डॉ.महेश परिमल
एक तरफ असम अपनी ही आग में जल रहा है। उस पर केंद्र शासन की नाकामी बार-बार सामने आ रही है। 11 अगस्त को मुम्बई में जो कुछ हुआ, उससे यही लगता है कि इस मामले में राज्य सरकारें भी सहयोग नहीं कर रही है। इस बार अराजक तत्वों के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने पुलिस से राइफल छीनकर उन पर प्रहार किया और गोलियाँ चलाई। दूसरी ओर नेटवर्क का सहारा लेकर ऐसी अफवाह उड़ा दी गई कि पूर्वोत्तर के लोगोंे की जान को खतरा है। इसका सबसे बड़ा असर आईटी हब बेंगलोर में देखा गया, जहाँ से पूर्वोत्तर के लोगों का बड़ी संख्या में पलायन शुरू हो गया। अन्य राज्यों से भी कई लोग अपने वतन की तरफ लौटते देखे गए। सरकार भले ही कहती रहे कि पूर्वाेत्तर के लोग पूरी तरह से सुरक्षित हैं, पर स्पेशल ट्रेनें चलाकर उसने भी अपनी लाचारगी का ही प्रदर्शन किया है। सरकार भले ही यह दावा करती रहे कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। लेकिन उसने अराजक तत्वों को पकड़ने की दिशा में कोई ऐसी कार्रवाई नहीं की, जिससे लोगोंे को बल मिलता। अफवाहें निगेटिव ही होती हैं, तो इसका सामना पॉजीटिवली करना था। देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से चिंता व्यक्त की थी। इस दिशा में ठोस कदम उठाने का वादा भी किया था। उस वादे की धज्जियां दूसरे दिन ही उड़ र्गई। एक तरफ असम पहले से ही प्राकृतिक आपदा से आक्रांत है, दूसरी ओर केंद्र सरकार की लापरवाही के कारण वहाँ गृह युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। वह राज्य अब कैसे गर्व कर सकता है कि उसने देश को प्रधानमंत्री दिया है। पिछले 8 वर्षो से जो कुछ नहीं होना चाहिए, वह हो रहा है। वास्तविक आजादी तो हमें तभी मिलेगी, जब हम इस सुस्त सरकार, निर्णय न लेने वाली सरकार को पूरी तरह से नकार दें। प्राकृतिक आपदा से असम एक बार भले ही संभल जाए, पर इस मानव सर्जित आपदा से वह कैसे निबटेगा? सरकार की सख्ती ही उसे उबार सकती है?
आज यक्ष प्रश्न यह है कि वे कौन सी परिस्थितियां थीं, जिसने बेंगलोर से 6 हजार और हैदराबाद से 3 हजार लोग पलायन कर पूर्वोत्तर की ओर रवाना हो गए हैं। जब यह अफरा-तफरी चल रही थी, तब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार से बात कर इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने का वादा किया था। इसके बाद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे और असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी उनसे बात की थी। शेट्टार ने एक उच्च स्तरीय बैठक कर पूरे मामले की समीक्षा भी की थी। पर इससे क्या होता है। पुणो में जिस तरह से हुआ, उससे प्रशासन तो चौकन्ना नहीं हो पाया। पुणो के मामले में भी इंटरनेट का भरपूर उपयोग किया गया था। सरकार की वही नाकामी पूर्वोत्तर के लोगों में भय पैदा कर रही है। सरकार को जब जागना होता है, तब वह सोते रहती है। जब जागती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। ऐसा बार-बार हो रहा है। पुणो, बेंगलोर और हैदराबाद ये तीनों ही आईटी के क्षेत्र में जाने-पहचाने नाम हैं। इन शहरों में ही पूर्वोत्तर के लोग प्रभावित हुए हैं। इन्हीं शहरों के लिए ही इंटरनेट के फेसबुक में आपत्तिजनक सामग्री डालकर लोगों को भरमाया गया। सरकार को यह समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन किसलिए कर रहा है? सरकार ने आईटी के क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियां बनाई हैं, पर यह नहीं सोचा कि यदि किसी छात्र के साथ धोखाधड़ी हो जाए, तो वह किस तरह से इंटरनेट का ही दुरुपयोग करके लोगों को भरमा सकता है। इंटरनेट पर आपत्तिजनक सामग्री डालकर लोगों को उत्तेजित करना निश्चित रूप से उन तत्वों का काम है, जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। सरकार ऐसे लोगों की पहचान कर कड़ी सजा दे, तभी लोगों में सरकार के प्रति विश्वास की भावना बलवती होगी।
