डॉ. महेश परिमल
जनलोकपाल की मांग को लेकर अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठ गए हैं। वे अपने वादे के अनुसार संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही उन्होंने अपनी कर्मस्थली रालेगण सिद्धि में अनशन शुरू किया है। चार राज्यों में अपने खस्ताहाल प्रदर्शन से सहमी हुई केंद्र सरकार इस बार अन्ना के आंदोलन को लेकर गंभीर है। लेकिन सरकार सरकारी लोकपाल लाना चाहती है और अन्ना जनलोकपाल। दोनों के बीच मुख्य मुद्दा यही है। वैसे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर अन्ना ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया ही है। लोगों ने भी उनके आंदोलन में हिस्सा लेकर उन्हें अपना समर्थन भी दिया है। इससे डरकर सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में ही लोकपाल विधेयक पारित करने को आतुर है। पर उससे अन्ना कहां तक सहमत होंगे, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि अन्ना के जनलोकपाल और सरकार के लोकपाल बिल में जमीन-आसमान का अंतर है। वैसे देखा जाए तो लोकपाल बिल को पारित करने में सरकार की इच्छाशक्ति ही नहीं है। यदि होती, तो यह बिल 44 साल तक नहीं अटका होता। इस दिशा में ध्यान आकृष्ट किया है, तो उसका श्रेय केवल अन्ना हजारे को ही जाता है। सोमवार को सरकार इस बिल को संसद के पटल पर रखेगी, उसी दिन उस पर बहस भी होगी, देखना यह है कि सरकार किस तरह का लोकपाल बिल सामने लाती है?
अन्ना की मांग थी कि सीबीआई को लोकपाल के अधीन होना चाहिए। ताकि लोकपाल सीबीआई को भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद जांच का आदेश दे सके। राज्यसभा की चयन समिति ने ऐसी सलाह दी थी कि सीबीआई को लोककपाल के अधीन नहीं होना चाहिए, पर उसके निरीक्षण के तहत रखा जाना चाहिए। लोकपाल की आज्ञा से यदि किसी अधिकारी के खिलाफ मामले की जांच करनी हो, तो वह लोकेपोल की अनुमति के बिना नहीं हो सकती। सरकार ने इस सुझाव को नहीं माना। आशय यही है कि सरकार सीबीआई अधिकारी का तबादला कर लोकपाल के कार्य में व्यवधान डाल सकती है। लोकपाल के मूल ड्राफ्ट में यह प्रावधान था कि यदि किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत है, तो उसकी सुनवाई के बाद ही लोकपाल उसके खिलाफ जांच के आदेश दे सकता है। इस प्रावधान को रद्द करने का चयन समिति की सिफारिश को भी सरकार ने नहीं माना। इसका आशय यही हुआ कि किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करनी है, तो पहले लोकपाल से अनुमति लेनी होगी। सरकार का लोकपाल कमजोर है। अन्ना हजारे मजबूत लोकपाल के हिमायती है। अब इनमें से कौन झुकता है, यही देखना है। हमारे देश में लोकपाल विधेयक के लिए जितनी तकरार हुई है, उतनी भूतकाल में शायद ही किसी विधेयक के लिए हुई हो। पहली बार लोकपाल बिल 1969 में लोकसभा से पारित हुआ था, पर राज्यसभा में इसे मंजूरी नहीं मिल पाई। इसलिए यह बिल उसी समय अटक गया। इसके बाद 1971, 1977, 1998,1995, 1998, 2001, 2005 ओर 2008 में एक बार फिर संसद में रखा गया। पर उसे पारित नहीं किया जा सका। इसका मुख्य कारण यही है कि भारत को कोई भी दल यह नहीं चाहता कि यह बिल पारित हो। मतलब साफ है कि देश की कोई भी राजनैतिक पार्टी देश को भ्रष्टाचार मुक्त नहीं करना चाहती। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का सीधा मतलब है कि राजनैतिक दलों पर शिकंजा कसना। आखिर कौन दल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा?
