डॉ. महेश परिमल
हम जितने अधिक आधुनिक होते जा रहे हैं, शोर हम पर उतना ही हावी होता जा रहा है. चाहे वह गणेश चतुर्थी हो या फिर दुर्गापूजा, हमारे आसपास शोर इतना पसर गया है कि हम न चाहते हुए भी उसे सहजता से स्वीकार कर रहे हैं. आप कहीं भी रहें, शोर के राक्षस से बच नहीं सकते. यह हमें हमारी नींद में भी आकर खलल पैदा करता है, फिर भी हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं. कहीं हम चुपके से हमारे भीतर पसरने वाले शोर के गुलाम तो नहीं हो गए हैं? आओ देखें हमारे भीतर किस कदर पैठ गया है यह शोर.
करीब तीस वर्ष पहले एक फिल्म आई थी, शोर. जिसमें नायक शहर में बढ़ते शोर से परेशान है. उसकी शिकायत है कि जमीन तो जमीन आज आसमाँ भी शोर से ग्रस्त है. उसका मासूम बालक गूँगा है, काफी कोशिशों के बाद भी वह बोल नहीं पाता. नायक की एक ही चाहत होती है कि वह कुछ बोले. हालात ऐसे बनते हैं कि बच्चा जब बोलना शुरू करता है, तब नायक बहरा हो जाता है. हम सबका भविष्य यही है, आज हम भले ही अपने बच्चों की आवाज सुन रहे हैं, पर यही हाल रहा तो तय है कि हमारे बच्चे अपने बच्चों की आवाज नहीं सुन पाएँगे. यह खतरा आज हमें भले ही दिखाई न दे रहा हो, पर भविष्य बहुत ही अंधकारमय है.
आजकल केवल कल-कारखाने ही नहीं, बल्कि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे भी शोर का प्रमुख केंद्र बन गए हैं. सहसा कबीर याद आते हैं. उन्होंने शोर के खिलाफ बहुत ही गंभीर तरीके से अपनी बात कह दी, जिसे समझना आज भी हमारे वश में नहीं है. पर शोर का राक्षस आज हमारे समाज में धर्म के रास्ते आ गया है. यह मान ही लिया गया है कि जितना अधिक शोर करेंगे, हमारे आराध्य उतने ही हमसे प्रसन्न होंगे. आराध्य को मनाने की यह प्रक्रिया इतनी खतरनाक है कि आराध्य प्रसन्न हों या न हों, पर हमारे कान निश्चय ही अपना काम करना बंद कर देंगे.
शोर एक ऐसा रसायन है, जो कान के रास्ते मस्तिष्क की तरंगों को झंकृत करता है. एक अनुपात में तो यह सहन कर भी लेता है, पर अनुपात से अधिक शोर हमारे शरीर को कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे नुकसान पहुँचा रहा है, इससे हम अभी वाकिफ नहीं हुए हैं. कभी लाइट गुल होने के बाद अचानक आने वाली खामोशी को महसूस किया है आपने? कितना सुकून मिलता है. थोड़ी देर बाद लाइट आ जाती है, हम फिर अपने काम पर लग जाते हैं.
आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के आंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
बच्चों को कमजोर बना सकता है यह शोर
शोर आपके बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर भी बना सकता है. सावधान हो जाएँ, यदि आप किसी हवाई अड्डे के नजदीक रहते हैं. जर्मन विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक शोध में ये चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं. शोधकर्त्ताओं का कहना है कि शोर भरे माहौल की घुटन से बच्चों के मस्तिष्क की क्षमता का क्षरण होने लगता है. ऐसे बच्चे जो किसी व्यस्त हवाई अड्डे के आसपास रहते हैं, उन्हें किसी पाठ को याद रखने में सामान्य बच्चों से अधिक कठिनाइयाँ होती है. इसी तरह कंठस्थ करने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसी स्थिति लंबे समय तक भी बनी रह सकती है.
