डॉ. महेश परिमल
अभी पिछले माह ही हमारे बीच से बाल दिवस गुजर गया। इस दिन हम सबने बच्चों को याद किया, अपना जन्म दिन बच्चों को समर्पित करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी याद किया। साथ ही यह संकल्प लिया कि अब बच्चों को पूरा संरक्षण दिया जाएगा। लेकिन आज भी किसी की साइकिल, स्कूटर या फिर बाइक िबगड़ जाए, तो उसे एक बच्चा ही सुधार पाता है। आज देश के छोटे होटल हों, कारखाने हों, फैक्टरियां हों, सभी स्थानों पर बच्चे काम करते दिख जाएंगे। इससे अनजान होकर हम अपने काम में लगे रहते हैं। कोई काम नहीं आता बाल दिवस पर लिया गया संकल्प। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी दिवाली की खुशियां इन्हीं बच्चों के माध्यम से ही बिखरती हैं। पटाखा बनाने वाले कारखानों में आज भी बच्चे पटाखा बनाते समय काल-कवलित होते हैं। हमारे लिए यह केवल एक खबर मात्र होती है। पर हम खुशियां मनाने के लिए पटाखे चलाना नहीं छोड़ते। पटाखे से पर्यावरण का नुकसान होता है, पर सच तो यह है कि इसमें हजारों मासूमों का परिश्रम लगा हुआ है। पटाखे मासूमों के शोषण की इबारत लिखते हैं। क्यों न हम खुशियां मनाने के लिए पटाखों का इस्तेमाल करना ही बंद कर दें?
भारत विश्व की दूसरी सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है और सूचना तकनीकी के क्षेत्र में भी उसे अग्रणी माना जाता है। इसके बावजूद भारत में बाल मजदूरी जैसा अभिशाप समाप्त होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। यह भारत की आत्मा में लगा हुआ एक ऐसा खंजर है जो निकाले नहीं निकल पा रहा। अनेक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक बाल मजदूर भारत में ही हैं और इनकी उम्र 4-5 वर्ष से लेकर 14 वर्ष के बीच है। विश्व भर में जितने बाल मजदूर हैं, उनका 30 प्रतिशत भारत में ही है। और यह स्थिति तब है, जब भारत में बाल श्रम को गैर कानूनी घोषित किया जा चुका है, और बाल श्रमिकों से काम लेने वालों के लिए अच्छी-खासी सजा का प्रावधान भी है।
दरअसल बाल मजदूरी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसे कानून बना कर खत्म किया जा सके, ठीक वैसे ही जैसे छुआछूत। देश को आजादी मिलने के बाद बने संविधान में छुआछूत को गैर कानूनी करार दे दिया गया, लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और लोगों के नजरिए में बदलाव आए बिना उसका समाप्त होना संभव नहीं था। यही कारण है कि आज भी वह अनेक जगहों पर प्रचलित है। इसी तरह जब तक बाल मजदूरी के पीछे के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक इस अभिशाप से छुटकारा मिलना मुमकिन नहीं है। मजदूर के घर बच्चा पैदा होने पर हिन्दी के प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी जिसकी बहुत मशहूर पंक्ति है "एक हथौड़े वाला और हुआ" यानी, उन्हें भी यही उम्मीद है कि मजदूर का बेटा भी बड़ा होकर बाप की तरह हथौड़ा ही संभालेगा। शायद उन्हें भी यह अंदाज न होगा कि वह कितना बड़ा होगा, जब उसके हाथ में हथौड़ा पकड़ा दिया जाएगा। गरीबी सबसे बड़ा कारण है जो मां-बाप अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगा देते हैं। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह चौपट हो जाना दूसरा बड़ा कारण है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की इतनी कम सुविधाएं हैं कि गरीब बच्चे उनमें दाखिला लेने के कुछ ही समय बाद वहां जाना बंद कर देते हैं। उनके सामने काम करके परिवार की आमदनी में कुछ योगदान करने के सिवा कोई और चारा ही नहीं बचता।