अन्ना हजारे ने भ्रष्आचार के विरोध में जो अभियान चलाया था, उसके पीछे यही उद्देश्य था कि केंद्र में उनकी कल्पना के अनुसार जनलोकपाल की रचना की जाए। सन् 2011 के अगस्त महीने में जब अन्ना हजारे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन करने का निर्णय लिया, तब सरकार ने यह सोचा भी नहीं था कि उनके आंदोलन को इतना अधिक जनसमर्थन मिलेगा। अन्ना के समर्थन में दिल्ली में जो हुजूम सड़कों पर उतरा, उससे यही लगता था कि ये भीड़ सरकार के पतन का कारण भी बन सकती है। 12 दिन के अनशन के बाद अंतत: सरकार को झुकना पड़ा। 25 अगस्त को संसद में सर्वानुमति से लोकपाल बिल पास करने के लिए अध्यादेश रखा गया। इससे अन्ना ने अपना अनशन तोड़ दिया। सरकार को राहत मिली। इस घटना को दो साल बीत जाने के बाद भी सरकार संसद में लोकपाल बिल पारित नहीं करवा पाई। अन्ना ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर विश्वासघात का आरोप भी लगाया। इस बार अन्ना एक बार फिर अनशन पर हैं। चिंतित सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए तो हें, सोमवार से इस पर चर्चा भी होनी है। पर ये बिल अन्ना को कितना मुफीद लगता है, यह चर्चा के बाद ही पता चलेगा। अभी तो यही कहा जा सकता है कि सरकार ने जो बिल रखा है, उसमें इस तरह के प्रावधान हैं:-क्लॉज 3 (4) में ‘किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हुए’ की जगह ‘किसी भी राजनीतिक दल से संबद्ध’ किया गया है। चयन समिति के पांचवें सदस्य को राष्ट्रपति नामित कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस की सिफारिश जरूरी होगी। लोकपाल किसी भी मामले में सीधे जांच का आदेश दे सकेगा। लोकपाल को मामले की सुनवाई के दौरान वकील नियुक्त करने का अधिकार होगा।
अन्ना के आंदोलन के भय से सरकार और आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अपनी छवि सुधारने के लिए सरकार द्वारा संसद में लोकपाल विधेयक पारित किया जाएगा, उससे भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाया जा सकेगा, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अन्ना हजारे को सरकार ने जो वचन दिया था, वैसा लोकपाल सरकार सामने नहीं ला पाई। सरकार के लोकपाल को सरकारी कहा जाने लगा है। इस बिल को 27 दिसम्बर 2011 को लोकसभा से पास कर दो दिन बाद राज्यसभा में भेज दिया गया था। राज्यसभा ने इस पास करने के बदले चयन समिति को सुधारने का सुझाव दिया। चयन समिति ने अपनी राय देने के लिए पूरे 11 महीने का समय लिया। चयन समिति ने नवम्बर 2012 अपनी रिपोर्ट दी। इसमें 15 सुझाव दिए गए। फरवरी 2013 में केंद्र सरकार ने उक्त 16 सुझावों में से दो महत्वपूर्ण सुझावों को अनदेखा कर दिया, बाकी के 14 सुझावों को मान लिया गया। लोकपाल के मामले में केंद्र सरकार का रवैया भी ढुलमुल रहा। प्रधानमंत्री डॉ. सिंह ने अन्ना हजारे को वचन दिया था कि संसद के बजट सत्र में लोकपाल बिल लाया जाएगा। प्रधानमंत्री इस वचन को पूरा नहीं कर पाएक। बजट सत्र के बाद मानसून सत्र में भी सरकार लोकपाल बिल प्रस्तुत करने में विफल रही। अन्ना ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में चेतावनी दी थी कि संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन से वे अपना अनशन शुरू करेंगे। अन्ना भले ही अपने गृहनगर रालेगण में अनशन कर रहे हो, पर इधर दिल्ली में सरकार की छटपटाहट बढ़ गई है। लगता है अपनी छबि सुधारने के लिए सरकार अन्ना का जनलोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत करेगी। अब यह तो सोमवार से चर्चा के बाद ही पता चलेगा कि सरकार ने अन्ना का जनलोकपाल विधेयक पटल पर रखा है या सरकार लोकपाल विधेयक।
