सावधानी यही रखनी होगी कि कहीं सादगी के रास्ते से अभियान न आ जाए। यह सबसे अधिक खतरनाक स्थिति होगी। सरकार बनने के बाद यदि सब कुछ ठीक रहा, तो उनकी सादगी निश्चित रूप से एक नई इबारत लिखेगी, ऐसा कहा जा सकता है। यदि देश से वीआईपी कल्चर ही खत्म हो जाए, तो देश के सत्ता लोलुप नेताओं की सुरक्षा पर होने वाले अरबों रुपए बच सकते हैं, जो देश के विकास में काम आ सकते हैं।
डॉ. महेश परिमल

गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

दिग्गजों ने भी चखा है हार का स्वाद

डॉ. महेश परिमल
जहां सफलता है, वहां विफलता भी है। कोई भी हमेशा सफल नहीं हो सकता और न ही कोई हमेशा विफल रह सकता है। सफलता-विफलता यह जीवन के दो पहलू हैं। हर किसी को इसका सामना करना पड़ता है। राजनीति में तो यह बहुत ही आवश्यक है। क्योंकि जो जीतते हैं, वे जीतकर यह भूल जाते हैं कि उन्हें यह जीत किसकी बदौलत मिली है। इसलिए जनता ही उन्हें सबक सिखाकर आसमां से जमीन पर पटक देती है। आज चारों ओर अरविंद केजरीवाल की चर्चा है। कांग्रेस को दिल्ली की हार का उतना अफसोस नहीं है, जितना शीला दीक्षित की हार का। पिछले 15 वर्षो से मुख्यमंत्री के पद को सुशोभित करने वाली शीला दीक्षित 25 हजार 856 मतों से अरविंद केजरीवाल के हाथों हार गई। यह शीला दीक्षित के लिए निश्चित रूप से आघातजनक है। भारतीय राजनीति में ऐसे किंग किलर या फिर क्वीन किलर की अनेक घटनाएं हैं। जिनके सितारे खूब तेजी में हों, उन्हें एक सामान्य कार्यकर्ता ने हराया है। भारतीय राजनीति में हार का स्वाद चखने वालों में इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह, लालू यादव, रामविलास पासवान, प्रमोद महाजन,  सुंदरलाल बहुगुणा, हेमवती नंदन बहुगुणा, एन.टी. रामाराव, बुद्धदेव भट्टाचार्य, आचार्य जे.बी.कृपलानी, मृणाल गोरे प्रमुख हैं। हस्तियों को हराने वाले को किंग किलर कहा जाता है।
भारतीय राजनीति में इंदिरा गांधी को ‘मर्द’ की उपमा दी जाती है। लोहे जैसे मजबूत इरादों वाली इंदिरा गांधी की कार्यशैली का अनुकरण कई राजनेताओं ने किया है। 1977 के लोकसभा चुनाव में रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के खिलाफ जनता दल के नेता राजनारायण खड़े हुए। वे एक बहुत ही सामान्य प्रत्याशी थे। अपने पहनावे के कारण में हमेशा चर्चित रहे। उनकी कोई इमेज भी नहीं थे। किंतु इन्होंने एक इतिहास रचा। उन्होंने इंदिरा गांधी को 55 हजार 202 मतां से हराया। दूसरे ही दिन में अखबारों की सुखिर्यां बन गई। सभी अखबार उनकी प्रशंसा में खड़े हो गए। उन्हें क्विन किलर की उपाधि दी गई। इंदिरा गांधी को हराने किसी सपने से कम नहीं था। उनके सामने कोई खड़े रहने के लिए भी कोई तैयार नहीं था।  जनता दल में भी राजनारायण का मान-सम्मान बढ़ गया। इसी तरह भाजपा के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी एक बार हार का स्वाद चखा है। उनकी प्रतिभा भी ऐसी थी कि उनके सामने कोई भी हार जाए। 1984 के लोकसभा चुनाव में ग्वालियर सीट से उनके खिलाफ माधवराव सिंधिया प्रत्याशी थे। अपनी मां विजयाराजे सिंधिया से नाराजगी के चलते माधवराव सिंधिया ने यह कदम उठाया था। वे कांग्रेस की तरफ से उम्मीदवार थे। माधवराव राज परिवार से थे, युवा थे। सभी को आश्चर्य उस समय हुआ, जब उन्होंने वाजपेयी को एक लाख 75 हजार 594 मतों से हरा दिया। आंध्र में तेलुगु देशम के संस्थापक और लोकप्रिय अभिनेता एनटी रामाराव को 1989 में कलवाकुर्पी सीट से कांग्रेस के चित्तरंजन दास ने तीन हजार 568 मतों से हरा दिया।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही दो कार्यकाल से देश के प्रधानमंत्री पद को सुशोभित कर रहे हों, उन्होंने एक बार भी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा। वे राज्यसभा के माध्यम से प्रधानमंत्री पद तक पहुंचे हैं। ¨क तु एक बार उन्होंने लोकसभा का चुनाव लड़ा था, तब भाजपा के प्रत्याशी से हार गए थे। दक्षिण दिल्ली की सीट पर उनके खिलाफ विजय कुमार मल्होत्रा खड़े थे। उनसे डॉ.मनमोहन सिंह 29 हजार 999 मतों से हार गए थे। हार-जीत सिक्के के दो पहलू हैं। जीतने वाले को हारना और हारने वाले को जीतना ही होता है। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य से तृणमूल कांग्रेस ने सत्ता हथिया ली थी। तृणमूल ने वामपंथी सरकार को ही पलट कर रख दिया। उस समय बुद्धदेव भट्टाचार्य को तृणमूल के मनीष गुप्ता ने 16 हजार 684 मतों से हरा दिया। जिस तरह से अभी राजस्थान मं भाजपा ने गहलोत सरकार को उखाड़ फेंका है, ठीक उसी तरह पश्चिम बंगाल में भी ममता की आंधी के सामने वामपंथी सरकार उखड़ गई। 2009 के लोकसभा चुनाव में बिहार की लोकजन शक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान को हाजीपुर सीट से जनता दल यू के प्रत्याशी रामसुंदर दास ने 37 हजार 954 मतों से हराया था। कई बार दिग्गजों के सामने सेलिब्रिटी को मैदान में उतारा जाता है। इलाहाबाद के लोकप्रिय नेता और घर-घर में पहचाने जाने वाले नेता हेमवतीनंदन बहुगुणा को हराने के लिए कांग्रेस ने सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को खड़ा कर दिया। चुनाव के दौरान बहुगुणा ने घोषणा की थी कि यदि वे हार जाते हैं, तो राजनीति छोड़ देंगे, अंतत: वे हार गए। हारने के बाद उन्होंने अमिताभ को बधाई का जो तार भेजा, अमिताभ उसे अपनी उपलब्धि मानते रहे। मुम्बई में पानी वाली बाई के नाम से पहचान कायम करने वाली मृणाल गोरे को कांग्रेस के एक युवा नेता ने हराया था।
जिस तरह से आज शीला दीक्षित की सरकार की हालत है, ठीक वैसी ही हालत 14 वष्र पहले मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह सरकार की हुई थी। उमा भारती ने दिग्विजय सरकार का उलटकर रख दिया था। राजनीति में किसी को भी साधारण या सामान्य नहीं माना जा सकता । चुनावी जंग में अपने प्रतिस्पर्धी को अच्छी तरह से पहचान लेना चाहिए। प्रतिस्पर्धी की कमजोरी को ही हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहिए। शीला दीक्षित आम आदमी से दूर हो गई थी। सत्ता का मद उन पर छा गया था। अपनी हार के बारे में वे सोच भी नहीं सकती थी। सच को स्वीकारने की हिम्मत उनमें नहीं थी। जनता ने उन्हें सबक सिखाया। अब उसे इस आघात से बाहर आकर अपने राजनैतिक जीवन के भूतकाल पर नजर डालनी चाहिए। ताकि अपनी कमजोरियों को जान सके। राजनीति में हार-जीत तो चलती रहती है, पर जब कोई सामान्य व्यक्ति लोकप्रिय नेता को हरा देता है, तो वह खबर बनती है।
    डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 23 दिसंबर 2013

जीत गई अदिती की संवेदनाएं

डॉ. महेश परिमल
यह एक अनोखी जिद थी कि डेढ़ साल के मासूम की मौत के बाद उसका अंतिम संस्कार उसके पिता ही करेंगे। अदिती की यह जिद सात समुंदर पार सीखचों के पीछे कैद मासूम के पिता सुनील जेम्स को रिहा कर सकती है, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था। पर मां की ममता और पिता का प्यार ही था, जिस पर हावी थी संवेदनाएं। सुनील टोगो की जेल से रिहा हो गए, भारत आए और अपने मासूम को अंतिम बार देखा, और उसे चिर विदाई दी। इसे अदिती की संवेदनाओं की जीत कहा जाए, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। पूरी घटना पूरी तरह से भावनात्मक है। आफ्रिकी देश टोगो में सुनील जेम्स की गिरफ्तारी हुई। पति की रिहाई के लिए अदिती ने प्रधानमंत्री से भेंट की। पर कुछ नहीं हो पाया। ऐसे में बेटा विवान बीमार पड़ गया। कुछ दिन बाद दो दिसम्बर को उसकी असामयिक मौत हो गई। पत्नी अदिती ने जिद पकड़ ली, जब तक विवान के पिता नहीं आ जाते, मैं बच्चे का अंतिम संस्कार नहीं करुंगी। 17 दिनों तक विवान के शव को अस्पताल में रखा गया। आखिर में अदिती की संवेदनाओं ने वह कर दिखाया, जो असंभव था। भारत के प्रयासों से सुनील को टोंगो की जेल से मुक्ति मिली।
इंडियन मर्चेट नेवी के आइल टैंकर एमटी ओशन सेंचुरियन के कैप्टन सुनील जेम्स ने अप्रेल में नाइजीरिया जाने के लिए फ्लाइट पकड़ी, तब उसे कल्पना भी नहीं थी कि उनकी यह ट्रीप खतरनाक साबित होगी। नाइजीरिया पहुंचकर उन्हें शिश्प का कंट्रोल लेना था और शिप को आगे ले जाना था। नाइजीरिया से रवाना होते ही सुनील का शिप अभी कुछ ही दूर पहुंचा था कि कुछ ऐसा हो गया, जिसे फिल्मी ड्रामा कहा जा सकता है। वह तारीख थी 18 जुलाई 2013। एक स्पीड बोट ओशन सेंचुरियन शिप की तरफ आती दिखाई दी। स्पीड बोट में जो थे, वे कमांडो की पोशाक में थे। सभी के हाथ में ए के 47 मशीनगन थी। बोट पर मरिन फोर्स का झंडा था। सभी कमांडो आइल टैंकर ओशन सेंचुरियन में घुस आए। कैप्टन सुनील जेम्स और अन्य स्टाफ को लगा कि यह शायद रुटीन चेकअप होगा। पर बोट से आए लोगों ने सभी को निशाने पर ले लिया और आदेश दिया कि जो कुछ भी हो, वह उन्हें दे दिया जाए। तब पता चला कि ये मरीन कमांडो नहीं, बल्कि समुद्री डाकू हैं। ओशन सेंचुरियन का आइल टैंकर खाली था, इसलिए आइल लूटने की कोई बात ही नहीं थी। पर जब भी कोई शिप दूरस्थ क्षेत्रों की यात्रा पर होता है, तो नकद राशि तो होती ही है। अन्य कई सामान भी होते ही है। इसके बाद उन्होंने नकद राशि और जो उन्हें अच्छा लगा, लूटकर कुछ ही देर में वहां से चले गए। अब सुनील को समझ में आ गया कि वे सभी नाइजीरियन गेंग के सदस्य थे। समुद्री लूटपाट के लिए सोमालिया जितना ही नाइजीरिया भी कुख्यात है।
समुद्री परिवहन का यह नियम है कि जब समुद्र में कोई घटना या दुर्घटना होती है, तो जो सबसे करीब का देश है,वहां रिपोर्ट लिखाई जाती है। उस समय शिप टोगो देश से 45 नोटिकल मील दूर था। कैप्टन सुनील ने शिप टोगो की तरफ घुमा दिया। शिप जब टोगो पहुंचा, तो वहां उन्होंने इस लूटपाट की रिपोर्ट लिखवाई। यहां एक दूसरी घटना ने जन्म लिया। टोगो प्रशासन ने उन्हें समुद्री डाकुओं की मदद करने के आरोप में दो अन्य साथियों सहित गिरफ्तार कर लिया। सभी को जेल भेज दिया गया। जेल में उन्हें अपराधियों के साथ रखा गया। बहुत मुश्किल से उन्हें फोन करने दिया गया। सुनील ने मलाड में स्थित अपने घर पर पत्नी अदिती को फोन पर बताया कि वे अपने दो साथियों समेत टोगो की जेल में बंद हैं। हमें गलत तरीके से जेल में बंद कर दिया गया है। तब से अदिती ने पति की रिहाई के प्रयास शुरू कर दिए। इस दौरान उन्होंने प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह से भी मुलाकात की। पर टोगो सरकार से किसी तरह की बातचीत नहीं हो पाई। इस बीच 11 माह का विवान बीमार पड़ गया। उसे सप्टेसीमिया हो गया था। इलाज में कोई कमी नहीं रखी गई। आखिर 2 दिसम्बर को उसकी मौत हो गई। तब हारकर अदिती ने यह जिद पकड़ी कि जब तक विवान के पिता नहीं आते, तब तक विवान का अंतिम संस्कार नहीं होगा। कई लोगों ने इसे भावनात्मक ब्लेकमेल कहा, पर इस बार अदिती ने तय कर लिया था कि विवान का अंतिम संस्कार उसके पिता ही करेंगे। एक तरह से यह एक मां का अल्टीमेटम था, देश की सरकार के लिए। तब सरकार जागी। विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने टोगो के विदेश मंत्री से बात की। सरकार ने भी टोगो के राष्ट्रपति ग्नेसिंग्बे से अनुरोध किा कि मानवता  के नाते सुनील को रिहा कर दें। ताकि वे अपने बेटे का अंतिम संस्कार कर सकें। आखिर टोगो सरकार झुकी। 19 दिसम्बर को सुनील को टोगो की जेल से रिहा कर दिया।
सुनीलजेम्स की घटना से ऐसा कहा जा सकता है कि उसे केवल इसलिए कैद किया गया, ताकि शिप कंपनी से और अधिक राशि हड़पी जा सके। असली बात क्या है, यह तो किसी को भी नहीं मालूम। पर बात जब बेटे की मौत और अंतिम संस्कार की आती है, तो सुनील को माफ किया जा सकता है। आरोप तो अदिती पर भी लगे हैं कि उसने सरकार के साथ इमोशनली ब्लेकमेल किया है। पर इसे भी तो समझना चाहिए कि एक लाचार नारी इसके सिवाय और कर भी क्या सकती थी? मासूम बेटे की मौत और पति सात समुंदर पार एक देश की जेल में बंद है, तो वह लाचार क्या करे? जेम्स ने अपने बेटे का चेहरा अंतिम बार देख लिया, इसके पहली जब अंतिम बार उसे देखा था, तो वह हंसता-खेलता बच्च था। आज उनका बेटा विवान इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए रुखसत कर गया है। इसके लिए अदिती की संवेदनाओं के अलावा उनकी मेहनत भी है, जिन्होंने अदिती की सहायता की। साथ ही टोगो के मंत्रियों-अधिकारियों को भी नहीं भूलना चाहिए, भले ही वे अनपढ़ हों, गरीब हों, जंगली हो,  पर उन्होंने सुनील को रिहा कर यह बता दिया कि उनका भी दिल है, जो धड़कता है।
वैसे कुछ आफ्रिकी देशों के बारे में यह कहा जाता है कि वहां कानून-व्यवस्था जैसी कोई चीज ही नहीं है। सरकार भी कई बार विवश हो जाती है। टोगो देश की प्रशंसा तो नहीं की जा सकती। घाना के करीब स्थित इस देश में गरीबी, बेकारी, और भुखमरी से त्रस्त है। लोग अशिक्षित हैं। 56785 वर्ग किलोमीटर में फैले इस देश की जनसंख्या हमारे देश के एक महानगर से भी कम है। गरीबी और भुखमरी के कारण यहां के निवासियों की औसत आयु भी कम है। पुरुषों की औसत 56 और महिलाओं की 59 वर्ष।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