सबक ले ही लेना चाहिए
इन मामलों से सरकार को यह सबक ले ही लेना चाहिए कि अफवाह उड़ते ही उसक माकूल जवाब देकर लोगों में विश्वास का वातावरण तैयार करे। यदि मुम्बई के गुनाहगारों को पकड़कर उन्हें सजा दी जाती, तो लोग राहत महसूस करते। ऐसे मामलों में न्यायतंत्र पर ऊँगली उठाई जा सकती है। कैसी विडम्बना है कि पहले असम में हिंसा का लम्बा दौर चलता है,उसके बाद मुम्बई में प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़क उठती है और अंत में अफवाहों के कारण लोग अपनी जान बचाने के लिए पलायन करने लगते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इस बार अफवाहों को फैलाने में इंटरनेट पर झूठी जानकारी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे स्पष्ट है कि अब इंटरनेट पर सरकार का नियंत्रण आवश्यक हो गया है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर यदि साइबर सेल को मजबूत बनाएं, तो यह देश की सुरक्षा के लिए वरदान सिद्ध होगा। देश में अशांति फैलाने वालों के मंसूबे भांपकर यदि पहले ही ठोस कार्रवाई की जाए, तो यह मुस्तैद सरकार की पहचान बन जाएगी। यदि ऐसा नहीं हो पाता, तो कमजोर होते सामाजिक ताने-बाने को बिखरने में वक्त नहीं लगेगा।
ऐसा बार-बार देखा गया है कि घटना होते ही सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ जाती है। पहले वह घटना के पूरे होने का इंतजार करती है, फिर उसका विश्लेषण करती है, फिर समीक्षा की जाती है, उसके बाद कार्रवाई की बात की जाती है। तब तक काफी देर हो जाती है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही आखिर पूर्वोत्तर के लोगों के लिए विशेष रेलगाड़ियों की व्यवस्था की गई। सरकार ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे पूर्वोत्तर के लोगों को यह यकीन हो जाए कि हमारे साथ किसी प्रकार का कोई बुरा नहीं होगा। सरकार उनकी सुरक्षा की गारंटी देने की भी स्थिति में नहीं है। फिर कैसे जागे उनमें विश्वास? दूसरी ओर जब प्रधानमंत्री पूर्वोत्तर के लोगों से जब यह अपील कर रहे थे कि घबराने की आवश्यकता नहीं, उनके जान-माल की रक्षा की जाएगी। उनके इस बयान में कहीं भी वह दृढ़ता दिखाई नहीं दी, जो ऐसे वक्त पर दिखाई जानी चाहिए। वोट की राजनीति और सहयोगी दलों की नाराजगी को सामने रखकर नीतियाँ बनाने वाली सरकार से आखिर क्या अपेक्षा की जा सकती है? भ्रष्टाचार के बाद अब देश के माथे पर हिंसा का कलंक लग गया है। सरकार की लाख कोशिश इस धब्बे को छुड़ा नहीं सकती। लोगों को नई आजादी चाहिए, लोग सरकार की धीमी गति से आजादी चाहते हैं। इस सरकार से कोई उम्मीद करना बेमानी है।
यह एक राष्ट्रीय शर्म है
होना तो यह चाहिए कि सभी दल मिलकर इस दिशा में ठोस प्रयास के लिए आगे आएं। इसे एक राष्ट्रीय शर्म मानकर केवल आरोप-प्रत्यारोप में न उलझें। विपक्ष केवल आरोप लगाकर खामोश न बैठे। उसका काम आरोप लगाकर बैठ जाना ही नहीं है। बल्कि सरकार के साथ तालमेल बिठाकर समस्या के समाधान की दिशा में प्रयास करना होता है। जिस विश्वास के साथ पूर्वोत्तर के लोग देश के अन्य राज्यों में जाकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है, अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ किया है,उस विश्वास को बनाए रखना सरकार का ही काम है। पूर्वोत्तर के लोगों पर की जाने वाली फब्तियों को लेकर अदालत ने एक सख्त निर्णय लिया है। पर इससे नस्लीय हिंसा पर तो काबू नहीं पाया जा सकता। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। धीमी गति से लिए गए निर्णय पर कभी भी तेजी से अमल नहीं होता। नई आजादी की पहली सुबह यही कह रही है कि पल्लू पकड़ राजनीति के दिन लद गए, अब समय है त्वरित गति से ठोस निर्णय लेने का। कच्छप गति से दौड़ तो जीती जा सकती है, पर दिलों को नहीं जीता जा सकता।
