शनिवार, 3 मई 2025

दम तोड़ती प्याऊ की परंपरा




एक परंपरा की मौत
डॉ. महेश परिमल
किसी समाज या समूह में लंबे समय से चली आ रही किसी परंपरा का अंत हो जाना कई बार खुशियां देता है, पर कई बार यह भीतर से रुला देता है। कई परंपराएं या तो किसी कारण से धीरे-धीरे खत्म हो जाती हैं या अचानक किसी घटना के कारण समाप्त हो जाती हैं। समाज में कई परंपराएं जन्म लेती हैं और कई टूट जाती हैं। परंपराओं का प्रारंभ और अंत विकासशील समाज के लिए आवश्यक भी है। परंपराएं टूटने के लिए ही होती हैं। पर कुछ परंपराएं ऐसी होती हैं, जिनका टूटना मन को दु:खी कर जाता है। पर जो अच्छी परंपराएं हमारे देखते ही देखते समाप्त हो जाती हैं, उसे परंपरा की मौत कहा जा सकता है। कुछ ऐसा ही अनुभव तब हुआ, जब पाऊच और बोतल संस्कृति के बीच प्याऊ की परंपरा को दम तोड़ते देख रहा हूं।
पहले गांव, कस्बों और शहरों में कई प्याऊ देखने को मिल जाते थे। जहां टाट से घिरे एक कमरे में रेत पर रखे पानी से भरे लाल रंग के घड़े होते थे। बाहर एक टीन की चादर को मोड़कर पाइपनुमा बना लिया जाता था। पानी कहते ही भीतर कुछ हलचल होती और उस पाइपनुमा यंत्र से ठंडा पानी आना शुरू हो जाता था। प्यास खत्म होने पर केवल अपना सर हिलाने की जरूरत पड़ती और पानी आना बंद। जरा अपने बचपन को टटोलें, इस तरह के अनुभवों का पिटारा ही खुल जाएगा। अब यदि आपको उस पानी पिलाने वाली बाई का चेहरा याद आ रहा हो, तो यह भी याद कर लें कि कितना सुकून हुआ करता था, उसके चेहरे पर। एक अजीब-सी शांति के दर्शन होते थे, उसके चेहरे पर। इसी शांति और सुकून को कई बार मैंने उन मांओं के चेहरे पर देखा है, जब वे अपने बच्चे को दूध पिलाती होती हैं।
कई बार रेल्वे स्टेशनों पर गर्मियों में पानी पिलाने का पुण्य कार्य किया जाता है। पानी पिलाने वालों की केवल यही प्रार्थना होती, जितना चाहे पानी पीयें, चाहे तो सुराही में भर लें, पर पानी बरबाद न करें। उनकी यह प्रार्थना उस समय लोगों को भले ही प्रभावित न करती हों, पर आज जब उन्हीं रेल्वे स्टेशनों में पानी बोतलें खरीदनी पड़ती हैं, तब समझ में आता है कि सचमुच उनकी प्रार्थना का कोई अर्थ था।  अब तो रेल्वे स्टेशनों में नल के पास पानी की बोतलें बेचने वाला वेंडर होता है। लोग नल तक पानी लेने पहुंचते हैं, पर नल से पानी नहीं आता। उसे खराब कर दिया जाता है, उसी वेंडर द्वारा। ताकि लोग नल के करीब आएं और नल से पानी न आने पर उससे पानी की बोतलें खरीदें। छलावे का यह खेल अब हर स्टेशन में देखने को मिल जाता है।
मुहावरों में 'पानी पिलाना' यानी भले ही मजा चखाना होता हो, पर यह सनातन सच है कि पानी पिलाना एक पुण्य कार्य है। अच्छी भावना के साथ किसी प्यासे को पानी पिलाना तो और भी पुण्य का काम है। अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। कार्यालयों में उस चपरासी या पानी वाली बाई को ही देख लें, जो पूरे समर्पण भाव से लोगों को पानी पिलाने का पुण्य कार्य करते हैं। हालांकि वे इस कार्य को अपनी डयूटी समझते हैं। पर यह सच है कि जब वे हमें गिलास में पानी देते हैं, तब उनके चेहरे पर एक सुकून होता है। वह सुकूनभरा चेहरा अब आपको और कहीं नहीं मिलेगा। अब यह परिदृश्य धीरे-धीरे बदल रहा है। अब तो टेबल पर पानी की एक बोतल और एक गिलास रखा होता है, जब प्यास लगे, आप स्वयं पी सकते हैं।
समय के साथ सब कुछ बदल जाता है, पर अच्छी परंपराएं जब देखते ही देखते दम तोड़ने लगती है, तब दु:ख का होना स्वाभाविक है। पुरानी सभी परंपराएं अच्छी थीं, यह कहना मुश्किल है, पर कई परंपराएं जिसके पीछे किसी तरह का कोई स्वार्थ न हो, जिसमें केवल परोपकार की भावना हो, उसे तो अनुचित नहीं कहा जा सकता। उस प्याऊ परंपरा में यह भावना कभी हावी नहीं रही कि पानी पिलाना एक पुण्य कार्य है। मात्र कुछ लोग चंदा करते और एक प्याऊ शुरू हो जाता। अब तो कहीं-कहीं प्याऊ के उद्धाटन की खबरें पढ़ने को मिल जाती हैं, पर कुछ दिनों बाद वह या तो पानी बेचने का व्यावसायिक केंद्र बनकर रह जाता है या मवेशियों का आश्रय स्थल...
कल्पना करें, कोई राहगीर दूर से चलता हुआ किसी गांव या शहर में प्रवेश करता है, उसे प्यास लग रही है। वह पानी की तलाश में है, तब उसे कहीं प्याऊ दिखाई देता है। जहां वह छककर ठंडा पानी पीता है, उसकी आत्मा ही तृप्त हो जाती है। वह आगे बढ़ता है, बहुत सारी दुआएं देकर। यही दुआएं जो उसके दिल से निकली, कभी बेकार नहीं गई। आज एक गिलास पानी भी बड़ी जद्दोजहद के बाद मिलता है। ऐसे में कहां की दुआ और कहां की प्रार्थना? देखते ही देखते पानी बेचना एक व्यवसाय बन गया। यह हमारे द्वारा किए गए पानी की बरबादी का ही परिणाम है। आज भले ही हम पानी बरबाद करना अपनी शान समझते हों, पर सच तो यह है कि यही पानी एक दिन हम सबको पानी-पानी कर देगा, तब भी हम शायद समझ नहीं पाएंगे, एक-एक बूंद पानी का महत्व।
डॉ. महेश परिमल










कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Post Labels