सोमवार, 10 अगस्त 2015
अमेरिका में प्रतिबंधित, भारत में खुले आम
डॉ. महेश परिमल
अमेरिका जैसी पाश्चात्य देशों से हम बहुत कुछ सीखते हैं। कभी फैशन के नाम पर हम उनका अनुकरण करते हैं, तो कभी फिल्मों के नाम पर। वहां बहुत कुछ ऐसा भी होता है, जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं। समय की पाबंदी के अलावा वहां बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिसे हमें अपनाना चाहिए। हम फैशनपरस्त हो सकते हैं, पर समय के पाबंद नहीं। हममें जागरूकता का अभाव है, इसलिए हम यह नहीं जान पाए कि अमेरिका ने अपने देश की स्कूलों में कोक-पेप्सी के उत्पादों को बेचना बंद कर दिया है। अब वहां फलों के ताजा रस मिलेंगे। वहां अब जाकर यह मान लिया है कि उक्त उत्पाद बच्चों की सेहत के लिए नुकसानदेह है। इसलिए फौरन यह आदेश दिया गया। इतनी चिंता करते हैं, वे अपने देश के बच्चों की। लेकिन हमारे देश में अभी मैगी को लेकर जो जागरूकता दिखाई दी, वैसी जागरूकता अन्य उत्पादों में भी देखी जाए, तो पूरे देश के बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो जाए। पर ऐसा संभव नहीं दिखता। विश्व के कई देश अभी तक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चंगुल में फंसे हुए हैं, उनमें हमारा देश भी एक है। इसके लिए दोषी है हमारी संकुचित मानसिकता और काम न करने की प्रवृत्ति। इन दो कारणों से कई अच्छे कार्य नहीं हो पाते। आजकल बच्चे जिस तरह से जान हथेली पर रखकर स्कूल जा रहे हैं, यदि उस हालात का ही बारीकी से निरीक्षण कर लें, तो समझ में आ जाएगा कि इसके लिए पालक ही दोषी हैं। पालक ही बच्चों को फास्ट फूड के लिए प्रेरित करते हैं। आलसी मांओं के कारण ही मैगी इतनी लोकप्रिय हो पाई। इसके अलावा अन्य कई ऐसी चीजें हैं, जो देश के भविष्य को बरबाद कर रही हैं, लेकिन इसका असर अभी नहीं, बरसों बाद पता चलेगा। अमेरिका से यह खबर आई है कि वहां की स्कूलों में कोकाकोला और पेप्सी की बिक्री बंद कर दी गई है। उसे अब जाकर यह समझ में आया है कि इन पेय पदार्थों से बच्चों के स्वास्थ्य को खतरा पैदा हो गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भी अमेरिका की हां में हां मिलाते हुए इसे बच्चों के स्वास्थ्य के लिए खतरा बताया है। इन पेयपदार्थों को लगातार पीने से वहां के बच्चों में मोटापा छाने लगा है। उनके शरीर में चर्बी की मात्रा बढ़ने लगी है। इसे पालकों ने भी समझा और इसका उग्र विरोध करने लगेा यह विरोध इतना अधिक तीव्र हुआ कि पेप्सी और कोला की कंपनियों को अपनी इज्जत बचाने के लिए उन्होंने निर्णय लिया कि अब स्कूलों में इन पेय पदार्थों की वेडिंग मशीन में फलों के ताजा रस होंगेा अमेरिकन बिवरेज एसोसिएशन की नई नीति के अनुसार अब स्कूलों में ऐसे पेय पदार्थ नहीं बिकेंगे, जिनमें अधिक से अधिक कैलोरी होंा कैलोरी वाले साफ्ट ड्रिंक, जिसमें केवल 5 प्रतिशत या उससे कम फलों का रस हो, ऐसे जूस की बिक्री नहीं की जाएगीा अब ऐसे पदार्थों की ही बिक्री होगी, जिससे बच्चों को अच्छा पोषण मिलेा इसमें 100 प्रतिशत फलों का रस ही होगा। एक अमेरिकी नागरिक एक वर्ष में करीब 600 बोतलें कोला ड्रिंक्स पी जाता है। इसमें बालकों की संख्या अधिक है। इसी ड्रिंक्स के कारण बच्चों में अनुपात से अधिक मोटापा देखा जा रहा है। इस मोटापे का दोष इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर लगे, इससे पहले उन्होंने यह निर्णय लेकर अपनी साख बचा ली है। लेकिन भारत में इस तरह का कोई कदम उठाया जाएगा, इसमें शक है।
मल्टीनेशनल कंपनियों के खाने के और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं। उनके पास अमेरिकियों और भारतीयों के लिए अलग-अलग मापदंड हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अमेरिका की स्कूलों में भले ही कोकाकोला और पेप्सी पर प्रतिबंध लगा दिया गया हो, पर भारत में कहीं भी इसकी गूंज तक सुनाई नहीं दी। राजनीतिक गलियारों में भी इसकी चर्चा नहीं है। हमारे देश की स्कूलों के सामने कई प्रतिबंधित चीजों की बिक्री होती है। देश में गुटखे पर प्रतिबंध के बावजूद वह सभी स्थानों पर खुले आम बिक रहा है। इसीलिए बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के लिए अलग से कानून बनाती हैं। ये कंपनियां भारतीय स्कूलों से पेप्सी और कोला जैसी घातक चीजों की बिक्री पर रोक लगाने की दिशा में कोई कदम उठाने ही नहीं देंगीा उनके लिए भारत एक प्रयोगशाला है। जहां वे अपने उत्पादों