शोर करके भक्ति करने वालों को अब सावधान हो जाना चाहिए. क्योंकि इससे हमारे आराध्य तो प्रसन्न नहीं होंगे, पर यह तय है कि भावी पीढ़ी को यह कतई मंजूर नहीं होगा कि कोई उनके सामने शोर करे. वे तो इसे बर्दाश्त ही नहीं कर पाएँगे. जिस तरह से आज की पीढ़ी को घर के पुरानी चीर्जें स्वीकार्य नहीं हैं, ठीक उसी तरह ये शोर करने वालों को भी सहन नहीं कर पाएगी, यह तय है. क्योंकि यह पीढ़ी शोर के दुष्परिणाम को बेहतर जान और समझ रही है. पहले शोर था, पर इतना कानफाड़ू और बेसुरा नहीं था, पर आज के शोर ने मन की शांति छीन ली है. बेचैन कर दिया है लोगों को इस शोर ने.
सरकार की इस दिशा में यदि नीयत साफ हो, तो वह धर्मस्थलों से उठने वाले शोर पर पहले लगाम लगाए. इसे वोट बैंक की नजर से न देखे. तभी वह पहला साहसभरा कदम उठा पाएगी. उसके बाद लोगों को शोर के दुष्परिणामों से अवगत कराया जाए. मन की शांति किससे मिलती है, यह बताया जाए. एक बार बच्चों को शहरी शोर से दूर ले जाकर प्रकृति का संगीत सुनाएँ और बताएँ कि यही है मन को सच्ची शांति देने वाला संगीत. तभी कुछ हो पाएगा. आइए आज से ही इस दिशा में हम पहला कदम उठाकर दम घोंटने वाले शोर को अलविदा कह सकें.
डॉ. महेश परिमल
हम जितने अधिक आधुनिक होते जा रहे हैं, शोर हम पर उतना ही हावी होता जा रहा है. चाहे वह गणेश चतुर्थी हो या फिर दुर्गापूजा, हमारे आसपास शोर इतना पसर गया है कि हम न चाहते हुए भी उसे सहजता से स्वीकार कर रहे हैं. आप कहीं भी रहें, शोर के राक्षस से बच नहीं सकते. यह हमें हमारी नींद में भी आकर खलल पैदा करता है, फिर भी हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं. कहीं हम चुपके से हमारे भीतर पसरने वाले शोर के गुलाम तो नहीं हो गए हैं? आओ देखें हमारे भीतर किस कदर पैठ गया है यह शोर.
करीब तीस वर्ष पहले एक फिल्म आई थी, शोर. जिसमें नायक शहर में बढ़ते शोर से परेशान है. उसकी शिकायत है कि जमीन तो जमीन आज आसमाँ भी शोर से ग्रस्त है. उसका मासूम बालक गूँगा है, काफी कोशिशों के बाद भी वह बोल नहीं पाता. नायक की एक ही चाहत होती है कि वह कुछ बोले. हालात ऐसे बनते हैं कि बच्चा जब बोलना शुरू करता है, तब नायक बहरा हो जाता है. हम सबका भविष्य यही है, आज हम भले ही अपने बच्चों की आवाज सुन रहे हैं, पर यही हाल रहा तो तय है कि हमारे बच्चे अपने बच्चों की आवाज नहीं सुन पाएँगे. यह खतरा आज हमें भले ही दिखाई न दे रहा हो, पर भविष्य बहुत ही अंधकारमय है.
आजकल केवल कल-कारखाने ही नहीं, बल्कि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे भी शोर का प्रमुख केंद्र बन गए हैं. सहसा कबीर याद आते हैं. उन्होंने शोर के खिलाफ बहुत ही गंभीर तरीके से अपनी बात कह दी, जिसे समझना आज भी हमारे वश में नहीं है. पर शोर का राक्षस आज हमारे समाज में धर्म के रास्ते आ गया है. यह मान ही लिया गया है कि जितना अधिक शोर करेंगे, हमारे आराध्य उतने ही हमसे प्रसन्न होंगे. आराध्य को मनाने की यह प्रक्रिया इतनी खतरनाक है कि आराध्य प्रसन्न हों या न हों, पर हमारे कान निश्चय ही अपना काम करना बंद कर देंगे.
