डॉ. महेश परिमल
इस सच से कोई इंकार कर ही नहीं सकता कि सरकार के सभी निर्णय प्रजा के हित में ही होते हैं। यह भी सच है कि अदालत के सभी निर्णय अमल में लाने लायक होते हैं। हमारे देश में बाल विवाह पर रोक लगी है, इसके बाद भी देश भर में बाल विवाह हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने द्विचक्रीय वाहनों के चालकों को हेलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया है, उसके बाद भी लाखों लोग बिना हेलमेट के वाहन चला रहे हैं। इससे यातायात पुलिस की कमाई बढ़ गई है। राइट टू एजेकेशन के मामले में भी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि अब उसके पास यह क्षमता नहीं है कि वह गरीब वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके। सरकार की इसी कमजोरी का लाभ निजी शिक्षण संस्थाएं उठा रही हैं। आज ये संस्थाएं पालकों को लूटने का साधन बन गई हैं। शिक्षा का व्यवसायीकरण भी इसी कारण हो गया है। समाज में भी आज पालक अपने बच्चों के लिए मोटी रािश की फीस देकर गौरवान्वित होते हैं। समाज की यही प्रवृत्ति आज गरीब-अमीर के बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। जब तक समाज की यह प्रवृत्ति नही बदल जाती, तब तक आरटीआई जैसे कई कानून आ जाएं, शिक्षा की स्थिति बदलने वाली नहीं है। इस स्थिति में शिक्षा का उद्धार तो संभव ही नहीं है।
केंद्र सरकार ने 2009 में राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने इसका अनुमोदन कर दिया। इस कारण देश के सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल जाएगी और उनके लिए निजी शालाओं के दरवाजे खुल जाएंगे। यह मानना गलत होगा। आरटीआई के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। एक बाधा तो स्वयं सरकार है। एक अंदाज के अनुसार देश के सभी गरीब बच्चों को निजी शालाओं में मु त शिक्षा देनी हो, तो सरकार को उसके पीछे हर वर्ष 2.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। अभी सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर वर्ष 21 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया है। इसका उपयोग राज्य सरकारों की निष्क्रियता के कारण नहीं हो पा रहा है। हमारी सरकार बरसों तक इस सपने के साथ जीवित है कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की जवाबदारी सरकार की है। इस समझ के आधार पर सरकार द्वारा गांव और शहरों में लाखों की सं या में प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं बनवाई और उसके संचालन के लिए अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इसके अलावा सरकार हजारों निजी शिक्षण संस्थाओं को ग्रांट देकर उसे जिंदा रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। एक तरफ सरकारी स्कूलों एवं सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की हालत और गुणतत्ता लगातार बिगड़ रही है, तो दूसरी तरफ ऐसी निजी शिक्षण संस्थाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो सरकार से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेती। सरकारी स्कूलों से गरीब और मध्यम वर्ग का विश्वास इस कदर उठ गया कि भले ही कर्ज लेना पड़े, पर बच्चों को निजी संस्थाओं से ही शिक्षा दिलवानी है। इस कारण ऐसी शालाओं को और भी बल मिला, वह मनमाने डोनेशन और फीस लेकर बच्चों को शिक्षा देने लगी। इससे शिक्षा का एक समानांतर अर्थतंत्र खड़ा हो गया। सरकारी संस्थाओं के शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के मामले में सरकारी तंत्र पूरी तरह से विफल साबित हुआ। उनका आत्मविश्वास इतना गिर गया कि वे गरीब बच्चे भी निजी शालाओं में पढ़ सकें, इसके लिए सरकार को राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाना पड़ा।