डॉ. महेश परिमल
जनलोकपाल की मांग को लेकर अन्ना एक बार फिर अनशन पर बैठ गए हैं। वे अपने वादे के अनुसार संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होते ही उन्होंने अपनी कर्मस्थली रालेगण सिद्धि में अनशन शुरू किया है। चार राज्यों में अपने खस्ताहाल प्रदर्शन से सहमी हुई केंद्र सरकार इस बार अन्ना के आंदोलन को लेकर गंभीर है। लेकिन सरकार सरकारी लोकपाल लाना चाहती है और अन्ना जनलोकपाल। दोनों के बीच मुख्य मुद्दा यही है। वैसे भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर अन्ना ने लोगों का ध्यान आकृष्ट किया ही है। लोगों ने भी उनके आंदोलन में हिस्सा लेकर उन्हें अपना समर्थन भी दिया है। इससे डरकर सरकार ने संसद के शीतकालीन सत्र में ही लोकपाल विधेयक पारित करने को आतुर है। पर उससे अन्ना कहां तक सहमत होंगे, यह कहना मुश्किल है, क्योंकि अन्ना के जनलोकपाल और सरकार के लोकपाल बिल में जमीन-आसमान का अंतर है। वैसे देखा जाए तो लोकपाल बिल को पारित करने में सरकार की इच्छाशक्ति ही नहीं है। यदि होती, तो यह बिल 44 साल तक नहीं अटका होता। इस दिशा में ध्यान आकृष्ट किया है, तो उसका श्रेय केवल अन्ना हजारे को ही जाता है। सोमवार को सरकार इस बिल को संसद के पटल पर रखेगी, उसी दिन उस पर बहस भी होगी, देखना यह है कि सरकार किस तरह का लोकपाल बिल सामने लाती है?
अन्ना की मांग थी कि सीबीआई को लोकपाल के अधीन होना चाहिए। ताकि लोकपाल सीबीआई को भ्रष्टाचार की शिकायत के बाद जांच का आदेश दे सके। राज्यसभा की चयन समिति ने ऐसी सलाह दी थी कि सीबीआई को लोककपाल के अधीन नहीं होना चाहिए, पर उसके निरीक्षण के तहत रखा जाना चाहिए। लोकपाल की आज्ञा से यदि किसी अधिकारी के खिलाफ मामले की जांच करनी हो, तो वह लोकेपोल की अनुमति के बिना नहीं हो सकती। सरकार ने इस सुझाव को नहीं माना। आशय यही है कि सरकार सीबीआई अधिकारी का तबादला कर लोकपाल के कार्य में व्यवधान डाल सकती है। लोकपाल के मूल ड्राफ्ट में यह प्रावधान था कि यदि किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत है, तो उसकी सुनवाई के बाद ही लोकपाल उसके खिलाफ जांच के आदेश दे सकता है। इस प्रावधान को रद्द करने का चयन समिति की सिफारिश को भी सरकार ने नहीं माना। इसका आशय यही हुआ कि किसी भी सरकारी अधिकारी के खिलाफ कार्रवाई करनी है, तो पहले लोकपाल से अनुमति लेनी होगी। सरकार का लोकपाल कमजोर है। अन्ना हजारे मजबूत लोकपाल के हिमायती है। अब इनमें से कौन झुकता है, यही देखना है। हमारे देश में लोकपाल विधेयक के लिए जितनी तकरार हुई है, उतनी भूतकाल में शायद ही किसी विधेयक के लिए हुई हो। पहली बार लोकपाल बिल 1969 में लोकसभा से पारित हुआ था, पर राज्यसभा में इसे मंजूरी नहीं मिल पाई। इसलिए यह बिल उसी समय अटक गया। इसके बाद 1971, 1977, 1998,1995, 1998, 2001, 2005 ओर 2008 में एक बार फिर संसद में रखा गया। पर उसे पारित नहीं किया जा सका। इसका मुख्य कारण यही है कि भारत को कोई भी दल यह नहीं चाहता कि यह बिल पारित हो। मतलब साफ है कि देश की कोई भी राजनैतिक पार्टी देश को भ्रष्टाचार मुक्त नहीं करना चाहती। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का सीधा मतलब है कि राजनैतिक दलों पर शिकंजा कसना। आखिर कौन दल अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारना चाहेगा?