पहले बाल मजदूरी गांव में अधिक थी, लेकिन अब वह शहरों में भी पसर गई है। हर जगह बच्चों को काम करते देखा जा सकता है। बाल मजदूरों की अवैध तस्करी भी फलफूल रही है। बाल मजदूरी को समाप्त करने के प्रयास में लगे स्वयंसेवी संगठन कानूनों को कड़ा बनाने की मांग करते आ रहे हैं, लेकिन कानून कड़ा करने से भी समस्या का हल होने वाला नहीं। दहेज हत्या संबंधी कानून कितना कड़ा है, यह किसी से छिपा नहीं। फिर भी दहेज के लिए बहू की हत्या की घटनाएं आए दिन देखने में आती हैं। बाल मजदूरी तभी समाप्त हो सकती है, जब उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बदला जाए, जिनके कारण वह पैदा होती और पनपती है।
जब तक गरीब बच्चों की निःशुल्क शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बारे में सरकार गंभीरता से नहीं सोचती और उन्हें सुविधाएं मुहैया नहीं कराती, तब तक बाल मजदूरी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। गरीब अपने परिवार का पेट बहुत मुश्किल से भर पाता है। अगर वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकता, तो वह उन्हें काम पर ही लगाएगा। अक्सर उस पर कर्ज का बोझ भी होता है जिसे उतारने के लिए उसे यूं भी अतिरिक्त आमदनी की जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगाना विवशता है। जब तक उसकी यह विवशता बनी रहेगी, बाल मजदूरी भी जाने वाली नहीं।
इस दिश में अगर हम एक छोटी-सी शुरुआत करें कि हम न तो अपने घर में किसी बाल मजदूर को काम पर रखेंगे, न ही बाल मजदूरों के हाथों से अपने वाहन ठीक कराएंगे। इसके अलावा जिन होटलों आदि में बच्चे काम कर रहे हों, वहां न जाएं। एक छोटी-सी कोशिश यह भी हो सकती है कि जहां बच्चे काम कर रहे हों, वहां जाकर हम किसी एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठाने का संकल्प लें। यह एक छोटी-सी शुरुआत होगी, पर निश्चित रूप से यह मन को संतोष दिलाएगा और दिल को सुकून। एक कदम तो उठाइए, कुछ समय बाद आपके पास सुकून की ढेर सारी दौलत होगी। जिस दौलत को पाने के लिए इंसान जिंदगी भर कोशिश करता है, वह आपके कदमों में होगी।
डॉ. महेश परिमल
अभी पिछले माह ही हमारे बीच से बाल दिवस गुजर गया। इस दिन हम सबने बच्चों को याद किया, अपना जन्म दिन बच्चों को समर्पित करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को भी याद किया। साथ ही यह संकल्प लिया कि अब बच्चों को पूरा संरक्षण दिया जाएगा। लेकिन आज भी किसी की साइकिल, स्कूटर या फिर बाइक िबगड़ जाए, तो उसे एक बच्चा ही सुधार पाता है। आज देश के छोटे होटल हों, कारखाने हों, फैक्टरियां हों, सभी स्थानों पर बच्चे काम करते दिख जाएंगे। इससे अनजान होकर हम अपने काम में लगे रहते हैं। कोई काम नहीं आता बाल दिवस पर लिया गया संकल्प। सबसे बड़ी बात यह है कि हमारी दिवाली की खुशियां इन्हीं बच्चों के माध्यम से ही बिखरती हैं। पटाखा बनाने वाले कारखानों में आज भी बच्चे पटाखा बनाते समय काल-कवलित होते हैं। हमारे लिए यह केवल एक खबर मात्र होती है। पर हम खुशियां मनाने के लिए पटाखे चलाना नहीं छोड़ते। पटाखे से पर्यावरण का नुकसान होता है, पर सच तो यह है कि इसमें हजारों मासूमों का परिश्रम लगा हुआ है। पटाखे मासूमों के शोषण की इबारत लिखते हैं। क्यों न हम खुशियां मनाने के लिए पटाखों का इस्तेमाल करना ही बंद कर दें?