सभी निजी शालाओं में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्रवेश देने का आदेश सुप्रीमकोर्ट ने दिया, सरकार ने इसे अमल में लाने का बीड़ा उठाया। इससे सरकार की ही फजीहत हुई। यदि सरकारी शालाओं में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता बेहतर होती, तो क्या गरीब और मध्यम वर्ग के पालकों को मोटी राशि की फीस देकर निजी शालाओं में पढ़ाने की आवश्यकता होती? सुप्रीमकोर्ट के आदेश में निजी शालाओं के संचालकों को चिंतित कर दिया है। इसमें भी कुछ शाला संचालक ऐसे हैं जो इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में केवल उच्च पदस्थ अधिकारियों एवं ऐश्वर्यशाली लोगों की संतानें ही शिक्षा प्राप्त करती हैं। इसके लिए वे उन पालकों से मोटी रकम भी वसूलते हैं। आज भी यदि कोई निजी शाला शुरू करता है, तो उसका उद्देश्य केवल धन कमाना ही होता है। ऐसे में संचालक यदि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को अपनी शाला में प्रवेश देते हैं, तो एक पॉश स्कूल के रूप में बनाई गई छवि दागदार हो जाएगी। इससे उनका मुनाफा कम हो जाएगा। ऐसे में इन बच्चों की शिक्षा का भार उन धनाढ्य बच्चों के पालकों पर आ जाएगा, जिनके बच्चे उन शालाओं में शिक्षा प्राप्त करते हैं। पालकों की चिंता वाजिब है, क्योंकि शाला का मुनाफा घटेगा, तो उसकी भरपाई शाला के अन्य बच्चों से ही तो होगी। आज पॉश शालाओं के संचालकों ने अपनी स्कूल की छबि एक हाईप्रोफाइल स्कूल के रूप में तैयार की है, तो यह उनके धंधे के लिए अच्छी नीति हो सकती है, पर इससे उनकी शाला में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता सुधर जाएगी, यह आवश्यक नहीं है। न तो सरकार यह समझने को तैयार है और न ही शाला संचालक कि शिक्षा कभी बेची नही जाती। आज पॉश स्कूलों के संचालक इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में श्रेष्ठीजन की संतानों को ही शाला में प्रवेश दिया जाता है। शाला संचालक के इस अहंकार में पालकों का ाी अहंकार शामिल है, इसी कारण वे शाला को मनचाही फीस और डोनेशन देने में नहीं हिचकते। इस कारण वे कभी नहीं चाहेंगे कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को भी उसी शाला में प्रवेश मिले, जहां उनकी संतानें शिक्षा प्राप्त करती हैं। इससे उनके अहम को चोट भी लग सकती है। पर वे यह भूल जाते हैं कि उसी शाला में भ्रष्ट व्यापारी, अधिकारी, नेता, मंत्री और तस्कर, माफियाओं के बच्चे भी शिक्षा प्राप्त कर रहे होते हैं। इनके कुसंस्कार से उनके बच्चे भी तो प्रभावित हो सकते हैं। इसीलिए यह मानना आवश्यक नहीं है कि जिन शालाओं की फीस मोटी होती है, उन्हीं शालाओं के विद्यार्थियों का स्तर ऊंचा होता है।