डॉ. महेश परिमल
एक तरफ असम अपनी ही आग में जल रहा है। उस पर केंद्र शासन की नाकामी बार-बार सामने आ रही है। 11 अगस्त को मुम्बई में जो कुछ हुआ, उससे यही लगता है कि इस मामले में राज्य सरकारें भी सहयोग नहीं कर रही है। इस बार अराजक तत्वों के हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने पुलिस से राइफल छीनकर उन पर प्रहार किया और गोलियाँ चलाई। दूसरी ओर नेटवर्क का सहारा लेकर ऐसी अफवाह उड़ा दी गई कि पूर्वोत्तर के लोगोंे की जान को खतरा है। इसका सबसे बड़ा असर आईटी हब बेंगलोर में देखा गया, जहाँ से पूर्वोत्तर के लोगों का बड़ी संख्या में पलायन शुरू हो गया। अन्य राज्यों से भी कई लोग अपने वतन की तरफ लौटते देखे गए। सरकार भले ही कहती रहे कि पूर्वाेत्तर के लोग पूरी तरह से सुरक्षित हैं, पर स्पेशल ट्रेनें चलाकर उसने भी अपनी लाचारगी का ही प्रदर्शन किया है। सरकार भले ही यह दावा करती रहे कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। लेकिन उसने अराजक तत्वों को पकड़ने की दिशा में कोई ऐसी कार्रवाई नहीं की, जिससे लोगोंे को बल मिलता। अफवाहें निगेटिव ही होती हैं, तो इसका सामना पॉजीटिवली करना था। देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने लाल किले की प्राचीर से चिंता व्यक्त की थी। इस दिशा में ठोस कदम उठाने का वादा भी किया था। उस वादे की धज्जियां दूसरे दिन ही उड़ र्गई। एक तरफ असम पहले से ही प्राकृतिक आपदा से आक्रांत है, दूसरी ओर केंद्र सरकार की लापरवाही के कारण वहाँ गृह युद्ध जैसे हालात पैदा हो गए हैं। वह राज्य अब कैसे गर्व कर सकता है कि उसने देश को प्रधानमंत्री दिया है। पिछले 8 वर्षो से जो कुछ नहीं होना चाहिए, वह हो रहा है। वास्तविक आजादी तो हमें तभी मिलेगी, जब हम इस सुस्त सरकार, निर्णय न लेने वाली सरकार को पूरी तरह से नकार दें। प्राकृतिक आपदा से असम एक बार भले ही संभल जाए, पर इस मानव सर्जित आपदा से वह कैसे निबटेगा? सरकार की सख्ती ही उसे उबार सकती है?
आज यक्ष प्रश्न यह है कि वे कौन सी परिस्थितियां थीं, जिसने बेंगलोर से 6 हजार और हैदराबाद से 3 हजार लोग पलायन कर पूर्वोत्तर की ओर रवाना हो गए हैं। जब यह अफरा-तफरी चल रही थी, तब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री जगदीश शेट्टार से बात कर इस दिशा में आवश्यक कदम उठाने का वादा किया था। इसके बाद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे और असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी उनसे बात की थी। शेट्टार ने एक उच्च स्तरीय बैठक कर पूरे मामले की समीक्षा भी की थी। पर इससे क्या होता है। पुणो में जिस तरह से हुआ, उससे प्रशासन तो चौकन्ना नहीं हो पाया। पुणो के मामले में भी इंटरनेट का भरपूर उपयोग किया गया था। सरकार की वही नाकामी पूर्वोत्तर के लोगों में भय पैदा कर रही है। सरकार को जब जागना होता है, तब वह सोते रहती है। जब जागती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। ऐसा बार-बार हो रहा है। पुणो, बेंगलोर और हैदराबाद ये तीनों ही आईटी के क्षेत्र में जाने-पहचाने नाम हैं। इन शहरों में ही पूर्वोत्तर के लोग प्रभावित हुए हैं। इन्हीं शहरों के लिए ही इंटरनेट के फेसबुक में आपत्तिजनक सामग्री डालकर लोगों को भरमाया गया। सरकार को यह समझ में नहीं आता कि ऐसा कौन किसलिए कर रहा है? सरकार ने आईटी के क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिए कई नीतियां बनाई हैं, पर यह नहीं सोचा कि यदि किसी छात्र के साथ धोखाधड़ी हो जाए, तो वह किस तरह से इंटरनेट का ही दुरुपयोग करके लोगों को भरमा सकता है। इंटरनेट पर आपत्तिजनक सामग्री डालकर लोगों को उत्तेजित करना निश्चित रूप से उन तत्वों का काम है, जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हैं। सरकार ऐसे लोगों की पहचान कर कड़ी सजा दे, तभी लोगों में सरकार के प्रति विश्वास की भावना बलवती होगी।
