डॉ. महेश परिमल
तीन साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले समाज सेवक अन्ना हजारे की हुंकार से पूरा देश हिल गया था। उनकी हुंकार का यही आशय था कि जनलोकपाल से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं। फिर इन तीन वर्षो में ऐसा क्या हो गया कि अन्ना से सरकारी लोकपाल को स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि जनलोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस,भाजपा और अन्ना के बीच कोई गुप्त समझौता हो गया है। जनलोकपाल को लेकर अन्ना का संतुष्ट हो जाना आखिर किस बात का परिचायक है? उधर अन्ना के ही शिष्य अरविंद केजरीवाल ने अन्ना को भीष्म की उपाधि देते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को जारी रखने का ऐलान किया है। केजरीवाल ने स्वयं को पांडव बताकर अन्ना पर कौरवों के साथ देने का आरोप लगाया है। उनका मानना है कि जो सरकारी लोकपाल राज्यसभा में लाया जाएगा, उससे मंत्री तो क्या एक चूहा भी जेल में नहीं जा सकता। सारे अधिकार सरकार ने अपने पास रखे हैं। शायद अब अन्ना जनलोकपाल और जोकपाल के बीच के अंतर को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। जिस जनलोकपाल और सरकारी लोकपाल के बीच जमीन-आसमान का अंतर था, वह इतनी जल्दी आखिर कैसे मिट गया। यह समझने की बात है।
अन्ना हजारे ने जिस जनलोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया था, उसे अनदेखा कर सरकारी लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है। अन्ना के विवरण में जनलोकपाल संपूर्ण रूप से गैरसरकारी संस्था है। उस पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है। सरकार के मसौदे के अनुसार लोकपाल का गठन सरकार द्वारा किया जाएगा और वह सरकार की दया पर निर्भर रहेगा। अन्ना के मसौदे में सीबीआई ने पूर्ण रूप से लोकपाल के अधीन रखने की बात थी। सरकार के मसौदे में सीबीआई की अलग विंग बनाकर उसे लोकपाल के अधीन रखने की बात है। सीबीआई के जो अधिकारी लोकपाल के आदेश से भ्रष्टाचार की जांच कर रहे हों, उनका तबादला करने का अधिकार सरकार ने अपने हाथ में रखा है। इस कारण लोकपाल के अधिकारों में कटौती हो जाती है। लोकपाल बिल में पिछले चार दिनों से काफी गहमा-गहमी दिखाई दे रही है, यह स्थिति कई आशंकाओं को जन्म देती है। लोकपाल विधेयक की धाराओं के मामले में विवाद करने वाले भाजपा-कांग्रेस ने अचानक चयन समिति द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर एकमत हो गए। इस संबंध में भाजपा ने यहां तक कहा था कि वह किसी भी तरह की चर्चा के बिना राज्यसभा में इस बिल को पास करने के लिए तैयार है। दूसरी तरफ राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा है कि वह राज्यसभा में पेश लोकपाल बिल को पास करने के लिए तैयार हैं। वे विधेयक को पास कराने का सारा श्रेय स्वयं ही लूटना चाहते हैं। तीसरी तरफ अन्ना हजारे ने राहुल गांधी के बयान का समर्थन करते हुए कहा है कि जिस दिन लोकपाल बिल राज्यसभा में पारित हो जाएगा, उस दिन वे अपना अनशन तोड़ देंगे। इन तीनों घटनाओं की कड़ियों को जोउ़ा जाए, तो यही स्पष्ट होता है कि कांग्रेस-भाजपा और अन्ना हजारे के बीच लोकपाल का खेल खेला जा रहा है।