कमजोर विदेश नीति का परिणाम

डॉ. महेश परिमल
हमारे देश में पहली बार अमेरिका विरोधी सुर देखने में आया है। अमेरिका में भारतीय राजनयिक के साथ जो कुछ हुआ, उससे हमारे देश के कर्णधारों की आंख जरा देर से खुली। सबसे पहले तो यह देखा जाना आवश्यक है कि क्या वास्तव में जैसा मीडिया में आ रहा है, देवयानी के साथ वैसा ही हुआ है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अन्य देशों के राजनयिकों को भारत पांच सितारा सुविधाएं देता है, वहीं विदेशों में भारतीय राजनयिकों की स्थिति क्या है, इस पर कभी किसी ने सोचा है। अगर देवयानी ने अपने वीजा में गलत जानकारी दी है, तो उस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए। भारत तब क्यों नहीं जागा, जब हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को अमेरिका में अपमानित होना पड़ा था? इसके पहले जार्ज फर्नाण्डीस भी अपमानित हो चुके हैं। अमेरिका ने इस तरह की हरकतें पहले भी कई बार की है। हर बार वह माफी मांगकर बच निकलता है। इस बार भी माफी मांगने का नाटक किया गया है। इस बार अमेरिका के प्रति भारत का रवैया उचित है। पर अमेरिका इस बात को अच्छी तरह से जानता है कि भारत में उसकी इस हरकत को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।
अमेरिका को अच्छी तरह से मालूम है कि जब देश के प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित उम्मीदवार नरेंद्र गांधी को अमेरिका का वीजा नहीं दिया गया, तो कई दलों ने इसकी प्रशंसा की थी। इसका आशय यही हुआ कि भारत में अमेरिका के खिलाफ लामबंदी हो सकती है, इसे अमेरिका ने अभी तक नहीं समझा है। वह हमारी इसी कटुता का लाभ उठाता रहा है। इसी के चलते अभी तीन दिन पहले ही गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अमेरिकी प्रतिनिधि मंडल से मिलने से इंकार कर दिया। इस तरह से उन्होंने एक अंतरराष्ट्रीय मामले पर अपना विरोध दर्ज की। इसका कहीं कोई रिस्पांस मिला हो, ऐसा नहीं दिखता। पर अमेरिका की बार-बार की जाने वाली मनमानी पर अंकुश लगाना आवश्यक था। भारत ने जो भी कदम उठाया, वह सराहनीय है। विश्व की महासत्ता बनकर अमेरिका शिष्टाचार को भी भूलता जा रहा है। उसकी दादागिरी पर रोक लगाना जरूरी था। अब समय आ गया है कि व्यूहात्मक रूप से उसका सामना किया जाए। अपना विरोध दर्ज कर भारत ने इतना तो दर्शा ही दिया है कि भारतीय राजनयिकों को पूरा सम्मान मिलना चाहिए। जब तक भारत ने अपना विरोध दर्ज नहीं किया था, तब तक अमेरिका अपनी मनमानी करता रहा। जब भारत में नियुक्त राजनयिकों को पांच सितारा सुविधाएं देना बंद कर दिया गया, तब अमेरिका को लगा कि कुछ गलत हो गया है। अमेरिका में देवयानी को हथकड़ी पहनाकर जेल पहुंचाया गया और वहां अपराधियों के बीच रखा गया। उसके बाद ही उसे जमानत मिली। ऐसे व्यवहार का साहस अमेरिका को कहां से मिला, इसका उत्तर यही है कि यह हमारी कमजोर विदेश नीति के कारण ही है। हमने अमेरिका को सदैव अपना ‘आका’ माना और उसकी जी-हुजूरी की। इसलिए अमेरिका ऐसा करने में सफल रहा।
हमारा देश भले ही विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र हो, पर यहां कई मतभेद हैं। भारत में प्रजातांत्रिक तरीके से चुनाव जीतने वाले किसी नेता को अमेरिकी वीजा न मिले, तो कई लोग खुश भी होते हैं, यही नही तालियां भी बजाते हैं।  तालियों की इसी आवाजों से अमेरिका समझ जाता है कि यह देश मूर्खो से भरा पड़ा है। कई बार तो अमेरिका आगे बढ़कर भारत की विदेशी नीतियों से छेड़छाड़ करता आया है, पर हमें इसका कोई भी असर नहीं होता। दूसरी तरफ भारत की विदेश नीति हमेशा ढुल-मुल रही है। कभी इसमें सख्ती नहीं देखी गई। देवयानी की गिरफ्तारी के एक सप्ताह पहले ही अमेरिका ने एक भारतीय दम्पति पर यह आरोप लगाया कि वे भारत से काम करने के लिए जिन्हें लाते हैं, उनसे दस से बारह घंटे काम लिया जाता है। यही नहीं उन्हें वेतन भी कम दिया जाता है। न्यूयार्क के केनटुकी स्थति फास्टफूड का रेस्तरा चलाने वाले इस दम्पति अमृत पटेल और दक्षा पटेल की धरपकड़ की गई थी। डेढ़ साल पहले ही भारतीय दूतावास  के एक अधिकारी जो मेरीलैंड में रहते थे। तब उनके पड़ोस में रहने वाली एक महिला ने उन पर छेड़छाड़ क आरोप लगाया। तब वहां भारतीय राजदूर केरूप में निरुपमा राय थी। श्रीमती राव ने उन्हें घर भी जाने नहीं दिया, क्योंकि उन्हें मालूम था कि घर पहुंचते ही उनकी धरपकड़ हो जाएगी, इसलिए उन्हें सीधे एयरपोर्ट भेजकर उन्हें भारत भेज दिया, बाद में उनका सामान भेजा गया। इस मामले को दबा दिया गया था। बाद में इस अधिकारी को अन्य देशों में पोस्टिंग हुई, जहां उन्होंने बेहतर काम किया। कुछ समय बाद पता चला कि वह अधिकारी निर्दोष थे। उन पर आरोप लगाने वाली महिला ने अपने स्वार्थ के कारण उन पर छेड़छाड़ का आरोप लगाया था। वह महिला इसके पहले भी इस तरह के आरोप कई लोगों पर लगा चुकी थी।
अमेरिका में अभी 15 दिन पहले ही उपवास आंदोलन शुरू हुआ था। अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा उन अनशनकारियों से मिलने पहुंचे थे। अमेरिका में रहने वाले भारतीय अनेक समस्याओं से जूझ रहे हैं। पिछले एक वर्ष से इमीग्रेशन कानून संशोधन बिल की चर्चा चल रही है। इस कारण अमेरिका में असंवैधानिक रूप से रह रहे डेढ़ करोड़ लोग वहां सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। असंवैधानिक रूप से रहने वाले ये सभी वहां कानूनी रूप से रह सकते थे, इसकी पूरी संभावना थी। अमेरिका के सभी राज्यों में इस तरह का आंदोलन चलाकर सरकार पर दबाव बढ़ाया गया। पहले चरण में बिल पारित होने की तैयारी में था, तभी ओबामा के सलाहकारों ने मामला बिगाड़ दिया। गैरकानूनी रूप से रहने वालों को कानूनी हक देने का वादा ओबामा ने चुनाव के दौरान किया था। इसके बाद भी वे अपने वादे से मुकर गए। इस समय जो देवयानी खोब्रागड़े के साथ हुआ है, वैसा यदि भारत में किसी अमेरिकी राजनयिक के साथ होता, तो क्या उसे हथकड़ी पहनाकर जेल भेजा जाता? पाकिस्तान ने ऐसा करके अपनी ताकत बताई थी, बाद में उसने अमेरिका से माफी भी मांग ली। उदारवाद के चलते भातर की कमजोर विदेश नीति के चलते अमेरिका बार-बार ऐसा कर रहा है। देवयानी के साथ जो कुछ हुआ, वैसा ही यहां भी हो, तो अमेरिका कुछ संभलेगा। अभी भारत ने जो कदम उठाए हैं, वह विरोध के स्वर को ठंडा करने के लिए उठाया है। बाद में हालात फिर वही ढाक के तीन पात की तरह हो जाएंगे।
डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

कब होगी जस्टिस गांगुली पर कार्रवाई


दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण में प्रकाशित मेरा आलेख

गांगुली पर कार्रवाई क्यों नहीं?
डॉ. महेश परिमल
देश में इन दिनों एक अजीब सी परिपाटी शुरू हो गई है। अपराध सित्र होने के बाद भी अपराधी को सजा नहीं होगी, ऐसा कोर्ट का कहना है। अपराधी चूंकि एक न्यायाधीश है, केवल इसलिए उस पर किसी तरह की कार्रवाई नहीं होगी। ऐसा शायद देश में पहली बार हुआ है। समझ में नहीं आता कि ए.के. गांगुली के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई क्यों नहीं हो पा रही है। न्यायतंत्र में भी व्हाइट कॉलर का दबदबा इतना अधिक बढ़ गया है कि अपराध करने के बाद भी अपराधी न केवल मानव अधिकार आयोग में एक न्यायाधीश के रूप में ड्यूटी कर रहे हैं, बल्कि खुलेआम घूम भी रहे हैं। इस देश में जब तरुण तेजपाल के खिलाफ कार्रवाई हो सकती है, तो फिर जज गांगुली पर क्यों नहीं? वैसे भी देश में न्यायाधीशों पर रिश्वत के आरोप लगते रहे हैं। पर सुप्रीमकोर्ट के सेवानिवृत्त जज ए.के. गांगुली पर जो यौन शोषण का आरोप लगा है, वह बहुत ही गंभीर है। अपनी इंटर्न से की गई छेड़छाड़ को वे आसी सहमति से होना बताते हैं, पर उनकी यह दलील काम नहीं आ रही है। अब यदि वे स्वयं ही आगे बढ़कर अपना इस्तीफा दे देते हैं, तो विवाद का अंत आ सकता है। गांगुली भले ही स्वयं पर लगे आरोपों को वाहियात कहते रहें, पर सच तो यह है कि कोर्ट कमेटी ने अपनी प्रारंभिक जांच में गांगुली को दोषी पाया है। मामला इसलिए विवादास्पद हो गया है। हाल ही में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज्य ने लोकसभा में कहा है कि या तो गांगुली को मानवधिकार आयोग से हटा दिया जाए, या फिर उनकी धरपकड़ की जाए।
सुप्रीमकोर्ट के किसी जज पर यौन शोषण का आरोप देश में पहली बार लगा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने गांगुली को हटाने की सिफारिश कर चुकीं हैं। गांगुली के समर्थन में लोकसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी जैसी हस्ति है। कहा तो यही जाता है कि गांगुली को बहुत ही जल्द हटा दिया जाएगा। उनका हटना तय है। पर जब तक वे पद पर हैं, तब तक तो वे बदनाम होते ही रहेंगे, साथ ही उनका पद भी बदनाम होगा। गांगुली पर जिस 23 वर्षीय युवती पर छेड़छाड़ का आरोप है, उस युवती ने पहले अपने विचार अपने ब्लॉग में 5 नवम्बर को दिए।  अपने ब्लॉग में युवती ने लिखा है कि मेरे दादा की उम्र के सुप्रीम कोर्अ के एक जज ने मेरा यौन शोषण करने का प्रयास किया है। इस ब्लॉग के कारण चारों तरफ आपाधापी मच गई। इसमें कई महत्वपूर्ण फैसलों से प्रकाश में आए न्यायाधीश ए.के. गांगुली फंस गए। सुप्रीमकोर्ट के सेवानिवृत्त जज गांगुली व्हाइट कॉलर की सूची में सबसे ऊपर हैं। अपने इंटर्न को नशे में छेड़कर उन्होंने एक नए विवाद को ही जन्म दिया है। युवती ने गांगुली पर यह आरोप लगाया है कि जब वह सलाह-मशविरा करने उनके पास गई, तब उन्होंने मुझसे छेड़छाड़ की, मेरा यौन शोषण करने का प्रयास किया। आजकल ट्रेन के एसी क्लास में जिस तरह से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ रहीं हैं, उससे यही लगता है कि व्हाइट कॉलर यात्रियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता। इसके बजाए स्लीपर क्लास के व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है। व्हाइट कॉलर के लोगों पर भरोसा करने का मतलब ही है कि उनके भीतर का शैतान अकेलेपन में जिंदा हो जाएगा। व्हाइट कॉलर का मतलब ही है कि ऊंचे पद को सुशोभित करने वाला रसूखदार व्यक्ति। ये जब भी किसी अकेली महिला को एकांत में देखते हैं, तो उनके भीतर का राक्षस बाहर आ जाता है। आसाराम-सांई को हम भले ही इस सूची में न रखें, पर तहलका डॉट कॉम के तरुण तेजपाल को इस सूची में रख ही सकते हैं। उन पर भी युवती के साथ यौन शोषण का आरोप है। इस समय वे पुलिस हिरासत में हैं। समझ में नहीं आता कि जब किसी मजदूर या ड्राइवर पर यौन शोषण का आरोप लगता है, तो इसे विकृत मानसिकता का दर्जा दिया जाता है। पर जब व्हाइट कॉलर के लोगों पर यह आरोप लगता है, तो इसे विकृत मानसिकता नहीं कहा जा सकता। आरोप लगने पर उनका यही कहना होता है कि जो कुछ हुआ, वह आपसी सहमति से हुआ। इस तरह वे थोथी दलीलों से वे अपना बचाव करते हैं।  तरुण तेजपाल ने गोवा में यह कहा था कि यह गोवा है, आप मुक्त हैं, ऐश करो। खुद तरुण तेजपाल ऐश करने लगे और पुलिस की पकड़ में आ गए। तरुण तेजपाल न्यायिक हिरासत में हैं, पर जज गांगुली अभी तक बाहर हैं, उनकी गिरफ्तारी की मांग बढ़ती जा रही है।
सुप्रीमकोर्ट के न्यायाधीश होने के दौरान ए.के.गांगुली ने कई महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं। टू जी घोटाला, दिसम्बर 2010 में महाराष्ट्र के भूतपूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख की सरकार को दस लाख रुपए का दंड, जुलाई 2010 में उनके द्वारा दिया गया फैसला कि दुर्घटना में मृत गृहिणी को अधिक मुआवजा मिलना चाहिए आदि उनके महत्वपूर्ण फैसले रहे हैं। इसी तरह तहलका डॉट कॉम के तरुण तेजपाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अनेक स्टिंग ऑपरेशन किए हैं। ीाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारु लक्ष्मण के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन कर उन्होंने तहलका मचाया था। कहा तो यही जा रहा है कि जब तरुण तेजपाल पर कार्रवाई हो सकती है, तो फिर जज गांगुली पर क्यों नहीं? दोनों ही मामलों में युवती के आरोप झूठे हैं, ऐसा कहकर बचने का प्रयास किया जा रहा है। दोनों ही मामलों में युवती को मुंह बंद रखने के लिए रसूख का इस्तेमाल किया गया है। कहा जाता है कि कानून अपना काम करेगा। पर गांगुली तो पश्चिम बंगाल के मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष हैं, जहां वे तमाम सुविधाएं प्राप्त कर रहे हैं। उनके खिलाफ कार्रवाई के लिए संसद में भी मांग उठी है। इसके बाद भी उन पर किसी तरह की कार्रवाई न होना न्यायतंत्र को ही कठघरे खड़ा करता है। उनके खिलाफ कार्रवाई न होना उन युवतियों पर ही एक तरह का मानसिक अत्याचार ही है।
डॉ. महेश परिमल

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

लोकपाल पर कठोर अन्ना नरम कैसे हो गए?