भारत विश्व की दूसरी सबसे तेजी से विकसित होने वाली अर्थव्यवस्था है और सूचना तकनीकी के क्षेत्र में भी उसे अग्रणी माना जाता है। इसके बावजूद भारत में बाल मजदूरी जैसा अभिशाप समाप्त होने के बजाय बढ़ता जा रहा है। यह भारत की आत्मा में लगा हुआ एक ऐसा खंजर है जो निकाले नहीं निकल पा रहा। अनेक अध्ययनों का निष्कर्ष है कि पूरी दुनिया में सबसे अधिक बाल मजदूर भारत में ही हैं और इनकी उम्र 4-5 वर्ष से लेकर 14 वर्ष के बीच है। विश्व भर में जितने बाल मजदूर हैं, उनका 30 प्रतिशत भारत में ही है। और यह स्थिति तब है, जब भारत में बाल श्रम को गैर कानूनी घोषित किया जा चुका है, और बाल श्रमिकों से काम लेने वालों के लिए अच्छी-खासी सजा का प्रावधान भी है।
दरअसल बाल मजदूरी कोई ऐसी समस्या नहीं है, जिसे कानून बना कर खत्म किया जा सके, ठीक वैसे ही जैसे छुआछूत। देश को आजादी मिलने के बाद बने संविधान में छुआछूत को गैर कानूनी करार दे दिया गया, लेकिन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और लोगों के नजरिए में बदलाव आए बिना उसका समाप्त होना संभव नहीं था। यही कारण है कि आज भी वह अनेक जगहों पर प्रचलित है। इसी तरह जब तक बाल मजदूरी के पीछे के सामाजिक-आर्थिक कारणों को समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक इस अभिशाप से छुटकारा मिलना मुमकिन नहीं है। मजदूर के घर बच्चा पैदा होने पर हिन्दी के प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल ने एक कविता लिखी जिसकी बहुत मशहूर पंक्ति है "एक हथौड़े वाला और हुआ" यानी, उन्हें भी यही उम्मीद है कि मजदूर का बेटा भी बड़ा होकर बाप की तरह हथौड़ा ही संभालेगा। शायद उन्हें भी यह अंदाज न होगा कि वह कितना बड़ा होगा, जब उसके हाथ में हथौड़ा पकड़ा दिया जाएगा। गरीबी सबसे बड़ा कारण है जो मां-बाप अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगा देते हैं। इसके अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था का पूरी तरह चौपट हो जाना दूसरा बड़ा कारण है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा की इतनी कम सुविधाएं हैं कि गरीब बच्चे उनमें दाखिला लेने के कुछ ही समय बाद वहां जाना बंद कर देते हैं। उनके सामने काम करके परिवार की आमदनी में कुछ योगदान करने के सिवा कोई और चारा ही नहीं बचता।
पहले बाल मजदूरी गांव में अधिक थी, लेकिन अब वह शहरों में भी पसर गई है। हर जगह बच्चों को काम करते देखा जा सकता है। बाल मजदूरों की अवैध तस्करी भी फलफूल रही है। बाल मजदूरी को समाप्त करने के प्रयास में लगे स्वयंसेवी संगठन कानूनों को कड़ा बनाने की मांग करते आ रहे हैं, लेकिन कानून कड़ा करने से भी समस्या का हल होने वाला नहीं। दहेज हत्या संबंधी कानून कितना कड़ा है, यह किसी से छिपा नहीं। फिर भी दहेज के लिए बहू की हत्या की घटनाएं आए दिन देखने में आती हैं। बाल मजदूरी तभी समाप्त हो सकती है, जब उन सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बदला जाए, जिनके कारण वह पैदा होती और पनपती है।
जब तक गरीब बच्चों की निःशुल्क शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बारे में सरकार गंभीरता से नहीं सोचती और उन्हें सुविधाएं मुहैया नहीं कराती, तब तक बाल मजदूरी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। गरीब अपने परिवार का पेट बहुत मुश्किल से भर पाता है। अगर वह अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा नहीं सकता, तो वह उन्हें काम पर ही लगाएगा। अक्सर उस पर कर्ज का बोझ भी होता है जिसे उतारने के लिए उसे यूं भी अतिरिक्त आमदनी की जरूरत होती है। ऐसे में उसके लिए अपने छोटे-छोटे बच्चों को काम पर लगाना विवशता है। जब तक उसकी यह विवशता बनी रहेगी, बाल मजदूरी भी जाने वाली नहीं।
इस दिश में अगर हम एक छोटी-सी शुरुआत करें कि हम न तो अपने घर में किसी बाल मजदूर को काम पर रखेंगे, न ही बाल मजदूरों के हाथों से अपने वाहन ठीक कराएंगे। इसके अलावा जिन होटलों आदि में बच्चे काम कर रहे हों, वहां न जाएं। एक छोटी-सी कोशिश यह भी हो सकती है कि जहां बच्चे काम कर रहे हों, वहां जाकर हम किसी एक बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठाने का संकल्प लें। यह एक छोटी-सी शुरुआत होगी, पर निश्चित रूप से यह मन को संतोष दिलाएगा और दिल को सुकून। एक कदम तो उठाइए, कुछ समय बाद आपके पास सुकून की ढेर सारी दौलत होगी। जिस दौलत को पाने के लिए इंसान जिंदगी भर कोशिश करता है, वह आपके कदमों में होगी।
डॉ. महेश परिमल
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