सन् 2011 के अगस्त महीने में संसद के दोनों सदनों में अन्ना के उपवास आंदोलन का खत्म करने की अपील की थी, तब सरकार ने उन्हें तीन वचन दिए थे। पहला वचन था कि लोकपाल विधेयक के साथ सिटीजन चार्टर लाया जाएगा। जिसके लिए नागरिकों के सभी सरकारी काम एक निश्चिय समय-सीमा में होने की गारंटी देना है। दूसरा वचन था निम्न तबके के कर्मचारियों को भी लोकपाल के दायरे में लाने का उपाय खोजा जाएगा। तीसरा और अंतिम वचन था कि केंद्र में लोकेपाल के साथ ही राज्यों में लोकायुक्त का भी गठन किया जाएगा। अरविंद केजरीवाल के दावे के अनुसार राज्यसभा में जो लोकपाल बिल प्रस्तुत किया जाएगा, उसमें इन तीनों वचनों का पालन नहीं किया गया है। इसके बाद भी अन्ना हजारे ने इस स्वीकार्य कर लिया है। राज्य सभा में प्रस्तुत किए जाने वाले लोकपाल विधेयक की चार धाराओं पर भाजपा को आपत्ति थी। भाजपा की मांग थी कि लोकपाल के आदेश से सीबीआई अधिकारी किसी भी मामले की जांच कर रहा होता है, तो उसका तबादला बिना लोकपाल की सहमति सरकार नहीं कर सकती। सरकारी लोकपाल बिल में यह अधिकार सरकार के हाथ में है। भाजपा इसी का विरोध कर रही थी। सरकारी लोकपाल बिल के दायरे में देश की तमाम गैर धार्मिक सेवा भावी संस्थाओं को अपने हाथ में ले लिया गया है। भाजपा को इस पर भी आपत्ति थी। इतने विरोध के बाद भी भाजपा इस बिल को पास कराने की तैयारी दिखा रही है। अन्ना हजारे ने तीन वर्ष पहले जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया था, तब यूपीए सरकार जन लोकपाल के बारे में उनकी मांग स्वीकारने के मूड में नहीं थी। किंतु जैसे-जैसे अन्ना के आंदोलन को लोगों का समर्थन मिलने लगा, वैसे-वैसे सरकार की हालत पतली होने लगी। उसे अपनी फजीहत दिखाई देने लगी। सरकार ने माना कि यदि अन्ना की मांग को स्वीकार नहीं किया गया, तो उसकी छवि बिगड़ जाएगी। इस कारण मजबूरी में सरकार लोकपाल विधेयक पर अध्यादेश लागू करने के लिए तैयार हो गई। हाल ही में चार राज्यों में कांग्रेस की पराजय के बाद सरकार इस दिशा में और भी गंभीर हो गई है। उसे शायद यह ब्रह्मज्ञान हो गया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में यदि जीत हासिल करनी है, तो लोकपाल बिल को पारित करवाना आवश्यक है। दिल्ली में आम आदमी की पार्टी को मिली ऐतिहासिक सफलता के कारण सरकार लोकपाल बिल फिर से सदन में प्रस्तुत करने का मन बनाया।
यदि हम इतिहास पर नजर डालें, तो स्पष्ट होगा कि सन् 1947 में भारत के विभाजन की बात आई, तब जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल विभाजन के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने माउंटबेटन ने कहा कि यिद आप विभाजन को स्वीकार नहीं करते, तो आजादी भी नहीं मिलेगी। तब नेहरू-पटेल ने विभाजन को स्वीकार कर लिया था। आज 2013 में भी यही स्थिति बन रही है। जब अन्ना हजारे ने भी हारकर सरकारी लोकपाल को अपनी स्वीकृति दे दी। आखिर कुछ तो ऐसा है, जो हुंकार भरने वाले अन्ना इतनी आसानी से सरकारी लोकपाल को स्वीकारने के लिए तैयार हो गए। इससे तो बेहतर केजरीवाल हैं, जो यह कहते हैं कि अनशन कर अपने शरीर को बीमार करने से अच्छा है कि सरकारी लोकपाल विधेयक के खिलाफ अपना आंदोलन करें। ताकि लोगों को सच्चई का पता चल सके।