डॉ. महेश परिमल
तीन साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले समाज सेवक अन्ना हजारे की हुंकार से पूरा देश हिल गया था। उनकी हुंकार का यही आशय था कि जनलोकपाल से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं। फिर इन तीन वर्षो में ऐसा क्या हो गया कि अन्ना से सरकारी लोकपाल को स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि जनलोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस,भाजपा और अन्ना के बीच कोई गुप्त समझौता हो गया है। जनलोकपाल को लेकर अन्ना का संतुष्ट हो जाना आखिर किस बात का परिचायक है? उधर अन्ना के ही शिष्य अरविंद केजरीवाल ने अन्ना को भीष्म की उपाधि देते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को जारी रखने का ऐलान किया है। केजरीवाल ने स्वयं को पांडव बताकर अन्ना पर कौरवों के साथ देने का आरोप लगाया है। उनका मानना है कि जो सरकारी लोकपाल राज्यसभा में लाया जाएगा, उससे मंत्री तो क्या एक चूहा भी जेल में नहीं जा सकता। सारे अधिकार सरकार ने अपने पास रखे हैं। शायद अब अन्ना जनलोकपाल और जोकपाल के बीच के अंतर को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। जिस जनलोकपाल और सरकारी लोकपाल के बीच जमीन-आसमान का अंतर था, वह इतनी जल्दी आखिर कैसे मिट गया। यह समझने की बात है।
अन्ना हजारे ने जिस जनलोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया था, उसे अनदेखा कर सरकारी लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है। अन्ना के विवरण में जनलोकपाल संपूर्ण रूप से गैरसरकारी संस्था है। उस पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है। सरकार के मसौदे के अनुसार लोकपाल का गठन सरकार द्वारा किया जाएगा और वह सरकार की दया पर निर्भर रहेगा। अन्ना के मसौदे में सीबीआई ने पूर्ण रूप से लोकपाल के अधीन रखने की बात थी। सरकार के मसौदे में सीबीआई की अलग विंग बनाकर उसे लोकपाल के अधीन रखने की बात है। सीबीआई के जो अधिकारी लोकपाल के आदेश से भ्रष्टाचार की जांच कर रहे हों, उनका तबादला करने का अधिकार सरकार ने अपने हाथ में रखा है। इस कारण लोकपाल के अधिकारों में कटौती हो जाती है। लोकपाल बिल में पिछले चार दिनों से काफी गहमा-गहमी दिखाई दे रही है, यह स्थिति कई आशंकाओं को जन्म देती है। लोकपाल विधेयक की धाराओं के मामले में विवाद करने वाले भाजपा-कांग्रेस ने अचानक चयन समिति द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर एकमत हो गए। इस संबंध में भाजपा ने यहां तक कहा था कि वह किसी भी तरह की चर्चा के बिना राज्यसभा में इस बिल को पास करने के लिए तैयार है। दूसरी तरफ राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा है कि वह राज्यसभा में पेश लोकपाल बिल को पास करने के लिए तैयार हैं। वे विधेयक को पास कराने का सारा श्रेय स्वयं ही लूटना चाहते हैं। तीसरी तरफ अन्ना हजारे ने राहुल गांधी के बयान का समर्थन करते हुए कहा है कि जिस दिन लोकपाल बिल राज्यसभा में पारित हो जाएगा, उस दिन वे अपना अनशन तोड़ देंगे। इन तीनों घटनाओं की कड़ियों को जोउ़ा जाए, तो यही स्पष्ट होता है कि कांग्रेस-भाजपा और अन्ना हजारे के बीच लोकपाल का खेल खेला जा रहा है।
सन् 2011 के अगस्त महीने में संसद के दोनों सदनों में अन्ना के उपवास आंदोलन का खत्म करने की अपील की थी, तब सरकार ने उन्हें तीन वचन दिए थे। पहला वचन था कि लोकपाल विधेयक के साथ सिटीजन चार्टर लाया जाएगा। जिसके लिए नागरिकों के सभी सरकारी काम एक निश्चिय समय-सीमा में होने की गारंटी देना है। दूसरा वचन था निम्न तबके के कर्मचारियों को भी लोकपाल के दायरे में लाने का उपाय खोजा जाएगा। तीसरा और अंतिम वचन था कि केंद्र में लोकेपाल के साथ ही राज्यों में लोकायुक्त का भी गठन किया जाएगा। अरविंद केजरीवाल के दावे के अनुसार राज्यसभा में जो लोकपाल बिल प्रस्तुत किया जाएगा, उसमें इन तीनों वचनों का पालन नहीं किया गया है। इसके बाद भी अन्ना हजारे ने इस स्वीकार्य कर लिया है। राज्य सभा में प्रस्तुत किए जाने वाले लोकपाल विधेयक की चार धाराओं पर भाजपा को आपत्ति थी। भाजपा की मांग थी कि लोकपाल के आदेश से सीबीआई अधिकारी किसी भी मामले की जांच कर रहा होता है, तो उसका तबादला बिना लोकपाल की सहमति सरकार नहीं कर सकती। सरकारी लोकपाल बिल में यह अधिकार सरकार के हाथ में है। भाजपा इसी का विरोध कर रही थी। सरकारी लोकपाल बिल के दायरे में देश की तमाम गैर धार्मिक सेवा भावी संस्थाओं को अपने हाथ में ले लिया गया है। भाजपा को इस पर भी आपत्ति थी। इतने विरोध के बाद भी भाजपा इस बिल को पास कराने की तैयारी दिखा रही है। अन्ना हजारे ने तीन वर्ष पहले जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया था, तब यूपीए सरकार जन लोकपाल के बारे में उनकी मांग स्वीकारने के मूड में नहीं थी। किंतु जैसे-जैसे अन्ना के आंदोलन को लोगों का समर्थन मिलने लगा, वैसे-वैसे सरकार की हालत पतली होने लगी। उसे अपनी फजीहत दिखाई देने लगी। सरकार ने माना कि यदि अन्ना की मांग को स्वीकार नहीं किया गया, तो उसकी छवि बिगड़ जाएगी। इस कारण मजबूरी में सरकार लोकपाल विधेयक पर अध्यादेश लागू करने के लिए तैयार हो गई। हाल ही में चार राज्यों में कांग्रेस की पराजय के बाद सरकार इस दिशा में और भी गंभीर हो गई है। उसे शायद यह ब्रह्मज्ञान हो गया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में यदि जीत हासिल करनी है, तो लोकपाल बिल को पारित करवाना आवश्यक है। दिल्ली में आम आदमी की पार्टी को मिली ऐतिहासिक सफलता के कारण सरकार लोकपाल बिल फिर से सदन में प्रस्तुत करने का मन बनाया।
यदि हम इतिहास पर नजर डालें, तो स्पष्ट होगा कि सन् 1947 में भारत के विभाजन की बात आई, तब जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल विभाजन के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने माउंटबेटन ने कहा कि यिद आप विभाजन को स्वीकार नहीं करते, तो आजादी भी नहीं मिलेगी। तब नेहरू-पटेल ने विभाजन को स्वीकार कर लिया था। आज 2013 में भी यही स्थिति बन रही है। जब अन्ना हजारे ने भी हारकर सरकारी लोकपाल को अपनी स्वीकृति दे दी। आखिर कुछ तो ऐसा है, जो हुंकार भरने वाले अन्ना इतनी आसानी से सरकारी लोकपाल को स्वीकारने के लिए तैयार हो गए। इससे तो बेहतर केजरीवाल हैं, जो यह कहते हैं कि अनशन कर अपने शरीर को बीमार करने से अच्छा है कि सरकारी लोकपाल विधेयक के खिलाफ अपना आंदोलन करें। ताकि लोगों को सच्चई का पता चल सके।
 इन आठ बिंदुओं पर सहमत नहीं है आप
नियुक्ति : प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष का नेता, स्पीकर, चीफ जस्टिस और एक न्यायविद की समिति चुनाव करेगी। इसमें नेताओं का बहुमत है, जबकि लोकपाल को इनके खिलाफ ही जांच करना है।
बर्खास्तगी : इसके लिए सरकार या 100 सांसद सुप्रीम कोर्ट में शिकायत कर सकेंगे। इससे लोकपाल को बर्खास्त करने का अधिकार सरकार, नेताओं के पास ही रहेगा।
जांच: लोकपाल सीबीआई सहित किसी भी एजेंसी से जांच करवा सकेगा। लेकिन प्रशासनिक नियंत्रण नहीं कर सकेंगा। यानी जांच अधिकारियों का ट्रांसफर-पोस्टिंग सरकार के हाथ में ही होगा।
व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन : सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की संरक्षण के लिए अलग बिल बनाया है। उसे इसी बिल का हिस्सा बनाना चाहिए था।
सिटीजन चार्टर: सरकार ने आवश्यक सेवाओं को समय में करने के लिए अलग से बिल बनाया है, जबकि उसे इस बिल का हिस्सा बनाना चाहिए था। ताकि जनलोकपाल अफसरों के खिलाफ कार्रवाई कर सके।
राज्यों में लोकायुक्त: लोकायुक्तों की नियुक्ति का मसला राज्यों के विवेक पर छोड़ा गया है, अगस्त 2011 में संसद ने सर्वसम्मति से यह आश्वासन दिया था।
फर्जी शिकायतें: झूठी या फर्जी शिकायतें करने वाले को एक साल की जेल हो सकती है। जनलोकपाल बिल में जुर्माने की व्यवस्था थी, जेल की नहीं।
दायरा: न्यायपालिका के साथ ही सांसदों के संसद में भाषण व वोट के मामलों को अलग रखा है। वहीं, जनलोकपाल बिल में जजों, सांसदों सहित सभी लोकसेवकों को रखा था।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

अनशन रालेगण मे, छटपटाती दिल्ली

डॉ. महेश परिमल
जनलोकपाल की मांग को लेकर अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठ गए हैं। वे अपने वादे के अनुसार संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही उन्होंने अपनी कर्मस्थली रालेगण सिद्धि में अनशन शुरू किया है। चार राज्यों में अपने खस्ताहाल प्रदर्शन से सहमी हुई केंद्र सरकार इस बार अन्ना के आंदोलन को लेकर गंभीर है। लेकिन सरकार सरकारी लोकपाल लाना चाहती है और अन्ना जनलोकपाल। दोनों के बीच मुख्य मुद्दा यही है। वैसे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर अन्ना ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया ही है। लोगों ने भी उनके आंदोलन में हिस्सा लेकर उन्हें अपना समर्थन भी दिया है। इससे डरकर सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में ही लोकपाल विधेयक पारित करने को आतुर है। पर उससे अन्ना कहां तक सहमत होंगे, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि अन्ना के जनलोकपाल और सरकार के लोकपाल बिल में जमीन-आसमान का अंतर है। वैसे देखा जाए तो लोकपाल बिल को पारित करने में सरकार की इच्छाशक्ति ही नहीं है। यदि होती, तो यह बिल 44 साल तक नहीं अटका होता। इस दिशा में ध्यान आकृष्ट किया है, तो उसका श्रेय केवल अन्ना हजारे को ही जाता है। सोमवार को सरकार इस बिल को संसद के पटल पर रखेगी, उसी दिन उस पर बहस भी होगी, देखना यह है कि सरकार किस तरह का लोकपाल बिल सामने लाती है?
अन्ना की मांग थी कि सीबीआई को लोकपाल के अधीन होना चाहिए। ताकि लोकपाल सीबीआई को भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद जांच का आदेश दे सके। राज्यसभा की चयन समिति ने ऐसी सलाह दी थी कि सीबीआई को लोककपाल के अधीन नहीं होना चाहिए, पर उसके निरीक्षण के तहत रखा जाना चाहिए। लोकपाल की आज्ञा से यदि किसी अधिकारी के खिलाफ मामले की जांच करनी हो, तो वह लोकेपोल की अनुमति के बिना नहीं हो सकती। सरकार ने इस सुझाव को नहीं माना। आशय यही है कि सरकार सीबीआई अधिकारी का तबादला कर लोकपाल के कार्य में व्यवधान डाल सकती है। लोकपाल के मूल ड्राफ्ट में यह प्रावधान था कि यदि किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत है, तो उसकी सुनवाई के बाद ही लोकपाल उसके खिलाफ जांच के आदेश दे सकता है। इस प्रावधान को रद्द करने का चयन समिति की सिफारिश को भी सरकार ने नहीं माना। इसका आशय यही हुआ कि किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करनी है, तो पहले लोकपाल से अनुमति लेनी होगी। सरकार का लोकपाल कमजोर है। अन्ना हजारे मजबूत लोकपाल के हिमायती है। अब इनमें से कौन झुकता है, यही देखना है। हमारे देश में लोकपाल विधेयक के लिए जितनी तकरार हुई है, उतनी भूतकाल में शायद ही किसी विधेयक के लिए हुई हो। पहली बार लोकपाल बिल 1969 में लोकसभा से पारित हुआ था, पर राज्यसभा में इसे मंजूरी नहीं मिल पाई। इसलिए यह बिल उसी समय अटक गया। इसके बाद 1971, 1977, 1998,1995, 1998, 2001, 2005 ओर 2008 में एक बार फिर संसद में रखा गया। पर उसे पारित नहीं किया जा सका। इसका मुख्य कारण यही है कि भारत को कोई भी दल यह नहीं चाहता कि यह बिल पारित हो। मतलब साफ है कि देश की कोई भी राजनैतिक पार्टी देश को भ्रष्टाचार मुक्त नहीं करना चाहती। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का सीधा मतलब है कि राजनैतिक दलों पर शिकंजा कसना। आखिर कौन दल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा?
अन्ना हजारे ने भ्रष्आचार के विरोध में जो अभियान चलाया था, उसके पीछे यही उद्देश्य था कि केंद्र में उनकी कल्पना के अनुसार जनलोकपाल की रचना की जाए। सन् 2011 के अगस्त महीने में जब अन्ना हजारे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन करने का निर्णय लिया, तब सरकार ने यह सोचा भी नहीं था कि उनके आंदोलन को इतना अधिक जनसमर्थन मिलेगा। अन्ना के समर्थन में दिल्ली में जो हुजूम सड़कों पर उतरा, उससे यही लगता था कि ये भीड़ सरकार के पतन का कारण भी बन सकती है। 12 दिन के अनशन के बाद अंतत: सरकार को झुकना पड़ा। 25 अगस्त को संसद में सर्वानुमति से लोकपाल बिल पास करने के लिए अध्यादेश रखा गया।  इससे अन्ना ने अपना अनशन तोड़ दिया। सरकार को राहत मिली। इस घटना को दो साल बीत जाने के बाद भी सरकार संसद में लोकपाल बिल पारित नहीं करवा पाई। अन्ना ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर विश्वासघात का आरोप भी लगाया। इस बार अन्ना एक बार फिर अनशन पर हैं। चिंतित सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए तो हें, सोमवार से इस पर चर्चा भी होनी है। पर ये बिल अन्ना को कितना मुफीद लगता है, यह चर्चा के बाद ही पता चलेगा। अभी तो यही कहा जा सकता है कि सरकार ने जो बिल रखा है, उसमें इस तरह के प्रावधान हैं:-क्लॉज 3 (4) में ‘किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हुए’ की जगह ‘किसी भी राजनीतिक दल से संबद्ध’ किया गया है। चयन समिति के पांचवें सदस्य को राष्ट्रपति नामित कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस की सिफारिश जरूरी होगी। लोकपाल किसी भी मामले में सीधे जांच का आदेश दे सकेगा। लोकपाल को मामले की सुनवाई के दौरान वकील नियुक्त करने का अधिकार होगा।
अन्ना के आंदोलन के भय से सरकार और आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अपनी छवि सुधारने के लिए सरकार द्वारा संसद में लोकपाल विधेयक पारित किया जाएगा, उससे भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाया जा सकेगा, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अन्ना हजारे को सरकार ने जो वचन दिया था, वैसा लोकपाल सरकार सामने नहीं ला पाई। सरकार के लोकपाल को सरकारी कहा जाने लगा है। इस बिल को 27 दिसम्बर 2011 को लोकसभा से पास कर दो दिन बाद राज्यसभा में भेज दिया गया था।  राज्यसभा ने इस पास करने के बदले चयन समिति को सुधारने का सुझाव दिया। चयन समिति ने अपनी राय देने के लिए पूरे 11 महीने का समय लिया। चयन समिति ने नवम्बर 2012 अपनी रिपोर्ट दी। इसमें 15 सुझाव दिए गए। फरवरी 2013 में केंद्र सरकार ने उक्त 16 सुझावों में से दो महत्वपूर्ण सुझावों को अनदेखा कर दिया, बाकी के 14 सुझावों को मान लिया गया। लोकपाल के मामले में केंद्र सरकार का रवैया भी ढुलमुल रहा। प्रधानमंत्री डॉ. सिंह ने अन्ना हजारे को वचन दिया था कि संसद के बजट सत्र में लोकपाल बिल लाया जाएगा। प्रधानमंत्री इस वचन को पूरा नहीं कर पाएक। बजट सत्र के बाद मानसून सत्र में भी सरकार लोकपाल बिल प्रस्तुत करने में विफल रही। अन्ना ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में चेतावनी दी थी कि संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन से वे अपना अनशन शुरू करेंगे। अन्ना भले ही अपने गृहनगर रालेगण में अनशन कर रहे हो, पर इधर दिल्ली में सरकार की छटपटाहट बढ़ गई है। लगता है अपनी छबि सुधारने के लिए सरकार अन्ना का जनलोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत करेगी। अब यह तो सोमवार से चर्चा के बाद ही पता चलेगा कि सरकार ने अन्ना का जनलोकपाल विधेयक पटल पर रखा है या सरकार लोकपाल विधेयक।
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

