डॉ. महेश परिमल
बिहार चुनाव के पहले लालू-नीतिश ने गठबंधन कर स्वयं को एक बताया था। बड़े गर्व से वे कह रहे थे कि ये महागठबंधन है, हम भाजपा की आंधी को रोक कर रहेंगे। इसी बीच इस महागठबंधन से मुलायम यादव अलग हो गए। उन्हें मनाने की काफी कोशिशें हुई, पर उन्हें असफलता ही मिली। अभी वे इस गम से उबर ही नहीं पाए थे कि अचानक बिहार चुनाव में ओवैसी ने अपना दांव खेला। इससे लालू-नीतिश चारों खाने चित्त हो गए। रही-सही साख पर बट्टा लग गया। जिस मुस्लिम मतों को लेकर वे इतना अधिक गरिया रहे थे, उसे मुलायम-ओवैसी ने इतना बड़ा झटका दिया कि दोनों कहीं के नहीं रहे। भाजपा के लिए ओवैसी एक तुरुप का पत्ता साबित हुए। 1970 के दशक में एक फिल्म आई थी, दुश्मन, जिसका एक गीत था ‘दुश्मन-दुश्मन, जो दोस्तों से प्यारा है’, आज यही गीत भाजपा के लिए सही साबित हो रहा है। ओवैसी को किसी भी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनकी शख्सियत ही ऐसी है कि चाहकर भी कोई पार्टी उन्हें कम नहीं आंक सकती। इस समय बिहार चुनाव को लेकर भाजपा खेमे में खुशी का माहौल है। नीतिश-लालू के गठबंधन का ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। ओवैसी अपनी वक्तृत्व कला से नीतिश-लालू के वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं। ओवैसी केवल मुस्लिम मतों को अपनी तरफ कर सकते हैं, इसके अलावा उनकी आक्रामकता से भयभीत होने वाले हिंदू भी भाजपा का रुख कर सकते हैं। इससे नीतिश-लालू अलग-थलग पड़ जाएंगे, इसमें कोई दो मत नहीं।
भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, उसके पहले भारत के मुस्लिम जिन्ना की मुस्लिम लीग को अपना तारणहार मानती थी। पाकिस्तान बन जाने के बाद मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान चले गए। इसके बाद भारत में मुस्लिमों के मसीहा के भूमिका कांग्रेस ने निभाई थी। किसी सक्षम मुस्लिम नेता की अनुपस्थिति में भारत के मुस्लिम कांग्रेस के बाद समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि तथाकथित सेकुलर पार्टियों को अपना समर्थन देते थे। मुलायम सिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव आदि हिंदू नेता मुस्लिम मतों पर अपना प्रभाव रखते थे। तथाकथित सेकुलर नेताओं ने काफी कोशिशें की कि भाजपा के विजय रथ को रोका जाए। पर ऐसा नहीं हो पाया। इन्हें एक ऐसे मुस्लिम नेता की आवश्यकता थी, जो अपने प्रभाव से मुस्लिम मतों पर अपनी ओर खींच सके। अपने भाषण से आग उगलते नेता ओवैसी पर सबकी नजर थी। आधुनिक भारत के 18 करोड़ मुसलमानों के नेता बनने की खूबियां ओवैसी में है। उनका जन्म हैदराबाद के मुस्लिम परिवार में हुआ। हैदराबाद में 35 से 40 प्रतिशत की आबादी मुस्लिमों की है। ओवैसी की शिक्षा हैदराबाद की पब्लिक स्कूल में हुई। इसी स्कूल में माइक्रोसाफ्ट के सीईओ सत्या नाडेला भी पढ़ चुके हैं। गांधीजी की तरह ओवैसी ने भी लंदन जाकर बैरिस्टर की परीक्षा पास की। 46 वर्षीय उर्दू और अंग्रेेजी धाराप्रवाह बोलते हैं। मुस्लिमों को उत्तेजित करने के लिए उनकी जुबान तलवार की तरह काम करती है। यह सभी जानते हैं। उनकी भाषा ही उनकी ताकत है, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता।
असउद्दीन ओवैसी अपनी आक्रामक भाषा को माध्यम बनाकर एक राजनैतिक ताकत के रूप में उभरे हैं। मुस्लिमों को राजनैतिक रूप से संगठित कर उन्होंने मजलिस-ए-इत्तेहेदुल मुसलमिन (एकआईएम) नाम से अपनी पार्टी बनाई है। उनका गणित बहुत ही साफ है। उनके अनुसार भारत की कुल आबादी में 14 प्रतिशत मुस्लिम हैं, तो उन्हें संसद और अन्य राज्यों में भी 14 प्रतिशत सीट मिलनी चाहिए। ओवैसी मुस्लिम वोटों के जोर पर हैदराबाद में लाेकसभा चुनाव जीता। उनकी पार्टी ने तेेलंगाना विधानसभा में भी जीत हासिल की। अब वे मुस्लिमों के राष्ट्रीय नेता बनना चाहते हैं। देश की राजनैतिक पार्टियां पहले तो ओवैसी को हैदराबाद के मुस्लिम नेता के रूप में ही देखते थे। पर साल की शुरुआत