सबक ले ही लेना चाहिए
इन मामलों से सरकार को यह सबक ले ही लेना चाहिए कि अफवाह उड़ते ही उसक माकूल जवाब देकर लोगों में विश्वास का वातावरण तैयार करे। यदि मुम्बई के गुनाहगारों को पकड़कर उन्हें सजा दी जाती, तो लोग राहत महसूस करते। ऐसे मामलों में न्यायतंत्र पर ऊँगली उठाई जा सकती है। कैसी विडम्बना है कि पहले असम में हिंसा का लम्बा दौर चलता है,उसके बाद मुम्बई में प्रदर्शन के दौरान हिंसा भड़क उठती है और अंत में अफवाहों के कारण लोग अपनी जान बचाने के लिए पलायन करने लगते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि इस बार अफवाहों को फैलाने में इंटरनेट पर झूठी जानकारी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इससे स्पष्ट है कि अब इंटरनेट पर सरकार का नियंत्रण आवश्यक हो गया है। केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर यदि साइबर सेल को मजबूत बनाएं, तो यह देश की सुरक्षा के लिए वरदान सिद्ध होगा। देश में अशांति फैलाने वालों के मंसूबे भांपकर यदि पहले ही ठोस कार्रवाई की जाए, तो यह मुस्तैद सरकार की पहचान बन जाएगी। यदि ऐसा नहीं हो पाता, तो कमजोर होते सामाजिक ताने-बाने को बिखरने में वक्त नहीं लगेगा।
ऐसा बार-बार देखा गया है कि घटना होते ही सरकार किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में आ जाती है। पहले वह घटना के पूरे होने का इंतजार करती है, फिर उसका विश्लेषण करती है, फिर समीक्षा की जाती है, उसके बाद कार्रवाई की बात की जाती है। तब तक काफी देर हो जाती है। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ही आखिर पूर्वोत्तर के लोगों के लिए विशेष रेलगाड़ियों की व्यवस्था की गई। सरकार ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे पूर्वोत्तर के लोगों को यह यकीन हो जाए कि हमारे साथ किसी प्रकार का कोई बुरा नहीं होगा। सरकार उनकी सुरक्षा की गारंटी देने की भी स्थिति में नहीं है। फिर कैसे जागे उनमें विश्वास? दूसरी ओर जब प्रधानमंत्री पूर्वोत्तर के लोगों से जब यह अपील कर रहे थे कि घबराने की आवश्यकता नहीं, उनके जान-माल की रक्षा की जाएगी। उनके इस बयान में कहीं भी वह दृढ़ता दिखाई नहीं दी, जो ऐसे वक्त पर दिखाई जानी चाहिए। वोट की राजनीति और सहयोगी दलों की नाराजगी को सामने रखकर नीतियाँ बनाने वाली सरकार से आखिर क्या अपेक्षा की जा सकती है? भ्रष्टाचार के बाद अब देश के माथे पर हिंसा का कलंक लग गया है। सरकार की लाख कोशिश इस धब्बे को छुड़ा नहीं सकती। लोगों को नई आजादी चाहिए, लोग सरकार की धीमी गति से आजादी चाहते हैं। इस सरकार से कोई उम्मीद करना बेमानी है।
यह एक राष्ट्रीय शर्म है
होना तो यह चाहिए कि सभी दल मिलकर इस दिशा में ठोस प्रयास के लिए आगे आएं। इसे एक राष्ट्रीय शर्म मानकर केवल आरोप-प्रत्यारोप में न उलझें। विपक्ष केवल आरोप लगाकर खामोश न बैठे। उसका काम आरोप लगाकर बैठ जाना ही नहीं है। बल्कि सरकार के साथ तालमेल बिठाकर समस्या के समाधान की दिशा में प्रयास करना होता है। जिस विश्वास के साथ पूर्वोत्तर के लोग देश के अन्य राज्यों में जाकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है, अपनी रोजी-रोटी का जुगाड़ किया है,उस विश्वास को बनाए रखना सरकार का ही काम है। पूर्वोत्तर के लोगों पर की जाने वाली फब्तियों को लेकर अदालत ने एक सख्त निर्णय लिया है। पर इससे नस्लीय हिंसा पर तो काबू नहीं पाया जा सकता। विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। धीमी गति से लिए गए निर्णय पर कभी भी तेजी से अमल नहीं होता। नई आजादी की पहली सुबह यही कह रही है कि पल्लू पकड़ राजनीति के दिन लद गए, अब समय है त्वरित गति से ठोस निर्णय लेने का। कच्छप गति से दौड़ तो जीती जा सकती है, पर दिलों को नहीं जीता जा सकता।
डॉ. महेश परिमल