इक्कीसवीं सदी पानी की तंगी की सदी

डॉ. महेश परिमल
हमारे बुजुर्ग कह गए हैं कि पानी को घी की तरह इस्तेमाल करना चाहिए। पर आज यह सीख ताक पर रख दी गई है। अब तो पानी का इतना अधिक दुरुपयोग होने लगा है कि पूछो ही मत। इसे देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि 21 वीं सदी पानी की तंगी के लिए जानी जाएगी। आज पानी का सबसे अधिक दुरुपयोग शहरियों एवं कारखानों में किया जा रहा है। मुम्बई एवं दिल्ली जैसे शहरों की महानगरपालिकाओं नागरिकों को 24 घंटे पानी देने का की योजना बना रही हैं। इस समय मुम्बई के नागरिकों को औसतन 5 घंटे पानी दिया जा रहा है। उनकी रोज की खपत 240 लीटर प्रति व्यक्ति है। दिल्ली के नागरिकों को हर रोज चार घंटे पानी दिया जा रहा है। वहां प्रति व्यक्ति पानी की खपत 223 लीटर है। दूसरी ओर गांवों के लोग प्रतिदिन केवल 40 लीटर पानी का इस्तेमाल करते हैं। इसे देखते हुए यदि शहरीजनों को 24 घंटे पानी दिए जाने की योजना बनाई जा रही है, तो निश्चित रूप से पानी का अपव्यय और अधिक होगा।
हमारे देश में कहावत थी कि पानी को घी की तरह इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे हमारे जीवन की व्यवस्था ही इस तरह से आयोजित की गई थी कि प्राकृतिक रूप से पानी सबको मिले। पहले किसी के घर में पानी के लिए नल नहीं होते थे। पानी के लिए तालाब या जलाशय ही एकमात्र साधन होते थे। पानी लेने के लिए घर से दूर जाना पड़ता था। इसलिए घर में जितना पानी आता, उसी से काम चलाना पड़ता था। गटर सिस्टम का नामोनिशान न था। इस कारण घर में जितना पानी इस्तेमाल होता, वह एक टंकी में जमा हो जाता था। दिन में दो या तीन बार उस टंकी का पानी घर की जमीन पर डाल दिया जाता था। यह वॉटर मैनेजमेंट का अच्छा तरीका था। जो जितना अधिक पानी इस्तेमाल करना चाहता, उसे उतना अधिक पानी जलाशय या तालाब से लाना होता था और उसे उलीचना भी पड़ता था। इसलिए उतना ही पानी लाया जाता, जितनी आवश्यकता होती थी। यह वॉटर मैंनेजमेंट की श्रेष्ठ पद्धति थी। आज हालात बदल गए हैं। अब पानी के लिए सरकारी उपक्रमों के भरोसे रहना पड़ता है। दूसरी ओर धरती की छाती पर इतने अधिक छेद हो गए हैं और उससे इतना अधिक पानी निकाला जा रहा है कि पानी 50 से100 मीटर तक गहराई में चला गया है। प्रति व्यक्ति पानी का इस्तेमाल बढ़ गया है। अब घर के वाहन धोने में ही रोज लाखों गैलन पानी बरबाद हो रहा है। आज हमारे देश में 70 प्रतिशत पानी खेती के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है। शहरों एवं एद्योगों के लिए शेष्ज्ञ 30 प्रतिशत पानी का उपयोग होता है। दिनों दिन शहरों एवं उद्योगों की आवश्यकता बढ़ रही है। इसके लिए गांवों और कृषि के लिए सुरक्षित पानी की कटौती की जा रही है। इसके लिए जलस्रोतों पर आधिपत्य किया जा रहा है। नई दिल्ली से 300 किलोमीटर दूर हिमाचल  के टिहरी बांध में से पीने का पानी लिया जा रहा है। मुम्बई की अपर वैतरणा योजना के लिए करीब 3 लाख वृक्षों का संहार करने की तैयारी चल रही है।
हमारी सरकार शहरी मतदाताओं को खुश करने के लिए उन्हें 24 घंटे पानी की सुविधा का ढिंढोरा पीट रही है। तो दूसरी तरफ किसानों को खुश करने के लिए उन्हें मुफ्त में बिजली दे रही है। इसलिए किसान भी अपने पंप 24 घंटे चला रहे हैं। फलस्वरूप भूगर्भ जल का स्तर लगातार नीचे जा रहा है। हमारे देश में इस समय करीब दो करोड़ कुएं एवं पाताल कुएं हैं, आश्चर्य इस बात का है कि ये सभी निजी सम्पत्ति में आती हैं। कोकाकोला जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी एवं अन्य उद्योग अपने पाताल कुएं से पानी का लगातार दोहन कर रहे हैं। यही हालात रहे तो पाताल कुओं एवं वॉटर पंप पर प्रतिबंध लगाना पड़ सकता है। तभी हालात सुधर सकते हैं। पानी के उपयोग पर आज शहरीजनों की हालत परजीवी जंतुओं की तरह है। पहले वे पानी प्राप्त करने के लिए गांवों की नदियों एवं तालाबों पर आक्रमण करते हैं, बांध तैयार करते हैं और जंगलों का संहार करते हैं। फिर इस्तेमाल किया हुआ गंदा पानी फिर नदियों में मिला दिया जाता है। इस कारण निचली जगहों पर रहने वालों को प्रदूषित पानी मिलता है। इसका समाधान यही है कि शहरीजनों को गांवों का पानी न दिया जाए और गटर का एक बूंद पानी भी नदी या समुद्र में न जाए, इसका पुख्ता इंतजाम किया जाए। इसी तरह शहरीजनों को वर्षाजल को सहेजने के लिए टंकियों का प्रयोग करना चाहिए। गंदे पानी को गटर में डालने के बजाए उसके शुद्धिकरण पर अधिक जोर दे।
भारत के शहरों में पानी की माँग लगातार बढ़ रही है। उधर ग्रामीण इलाकों में भी किसानों की मांग में भी लगातार इजाफा होते जा रहा है। इसका कारण यही है कि किसान अब गन्ना, मूंगफल्ली, तम्बाखू आदि की फसल लेने लगे हैं। ये फसलें नगदी मानी जाती हैं, किंतु इस फसलों के लिए पानी का इस्तेमाल 50 से सौ गुना तक अधिक होता है। इस कारण ग्रामीण और शहरीजनों के बीच पानी के लिए संघर्ष भी लगातार बढ़ रहा है। भविष्य मे यह स्थिति विकराल रूप धारण कर लेगी, इसमें कोई दो मत नहीं। आज उद्योगों में पानी की खपत और दुरुपयोग लगातार बढ़ रहा है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है। गुजरात सरकार ने कच्छ जैसे पानी की कमी वाले क्षेत्र में पूंजी निवेशकों को आकर्षित करने के लिए प्रदूषण पैदा करने वाले उद्योगों की स्थापना करने की छूट दी गई है। ये उद्योग जमीन से रोज लाखों गैलन पानी निकाल रहे हैं। इस कारण किसानों के जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। देश में अभी तक भू गर्भ जल के इस्तेमाल पर अभी तक कोई ठोस नीति न बन पाने के कारण इस दिशा में धरती की छाती से पानी का लगातार शोषण हो रहा है। उद्योगों को कहने वाला कोई नहीं है। इन सारी बातों को देखते हुए यह विश्वास पूर्वक कहा जा सकता है कि इक्कीसवी सदी पानी की तंगी के लिए जानी जाएगी।
डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2013

कांग्रेस का आत्ममंथन कितना आवश्यक ?

डॉ. महेश परिमल
चार राज्यों में कांग्रेस की हार के बाद अब आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया है। शरद पवार, फारुख अब्दुल्ला, सत्यव्रत चतुर्वेदी के बाद मणिशंकर अय्यर ने कांग्रेस की करारी हार के लिए अपने बयान जारी कर दिए हैं। इन बयानों से लगता है कि अब सोनिया गांधी की पार्टी पर पकड़ कमजोर होते जा रही है। इस दौरान कई दौर ऐसे आए, जहां तुरंत निर्णय लिया जाना था, पर सोनिया गांधी तुरंत निर्णय लेने में असमर्थ साबित हुई। इंदिरा गांधी के समय निर्णय तुरंत लिए जाते थे और उस पर अमल भी तुरंत होता था। करारी हार से यूपीए सरकार के साथी पक्षों को मुंह खोलने के लिए विवश कर दिया है। अभी इस पर विचार-मंत्रणा का दौर जारी है। अभी महत्वपूर्ण यह है कि सरकार का साथ देने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को इस बात का भरोसा दिलाना कि कांग्रेस अपनी गलतियों से सीखेगी। ऐसा हमेशा कहा जाता है, पर कांग्रेस ने अपनी गलतियों से कोई सबक अभी तक लिया हो, ऐसा देखने में नहीं आया है।
शरद पवार और मणिशंकर अय्यर के बयानों में समानता है। दोनों ही कमजोर नेतृत्व को हार के लिए दोषी मान रहे हैं। फारुख अब्दुल्ला ने हार का कारण महँगाई को बताया है। सबसे बड़ी बात यह है कि दिल्ली में कांग्रेस के प्रत्याशियों को लोगों ने पूरी तरह से अनदेखा कर दिया है। आप के साधारण से साधारण प्रत्याशी कांग्रेस के करोड़पति प्रत्याशियों पर भारी पड़े हैं। अब तक यही कहा जाता था कि इस देश में एक गरीब आदमी चुनाव नहीं लड़ सकेता, पर आम आदमी की पार्टी ने यह सिद्ध कर दिया कि आम आदमी भी चुनाव न केवल लड़ सकता है, बल्कि करोड़पति प्रत्याशियों को पछाड़ते हुए भारी मतों से जीत भी सकता है। दिल्ली में सरकार किसकी बनेगी, यह अभी तय नहीं है। पर अन्य राज्यों में कांग्रेस की हालत काफी खराब है। शरद पवार का विवादास्पद बयान आने के बाद कांग्रेस ने उसका जवाब देना भी उचित नहीं समझा। इससे कांग्रेस की मंशा स्पष्ट होती है कि वह समर्थकों दलों से अपने संबंध को और मजबूत बनाना चाहती है। यहां पर यह समझना आवश्यक है कि शरद पवार ने इसके पहले भी कई विवादास्पद बयान दिए हैं, जिससे कांग्रेस को जवाब देते नहीं बना। वैसे भी कांग्रेस में ऐसे-ऐसे बयानवीर हैं, जिनके बयानों को पढ़-सुनकर हंसी आती है। कांग्रेस में ही दबे स्वरों में महासचित दिग्विजय सिंह की आलोचना जारी है। उनके खिलाफ भी खुलकर बयानबाजी हो रही है। कांग्रेस की हार के बाद पत्रकारों के सामने शरद पवार और मणिशंकर अय्यर ही सामने आए। अन्य कोई नेता बयान देने सामने नहीं आया।  इससे यह साबित होता है कि ये दोनों ही कांग्रेस के सर्वमान्य नेता हैं। इससे ही कांग्रेस की हताशा जाहिर होती है। वैसे यह तय है कि कांग्रेस समर्थित दलों को कमजोर नेता अच्छे नहीं लगते। मनमोहन सिंह बहुत ही कमजोर नेता साबित हुए हैं। शरद पवार का निशाना प्रधानमंत्री ही हैं।
शरद पवार ने इंदिरा गांधी को याद करते हुए कहा था कि उनमें निर्णय का अमलीकरण तुरंत करने का जुनून सवार रहता। उनके रहते आम आदमी पार्टी जैसे दल की रचना ही नहीं हो पाती। उस समय झोलाछाप एक्टिविस्टों या एनजीओ से सलाह नहीं ली जाती थी। लेकिन अब ऐसा ही हो रहा है। पवार के इस बयान से कांग्रेस उलझन में पड़ गई है। यदि उनके बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती है, तो पवार निश्चित रूप से नाराज हो जाएंगे। कांग्रेस नहीं चाहती कि कोई भी समर्थन देने वाला दल उनसे नाराज हो। इसीलिए कोग्रेस को बाहर से समर्थन देने वाली सपा-बसपा द्वारा की गई कांग्रेस की आलोचना का कोई जवाब नहीं दिया। कांग्रेस के लिए यह मुश्किल भरी घड़ी है। शरद पवार की मंशा से सभी दल परिचित हैं। इससे कांग्रेस को कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला, यही हाल फारुख अब्दुल्ला का है, उनके बयान पर किसी तरह का जवाब न देना ही उचित है। वे कांग्रेस का समर्थन अवश्य करते हैं, पर उनके रहने न रहने से कांग्रेस को कोई बहुत बड़ा फर्क नहीं पड़ने वाला। कांग्रेस की चिंता इस बात की है कि 2014 के चुनाव के पहले ही साथी दलों ने अपना राग अलापना शुरू कर दिया है। एक तरफ कांग्रेस अपनी हार का कारण खोज रही है, दूसरी तरफ साथी दल आलोचना में लगे हैं। पर यहां कांग्रेस को यह सोचना होगा कि साथी दल क्या सही बोल रहे हैं। क्या गलत। अभी तो हालत ऐसी है कि सच बोलने वाले कांग्रेस से ही निकाल दिए जाएं। कांग्रेस चापलूस पसंद रही है। हाल ही में सलमान खुर्शीद ने यह बयान देकर चौंका दिया है कि सोनिया गांधी केवल राहुल की ही मां नहीं है, बल्कि हम सभी की मां हैं। इस तरह के चापलूसी भरे बयानों से न तो कांग्रेस की सेहत सुधरने वाली है और न ही उसकी लोकप्रियता में इजाफा होने वाला।
हार के बाद कांग्रेस में अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। कांग्रेस आलोचनाओं से घिर गई हैं। ये वही साथी दल हैं, जो पहले खुशी-खुशी कांग्रेस को अपना समर्थन दे रहे थे। अब कांग्रेस की पराजय के बाद आंखें दिखाने लगे हैं। कांग्रेस को ऐसे असवरवादी दलों से सावधान रहना होगा। दलों में विश्वास पैदा करना होगा। वैसे भी कांग्रेस ने कई फैसल समर्थन देने वाले दलों को अनदेखा कर लिया है, इसलिए इनका नाराज होना स्वाभाविक है। कांग्रेस के साथ मुश्किल यह है कि जब वह सत्ता में होती है, तो अपने आगे किसी भी दल को कुछ भी नहीं समझती। यही कारण है कि समय आने पर यही दल आंखें दिखाने ेलगते हैं। सब को साथ लेकर चलना कांग्रेस को नहीं आया। कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल यही थी कि उसने मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री बना दिया। उनका पहले पांच वर्ष का कार्यकाल ठीक-ठाक था, पर बाद के पांच वर्ष में उनकी सारी कमजोरियां सामने आ गई। चुनाव के पहले मत बटोरने के लिए अहम फैसले लेना, 2 जी स्पेक्ट्रम जैसे घोटालों पर कुछ न कहना, कैग की रिपोर्ट को अनसुना करना, कोयला खदान के आवंटन में प्रधानमंत्री को क्लिन चिट देना आदि ऐसे कई घोटाले हैं, जिसमें कांग्रेस को कड़े फैसले लेने थे, पर वह फैसले लेने में सदैव पसोपेश में रही। जहां सख्त होना था, वहां वह उदार रही। जिन फैसलों के दूरगामी असर होने थे, उसका श्रेय लेने में भी कांग्रेस पीछे रही। कसाब और अफजल को फांसी देने में जितनी सख्त रही, उतनी ही सख्त अन्य फैसलों पर भी रहती, तो उसकी छबि कुछ और ही बनती।
अब यदि वह हार के कारणों का पता लगाने में जुटी है, तो सबसे पहले उसे मतदाताओं से ही पूछना होगा कि उससे क्या गलतियां हुई। कांग्रेस की नाकामी की जानकारी उन सभी मतदाताओं को है, जिन्होंने दूसरी पार्टी को अपना कीमती वोट दिया है। भरपेट खाएंगे, कांग्रेस को लाएंगे, जैसे थोथे नारों से वोट नहीं मिलते। वोट मिलते हैं, मतदाताओं का विश्वास प्राप्त करने से। मतदाताओं का विश्वास कांग्रेस बहुत पहले खो चुकी है। अब यदि वह कुछ ऐसा काम कर दिखाए, जिससे महंगाई पर अंकुश लगाया जाए, सब्जियों के बढ़ते दाम पर नियंत्रण लाए, मुनाफाखोरों पर लगाम कसे, ताकि लोगों को आवश्यक जिंस सस्ते मिले, पेट्रोल के दाम जिस तेजी से बढ़ेे, उतनी तेजी से घटे भी। तो शायद कांग्रेस के यह काम जनता को राहत पहुंचाए, तो संभव है लोकसभा चुनाव तक मतदाता अपनी धारणा बदल दे। इसके लिए कांग्रेस को बहुत ही पापड़ बेलने होंगे, क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है?
   डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

