शनिवार, 7 मई 2016
कहानी - सड़क - रामदरश मिश्र
कहानी का अंश...
मास्टर चंद्रभान पांडे ने देखा कि वह आदमी कोई और नहीं, उसके इलाके के एमएलए जंगबहादुर यादव हैं। उनकी आँँखें शम्र से झुक गई और झुकी हुई आँँखें धोती के बड़े-बड़े सुराखों में उलझ गई। यादव जी ने ठहाका लगाया - अरे मास्टर साहब आप। आपने अब ये धंधा भी शुरू कर दिया है। ठीक है, आदमी को कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। पैसा बड़ी चीज है। मेरे लायक कोर्इ काम हो तो जरूर कहिएगा। फिर एक ठहाका लगाया1 उसके दोस्तों ने भी उनका अनुसरण किया। एक ने खुशामद के तौर पर कहा - अरे यादवजी, आपकी बदौलत जब इस इलाके में सड़क बन रही है, तो कितनों का पेट पल जाएगा। यादव जी ने पांच रूपए का नोट निकाला और मास्टर साहब की ओर बढ़ा दिया। मेरे पास खुल्ले पैसे नहीं हैं। - मास्टर जी ने कहा। अरे तो रख लीजिए ना, कौन आपसे वापस मांग रहा है। नहीं, मैं पैसे लेने का अधिकारी नहीं हूं। आपने चाय भी तो नहीं पी है। अरे तो चाय के पैसे कौन दे रहा हे, आप तो गुरूदक्षिणा समझ कर ही रख लीजिए। यादव जी अपने दोस्तों के साथ फुर्र से जीप में बैठकर चले गए और मास्टर जी अपमान का घूंट पीकर रह गए। क्या यही दिन देखने को बाकी रह गए हैं। अब जीना ही कितना है, फिर भी यह गरीबी का समय तो गुजारना ही है। मास्टर जी फटी धोती को देखते हुए भीगी आँखों से सोच रहे थे। आगे क्या हुआ, जानने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए...
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कहानी,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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