इन आठ बिंदुओं पर सहमत नहीं है आप
नियुक्ति : प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष का नेता, स्पीकर, चीफ जस्टिस और एक न्यायविद की समिति चुनाव करेगी। इसमें नेताओं का बहुमत है, जबकि लोकपाल को इनके खिलाफ ही जांच करना है।
बर्खास्तगी : इसके लिए सरकार या 100 सांसद सुप्रीम कोर्ट में शिकायत कर सकेंगे। इससे लोकपाल को बर्खास्त करने का अधिकार सरकार, नेताओं के पास ही रहेगा।
जांच: लोकपाल सीबीआई सहित किसी भी एजेंसी से जांच करवा सकेगा। लेकिन प्रशासनिक नियंत्रण नहीं कर सकेंगा। यानी जांच अधिकारियों का ट्रांसफर-पोस्टिंग सरकार के हाथ में ही होगा।
व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन : सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की संरक्षण के लिए अलग बिल बनाया है। उसे इसी बिल का हिस्सा बनाना चाहिए था।
सिटीजन चार्टर: सरकार ने आवश्यक सेवाओं को समय में करने के लिए अलग से बिल बनाया है, जबकि उसे इस बिल का हिस्सा बनाना चाहिए था। ताकि जनलोकपाल अफसरों के खिलाफ कार्रवाई कर सके।
राज्यों में लोकायुक्त: लोकायुक्तों की नियुक्ति का मसला राज्यों के विवेक पर छोड़ा गया है, अगस्त 2011 में संसद ने सर्वसम्मति से यह आश्वासन दिया था।
फर्जी शिकायतें: झूठी या फर्जी शिकायतें करने वाले को एक साल की जेल हो सकती है। जनलोकपाल बिल में जुर्माने की व्यवस्था थी, जेल की नहीं।
दायरा: न्यायपालिका के साथ ही सांसदों के संसद में भाषण व वोट के मामलों को अलग रखा है। वहीं, जनलोकपाल बिल में जजों, सांसदों सहित सभी लोकसेवकों को रखा था।
डॉ. महेश परिमल
तीन साल पहले भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले समाज सेवक अन्ना हजारे की हुंकार से पूरा देश हिल गया था। उनकी हुंकार का यही आशय था कि जनलोकपाल से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं। फिर इन तीन वर्षो में ऐसा क्या हो गया कि अन्ना से सरकारी लोकपाल को स्वीकार कर लिया। ऐसा लगता है कि जनलोकपाल के मुद्दे पर कांग्रेस,भाजपा और अन्ना के बीच कोई गुप्त समझौता हो गया है। जनलोकपाल को लेकर अन्ना का संतुष्ट हो जाना आखिर किस बात का परिचायक है? उधर अन्ना के ही शिष्य अरविंद केजरीवाल ने अन्ना को भीष्म की उपाधि देते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को जारी रखने का ऐलान किया है। केजरीवाल ने स्वयं को पांडव बताकर अन्ना पर कौरवों के साथ देने का आरोप लगाया है। उनका मानना है कि जो सरकारी लोकपाल राज्यसभा में लाया जाएगा, उससे मंत्री तो क्या एक चूहा भी जेल में नहीं जा सकता। सारे अधिकार सरकार ने अपने पास रखे हैं। शायद अब अन्ना जनलोकपाल और जोकपाल के बीच के अंतर को समझने के लिए तैयार नहीं हैं। जिस जनलोकपाल और सरकारी लोकपाल के बीच जमीन-आसमान का अंतर था, वह इतनी जल्दी आखिर कैसे मिट गया। यह समझने की बात है।