‘आप’ की जीत:परिवर्तन की पदचाप

डॉ महेश परिमल
फिल्म अभिनेता कबीर बेदी, वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस.आर. राव, गोल्फ चेम्पियन जीव मिल्खासिंह, फैशन डिजाइनर मनीष मल्होत्रा और सितार वादक अनुष्का शंकर में वैसे तो किसी प्रकार का साम्य नहीं है। इसके बाद भी रविवार को ट्विटर पर इन विभिन्न क्षेत्रों के लोगों ने एक मुद्दे पर अपने विचारों को साझा किया। ये सभी दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सफलता को लेकर उत्साहित थे। इससे यह माना जा रहा है  कि जनता अब ऊब चुकी है, खोखले नारों और वादों से। अब वह सघन वादा चाहती है, अपने जनप्रतिनिधियों से। अब तक यह माना जाता था कि शहरी, शिक्षित, युवा और महिला मतदाता भाजपा के कमिटेड वोटबैंक हें। केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के उदय से इस विचार को झटका पहुंचा है। अब यह आने वाले दिनों नहीं बल्कि आने वाले वर्षो में भारतीय राजनीति में परिवर्तन की यह पदचाप और भी तेज सुनाई देने लगेगी। आप की जीत विश्वास की जीत है। उनकी जीत से उनकी जवाबदारी और बढ़ जाती है, इसका अहसास अरविंद केजरीवाल को होना चाहिए, नहीं होगा, तो जनता उन्हें भी सबक सिखाने से बाज नहीं आएगी। यह तय है कि अब हिंदुस्तान जाग रहा है। झूठे वादे करने वाले अब राजनीति में नहीं, बल्कि कहीं और दिखाई देंगे।
पूरी दिल्ली अभी भी पसोपेश में है। उलझनों का विस्तार हो रहा है। कोई भीे झुकने को तैयार नहीं है। शायद कांग्रेस भी यही चाहती है कि फिर से चुनाव हों, ताकि उसे अपने आपको को सिद्ध करने का एक अवसर और प्राप्त हो जाए। कुछ लोगों की निष्ठा में बदलाव की कोशिशें जारी हैं। यह सच है कि केजरीवाल अपने वादे पर कृतसंकल्पित हैं। पर अपने साथियोंे को वे कब तक अंकुश में रख पाएंगे, यह कहना मुश्किल है। आप के विजयी प्रत्याशियों को मंत्रीपद का लालच देकर उन्हें तोड़ा भी जा सकता है। अब तक तो यही कहा जाता था कि आशाओं पर तुषारापात हो गया, पर आम आदमी पार्टी ने अपनी भूमिका जिस तरह से निभाई है, उससे यही कहा जा सकता है कि आशाओं पर झाड़ू फेर दिया गया है।
आप की प्रशंसा जितनी प्रशंसा की जाए, उतना ही कम है। उसे सरकार बनाने की कोई जल्दबाजी नहीं है। यह भी सराहनीय है। किंतु उसे जीत का उत्साह ओवरडोज हो गया है। दिल्ली में विजय प्राप्त करने के बाद आप अब देश भर में विजय प्राप्त करने के मंसूबे बाँधने लगी है। उसे स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है, इसलिए वह विपक्ष में बठने को तैयार है। आशय साफ है कि वह मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने को तैयार है। यह तभी संभव है, जब दिल्ली में भाजपा अपनी सरकार बना ले। आप का जिद के आगे कोई सरकार नहीं बन सकती, ऐसे में फिर से चुनाव ही एकमात्र विकल्प है। यह भी कहा जा रहा है कि जब भाजपा अपना बहुमत सिद्ध करे, तब कांग्रेस के विधायक सदन से गैरहाजिर रहें। लोकसभा में मतदान के वक्त ऐसा कई बार हुआ भी है। वैसे भाजपा-कांग्रेस के बीच इस तरह की सांठगांठ संभव नहीं है। राजनैतिक समीक्षक मानते हैं कि आप को अपनी जिद छोड़कर कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनानी चाहिए। इससे वे चुनाव में किए गए वादों को पूरा कर पाने में सक्षम होंगे। यहां से निश्चिंत होने के बाद ही वे लोकसभा चुनाव की ओर ध्यान दे पाएंगे। वैसे भी राजनीति में बहुत ही अधिक अकड़बाजी काम नहीं आती। लचीलापन हो तो कई समस्याएं सुलझ जाती है। दिल्ली में 15 साल से सरकार में रहते हुए कांग्रेस अकड़ गई थी, उसने अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझा, उनकी यही अकड़ अब निकल गई। अब इस बात पर गंभीर मंत्रणा हो रही है कि कांग्रेस आखिर हारी क्यों?
आप के साथ मुश्किल यह है कि चुनाव के पूर्व उसने सभी दलों को चोर कहा है। अब उनसे समर्थन लेने में शर्म आ रही है। लोगों को ऊंगली उठाने का मौका मिल जाएगा। तीनों ही दल इस भ्रम में हैं कि फिर से चुनाव होने पर वे अपनी असली ताकत को बता देंगे। इससे उन लोगों के विश्वास का क्या होगा, जिन्होंने आप को अपना कीमती वोट दिया है। आप को जो वोट मिले हैं, वे सभी उन लोगों के हैं, जो महंगाई, भ्रष्टाचार और कुशासन से तंग आ चुके थे। वे सभी परिवर्तन चाहते हैं। आप में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी। आप ने उस मिथक को तोड़ा हैं, जिसमें यह कहा जाता है कि आज ईमानदार व्यक्ति चुनाव लड़ ही नहीं सकता। यह मैदान में उतर भी जाए, तो उसकी जमानत जब्त होना तय है। दिल्ली की 32 प्रतिशत जनता ने आम आदमी को वोट देकर अपना विश्वास प्रकट किया है। साथ ही यह भी सिद्ध किया है कि यदि इरादे नेक हों और पुरुषार्थ कठोर हो, तो जनता-जनार्दन का समर्थन मिलता रहता है। इस चुनाव को आगामी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहा जा रहा है। यह सच भी है। पर शायद कांग्रेस इसे मानने को तैयार नहीं है। उसका मानना है कि लोकसभा चुनाव के मुद्दे अलग होंगे। वास्तव में ये चुनाव यूपीए सरकार के पिछले दस वष्रो के दौरान किए गए महाघोटालों का जवाब ही है। यूपीए ने कभी आम जनता को सामने रखकर कोई नीति नहीं बनाई। यदि बनाई भी तो उसका उपयोग केवल चुनाव के समय ही किया। उत्तर प्रदेश के चुनाव के समय आरक्षण और इस विधानसभा चुनाव के पूर्व खाद्य सुरक्षा बिल की घोषणा से उसकी मंशा को समझा जा सकता है। कांग्रेस के लिए यह आत्मनिरीक्षण का वक्त है, जब तक वह किसी नए नेता को सामने नहीं लाती, तब तक वह कुछ नया कर पाने में अक्षम साबित होगी।
दिल्ली में विधानसभा चुनाव के पूर्व नेताओं ने आप को बदनाम करने की कई चालें चलीं। सभी नाकामयाब रहीं। आज वे ही आप की सफलता पर खिसिया रहे हैं। आप की सफलता भारत के लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है। अन्य दलों के लिए आप एक चुनौती है। अब आप को नजरअंदाज करना मुश्किल है। देश की शकल बदलने के संकल्प के साथ मैदान में आई आम आदमी पार्टी अपने मकसद में कहां तक कामयाब हो पाएगी, यह तो समय ही बताएगा। परंतु राजनीति को बदलने की उसकी ख्वाहिश शुरू हो गई है। दिल्ली की जनता ने जिस तरह से आप को जिताया है, उससे अन्य दलों को सबक तो लेना ही होगा। अब तब सभी दल जाति और धर्म के नाम पर लोगों को भरमाते थे, अब नीति और पारदर्शिता के नाम पर भरमा रहे हैं। अब आप का एक-एक कदम भारतीय राजनीति की दिशा और दशा तय करेगा। देश की राजनीति करवट ले रही है, अब लोगों को भरमाना आसान नहीं है। यह तो आप की सफलता से ही तय हो गया है। कांग्रेस को अब आगामी चुनाव में अपने कार्यकर्ताओं को किस मुंह से प्रेरित करेगी, यह यक्ष प्रश्न है। चुनाव जीतना उसके लिए अब टेढ़ी खीर है। अन्य दलों के लिए अब सचेत होने का समय है। दिल्ली में सरकार बने या न बने, पर यह तो तय है कि जो आप चाहेगी, वही होगा। इससे एक नई पार्टी पर लोगों के विश्वास को बल मिलेगा।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

मिलावट पर कब चेतेगी सरकार







दैनिक जागरण के राष्‍ट्रीय संस्‍करण के संपादकीय पेज पर प्रकाशित मेरा आलेख

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

डॉ. अंबेडकर का आखिरी दिन

डॉ. महेश परिमल
6 दिसम्बर 1956, हां यही वह दिन है, जिस दिन हमारे संविधान के निर्माता हमें बिलखता छोड़ गए थे। क्या कभी उन्हें पूरी तरह से समझने की कोशिश हुई? यह प्रश्न हम सबके सामने सदैव कौंधता रहेगा। उनका अंतिम दिन कैसा था, इसे जानने के लिए उनके नौकर सत्तू से जाना जा सकता था। उसके अनुसार उन्होंने उससे ‘चल कबीरा तेरा भवसागर डेरा’ भजन सुना था। कैसा था उनका अंतिम दिन, आइए जानते हैं।
सन 1951 में नेहरु मंत्रिमंडल से इस्तीफा देकर 1952 में बाबा साहब अंबेडकर राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुए। इसके बाद वे 26 अलीपुर रोड, दिल्ली में निवास करने लगे। यहीं उन्होंने अंतिम सांस ली। सन 1950 में करीब 30 करोड़ हिंदुओं में 5 करोड़ अछूत हिंदू भारत में रहते थे। उनके कल्याण के लिए 14 अप्रैल 1891 से लेकर 6 दिसम्बर 1956 के बीच 65 वर्ष की उम्र तक संघर्ष करने वाले इस महामानव का अंतिम दिन यादगार हैं। 14 अक्टूबर 56 को करीब तीन लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद डॉ. अंबेडकर एक महीने और 22 दिन तक ही जीवित रहे। इन 52 दिनों में उन्होंने कई स्थानों क दौरा किया। इस दौरान उन्होंने दलित हिंदुओं को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी। तीन दिसम्बर 56 को उन्होंने अपनी किताब ‘बुद्ध और मार्क्‍स’ का अंतिम अध्याय पूरा कर टाइप के लिए दिया। राज्यसभा के सदस्य के नाते 4 दिसम्बर 56 को अपनी अंतिम उपस्थिति दर्शाई। उसी दिन शाम को उन्होंने महाराष्ट्र के विपक्षी नेताओं आचार्य अत्रे और एस.एम. जोशी को पत्र लिखकर रिपब्लिकन पार्टी में आने का अनुरोध किया।
मृत्यु के एक दिन पहले5 दिसम्बर 1956 को उनके निजी सेवक रत्तू ने देखा कि साहब पौने 9 बजे तक सोकर ही नहीं उठे हैं। इस दिन अंबेडकर की पत्नी सविता अंबेडकर अपने मेहमान डॉ. मावलकर के साथ बाजार खरीददारी के लिए गई। शाम को डॉ. अंबेडकर ने पत्नी सविता के कमरे की बेल बजाई, तब उन्हें पता चला कि सविता अभी तक बाजार से नहीं लौट पाई हैं। ब्लड प्रेशर और डायबिटिस के मरीज अंबेडकर घबरा गए। सविता जी देर शाम बाजार से आई, तब बाबा साहब ने उन पर काफी नाराजगी जताई। उन्हें शांत करने के लिए सविता जी ने सेवक रत्तू से अनुरोध किया। रात को रत्तू ने बाबा साहब के पैर की मालिश करनी शुरू की। तब उन्होंने सर पर तेल से मालिश के लिए कहा। इस दौरान बाबा साहब ने अपना प्रिय भजन बुद्धं शरणम गच्छामि गुनगुनाना शुरू किया। फिर इसी भजन को अपने रेडियोग्राम पर भी बजवाया। भजन के साथ-साथ वे भी इसे गुनगुनाने लगे। भोजन तैयार होने पर रसोइए सुदामा ने बाबा साहब से भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। रसोई में जाते-जाते अलमारी से पुस्तकें उठाई, प्रेम से देखा। सेवक रत्तू से कहकर कई प्रिय पुस्तकें बिस्तर के पास की टेबल पर रखने के लिए कहा। कुछ भोजन ग्रहण किया। भोजन करते-करते सेवक रत्तू से अपने माथे की मसाज जारी रखने के लिए कहा। लकड़ी के सहारे खड़े होकर कबीर का भजन चल कबीरा तेरा भवसागर डेरा गुनगुनाते हुए अपने बेडरुम में जाकर पुस्तकों को सहेजकर रखा। रात 11.15 बजे रत्तू घर के लिए साइकिल से रवाना हुआ। बाबा साहब की आज्ञा से सुदामा ने रत्तू को वापस बुलाया। रत्तू के आते ही बाबा साहब ने अलमारी से ‘बुद्ध और उनका धर्म’ किताब के लिए लिखी गई प्रस्तावना और आचार्य अत्रे और एसएम जोशी को लिखे पत्रों की टाइप कापी टेबल पर रखने के लिए कहा। पत्रों को अगले दिन पोस्ट करना था, इसलिए उन पर अंतिम निगाह डाल लेना चाहते थे। रोज की तरह सुदामा ने उनके बिस्तर के पा कॉफी का थर्मस और मिठाई रख दी।
6 दिसम्बर को सुबह 6.30 बजे अंबेडकर की पत्नी सविता ने पति को निद्राधीन देखा। रोज की तरह सविता ने बगीचा का चक्कर लगाया। उसके बाद उन्होंने पति को जगाने की कोशिश की। तब उन्हें पता चला कि बाबा साहब तो अनंत यात्रा पर जा चुके हैं। अपनी कार भेजकर उन्होंने रत्तू को बुलवाया। अब उनके चीत्कार की बारी थी। सोफे पर बैठते हुए वह जार-जार रोने लगीं। रत्तू के आने पर दोनों ने मिलकर बाबा साहब के दिल की धड़कन को फिर से शुरू करने का प्रयास किया। हाथ-पैर ऊपर नीचे किए। मुंह में एक चम्मच ब्रांडी भी डाली। तब तक शायद बहुत देर हो चुकी थी। देश की 79 प्रतिशत नागरिकों के तारणहार अनंतयात्रा पर जा चुका था। अंतिम समय तक वे इतने अधिक थक चुके थे कि उनकी दैनिक निद्रा ही चिरनिद्रा में बदल गई।
बाबू जगजीवन राम ने विमान की व्यवस्था की। रात साढ़े नौ बजे सविता अंबेडकर, रसोइए सुदामा और सेवक रत्तू ने बाबा साहब के पार्थिव शरीर को लेकर मुृम्बई आ गए। रात तीन बजे हजारों लोग सांताक्रूज हवाई अड़डे पर जमा हो गए। ये सभी उनके अंतिम दर्शन करना चाहते थे। 7 दिसम्बर को दोपहर उनकी अंतिम यात्रा निकली।  करीब दस लाख लोग इस यात्रा में शामिल हुए। बौद्ध विधि अनुसार शाम साढ़ सात बजे उनके पुत्र यशवंत अंबेडकर ने दादर हिंदू श्मशान गृह में उन्हें मुखाग्नि दी। तब लाखों लोग फफक-फफककर रो पड़े।
डॉ. महेश परिमल