निजी शाला संचालकों को यह भय है कि 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को अनिवार्य शिक्षा के तहत प्रवेश दिए जाने पर उनकी फीस का भुगतान उन्हें ही करना होगा। सच्चाई यह है कि आरटीआई के तहत इन बच्चों की फीस सरकार को ही चुकाना है। अब यह बात अलग है कि सरकार के पास अपनी ही शालाओं को देने वाले ग्रांट के लिए धन नहीं है, तब वह निजी शाला संचालकों को किस तरह से गरीब बच्चों की फीस चुका पाएगी। एक अंदाज के मुताबिक यदि देश भर में आरटीआई एक्ट को अमल में लाया जाए, तो सरकार को उसके पीछे 2.3 लाख करोड़ करने होंगे। केंद्र और राज्य सरकार मिलकर अब तक 21 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है। बाकी की राशि कैसे और कहां से आएगी,इसका खुलासा सरकार नहीं कर रही है। आरटीआई के तहत स्कूल में विद्यार्थी और शिक्षकों का गुणोत्तर 30:1 होना चाहिए, आज 60 प्रतिशत शालाएं ऐसी हैं, जो इसे नहीं मानतीं। इस अमल में लाया जाए, तो उन्हें और शिक्षकों की भर्ती करनी होगी यानी और अधिक खर्च करना होगा। आज देश में आधुनिक शिक्षा प्राप्त शिक्षकों की कमी को देखते हुए शाला संचालक ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। राइट टू एजुकेशन एक्ट आदर्श रूप में एक नायाब कानून है, पर सभी आदर्श व्यवहार में लाएं जाएं, यह आवश्यक नहीं है। आरटीआई की भावना ऐसी है कि गरीब और अमीर बच्चे एक साथ स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें और अपने घर के करीब की ही शाला में जाएं। यह सच्चाई तभी संभव है, जब सभी शालाओं में उत्तम शिक्षकों की व्यवस्था हो। श्रेष्ठ सुविधाओं से युक्त हो। सभी स्कूलों में गुणवत्तायुक्त शिक्षा दी जाती हो। यह आदर्श स्थिति निकट भविष्य में हमारे देश में देखने को मिलेगी, ऐसा नहीं लगता। जब तक यह स्थिति साकार नहीं होती, तब तक धनाढ्य वर्ग के बच्चों के पालक मोटी रकम देकर अपने बच्चों को निजी शालाओं में भेजते रहेंगे। कोई भी कानून नागरिकों और समाज के सहयोग के बिना सफल हो ही नहीं सकता। देखना यह है कि सरकार का यह आरटीआई किस हद तक गरीब और मध्यम वर्ग को राहत दे सकता है।
इस सच से कोई इंकार कर ही नहीं सकता कि सरकार के सभी निर्णय प्रजा के हित में ही होते हैं। यह भी सच है कि अदालत के सभी निर्णय अमल में लाने लायक होते हैं। हमारे देश में बाल विवाह पर रोक लगी है, इसके बाद भी देश भर में बाल विवाह हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने द्विचक्रीय वाहनों के चालकों को हेलमेट पहनना अनिवार्य कर दिया है, उसके बाद भी लाखों लोग बिना हेलमेट के वाहन चला रहे हैं। इससे यातायात पुलिस की कमाई बढ़ गई है। राइट टू एजेकेशन के मामले में भी सरकार ने यह साबित कर दिया है कि अब उसके पास यह क्षमता नहीं है कि वह गरीब वर्ग के बच्चों को अच्छी शिक्षा दे सके। सरकार की इसी कमजोरी का लाभ निजी शिक्षण संस्थाएं उठा रही हैं। आज ये संस्थाएं पालकों को लूटने का साधन बन गई हैं। शिक्षा का व्यवसायीकरण भी इसी कारण हो गया है। समाज में भी आज पालक अपने बच्चों के लिए मोटी रािश की फीस देकर गौरवान्वित होते हैं। समाज की यही प्रवृत्ति आज गरीब-अमीर के बीच की खाई को चौड़ा कर रही है। जब तक समाज की यह प्रवृत्ति नही बदल जाती, तब तक आरटीआई जैसे कई कानून आ जाएं, शिक्षा की स्थिति बदलने वाली नहीं है। इस स्थिति में शिक्षा का उद्धार तो संभव ही नहीं है।