अन्ना हजारे ने भ्रष्आचार के विरोध में जो अभियान चलाया था, उसके पीछे यही उद्देश्य था कि केंद्र में उनकी कल्पना के अनुसार जनलोकपाल की रचना की जाए। सन् 2011 के अगस्त महीने में जब अन्ना हजारे ने दिल्ली के रामलीला मैदान में आमरण अनशन करने का निर्णय लिया, तब सरकार ने यह सोचा भी नहीं था कि उनके आंदोलन को इतना अधिक जनसमर्थन मिलेगा। अन्ना के समर्थन में दिल्ली में जो हुजूम सड़कों पर उतरा, उससे यही लगता था कि ये भीड़ सरकार के पतन का कारण भी बन सकती है। 12 दिन के अनशन के बाद अंतत: सरकार को झुकना पड़ा। 25 अगस्त को संसद में सर्वानुमति से लोकपाल बिल पास करने के लिए अध्यादेश रखा गया। इससे अन्ना ने अपना अनशन तोड़ दिया। सरकार को राहत मिली। इस घटना को दो साल बीत जाने के बाद भी सरकार संसद में लोकपाल बिल पारित नहीं करवा पाई। अन्ना ने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर विश्वासघात का आरोप भी लगाया। इस बार अन्ना एक बार फिर अनशन पर हैं। चिंतित सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाए तो हें, सोमवार से इस पर चर्चा भी होनी है। पर ये बिल अन्ना को कितना मुफीद लगता है, यह चर्चा के बाद ही पता चलेगा। अभी तो यही कहा जा सकता है कि सरकार ने जो बिल रखा है, उसमें इस तरह के प्रावधान हैं:-क्लॉज 3 (4) में ‘किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े हुए’ की जगह ‘किसी भी राजनीतिक दल से संबद्ध’ किया गया है। चयन समिति के पांचवें सदस्य को राष्ट्रपति नामित कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में नेता विपक्ष और चीफ जस्टिस की सिफारिश जरूरी होगी। लोकपाल किसी भी मामले में सीधे जांच का आदेश दे सकेगा। लोकपाल को मामले की सुनवाई के दौरान वकील नियुक्त करने का अधिकार होगा।
अन्ना के आंदोलन के भय से सरकार और आगामी लोकसभा चुनाव के पहले अपनी छवि सुधारने के लिए सरकार द्वारा संसद में लोकपाल विधेयक पारित किया जाएगा, उससे भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से अंकुश लगाया जा सकेगा, यह विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अन्ना हजारे को सरकार ने जो वचन दिया था, वैसा लोकपाल सरकार सामने नहीं ला पाई। सरकार के लोकपाल को सरकारी कहा जाने लगा है। इस बिल को 27 दिसम्बर 2011 को लोकसभा से पास कर दो दिन बाद राज्यसभा में भेज दिया गया था। राज्यसभा ने इस पास करने के बदले चयन समिति को सुधारने का सुझाव दिया। चयन समिति ने अपनी राय देने के लिए पूरे 11 महीने का समय लिया। चयन समिति ने नवम्बर 2012 अपनी रिपोर्ट दी। इसमें 15 सुझाव दिए गए। फरवरी 2013 में केंद्र सरकार ने उक्त 16 सुझावों में से दो महत्वपूर्ण सुझावों को अनदेखा कर दिया, बाकी के 14 सुझावों को मान लिया गया। लोकपाल के मामले में केंद्र सरकार का रवैया भी ढुलमुल रहा। प्रधानमंत्री डॉ. सिंह ने अन्ना हजारे को वचन दिया था कि संसद के बजट सत्र में लोकपाल बिल लाया जाएगा। प्रधानमंत्री इस वचन को पूरा नहीं कर पाएक। बजट सत्र के बाद मानसून सत्र में भी सरकार लोकपाल बिल प्रस्तुत करने में विफल रही। अन्ना ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में चेतावनी दी थी कि संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन से वे अपना अनशन शुरू करेंगे। अन्ना भले ही अपने गृहनगर रालेगण में अनशन कर रहे हो, पर इधर दिल्ली में सरकार की छटपटाहट बढ़ गई है। लगता है अपनी छबि सुधारने के लिए सरकार अन्ना का जनलोकपाल बिल संसद में प्रस्तुत करेगी। अब यह तो सोमवार से चर्चा के बाद ही पता चलेगा कि सरकार ने अन्ना का जनलोकपाल विधेयक पटल पर रखा है या सरकार लोकपाल विधेयक।
डॉ. महेश परिमल
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