सोमवार, 18 नवंबर 2013

अलविदा :क्रिकेट के वामन अवतार

डॉ. महेश परिमल
सचिन क्रिकेट से आउट हो गए, पर भारतीयों के दिलों से कभी आउट नहीं हो सकते। वे नाबाद हैं, देश के लिए, पूरे विश्व के लिए। एक ऐसा शख्स, जो क्रिकेट से बेइंतहा प्यार करता है। अपने विदाई भाषण में एक एक करके अपने सभी अपनों को याद करता है। पिच को प्रणाम करता है, भीगी आंखों से उस स्थान से विदा लेता है। सभी प्रशंसकों का शुक्रिया अदा करता है। ऐसे महान व्यकित के लिए उपमाएं कम हो जाती हैं। शब्द साथ नहीं देते। आंखें बार-बार भीग जाती है। क्या कहें, इस इंसान को? जो न तो अपनी माटी को भूलता है, न ही अपनों को। इतना विनम्र, इतना सहज खिलाड़ी अभी तक नहीं देखा गया। इसकी लोकप्रियता की तुलना केवल महात्मा गांधी से ही की जा सकती है। जिसके एक इशारे पर लोग देश के लिए कुर्बान होने के लिए तैयार हो जाते थे। आज सचिन ने क्रिकेट को अलविदा कह दिया है, पर सच कहें, तो वे क्रिकेट से अलग हटकर कुछ सोच भी नहीं सकते। क्रिकेट उनकी रगों में बसा है। क्रिकेट के लिए वे अपनी कौन सी भूमिका चुनते हैं, यही देखना है।
सचिन तेंदुलकर के बारे में बात करनी हो, तो सभी सुपरलेटिव (श्रेष्ठतावाचक) शब्दोंे की कमी पड़ जाती है। मुम्बई के एयरपोर्ट पर सचिन को गुडबॉय कहते होर्डिग्स लगे हैं। सचिन को एक क्रिकेटर के रूप में विदाई को एक उत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। पहले दिन जो कुछ टीवी पर देखा गया, वह सचिन के प्रशंसकों के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं था। एक-एक रन पर तालियों की गड़गड़ाहट से स्टेडियम गूंज रहा था। सचिन के बारे में शायद ही कोई बात ऐसी होगी, जो उनके प्रशंसकों से छिपी होगी। वे पहले बाएं पैर का मोजा पहनते हैं और सेंचुरी बनाने के बाद निश्चित रूप से बाएं पैर के पेड से बेट को टकराएंगे। सचिन की एक-एक गतिविधि भारतीयों को कंठस्थ हो चुकी है।
यही सचिन जब 24 वर्ष के अपने क्रिकेट कैरियर का समापन कर रहे हैं, तब किसी युवाओं में एक नया जोश हो, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। सचिन सच्चे अर्थो में नेशनल हीरो हैं। कई लोगों ने उनकी तुलना महात्मा गांधी से की है। सचमुच महात्मा गांधी के बाद हमारे देश में ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसकी लोकप्रियता ने आकाश की सीमाओं को भी पार कर दिया हो। पहले लोगों के प्रेरणास्रोत ही महान लोग हुआ करते थे। आजादी के आंदोलन में हर कोई गांधी, नेहरु, बोस, आजाद आदि के नाम पर लोग अंग्रेजों के सामने डट जाते थे। आजादी के बाद जीवन मूल्य में बदलाव आने लगा। सब कुछ पाकर भी पुरानी पीढ़ी ने अपना स्थान खाली नहीं किया, परिणामस्वरूप देश के युवाओं ने अपनी प्रेरणा खोजने के लिए अन्यत्र नजर दौड़ाई। तब फिल्म और क्रिकेट में ही उन्हें अपना आदर्श दिखाई देने लगा। युवाओं को उनके प्रेरणास्रोत मिल गए। एक जमाने में बिशनसिंह बेदी का नाम था, उसके पहले कर्नल सी.के.नायडू लोगों के दिलों में राज करते थे। फिर सुनील गावस्कर का जमाना आया। टीवी के आगमन के साथ ही गावस्कर नॉन फिल्मी मॉडल माने जाने लगे। 1983 के वर्ल्ड कप के बाद कपिलदेव सफल्ता का पर्याय बन गए। उनके नाम का जुनून युवाओं में काफी लम्बे समय तक रहा। इसके बाद की पीढ़ी तेज हा गई। क्रिकेट से आने वाले रोल मॉडल बदलने लगे। अजहरुद्दीन से लेकर सौरव गांगुली, राहुल द्रविड से लेकर लेटेस्ट विराट कोहली के बीच सचिन ने एक क्रिकेटर के रूप में सफलता की अनोखी मिसाल पेश की है। लगातार 24 साल तक वे अपने प्रदर्शन के बल पर क्रीज पर डटे रहे। इस दौरान वे मैदान न तो कभी चीखे, न कभी आऊट होने के बाद खड़े रहे। कई बार तो अंपायर के निर्णय के पहले ही वे स्वयं को आऊट बताकर पेवेलियन की ओर लौट जाते। कई बार उन्हें गलत तरीके से आऊट किया गया, पर अंपायर के निर्णय को सर्वोपरि मानते हुए वे चुपचाप पेवेलियन लौट जाते। कभी जिद नहीं की। सेंचुरी मारने पर वे बहुत ही ज्यादा खुश हुए, न आऊट होने पर दु:खी। चेहरे पर हमेशा एक छोटी सी मुस्कान तैरते रहती।
एक क्रिकेटर के रूप में सचिन के नाम पर कई उपलब्धियां हैं। उनके प्रशंसकों के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। उनकी प्रशंसा में बहुूत कुछ कहा गया है। कुछ भी बाकी नहीं है। उनकी मां से लेकर उनके भाई और गुरु तक के बयान और साक्षात्कार पढ़ने को मिल गए हैं। दो पीढ़ियों ने उनके खेल को निहारा है। विराट कोहली सचिन के टीम मेट हैं। सचिन ने जब अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलना शुरू किया, तब विराट केवल दो वर्ष के थे। इन दोनों ने हाल ही में रणजी के आखिरी मैच में लंबी भागीदारी की। सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में सचिन के छोटे कद का मजाब उड़ाया गया, लेकिन उसका जवाब उन्होंने वहां के धुआंधार इमरान, अकरम, वकार और कादिर की बॉल पर चौके-छक्के लगाकर दिए। लोग दंग रह गए, इस वामन अवतार को देखकर। किसी भी क्षेत्र में सफलता को टिकाए रखने के लिए ढाई दशक का समय बहुत कहा जाता है। ऐसे ही क्रिकेट जैसे खेल में जहां हमेशा नई-नई प्रतिभाएं आती रहती हैं, उसमें पूरे ढाई दशक तक अपने अस्तित्व को टिकाए रखना किसी चमत्कार से कम नहीं है। इस चमत्कार को सचिन ने पूरी तरह से सही सिद्ध कर दिखाया है। टेस्ट क्रिकेट, वन डे और टी-20 में उन्होंने अपनी काबिलियत दिखाई। उनकी उपलब्धियां रिकॉर्ड बनकर उनके प्रशंसकों की मस्तिष्क में कैद हो गई हैं। प्रशंसकों के बीच वे हमेशा आलटाइम ग्रेट.. ग्रेटर.. ग्रेटेस्ट साबित हुए हैं। इसके बाद भी खेल के मैदान से जब वे एक क्रिकेटर के रूप में अपनी केप उतार रहे हैं, पैर पर बंधे पेड खोल रहे हैं, तब यह बात याद रखने और अनुकरणीय है कि वे सदा विनम्र बने रहे। अपनी सौजन्यता को उन्होंने कभी दांव पर नहीं लगाया। थोड़ी गंभीरता से विचार किया जाए कि ये इंसान पिछले 24 सालों से कराड़ों देशवासियों के दिलों में राज कर रहा है, मीडिया की सुर्खियां बनता रहा है, इसके बाद भी कभी किसी विवाद में उनका नाम सामने नहीं आया। मध्यमवर्गीय परिवार में अचानक ही जब नाम और धन आने लगता है, तो वह परिवार पूरे शहर में विख्यात हो जाता है, पर सचिन का परिवार कभी सुर्खियों में नहीं आया। उनके चेहरे पर कभी भी किसी के लिए आक्रोश भी नहीं देखा गया। अपार धन-दौलत भी उन्हें नम्र बनाए रखी, यह बहुत बड़ी बात है।
जब उन्होंने क्रिकेट की शुरुआत की, तब उनकी आवाज में विनम्रता थी, वही आज भी कायम है। यही सचिन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इतनी प्रचंड सफलता मिलने से इंसान तो पगला जाता है, हवा में झूलने लगता है, मस्तिष्क से विवेक गायब हो जाता है। विनोद काम्बली से लेकर शिवरामकृष्णन सहित कई क्रिकेटरों का उदाहरण हमारे सामने है। सभी क्षेत्रों में ऐसे लोग तेजी से उभरे हैं और उतनी ही तेजी से लुप्त भी हो गए हैं, पर सचिन की नम्रता का सूरज हमेशा चमकता रहा। सचिन ने प्रसिद्धि पाई और उसे पचाया भी। अपने कैरियर के दौरान उसने अपनी जीभ पर सदा संयम रखा। चेहरे पर कभी गुमान नहीं आया। वे तो खामोश रहे, पर उनका बेट बोलता रहा। आज जब उनकी निवृत्ति के चर्चे हैं, तब भी उनकी जीभ संयमित है। मीडिया की भाषा में कहें, तो उन्होंने इस दौरान  ‘लूज मोमेंट’ को अपनी जीभ पर हावी नहीं होने दिया। फरारी कार की कस्टम ड्यूटी का मामला हो या फिर राज्यसभा में उनके चयन, सभी मामलों में उसने अपनी सौजन्यता का ही परिचय दिया। फरारी कार की कस्टम ड्यूटी माफ करने के नियम के मुताबिक अपील करने से ड्यूटी माफ हो जाती है। सरकार इसके लिए तैयार भी थी, पर सचिन ने करमाफी के आवेदन के बदले यह कह दिया कि जितना भी टैक्स होता है,उसका भुगतान करने के लिए वे तैयार हैं। इसी तरह राज्यसभा के लिए उनका चयन को भी विवादास्पद बनाने की कोशिश हुई। तब उन्होंने कहा कि भारत के राष्ट्रपति ने मुझे यह सम्मान दिया है, राष्ट्र के गौरव की खातिर मुझे इसे स्वीकारना ही होगा। ऐसे संजीदा जवाब ने सबकी बोलती बंद कर दी। इसके बाद सांसद के रूप में जब उन्हें राहुल गांधी के बाजू का बंगला दिया गया, तो लोगों में हलचल हो गई। इस बार उन्होंने यह कहकर सबकी बोलती बंद कर दी कि मैं जब भी दिल्ली आता हूं, तो मुझे होटल में ही रुकना अच्छा लगता है। मुझे इस शहर में स्थायी निवास की आवश्यकता ही नहीं है। ऐसा कहकर उन्होंने अपनी महानता का ही परिचय दिया।
क्रिकेट के लिए सचिन एक मिथक बन गए हैं। सचिन के रिकॉर्ड का आज उतना ही महत्व है, जितना उनकी विनम्रता का। क्रिकेट के लिए वे एक भूतकाल बन गए हैं। किंतु एक सफल, विनम्र, प्रचंड लोकप्रिय होने के बाद भी सुशील, बेशुमार दौलत होने के बाद भी सादगी पसंद और एक जवाबदार नागरिक के रूप में भी अपने प्रशंसकों के लिए प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। क्रिकेट के इस भगवान को अलविदा कहने का साहस किसके पास होगा। हम तो अपनी सजल आंखों से केवल इतना ही कह सकते हैं कि जब भी किसी बॉलर के हाथ से बाल छूटेगी. बेट के साथ बाल टकराएगी, तब-तब हम यह सुनेंगे ‘वी विल मिस यू सचिन, आज कल और हमेशा।’
डॉ. महेश परिमल

शनिवार, 16 नवंबर 2013

अब बढ़ेगी महंगाई

डॉ. महेश परिमल
दीपावली गई, पर उसका असर अभी तक कायम है। इस बार भी महंगाई ने कमर तोड़ दी। मध्यमवर्ग के लिए हालात मुश्किल हो गए हैं। सरकार के महंगाई कम करने के तमाम वादे किसी काम के नहीं रहे। विधानसभा चुनाव को देखते हुए सरकार ने कुछ कोशिश अवश्य की, पर महंगाई के बेकाबू होने पर अंकुश नहीं लग पाया। प्याज के बाद अब टमाटर रुला रहा है। आम आदमी की थाली से प्याज के बाद अब टमाटर गायब हो गया है। सरकार चुनावों में व्यस्त होने के कारण आम आदमी की समस्या को जानने की फुरसत किसी के पास नहीं। सरकार की यही अनदेखी का असर निश्चित रूप से चुनाव परिणामों पर दिखाई देगा। प्याज को लेकर देश में आंदोलन हो चुके हैं। अब टमाटर को लेकर भी होंगे। हालत यह है कि चुनाव प्रचार करने वाले किसी भी नेता पर अब टमाटर फेंकना भी महंगा पड़ेगा, कौन होगा कि अपनी भड़ास 80 रुपए किलो वाली महंगी चीज से निकालना चाहेगा? प्याज आंखों में आंसू ला रही थी, तो टमाटर गालों की लालिमा छीनने में लगा है।
इन दिनों ब्लागरों की बन आई है। कई ब्लॉगर महंगाई को लेकर तरह-तरह के तर्क दे रहे हैं। कई तर्क भले ही एक नजर में मजाकिया लगें, पर उनकी गंभीरता को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि प्याज का उत्पादन नहीं हो पाया है। प्याज का विपुल उत्पादन हमारे देश में हुआ है। वह तो मुनाफाखोरों के कारण प्याज के दाम बढ़ रहे हैं, दूसरे सरकार की नीति भी ऐसी है कि वह प्याज उत्पादकों के बजाए बिचौलियों की परवाह अधिक करती है। प्याज के बढ़ते दाम से हम यही सोचते हैं कि इस बार प्याज उत्पादक किसानों के पौ-बारह हैं। पर ऐसी बात नहीं है। प्याज के बढ़ते दामों से किसानों को किसी तरह का फायदा नहीं हुआ है। सारी मलाई तो बिचौलिए ही मार रहे हैं। इसलिए दबंग के संवाद को लोग अब इस तरह से कहने लगे हैं कि साहब प्याज से डर नहीं लगता, पर टमाटर से डर लगता है। मीडिया में प्याज-टमाटर के बढ़ते दामों के पीछे की राजनीति की खोज की जा रही है। इन जरुरी जिंसों के दाम कैसे बढ़े, इसका विश्लेषण बताया जा रहा है। पर वे यह भूल रहे हैं कि अब शादी का मौसम आ गया है। अब तो आलू के अलावा अन्य जिंसों के दाम तेजी से बढेंगे। कई बार किसानों को अपने उत्पाद का सही दाम नहीं मिल पाता। कई बार उसे आशा से भी कम दाम पर अपना उत्पाद बिचौलियों को बेचना पड़ता है। सरकार यदि इन बिचौलियों पर अंकुश रख सके, तो आवश्यक जिंसों के दाम को बढ़ने से रोका जा सकता है। उत्पादकों-बिचौलियों और सरकार की नीतियों के बीच मध्यम वर्ग की हालत बहुत ही खराब है। वह अपने खर्च में कटौती नहीं कर पा रहा है और आवश्यक जिंसों के दाम तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। आय कम और व्यय अधिक।