में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने 24 प्रत्याशी खड़े किए थे। इनमें से दो ने जीेत हासिल की। मुम्बई जैसे महानगर में ओवैसी की पार्टी को भी एक सीट मिली थी। महाराष्ट्र की दो सीटों पर आेवैसी के दो प्रत्याशी दूसरे नम्बर पर थे। उनकी पार्टी को कुल दस लाख मत प्राप्त हुए थे। बिहार के चुनाव में भाजपा गठबंधन और नीतिश-लालू के गठबंधन के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। संयोगों से एक दर्जन सीट पर कुछ खेल हो जाए, तो जीत की बाजी हार में बदल सकती है। असउद्दीन ओवैसी की पार्टी ने बिहार की सीमा पर 4 जिलों में 24 प्रत्याशी खड़े करने का निर्णय लिया है। नेपाल की सीमा से लगे किसनगंज, अरारिया, कटिहार और पूर्णिया आदि जिलों में मुस्लिमों की संख्या काफी है। ओवैसी ने अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान को खड़ा किया है। उनकी छवि दमदार नेताओं की है। इसके पहले वे लालू की पार्टी के विधायक थे। लोकसभा चुनाव के पहले वे नीतिश से जुड़ गए। नीतिश ने उन्हें किसनगंज से टिकट भी दी थी। अंतिम क्षणों में वे कांग्रेस के प्रत्याशी मौलाना हक के समर्थन में बैठ गए। इसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। वहां से भाजपा जीत गई।
भारत के मुस्लिमों को लगता है कि तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों के हिंदू नेता मुस्लिम हितों की रक्षा करने में नाकामयाब साबित हुए है, इसलिए वे आक्रामक मुस्लिम नेताओं की खोज मे हैं। असम में बंगाली मुसलमान खुद का इतना अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं कि उन्होंने अपने मौलाना बदरुद्दीन अजमल को जीताकर संसद में भेजा है। बदरुद्दीन अजमल असम में अपना रुतबा रखते हैं। इधर ओवैसी भी भारत के मुस्लिमों के मसीहा बनने की जुगत में हैं। बिहार के चुनाव उनके लिए एक चुनौती है। अब देखना यह है कि वे इस चुनौती को किस हद तक स्वीकार कर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं।
डॉ. महेश परिमल
बिहार चुनाव के पहले लालू-नीतिश ने गठबंधन कर स्वयं को एक बताया था। बड़े गर्व से वे कह रहे थे कि ये महागठबंधन है, हम भाजपा की आंधी को रोक कर रहेंगे। इसी बीच इस महागठबंधन से मुलायम यादव अलग हो गए। उन्हें मनाने की काफी कोशिशें हुई, पर उन्हें असफलता ही मिली। अभी वे इस गम से उबर ही नहीं पाए थे कि अचानक बिहार चुनाव में ओवैसी ने अपना दांव खेला। इससे लालू-नीतिश चारों खाने चित्त हो गए। रही-सही साख पर बट्टा लग गया। जिस मुस्लिम मतों को लेकर वे इतना अधिक गरिया रहे थे, उसे मुलायम-ओवैसी ने इतना बड़ा झटका दिया कि दोनों कहीं के नहीं रहे। भाजपा के लिए ओवैसी एक तुरुप का पत्ता साबित हुए। 1970 के दशक में एक फिल्म आई थी, दुश्मन, जिसका एक गीत था ‘दुश्मन-दुश्मन, जो दोस्तों से प्यारा है’, आज यही गीत भाजपा के लिए सही साबित हो रहा है। ओवैसी को किसी भी तरह से अनदेखा नहीं किया जा सकता। उनकी शख्सियत ही ऐसी है कि चाहकर भी कोई पार्टी उन्हें कम नहीं आंक सकती। इस समय बिहार चुनाव को लेकर भाजपा खेमे में खुशी का माहौल है। नीतिश-लालू के गठबंधन का ब्लड प्रेशर बढ़ गया है। ओवैसी अपनी वक्तृत्व कला से नीतिश-लालू के वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं। ओवैसी केवल मुस्लिम मतों को अपनी तरफ कर सकते हैं, इसके अलावा उनकी आक्रामकता से भयभीत होने वाले हिंदू भी भाजपा का रुख कर सकते हैं। इससे नीतिश-लालू अलग-थलग पड़ जाएंगे, इसमें कोई दो मत नहीं।
भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, उसके पहले भारत के मुस्लिम जिन्ना की मुस्लिम लीग को अपना तारणहार मानती थी। पाकिस्तान बन जाने के बाद मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान चले गए। इसके बाद भारत में मुस्लिमों के मसीहा के भूमिका कांग्रेस ने निभाई थी। किसी सक्षम मुस्लिम नेता की अनुपस्थिति में भारत के मुस्लिम कांग्रेस के बाद समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल आदि तथाकथित सेकुलर पार्टियों को अपना समर्थन देते थे। मुलायम सिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, लालू प्रसाद यादव आदि हिंदू नेता मुस्लिम मतों पर अपना प्रभाव रखते थे। तथाकथित सेकुलर नेताओं ने काफी कोशिशें की कि भाजपा के विजय रथ को रोका जाए। पर ऐसा नहीं हो पाया। इन्हें एक ऐसे मुस्लिम नेता की आवश्यकता थी, जो अपने प्रभाव से मुस्लिम मतों पर अपनी ओर खींच सके। अपने भाषण से आग उगलते नेता ओवैसी पर सबकी नजर थी। आधुनिक भारत के 18 करोड़ मुसलमानों के नेता बनने की खूबियां ओवैसी में है। उनका जन्म हैदराबाद के मुस्लिम परिवार में हुआ। हैदराबाद में 35 से 40 प्रतिशत की आबादी मुस्लिमों की है। ओवैसी की शिक्षा हैदराबाद की पब्लिक स्कूल में हुई। इसी स्कूल में माइक्रोसाफ्ट के सीईओ सत्या नाडेला भी पढ़ चुके हैं। गांधीजी की तरह ओवैसी ने भी लंदन जाकर बैरिस्टर की परीक्षा पास की। 46 वर्षीय उर्दू और अंग्रेेजी धाराप्रवाह बोलते हैं। मुस्लिमों को उत्तेजित करने के लिए उनकी जुबान तलवार की तरह काम करती है। यह सभी जानते हैं। उनकी भाषा ही उनकी ताकत है, इससे भी कोई इंकार नहीं कर सकता।
असउद्दीन ओवैसी अपनी आक्रामक भाषा को माध्यम बनाकर एक राजनैतिक ताकत के रूप में उभरे हैं। मुस्लिमों को राजनैतिक रूप से संगठित कर उन्होंने मजलिस-ए-इत्तेहेदुल मुसलमिन (एकआईएम) नाम से अपनी पार्टी बनाई है। उनका गणित बहुत ही साफ है। उनके अनुसार भारत की कुल आबादी में 14 प्रतिशत मुस्लिम हैं, तो उन्हें संसद और अन्य राज्यों में भी 14 प्रतिशत सीट मिलनी चाहिए। ओवैसी मुस्लिम वोटों के जोर पर हैदराबाद में लाेकसभा चुनाव जीता। उनकी पार्टी ने तेेलंगाना विधानसभा में भी जीत हासिल की। अब वे मुस्लिमों के राष्ट्रीय नेता बनना चाहते हैं। देश की राजनैतिक पार्टियां पहले तो ओवैसी को हैदराबाद के मुस्लिम नेता के रूप में ही देखते थे। पर साल की शुरुआत में महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने 24 प्रत्याशी खड़े किए थे। इनमें से दो ने जीेत हासिल की। मुम्बई जैसे महानगर में ओवैसी की पार्टी को भी एक सीट मिली थी। महाराष्ट्र की दो सीटों पर आेवैसी के दो प्रत्याशी दूसरे नम्बर पर थे। उनकी पार्टी को कुल दस लाख मत प्राप्त हुए थे। बिहार के चुनाव में भाजपा गठबंधन और नीतिश-लालू के गठबंधन के बीच गलाकाट प्रतिस्पर्धा है। संयोगों से एक दर्जन सीट पर कुछ खेल हो जाए, तो जीत की बाजी हार में बदल सकती है। असउद्दीन ओवैसी की पार्टी ने बिहार की सीमा पर 4 जिलों में 24 प्रत्याशी खड़े करने का निर्णय लिया है। नेपाल की सीमा से लगे किसनगंज, अरारिया, कटिहार और पूर्णिया आदि जिलों में मुस्लिमों की संख्या काफी है। ओवैसी ने अपनी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान को खड़ा किया है। उनकी छवि दमदार नेताओं की है। इसके पहले वे लालू की पार्टी के विधायक थे। लोकसभा चुनाव के पहले वे नीतिश से जुड़ गए। नीतिश ने उन्हें किसनगंज से टिकट भी दी थी। अंतिम क्षणों में वे कांग्रेस के प्रत्याशी मौलाना हक के समर्थन में बैठ गए। इसका पूरा लाभ भाजपा को मिला। वहां से भाजपा जीत गई।
भारत के मुस्लिमों को लगता है कि तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों के हिंदू नेता मुस्लिम हितों की रक्षा करने में नाकामयाब साबित हुए है, इसलिए वे आक्रामक मुस्लिम नेताओं की खोज मे हैं। असम में बंगाली मुसलमान खुद का इतना अधिक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं कि उन्होंने अपने मौलाना बदरुद्दीन अजमल को जीताकर संसद में भेजा है। बदरुद्दीन अजमल असम में अपना रुतबा रखते हैं। इधर ओवैसी भी भारत के मुस्लिमों के मसीहा बनने की जुगत में हैं। बिहार के चुनाव उनके लिए एक चुनौती है। अब देखना यह है कि वे इस चुनौती को किस हद तक स्वीकार कर अपना वर्चस्व स्थापित करते हैं।
डॉ. महेश परिमल
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