अन्ना हजारे ने जिस जनलोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया था, उसे अनदेखा कर सरकारी लोकपाल विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है। अन्ना के विवरण में जनलोकपाल संपूर्ण रूप से गैरसरकारी संस्था है। उस पर सरकार का कोई अंकुश नहीं है। सरकार के मसौदे के अनुसार लोकपाल का गठन सरकार द्वारा किया जाएगा और वह सरकार की दया पर निर्भर रहेगा। अन्ना के मसौदे में सीबीआई ने पूर्ण रूप से लोकपाल के अधीन रखने की बात थी। सरकार के मसौदे में सीबीआई की अलग विंग बनाकर उसे लोकपाल के अधीन रखने की बात है। सीबीआई के जो अधिकारी लोकपाल के आदेश से भ्रष्टाचार की जांच कर रहे हों, उनका तबादला करने का अधिकार सरकार ने अपने हाथ में रखा है। इस कारण लोकपाल के अधिकारों में कटौती हो जाती है। लोकपाल बिल में पिछले चार दिनों से काफी गहमा-गहमी दिखाई दे रही है, यह स्थिति कई आशंकाओं को जन्म देती है। लोकपाल विधेयक की धाराओं के मामले में विवाद करने वाले भाजपा-कांग्रेस ने अचानक चयन समिति द्वारा तैयार किए गए मसौदे पर एकमत हो गए। इस संबंध में भाजपा ने यहां तक कहा था कि वह किसी भी तरह की चर्चा के बिना राज्यसभा में इस बिल को पास करने के लिए तैयार है। दूसरी तरफ राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा है कि वह राज्यसभा में पेश लोकपाल बिल को पास करने के लिए तैयार हैं। वे विधेयक को पास कराने का सारा श्रेय स्वयं ही लूटना चाहते हैं। तीसरी तरफ अन्ना हजारे ने राहुल गांधी के बयान का समर्थन करते हुए कहा है कि जिस दिन लोकपाल बिल राज्यसभा में पारित हो जाएगा, उस दिन वे अपना अनशन तोड़ देंगे। इन तीनों घटनाओं की कड़ियों को जोउ़ा जाए, तो यही स्पष्ट होता है कि कांग्रेस-भाजपा और अन्ना हजारे के बीच लोकपाल का खेल खेला जा रहा है।
सन् 2011 के अगस्त महीने में संसद के दोनों सदनों में अन्ना के उपवास आंदोलन का खत्म करने की अपील की थी, तब सरकार ने उन्हें तीन वचन दिए थे। पहला वचन था कि लोकपाल विधेयक के साथ सिटीजन चार्टर लाया जाएगा। जिसके लिए नागरिकों के सभी सरकारी काम एक निश्चिय समय-सीमा में होने की गारंटी देना है। दूसरा वचन था निम्न तबके के कर्मचारियों को भी लोकपाल के दायरे में लाने का उपाय खोजा जाएगा। तीसरा और अंतिम वचन था कि केंद्र में लोकेपाल के साथ ही राज्यों में लोकायुक्त का भी गठन किया जाएगा। अरविंद केजरीवाल के दावे के अनुसार राज्यसभा में जो लोकपाल बिल प्रस्तुत किया जाएगा, उसमें इन तीनों वचनों का पालन नहीं किया गया है। इसके बाद भी अन्ना हजारे ने इस स्वीकार्य कर लिया है। राज्य सभा में प्रस्तुत किए जाने वाले लोकपाल विधेयक की चार धाराओं पर भाजपा को आपत्ति थी। भाजपा की मांग थी कि लोकपाल के आदेश से सीबीआई अधिकारी किसी भी मामले की जांच कर रहा होता है, तो उसका तबादला बिना लोकपाल की सहमति सरकार नहीं कर सकती। सरकारी लोकपाल बिल में यह अधिकार सरकार के हाथ में है। भाजपा इसी का विरोध कर रही थी। सरकारी लोकपाल बिल के दायरे में देश की तमाम गैर धार्मिक सेवा भावी संस्थाओं को अपने हाथ में ले लिया गया है। भाजपा को इस पर भी आपत्ति थी। इतने विरोध के बाद भी भाजपा इस बिल को पास कराने की तैयारी दिखा रही है। अन्ना हजारे ने तीन वर्ष पहले जब भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया था, तब यूपीए सरकार जन लोकपाल के बारे में उनकी मांग स्वीकारने के मूड में नहीं थी। किंतु जैसे-जैसे अन्ना के आंदोलन को लोगों का समर्थन मिलने लगा, वैसे-वैसे