देखा जाए, तो टमाटर के दाम बढ़ने के पीछे का कारण ही है प्याज। लोग सलाद में प्याज और टमाटर क इस्तेमाल करते हैं। जब प्याज के दाम बढ़े, ता ेवह सलाद से अदृश्य हो गई। फिर उसमें टमाटर की अधिकता होने लगी। इसलिए टमाटर भी महंगा होने लगा। इधर प्याज का इस्तेमाल कम होने लगा। उधर टमाटर का इस्तेमाल अधिक होने लगा। सलाद में पत्ता गोभी आदि का इस्तेमाल होने लगा। पाव-भाजी वालों की तो दुकान ही बंद हो गई। आखिर क्या डालें उसमें? बाजार में प्याज टमाटर की आवक तो हैं, पर वह मुनाफाखोरों के हाथ में होने के कारण वे ही इनके दाम तय करने लगे हैं। बाजार के विशेषज्ञ बताते हैं कि तुलसी विवाह के बाद शादी का मौसम शुरू हो जाएगा, फिर प्याज-टमाटर की मांग बढ़ेगी। ऐसे में इनके साथ-साथ अन्य जिंसों के दाम भी बढें़गे, इसमें कोई दो मत नहीं। इन हालात में अन्य कई सब्जियां भी आम आदमी की थाली से गायब हो जाएंगी। यह हाल 13 दिसम्बर तक रहेंगे। उसके बाद कड़वे दिन शुरू हो जाएंगे, उसके बाद 18 जनवरी से फिर शादी का मौसम शुरू हो जाएगा। तो यही समझा जाए कि यदि हम यह देखते आए हैं कि ठंड में सब्जियों के दाम कम होते हैं, तो इस बार यह धारणा झूठी साबित होगी। सब्जियों े विकल्प के रूप में अन्य सूखी सब्जियों की ओर लोगों का ध्यान जाता है, पर इस समय दलहन के दामों में 200 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है, पिछले वर्ष की तुलना में इनके दामों में तीन गुना इजाफा हुआ है।  इसलिए यह भी आम आदमी के हाथ से निकल गई।
आज सरकार को चिंता इस बात की है कि लोग सोना-चांदी अधिक खरीद रहे हैं, सोने के आयात पर नियंत्रण रखने के लिए वह कई उपाय कर रही है। पर वह यह भूल गई है कि गरीबों के पास सोने-चादंी खरीदने के लिए धन नहीं है, उसकी हालत तो रोजमर्रा की चीजें खरीदने में ही खराब हो रहीे है। टमाटर, प्याज, डीजल और डॉलर आज सामान्य प्रजा के लिए एक आफत बनकर सामने आ गए हैं। इससे निबटने में सरकार तो पूरी तरह से अक्षम साबित हुई है, पर इस पर नियंत्रण रखने के सरकार के सारे उपाय धराशायी होने लगे हैं। सरकार स्वयं प्याज बेचे, इससे अच्छा यह है कि प्याज की कीमतें नियंत्रण रखने का प्रयास करे। यदि प्याज की जमाखोरी हो रही है, तो इसका सबसे आसान उपाय यह है कि जिन कोल्ड स्टोरेज में प्याज जमा है, वहां की बिजली ही काट दी जाए। प्याज वैसे ही बाजार मे आ जाएगी। सरकार स्वयं प्याज बेचे, यह शर्मनाक स्थिति है। पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ने से सबसे पहला असर रोजमर्रा की चीजों पर ही पड़ता है, वह महंगी होने लगती है। सामान्य जनता प्याज, आलू, टमाटर, ककड़ी, लौकी का ही इस्तेमाल करता है। आजकल इनके भाव आममान पर हैं, ये सभी दोगुने-तीगुने दाम पर बिक रहे हैं। परवल, भिंडी आदि सब्जी तो आजकल अमीरों की सब्जी बनकर रह गई है। ये इतनी महंगी हैं कि सामान्य आदमी इसके भाव सुनकर ही दंग रह जाता है। डीजल के बढ़ते दाम के साथ इनकी भी कीमतें तेजी से बढ़ने लगी हैं। हालात दिनों-दिन बेकाबू होते जा रहे हैं।
लगातार महंगाई की चक्की में पीसते मध्यम वर्ग में बचत की मात्रा में कमी आई है। पहले यह मध्यम वर्ग अपनी बचत का कुछ हिस्सा शेयर बाजार और सोना-चांदी की खरीदी में लगाता था, पर शेयर बाजार से मध्यम वर्ग अब चेत गया है। सोना-चांदी खरीदना अब उसके बूते की बात नहीं रही। अभी पांच विधानसभाओं की चुनावी जंग शुरू हो चुकी है। सन 2014 लोकसभा चुनावों का वर्ष है। तब तक महंगाई अपने विकराल रूप में दिखाई देगी। इस महंगाई से बच पाना नई सरकारों के लिए मुश्किल है। सत्ता संभालते ही हमारे नेताओं को सबसे पहले महंगाई से ही निबटना होगा। उसके बाद ही कोई अन्य काम हो पाएगा। विकास की बात करने वाले हमारे नेता किस तरह से महंगाई पर काबू पाते हैं, यही देखना है।
  डॉ. महेश परिमल

बुधवार, 13 नवंबर 2013

तुलसी महज एक पौधा नहीं विचार है

डॉ. महेश परिमल
हममें से शायद ही ऐसा होगा, जिसने अपने घर के आँगन में तुलसी का बिरवा न देखा होगा। आज कांक्रीट के जंगल में रहते हुए शायद आज की पीढ़ी को यह पता ही नहीं होगा कि तुलसी का बिरवा किस तरह से हमारे जीवन से जुड़ा हुआ है। आज की पीढ़ी तो इसके महत्व से पूरी तरह से अनजान है। पर हम जानते हैं कि किस तरह से घर में सुबह-सुबह माँ, भाभी, दादी, नानी या फिर दीदी आँगन में लगे तुलसी के बिरवे की पूजा करती थीं। सचमुच उसका महत्व था हमारे जीवन में। आज जब कुछ पुरानी फिल्मों में इस तरह के गाने देखने-सुनने को मिल जाते हैं, तब पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं। देखा जाए तो फिल्मों एवं धारावाहिकों में ही आज तुलसी का बिरवा जीवित है। इसके अलावा इसे नर्सरी में भी देखा जा सकता है।
फिल्मों में तुलसी, इसके लिए हमें याद करना होगा मीना कुमारी को, जो फिल्म भाभी की चूड़ियाँ में उसी बिरवे के आगे गाती हैं, ज्योति कलश छलके। इस गीत की शूटिंग के पहले मीनाकुमारी जी ने काफी मेहनत की थी। सुबह-सुबह उठकर हिंदू महिलाओं को पूजा करते देखना उनके लिए एक अलग ही अनुभव था। स्वयं मुस्लिम रीति-रिवाजों में पढ़ी-बढ़ी मीना कुमारी इस गीत को परफैक्ट करना चाहती थी। इसलिए उन्होंने हिंदू महिलाओं की एक-एक गतिविधि को ध्यान से देखा। काफी मशक्कत के बाद यह गीत पूरा ह़आ। पंडित नरेंद्र शर्मा द्वारा लिखा गया यह गीत लता जी के बेहतर गीतों में से एक है। देखा जाए तो आज यदि तुलसी जीवित है, तो वह केवल गाँवों में या फिर फिल्मों में। तुलसी के बिरवे का अपना अलग ही महत्व है। घर बनाने के पहले ही यह तय हो जाता था कि बिरवा कहाँ होगा। तुलसी के पत्तों का अपना अलग ही महत्व है। उसका उपयोग कई बीमारियों में किया जाता है। तुलसी के पत्तों की चाय का स्वाद ही कुछ अलग होता है।
खैर पहले की फिल्मों में तुलसी के चौरे के दृश्य यदा-कदा दिखाई दे जाते थे। जिन फिल्मों की शूटिंग ग्रामीण अंचलों में होती हैं, वहां हिंदू पृष्ठभूमि वाली कहानी में तुलसी का चौरा कहीं न कही आ ही जाता है। फिल्म ईश्वर में अनिल कपूर को अपना घर बदलना होता है, तो वे ट्रक पर तुलसी का चौरा ही उखड़वाकर ले जाते हैं। सन् 1978 में आई फिल्म मैं तुलसी तेरे आँगन की में फिल्म की कहानी तुलसी चौरे के इर्द-गिर्द ही घूमती है। राज खोसला द्वारा निर्मित इस फिल्म में नूतन और आशा पारेख ने गजब का अभिनय किया है। इस फिल्म के एक दृश्य में नायक विनोद खन्ना जब अपनी मां नूतन के सामने किसी बात पर तुलसी की कसम खाते हैं, तब नूतन उसे बहुत डाँटती हैं कि इसकी शपथ मत लेना। यह हम सबके लिए पवित्र है। वास्तव में तुलसी का वह चौरा उनकी सौत की याद में लगाया जाता है, ताकि वह सदैव सामने रहे और उसकी पूजा होती रहे। इस भावना के साथ फिल्मों में तुलसी का चित्रण हुआ करता था।
वास्तव में देखा जाए, तो तुलसी केवल एक पौधा ही नहीं, बल्कि एक विचार है। सात्विक विचार। जिसमें घर के सभी की भावनाएँ जुड़ी रहती हैं। तुलसी के साथ जुड़े विचार धीरे-धीरे पुख्ता होते हैं। जिस तरह से तुलसी से घर की शुद्धि होती है, ठीक उसी तरह से जिस घर में तुलसी हो, उस घर के सदस्यों के विचार भी शुद्ध होते हैं। तुलसी से होकर आने वाली बयान की शुद्धता के कहने ही क्या? फिल्मों में भले इस पर विशेष चर्चा न हो, पर यह सच है कि घर में तुलसी का एक पौधा तो होना ही चाहिए। अब तो सीमेंट का चौरा रेडीमेड मिलने लगा है। घर के उत्तरी कोने या छत पर इसे रखकर इसमें बोया जाता है तुलसी का रोपा। इसके साथ कुछ नियम भी होते हैं, जिस घर में यह होता है, वहाँ की महिलाएँ इसे पूरी तन्मयता से मानती हैं। अनजाने में तुलसी का यह बिरवा हमें अनुशासन भी सिखाता है। तुलसी में पानी सुबह-शाम डाला जाता है। सुबह पूजा होना आवश्यक है। शाम को चौरे में दीया जलाना आवश्यक है। फिल्मों में इतना कुछ नहीं दिखाया गया है, पर इतना अवश्य बताया गया है कि यह बिरवा पूरे परिवार के लिए बहुत ही उपयोगी है। विशेषकर महिलाओं के लिए।
फिल्मों में तुलसी के माध्यम से भारतीय संस्कृति के दर्शन कराए जाते रहे हैं। ताकि विदेशों तक भारतीय संस्कृति की महक इस तरह से भी पहुँचे। आज की फिल्मों में तुलसी का दिखाया जाना भले ही कम हो गया है, पर जब भी तुलसी के बिरवे से जुड़े दृश्य आते हैं, तो मन रोमांचित हो उठता है। ऐसे दृश्य देखकर एक विचार-प्रक्रिया शुरू होती है। जिसमें समभाव के साथ सर्व हिताय की भावनाएँ होती हैं। भारतीय संस्कृति में इस पौधे को बहुत पवित्र माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिस घर में तुलसी का पौधा नहीं होता, उस घर में भगवान भी रहना पसंद नहीं करते। माना जाता है कि घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगा कलह और दरिद्रता दूर करता है। इसे घर के आँगन में स्थापित कर सारा परिवार सुबह-सवेरे इसकी पूजा-अर्चना करता है। यह मन और तन दोनों को स्वच्छ करती है। इसके गुणों के कारण इसे पूजनीय मानकर उसे देवी का दर्जा दिया जाता है। तुलसी केवल हमारी आस्था का प्रतीक भर नहीं है। इस पौधे में पाए जाने वाले औषधीय गुणों के कारण आयुर्वेद में भी तुलसी को महत्वपूर्ण माना गया है। भारत में सदियों से तुलसी का इस्तेमाल होता चला आ रहा है।
अधिकांश हिंदू घरों में तुलसी का पौधा अवश्य ही होता है। तुलसी घर में लगाने की प्रथा हजारों साल पुरानी है। तुलसी को देवी का रूप माना जाता है। साथ ही मान्यता है कि तुलसी का पौधा घर में होने से घर वालों को बुरी नजर प्रभावित नहीं कर पाती और अन्य बुराइयां भी घर और घरवालों से दूर ही रहती है। यह तो है तुलसी का धार्मिक महत्व, परंतु विज्ञान के दृष्टिकोण से तुलसी एक औषधि है। आयुर्वेद में तुलसी को संजीवनी बूटि के समान माना जाता है। तुलसी में कई ऐसे गुण होते हैं, जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक है। तुलसी का पौधा घर में रहने से उसकी सुगंध वातावरण को पवित्र बनाती है और हवा में मौजूद बीमारी के  बैक्टिरिया आदि को नष्ट कर देती है। तुलसी की सुंगध हमें श्वास संबंधी कई रोगों से बचाती है। साथ ही तुलसी की एक पत्नी रोज सेवन करने से हमें कभी बुखार नहीं आएगा और इस तरह के सभी रोग हमसे सदा दूर रहते हैं। तुलसी की पत्नी खाने से हमारे शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता काफी बढ़ जाती है।
पुराणों में कहा गया है कि भगवान विष्णु को लक्ष्मी से भी प्रिय तुलसी है। इसे भगवान ने अपने सिर पर स्थान दिया है। बिना तुलसी पत्ता अर्पित किए भगवान भोग भी स्वीकार नहीं करते। तुलसी के प्रति इस प्रकार का आदर भाव बताता है कि तुलसी गुणों की खान है। वैज्ञानिक शोध से यह प्रमाणित हो चुका है कि तुलसी में कई रोगों के उपचार की क्षमता है। तुलसी जिस घर आँगन में होती है, वहाँ के वातावरण में मौजूद नकारात्मक तत्वों को सोख लेती है और सकारात्मक उर्जा का संचार करती है। वास्तु विज्ञान कहता है कि घर में तुलसी का एक पौधा अवश्य लगाना चाहिए। पुराण के मुताबिक तुलसी के पौधे पर गुरु और लक्ष्मी दोनों की कृपा है। तुलसी का पौधा लगाने के लिए उत्तर पूर्व दिशा उत्तम है। उत्तर पूर्व में स्थान नहीं होने पर उत्तर अथवा पूर्व दिशा में तुलसी का पौधा लगाया जा सकता है। इन दिशाओं में तुलसी का पौधा लगाने से परिवार में सामंजस्य एवं धन वृद्घि होती है। ऐसी मान्यता है कि घर की छत पर तुलसी का पौधा रखने से घर पर बिजली गिरने का भय नहीं रहता। घर में किसी प्रकार के वास्तु दोष से बचने के लिए घर में तुलसी के पांच पौधे लगाकर उनकी नियमित सेवा करने से वास्तु दोष से मुक्ति मिलती है।
  डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