केंद्र सरकार ने 2009 में राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाया और सुप्रीम कोर्ट ने इसका अनुमोदन कर दिया। इस कारण देश के सभी बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल जाएगी और उनके लिए निजी शालाओं के दरवाजे खुल जाएंगे। यह मानना गलत होगा। आरटीआई के मार्ग में अनेक बाधाएं हैं। एक बाधा तो स्वयं सरकार है। एक अंदाज के अनुसार देश के सभी गरीब बच्चों को निजी शालाओं में मु त शिक्षा देनी हो, तो सरकार को उसके पीछे हर वर्ष 2.3 लाख करोड़ रुपए खर्च करने होंगे। अभी सरकार सर्व शिक्षा अभियान के तहत हर वर्ष 21 हजार करोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया है। इसका उपयोग राज्य सरकारों की निष्क्रियता के कारण नहीं हो पा रहा है। हमारी सरकार बरसों तक इस सपने के साथ जीवित है कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की जवाबदारी सरकार की है। इस समझ के आधार पर सरकार द्वारा गांव और शहरों में लाखों की सं या में प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं बनवाई और उसके संचालन के लिए अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं। इसके अलावा सरकार हजारों निजी शिक्षण संस्थाओं को ग्रांट देकर उसे जिंदा रखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। एक तरफ सरकारी स्कूलों एवं सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं की हालत और गुणतत्ता लगातार बिगड़ रही है, तो दूसरी तरफ ऐसी निजी शिक्षण संस्थाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है, जो सरकार से किसी प्रकार की सहायता नहीं लेती। सरकारी स्कूलों से गरीब और मध्यम वर्ग का विश्वास इस कदर उठ गया कि भले ही कर्ज लेना पड़े, पर बच्चों को निजी संस्थाओं से ही शिक्षा दिलवानी है। इस कारण ऐसी शालाओं को और भी बल मिला, वह मनमाने डोनेशन और फीस लेकर बच्चों को शिक्षा देने लगी। इससे शिक्षा का एक समानांतर अर्थतंत्र खड़ा हो गया। सरकारी संस्थाओं के शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के मामले में सरकारी तंत्र पूरी तरह से विफल साबित हुआ। उनका आत्मविश्वास इतना गिर गया कि वे गरीब बच्चे भी निजी शालाओं में पढ़ सकें, इसके लिए सरकार को राइट टू एजुकेशन एक्ट बनाना पड़ा।
सभी निजी शालाओं में 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को प्रवेश देने का आदेश सुप्रीमकोर्ट ने दिया, सरकार ने इसे अमल में लाने का बीड़ा उठाया। इससे सरकार की ही फजीहत हुई। यदि सरकारी शालाओं में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता बेहतर होती, तो क्या गरीब और मध्यम वर्ग के पालकों को मोटी राशि की फीस देकर निजी शालाओं में पढ़ाने की आवश्यकता होती? सुप्रीमकोर्ट के आदेश में निजी शालाओं के संचालकों को चिंतित कर दिया है। इसमें भी कुछ शाला संचालक ऐसे हैं जो इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में केवल उच्च पदस्थ अधिकारियों एवं ऐश्वर्यशाली लोगों की संतानें ही शिक्षा प्राप्त करती हैं। इसके लिए वे उन पालकों से मोटी रकम भी वसूलते हैं। आज भी यदि कोई निजी शाला शुरू करता है, तो उसका उद्देश्य केवल धन कमाना ही होता है। ऐसे में संचालक यदि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को अपनी शाला में प्रवेश देते हैं, तो एक पॉश स्कूल के रूप में बनाई गई छवि दागदार हो जाएगी। इससे उनका मुनाफा कम हो जाएगा। ऐसे में इन बच्चों की शिक्षा का भार उन धनाढ्य बच्चों के पालकों पर आ जाएगा, जिनके बच्चे उन शालाओं में शिक्षा प्राप्त करते हैं। पालकों की चिंता वाजिब है, क्योंकि शाला का मुनाफा घटेगा, तो उसकी भरपाई शाला के अन्य बच्चों से ही