गुरुवार, 4 अगस्त 2016
लघुकथा - बरसात - विरेंदर वीर मेहता
कथा का अंश…..
रूत तो बहुत आई बरसात की, भीगना अच्छा न लगता था
इस बार न जाने क्या बात हुई, घंटो भीगते रहे बरसात में… चार वर्ष पहले राज को लिखा अपना खत पति के कागजों में देखकर मैं हैरान रह गई??? मेरा खत यहाँ कैसे आया? क्या सागर मेरे अतीत के बारे में जानता है? यह विचार मन में आते ही मैं तनाव से घिर गई। खत को हाथ में लिए मैं गार्डन में आ बैठी और सोचते-सोचते ठंडी हवा के झौंकों के साथ ही अतीत में बहती चली गई… राज, जिसे बरसात की ठंडी फुहारों में सड़कों पर घूमते हुए भीगना अच्छा लगता था और मैं, जो बारिश के नाम से ही डरती थी, एक-दूसरे से मिले और जल्दी ही नजदीक आ गए। कैंपस से शुरू हुआ प्यार ग्रेज्युएशन तक पहुँचते-पहुँचते गहरा हो गया। उसके प्यार ने कब मुझे भी बारिश का दीवाना बना दिया, पता ही नहीं चला। जिंदगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं!!! इस वाक्य को अपना आदर्श मानने वाले राज ने कब आर्मी ज्वाइन की और कब सरहद के लिए अपनी जान भी कुरबान कर दी, साथ जीने साथ मरने की कसमें खाने वाले उन लमहों के बीच ये सब कब और कैसे हुआ, यह मैं समझ ही नहीं पाई। इस सच को मैं तब स्वीकार कर पाई, जब डिप्रेशन के तीन महीने अस्पताल में गुजारने के बाद मैं वापस घर लौटी… आगे क्या हुआ? उसका खत सागर तक कैसे पहुँचा? क्या सागर और राज एक-दूसरे को जानते थे? इन सभी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए ऑडियो की मदद लीजिए और इस लघुकथा का सुनकर आनंद लीजिए…
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बहुत सुंदर कहानी
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