का परीक्षण करते हैं। जब बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक अधिकारी से पूछा गया कि क्या अमेरिका के बाद भारतीय स्कूलों से भी कोक एवं पेप्सी के उत्पाद वापस लिए जाएंगे, तो उसने बड़ी बेशर्मी से कहा कि कंपनी ने निर्णय लिया है, वह केवल अमेरिकी स्कूलों के लिए ही है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां मानती हैं कि भारत के लिए परिस्थितियां भिन्न हैं। आखिर भारत के लिए परिस्थितियां अलग कैसे हो सकती हैं, इस पर कोई ध्यान नहीं देताा कोला कंपनी के एक प्रवक्ता के अनुसार भारतीय बच्चों में अभी मोटापे की बीमारी इतनी अधिक नहीं फैली है कि इसे गंभीर माना जाएा इसका आशय यही है कि ये कंपनियां इस बात का इंतजार कर रही हैं कि भारतीय बच्चों को उनके द्रव्य पदार्थों का गंभीर असर हो, उसके बाद ही कोई कार्रवाई कर पाएंगेा यह तो सिद्ध हो चुका है कि कोला इतना अधिक खतरनाक है कि उससे टायलेट साफ किया जा सकता है। इसमें जो रसायन मिलाए गए हैं, उससे अभी तो नहीं, पर भविष्य में खतरनाक दुष्परिणाम सामने आएंगेा भारतीय बाजार इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे नतमस्तक हैं। इनकी पहुंच राजनीतिक गलियारों तक है। यही कारण है कि अमेरिका में प्रतिबंधित चीजों का हमारे यहां धड़ल्ले से खुले आम व्यापार हो रहा है।
बहुराष्ट्रीय कंपनी कोला के एक प्रवक्ता के अनुसार भारत में कोला ड्रिंक्स की जितनी बिक्री होती है, उसमें से एक प्रतिशत की बिक्री शालाओं में हो पाती है। कोला ड्रिंक्स की बिक्री अरबों रुपए की है। भारतीय स्कूलों में अभी जो कोला बिक रहा है, उससे भी ये कंपनियां अरबों रुपए कमा रहीं हैं। आखिर वे क्यों चाहेंगी कि उनके उत्पादों की बिक्री कम हो, वे तो इसकी बिक्री अधिक से अधिक बढ़ाना ही चाहेंगेा अभी भारतीय बच्चों पर इसके प्रभाव पर किसी प्रकार का शोध नहीं हुआ है। यदि शोध से कुछ नया निकलता है, तो भारतीय जनमानस सचेत हो जाएगाा संभव है, पालक सड़कों पर उतर आएं, पर ऐसा संभव दिखाई नहीं देताा जिस तरह से मेगी नूडल्स के प्रति सरकार ने सचेत होकर सख्त कदम उठाए, उसे देखते हुए यदि पेप्सी और कोला के उत्पादों के खिलाफ भी कदम उठाए, कुछ संभव है। इसके लिए पहले तो पालकों को सचेत होना होगाा पालकों की सतर्कता के कारण ही मुम्बई और दिल्ली की कई स्कूलों में इस तरह से साफ्ट ड्रिंक्स पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। नई दिल्ली की प्रतिष्ठित स्प्रिंगडेल्स स्कूल की प्रिंसीपल ज्योति बोस कहती हैं कि हमने चार साल पहले ही इस तरह के प्रेय पदार्थों पर रोक लगा दी है। हमारी स्कूल की केंटीन में नीबू पानी और फलों का रस ही मिलता है। बच्चों में चर्बी बढ़ने के खतरे को देखते हुए ही हमने पेप्सी और कोला के उत्पादों पर प्रतिबंध लगा दिया है। नई मुम्बई के वाशी के फादर अग्नेल मल्टीपरपज स्कूल ने एक वर्ष पहले ही इस तरह के द्रव्य पदार्थों पर रोक लगाई है।
स्कूल के प्राचार्य फादर अल्मिडा कहते हैं कि शहरों में बच्चों के बढ़ते वजन और उनका मोटापा हमारे लिए चिंता का कारण है। इसलिए स्कूलों पर इस तरह के द्रव्यों पर रोक लगानी ही चाहिएा अमेरिका में इस समय जिस तरह से पेप्सी और कोला के उत्पादों को लेकर आंदोलन चल रहे हैं, उससे हमें सीख लेनी चाहिएा बात कुछ भी हो, पर सच तो यह है कि आज हमारे देश में बहुत कुछ ऐसा भी हो रहा है, जिसे नहीं होना चाहिएा सुप्रीम कोर्ट का सख्त आदेश है कि सड़कों के किनारे लगने वाले ठेलों पर जो खाद्य सामग्री बेची जाती है, उस पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगना चाहिएा पर ऐसा नहीं हो पाताा मिलावट करने वाले पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए,पर अभी तक किसी मिलावटखोर को सख्त सजा हुई हो, ऐसा सुनने में नहीं आयाा हर साल लाखों रुपए का नकली मावा पकड़ा जाता है, पर कभी किसी की धरपकड़ हुई हो, उस पर मुकदमा चला हो, ऐसे किस्से कम ही सुनने को मिलते हैं। आज हमारे देश में लोगों मे कानून का खौफ कम होता जा रहा है, इसलिए अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। मीडिया रोज ही इस तरह से मामलों को सामने ला रहा है, फिर भी अपराधों की संख्या में किसी प्रकार की कमी दिखाई नहीं देती।
डॉ. महेश परिमल
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दृष्टिकोण
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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