तो होगी। आज पॉश शालाओं के संचालकों ने अपनी स्कूल की छबि एक हाईप्रोफाइल स्कूल के रूप में तैयार की है, तो यह उनके धंधे के लिए अच्छी नीति हो सकती है, पर इससे उनकी शाला में शिक्षा का स्तर और गुणवत्ता सुधर जाएगी, यह आवश्यक नहीं है। न तो सरकार यह समझने को तैयार है और न ही शाला संचालक कि शिक्षा कभी बेची नही जाती। आज पॉश स्कूलों के संचालक इस बात पर गर्व करते हैं कि उनकी शाला में श्रेष्ठीजन की संतानों को ही शाला में प्रवेश दिया जाता है। शाला संचालक के इस अहंकार में पालकों का ाी अहंकार शामिल है, इसी कारण वे शाला को मनचाही फीस और डोनेशन देने में नहीं हिचकते। इस कारण वे कभी नहीं चाहेंगे कि गरीब और मध्यम वर्ग के बच्चों को भी उसी शाला में प्रवेश मिले, जहां उनकी संतानें शिक्षा प्राप्त करती हैं। इससे उनके अहम को चोट भी लग सकती है। पर वे यह भूल जाते हैं कि उसी शाला में भ्रष्ट व्यापारी, अधिकारी, नेता, मंत्री और तस्कर, माफियाओं के बच्चे भी शिक्षा प्राप्त कर रहे होते हैं। इनके कुसंस्कार से उनके बच्चे भी तो प्रभावित हो सकते हैं। इसीलिए यह मानना आवश्यक नहीं है कि जिन शालाओं की फीस मोटी होती है, उन्हीं शालाओं के विद्यार्थियों का स्तर ऊंचा होता है।
निजी शाला संचालकों को यह भय है कि 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को अनिवार्य शिक्षा के तहत प्रवेश दिए जाने पर उनकी फीस का भुगतान उन्हें ही करना होगा। सच्चाई यह है कि आरटीआई के तहत इन बच्चों की फीस सरकार को ही चुकाना है। अब यह बात अलग है कि सरकार के पास अपनी ही शालाओं को देने वाले ग्रांट के लिए धन नहीं है, तब वह निजी शाला संचालकों को किस तरह से गरीब बच्चों की फीस चुका पाएगी। एक अंदाज के मुताबिक यदि देश भर में आरटीआई एक्ट को अमल में लाया जाए, तो सरकार को उसके पीछे 2.3 लाख करोड़ करने होंगे। केंद्र और राज्य सरकार मिलकर अब तक 21 हजार करोड़ रुपए खर्च कर रही है। बाकी की राशि कैसे और कहां से आएगी,इसका खुलासा सरकार नहीं कर रही है। आरटीआई के तहत स्कूल में विद्यार्थी और शिक्षकों का गुणोत्तर 30:1 होना चाहिए, आज 60 प्रतिशत शालाएं ऐसी हैं, जो इसे नहीं मानतीं। इस अमल में लाया जाए, तो उन्हें और शिक्षकों की भर्ती करनी होगी यानी और अधिक खर्च करना होगा। आज देश में आधुनिक शिक्षा प्राप्त शिक्षकों की कमी को देखते हुए शाला संचालक ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। राइट टू एजुकेशन एक्ट आदर्श रूप में एक नायाब कानून है, पर सभी आदर्श व्यवहार में लाएं जाएं, यह आवश्यक नहीं है। आरटीआई की भावना ऐसी है कि गरीब और अमीर बच्चे एक साथ स्कूल में शिक्षा प्राप्त करें और अपने घर के करीब की ही शाला में जाएं। यह सच्चाई तभी संभव है, जब सभी शालाओं में उत्तम शिक्षकों की व्यवस्था हो। श्रेष्ठ सुविधाओं से युक्त हो। सभी स्कूलों में गुणवत्तायुक्त शिक्षा दी जाती हो। यह आदर्श स्थिति निकट भविष्य में हमारे देश में देखने को मिलेगी, ऐसा नहीं लगता। जब तक यह स्थिति साकार नहीं होती, तब तक धनाढ्य वर्ग के बच्चों के पालक मोटी रकम देकर अपने बच्चों को निजी शालाओं में भेजते रहेंगे। कोई भी कानून नागरिकों और समाज के सहयोग के बिना सफल हो ही नहीं सकता। देखना यह है कि सरकार का यह आरटीआई किस हद तक गरीब और मध्यम वर्ग को राहत दे सकता है।
डॉ. महेश परिमल
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