कपिल सिब्बल का सपना ‘आकाश’ जमीन पर

डॉ. महेश परिमल
चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। अब तमाम सरकारें लोक-लुभावन नारों के साथ-साथ वादों की खोज में हैं। आज का युवा नई टेक्नालॉजी पर ध्यान देता है, इसलिए सरकार यह सोच रही है कि युवाओं को आकर्षित करने के लिए उन्हें लेपटॉप दिया जाए, ताकि वे अपना कीमती वोट उस सरकार को दें। चूंकि अब युवा ही तमाम पार्टियों के वोट-बैंक हैं, इसलिए उन्हें लुभाने के लिए कुछ न कुछ ऐसा तो करना ही होगा, जिससे उनके वोट प्राप्त किए जा सकें । वैसे उत्तर प्रदेश में युवाओं को लेपटॉप देने का वादा किया गया था, लेपटॉप युवाओं को मिल भी गए हैं, पर वह पुरानी तकनीक का होने के कारण उतना लोकप्रिय नहीं हो पाया है। यह लेपटॉप उन्हें मुफ्त में मिला है, इसलिए उसे उन्होंने रख लिया है, पर उसका इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं। वैसे केंद्र सरकार की आकाश की पहली योजना तो धराशायी हो गई। इसके बाद कपिल सिब्बल ने इसे अपना ड्रीम प्रोजेक्ट बताया। उसके बाद आकाश 2 योजना लाई गई, यह भी टॉय-टॉय फिस्स हो गई। अब चुनाव को देखते हु सरकार आकाश 4 ला रही है। निश्चित रूप से यह योजना युवाओं को लुभाने में कामयाब होगी। पर रोज की बदलती तकनीक को देखते हुए यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि पिछली दो गलतियों से सरकार कुछ सीखेगी। पिछले प्रोजेक्ट में कहां गलती रह गई, यह जाने और सोचे बिना सरकार ने आकाश 4 ला रही है। यदि इसमें भी पुरानी तकनीक का इस्तेमाल किया गया, तो यह योजना भी फ्लाप होगी।
सरकार को सबसे पहले उलझन फरवरी 2012 में हुई, जब उसका बहु प्रतीक्षित प्रोजेक्ट आकाश जमीन पर आ गिरा था। कहा जाता है कि हारा हुआ पुजारी दोगुनी दौलत लगाता है, ठीक उसी तरह सरकार जल्दबाजी में आकाश 2 ले आई। इसके लिए यह घोषणा की कि लोगों को सस्ते दामों में आकाश लेपटॉप दिया जाएगा। इस योजना का क्या हुआ, इसे जाने बिना सरकार ने अब आकाश 4 ला रही है। सरकार को शायद यह पता नहीं है कि फरवरी 2012 और नवम्बर 2013 तक टेक्नालॉजी ने बहुत से पड़ाव तय कर लिए हैं। यदि आकाश 4 पुरानी तकनीक का होता है, तो इसे जमीन पर आने में देर नहीं लगेगी। अभी तो आकाश 4 किसी के हाथ में नहीं आया है, जब आएगा, तब यदि उसकी क्षमता की जानकारी होगी। इस दौरान सपा ने विधानसभा चुनाव में किए गए वादे के अनुसार उत्तर प्रदेश के कॉलेज के विद्यार्थियों को लेपटॉप का वितरण कर दिया है। जिनके पास ये लेपटॉप हैं, वे आकाश 4 नहीं लेना चाहेंगे, क्योंकि उसके लिए उन्हें तीन हजार रुपए का भुगतान करना होगा। विश्व का सबसे सस्ता लेपटॉप देने की यूपीए सरकार की इस योजना से लोग चौंक उठे थे। जब पहली बार इस आशय की घोषणा हुर्ह, तब सभी को आश्चर्य हुआ, बाद में पता चला कि यह आई टी मिनिस्टर कपिल सिब्बल का ड्रीम प्रोजेक्ट है। बाद में सिब्बल का यह सपना चकनाचूर हो गया। सरकार की भी फजीहत हुई, सो अलग।
जब आकाश 2 लोगोंे के सामने आया, तो सभी लेपटॉप में रिजोल्यूशन की समस्या देखी गई। स्क्रीन में भी कोई खास बदलाव किया गया हो, ऐसा नहीं लगा। सरकार अपना यह ड्रीम प्रोजेक्ट छोड़ना नहीं चाहती, इसलिए उसने आकाश 4 के लिए कमर कसी है। केटावींड द्वारा तैयार हुए आकाश को जब खुले रूप में बेचना शुरू किया गया, तब उसका नाम ड्ढद्ब ह्यद्यड्डह्लद्ग ७ष्द्ब था था, इसकी कीमत 3099 रखी गई थी। विद्यार्थियों को सस्ते में टेबलेट देना सरकार के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। परंतु टेबलेट के बाजार में नित नई तकनीक के टेबलेट रोज ही आ रहे हैं। इस तरह से देखा जाए, तो आकाश 4 को आने में काफी देर हो गई है। इस प्रोजेक्ट को काफी पहले आ जाना था। सरकार जो आकाश 4 बनाना चाहती है, उसका मूल प्रोजेक्ट इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी के पास से आईआईटी मुम्बई को सौंपा गया है। आकाश 4 बनाने वाले इस समय ई-कांटेक्ट बनाने में व्यस्त हैं। नए आकाश में स्टूडेंट-टीचर इंटर एक्शन एप्लीकेशन, एजुकेशन क्वीज आदि पी लोडेड करके दिए जाएंगे। लेक्चर वीडियो और प्रेजेंटेशन के लिए भी टूल्स एसडी कार्ड के साथ तैयार किया जाएंगे। आकाश प्रोग्राम  लेब में ष्ट, ष्टष्ट+ क्क4ह्लद्धoठ्ठ और विज्ञान के प्रयोगों के  लिए द्ग3श्चश्वङ्घश्वस् भी देखा जा सके, ऐसी तकनीक उपलब्ध कराई जाएगी। आकाश वन और आकाश टू के फ्लॉप शो की तरह आकाश 4 का भी हश्र हो, यह सरकार नहीं चाहती। इसलिए सरकार ग्लोबल टेंडर का आयोजन करेगी और इसकी घोषणा कब करनी है, यह भी बताएगी। आकाश 4 के स्पेशीफिकेशन के लिए घोषणा हो चुकी है। शुरुआती ऑर्डर 50 से 60 हजार टेबलेट का होगा।
2014 के लोकसभा चुनाव की घोषणा के पहले आकाश 4 की घोषणा हो जाएगी। सरकार मुफ्त में मोबाइल देने के फिराक में है। इसके बाद सस्ता टेबलेट देने की योजना है। सरकार इसे चुनावी मुद्दा भी बना सकती है। सरकार को भले ही टेबलेट 4 के लिए खुशी हो, पर लोग सस्ते में सरकारी टेबलेट पर विश्वास करने को तैयार नहीं हैं। भूतकाल में आकाश टेबलेट खरीदने में जल्दबाजी करने वाले अभी तक पछता रहे हैं। आज लोग परफेक्ट टेबलेट पर विश्वास करते हैं। उसके लिए खर्च करने को भी तैयार हैं, परंतु सरकार सस्ते के नाम पर आऊट डेटेड टेक्नालॉजी अपना रही है, ऐसा प्रजा मानती है। सरकार के टेबलेट से यदि सरकारी शब्द हट जाए, तो कुछ लाभ हो सकता है। पर सरकार कम काम करके अधिक श्रेय लेना चाहती है, इसलिए मामला गड़बड़ा जाता है। सरकार की नीयत साफ हो, तो वह ऐसे टेबलेट बनाए, जो अत्याधुनिक हों और उसे आज के टेबलेट के साथ मुकाबला करने के लिए खड़ा किया जाए, तो इसे उसकी उपलब्धि कहा जाएगा। पर सरकार के सारे काम चुनाव लक्षित होते हैं, इसलिए लोग उसकी नीयत समझ जाते हैं। सरकार जितना धन टेबलेट देने के प्रचार-प्रसार में लगाती है, यदि उसका आधा हिस्सा भी टेबलेट की गुणवत्ता में लगा दे, तो वह चीज आऊट डेटेड नहीं होगी। पर सरकार को कौन समझाए?
  डॉ. महेश परिमल

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई...चले गए मन्ना दा

डॉ. महेश परिमल
मन्ना दा नहीं रहे। यह हृदयविदारक समाचार था, उन संगीत प्रेमियों के लिए, जिनके कानों में मन्ना दा के गीतों ने पहली बार सुर के प्रति प्रेम और विश्वास जगाया। मन्ना दा, जिनके गीतों को बचपन से सुना, गुना और गाया। कठिन से कठिन और सहज से सहज गीत उनके ही कंठ से फूटे हैं। गीत कैसे भी हों, मन्ना दा के लिए कभी कठिन नहीं रहे। शास्त्रीय संगीत से लेकर रोमांटिक गीत तक का सफर बहुत लम्बा है। मन्ना दा की सबसे बड़ी यही विशेषता है कि वे इतने सहज होते थे कि पूछो ही मत। स्वयं को कभी बहुत महान गायक न मानने वाले मन्ना दा अपने आप में मस्त रहने वाले महान गायक थे। उनके जाने का मतलब है, संगीत के एक युग का दौर का खत्म होना। कम नहीं होती साढ़े 93 साल की उम्र। अभी एक मई को ही उन्होंने अपना 93 वां जन्म दिन मनाया। वे तो चले गए हैं, पर उनके गीत हम सबसे कभी जुदा नहीं होंगे। फिल्मों के लिए गाये जाने वाले गीतों की अपेक्षा उनके गैर फिल्मी गीत भी बहुत ही लोकप्रिय हुए। फिर चाहे वे गीत मयूरपंखी के हों, या फिर ताजमहल पर। आवाज में एक सोज, गंभीरता और महमूद जैसे कलाकारों के लिए अपनी आवाज में हास्य का पुट लाना मन्ना दा के ही बस की बात थी।
मन्ना दा कभी विवादास्पद नहीं रहे। न तो उन्होंने कभी ऐसा बयान दिया, न ही कभी किसी की आलोचना की, न कभी गुटबाजी की और न ही कभी कुछ ऐसा किया, जिस पर ऊंगली उठाई जाए।
मन्ना दा के बारे में बहुत से संस्मरण मिल जाएंगे, पर उन्होंने स्वयं के बारे में जो कहा, उनसे से एक यह है कि जब वे कॉलेज में पढ़ रहे थे, तब सभी संगीत की सभी स्पर्धाओं में भाग लेते थे, हर स्पर्धा में उन्हें पहला स्थान प्राप्त होता था। इससे अन्य प्रतिभावान छात्र-छात्राओं को अवसर नहीं मिल पाता था, आखिर में एक ऐसा निर्णय लिया गया, जिससे वे बाद में कभी किसी स्पर्धा में हिस्सा न ले सकें। एक बार एक स्पर्धा में हिस्स लेने के बाद जब वे अव्वल आए, तो उन्हें एक सितार देकर यह कहा गया कि अब आप किसी स्पर्धा में भाग नहीं लेंगे। कॉलेज प्रबंधन के इस निर्णय को उन्होंने बड़ी सहजता से स्वीकार किया और फिर कभी किसी प्रतियोगिता में भाग नहीं लिया। इतने सहज थे मन्ना दा। जब उन्हें एक दक्षिण भारतीय युवती सुलोचना से शादी करनी थी, तब वे बड़े पसोपेश में थे। घर में कैसे बताएं। घर के सभी बड़े परंपरावादी। अगर बुरा मान गए तो, इसलिए उन्होंने सुलोचना को सीधे अपने चाचा के सामने खड़ा कर दिया और कहा कि यह सुलोचना है, दक्षिण भारतीय, लेकिन रवींद्र संगीत जानती हैं, गाती भी हैं, मैं इससे शादी करना चाहता हूं। बस फिर क्या था, उन्हें शादी की अनुमति मिल गई।
एक बार शंकर साहब ने उन्हें  भीमसेन जोशी के साथ गाने के लिए कहा। गाने के साथ शर्त यह थी कि उन्हें जोशी जी को हराना भी था। उस समय संगीत की दुनिया में भीमसेन जोशी का बहुत नाम था। मन्ना दा स्वयं को बहुत ही छोटा गायक मानते थे। इसलिए अपना डर छिपाने के लिए उन्होंने पत्नी से कहा कि चलो कुछ दिन के लिए कहीं घूम आते हैं। पत्नी हैरान, आखिर इन्हें हो क्या गया? ऐसे तो कभी जाते नहीं हैं। आज अचानक ये क्या कह रहे हैं। तब पत्नी ने पूछा कि सच-सच बताओ, आखिर हुआ क्या है? तब मन्ना दा ने अपनी परेशानी बताई। पत्नी ने उनकी परेशानी को समझा और चलने के लिए राजी हो गई। वे करीब एक सप्ताह तक पूना में रहे। ताकि शंकर साहब किसी और से गवा लें। लेकिन नौशाद साहब भी कम न थे, उन्होंने सोच लिया सो सोच लिया। मन्ना दा जब पूना से लौटे, तो नौशाद साहब फिर हाजिर। आखिर उन्हें शंकर साहब का कहना मानना पड़ा। ये थी उनकी सहजता।
मन्ना दा के बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाकया है। उस्ताद बादल खान और मन्ना दा के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना दा की आवाज सुनी और उनके चाचा से पूछा यह कौन गा रहा है। जब मन्ना दा को बुलाया गया तो उन्होंने अपने उस्ताद से कहा,0 बस ऐसे ही गा लेता हूं। लेकिन बादल खान ने मन्ना दा की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद वह अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मन्ना दा 40 के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को साकार करने के लिए मुंबई आ गए। 1943 में फिल्म तमन्ना. में बतौर प्लेबैक सिंगर उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालांकि इससे पहले वह फिल्म रामराज्य में कोरस के रुप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है कि यही एक एकमात्र फिल्म थी, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था।
मन्ना दा के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास ने एक बार कहा था कि मन्ना दा हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हों, लेकिन इनमें से कोई भी मन्ना दा के हर गीत को नहीं गा सकता है। इसी तरह आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह मोहम्मद रफी ने एक बार कहा था, आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं, लेकिन अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूंगा कि मैं मन्ना दा के गीतों को ही सुनता हूं। मन्ना दा केवल शब्दो को ही नहीं गाते थे, अपने गायन से वह शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते थे। शायद यही कारण है कि प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिये मन्ना दा का चयन किया। साल 1961 मे संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म काबुलीवाला की सफलता के बाद मन्ना दा शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। फिल्म काबुलीवाला में मन्ना दा की आवाज में प्रेम धवन रचित यह गीत, ए मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन आज भी श्रोताओं की आंखों को नम कर देता है। प्राण के लिए उन्होंने फिल्म उपकार में कस्मे वादे प्यार वफा और जंजीर में यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी जैसे गीत गाए। उसी दौर में उन्होंने फिल्म पड़ोसन मे हास्य अभिनेता महमूद के लिए एक चतुर नार बड़ी होशियार गीत गाया तो उन्हें महमूद की आवाज समझा जाने लगा।
उन्होने ऐ मेरे प्यारे वतन, ओ मेरी जोहरा जबीं, ये रात भीगी-भीगी, ना तो कारवां की तलाश है और ए भाई जरा देख के चलो जैसे गीत गाकर अपने आलोचको का मुंह बंद कर दिया।
प्रसिद्ध गीतकार प्रेम धवन ने मन्ना दा के बारे में कहा था मन्ना दा हर रेंज में गीत गाने में सक्षम हैं। जब वह ऊंचा सुर लगाते हैं, तो ऐसा लगता है कि सारा आसमान उनके साथ गा रहा है। जब वह नीचा सुर लगाते हैं तो लगता है उसमे पाताल जितनी गहराई है। और अगर वह मध्यम सुर लगाते हैं तो लगता है उनके साथ सारी धरती झूम रही है। मन्ना दा को फिल्मों मे उल्लेखनीय योगदान के लिए 1971 में पदमश्री पुरस्कार और 2005 में पदमभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिए सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक, 1971 मे बंगला फिल्म निशि पदमा के लिये सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक और 1970 में प्रदर्शित फिल्म मेरा नाम जोकर के लिए फिल्म फेयर के सर्वश्रेष्ठ पाश्र्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किए गए। मन्ना दा के संगीत के सुरीले सफर में एक नया अध्याय जुड़ गया जब फिल्मों में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए साल 2009 में उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 
सभी संगीत प्रेमियों की ओर से उन्‍हें भावभीनी श्रद्धांजलि।
डॉ. महेश परिमल

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