सरकार की हालत पतली होने लगी। उसे अपनी फजीहत दिखाई देने लगी। सरकार ने माना कि यदि अन्ना की मांग को स्वीकार नहीं किया गया, तो उसकी छवि बिगड़ जाएगी। इस कारण मजबूरी में सरकार लोकपाल विधेयक पर अध्यादेश लागू करने के लिए तैयार हो गई। हाल ही में चार राज्यों में कांग्रेस की पराजय के बाद सरकार इस दिशा में और भी गंभीर हो गई है। उसे शायद यह ब्रह्मज्ञान हो गया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में यदि जीत हासिल करनी है, तो लोकपाल बिल को पारित करवाना आवश्यक है। दिल्ली में आम आदमी की पार्टी को मिली ऐतिहासिक सफलता के कारण सरकार लोकपाल बिल फिर से सदन में प्रस्तुत करने का मन बनाया।
यदि हम इतिहास पर नजर डालें, तो स्पष्ट होगा कि सन् 1947 में भारत के विभाजन की बात आई, तब जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल विभाजन के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने माउंटबेटन ने कहा कि यिद आप विभाजन को स्वीकार नहीं करते, तो आजादी भी नहीं मिलेगी। तब नेहरू-पटेल ने विभाजन को स्वीकार कर लिया था। आज 2013 में भी यही स्थिति बन रही है। जब अन्ना हजारे ने भी हारकर सरकारी लोकपाल को अपनी स्वीकृति दे दी। आखिर कुछ तो ऐसा है, जो हुंकार भरने वाले अन्ना इतनी आसानी से सरकारी लोकपाल को स्वीकारने के लिए तैयार हो गए। इससे तो बेहतर केजरीवाल हैं, जो यह कहते हैं कि अनशन कर अपने शरीर को बीमार करने से अच्छा है कि सरकारी लोकपाल विधेयक के खिलाफ अपना आंदोलन करें। ताकि लोगों को सच्चई का पता चल सके।
इन आठ बिंदुओं पर सहमत नहीं है आप
नियुक्ति : प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष का नेता, स्पीकर, चीफ जस्टिस और एक न्यायविद की समिति चुनाव करेगी। इसमें नेताओं का बहुमत है, जबकि लोकपाल को इनके खिलाफ ही जांच करना है।
बर्खास्तगी : इसके लिए सरकार या 100 सांसद सुप्रीम कोर्ट में शिकायत कर सकेंगे। इससे लोकपाल को बर्खास्त करने का अधिकार सरकार, नेताओं के पास ही रहेगा।
जांच: लोकपाल सीबीआई सहित किसी भी एजेंसी से जांच करवा सकेगा। लेकिन प्रशासनिक नियंत्रण नहीं कर सकेंगा। यानी जांच अधिकारियों का ट्रांसफर-पोस्टिंग सरकार के हाथ में ही होगा।
व्हिसल ब्लोअर प्रोटेक्शन : सरकार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वालों की संरक्षण के लिए अलग बिल बनाया है। उसे इसी बिल का हिस्सा बनाना चाहिए था।
सिटीजन चार्टर: सरकार ने आवश्यक सेवाओं को समय में करने के लिए अलग से बिल बनाया है, जबकि उसे इस बिल का हिस्सा बनाना चाहिए था। ताकि जनलोकपाल अफसरों के खिलाफ कार्रवाई कर सके।
राज्यों में लोकायुक्त: लोकायुक्तों की नियुक्ति का मसला राज्यों के विवेक पर छोड़ा गया है, अगस्त 2011 में संसद ने सर्वसम्मति से यह आश्वासन दिया था।
फर्जी शिकायतें: झूठी या फर्जी शिकायतें करने वाले को एक साल की जेल हो सकती है। जनलोकपाल बिल में जुर्माने की व्यवस्था थी, जेल की नहीं।
दायरा: न्यायपालिका के साथ ही सांसदों के संसद में भाषण व वोट के मामलों को अलग रखा है। वहीं, जनलोकपाल बिल में जजों, सांसदों सहित सभी लोकसेवकों को रखा था।
डॉ. महेश परिमल
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