शोर एक ऐसा रसायन है, जो कान के रास्ते मस्तिष्क की तरंगों को झंकृत करता है. एक अनुपात में तो यह सहन कर भी लेता है, पर अनुपात से अधिक शोर हमारे शरीर को कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे नुकसान पहुँचा रहा है, इससे हम अभी वाकिफ नहीं हुए हैं. कभी लाइट गुल होने के बाद अचानक आने वाली खामोशी को महसूस किया है आपने? कितना सुकून मिलता है. थोड़ी देर बाद लाइट आ जाती है, हम फिर अपने काम पर लग जाते हैं.
आज शहरों के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, हर जगह 75 डिसीबल से अधिक शोर मिलेगा. सामान्यत: 75 डिसीबल तक का शोर शरीर को हानि नहीं पहुँचाता. अब शोर को हम ऑंकड़ों के हिसाब से देखें- एक मीटर दूर से की जा रही सामान्य बातचीत 60 डिसीबल की होती है, जबकि भारी ट्रैफिक में 90 डिसीबल, रेलगाड़ी 100, कार का हार्न 100, ट्रक का प्रेशर हार्न 130, हवाई जहाज 140 से 170, मोटर-सायकल 90 डिसीबल शोर पैदा करते हैं. वैसे तो सामान्य श्रव्य शक्ति वाले मनुष्य के लिए 25-30 डिसीबल ध्वनि पर्याप्त है. 90 डिसीबल का शोर कष्टदायी और 110 डिसीबल का हल्ला असहनीय होता है. वैज्ञानिकों का दावा है कि 85 डिसीबल से अधिक की ध्वनि लगातार सुनने से बहरापन आ सकता है. वहीं 90 डिसीबल से अधिक शोर के कारण एकाग्रता एवं मानसिक कुशलता में कमी आती है. 120 डिसीबल से ऊपर का शोर गर्भवती महिलाओं एवं पशुओं के भ्रूण को नुकसान पहुँचा सकता है. यही नहीं 155 डिसीबल से अधिक के शोर से मानव त्वचा जलने लगती है और 180 से ऊपर पहुँचने पर मौत हो जाती है. फ्रांस में हुए शोध से यह निष्कर्ष सामने आया है कि शोर से खून में कोलेस्ट्रोल और कार्टिसोन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हाइपरटेंशन होना तय है, जो आगे चलकर हृदय रोग व मस्तिष्क रोग सरीखी घातक बीमारियों को जन्म देता है.
शोर के आंकड़ों की दुनिया से बाहर आकर अब इसे मानवीय दृष्टि से देखें, राशन की लाइन हो या सिनेमा की टिकट की लाइन हो, आदमी वहाँ लगातार खड़े रहकर अचानक झ्रुझलाना शुरू कर देता है और कुछ देर तक उसकी हरकत कुछ हद तक अमानवीय हो जाती है. ऐसा क्यों होता है, ध्यान दिया है आपने? वजह यही शोर है. प्रत्यक्ष रूप से यह शोर हमें उत्तेजित तो नहीं करता, पर परोक्ष रूप से यह हमें भीतर से आंदोलित कर देता है. हम इसको हल्के अंदाज में लेकर इसे शरीर की कमजोरी मान लेते हैं, पर शोर का यह राक्षस हमारे भीतर इतनी पैठ कर चुका है कि इसे निकालना हमारे बूते की बात नहीं.
बच्चों को कमजोर बना सकता है यह शोर
शोर आपके बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर भी बना सकता है. सावधान हो जाएँ, यदि आप किसी हवाई अड्डे के नजदीक रहते हैं. जर्मन विशेषज्ञों द्वारा किए गए एक शोध में ये चौंकाने वाले परिणाम सामने आए हैं. शोधकर्त्ताओं का कहना है कि शोर भरे माहौल की घुटन से बच्चों के मस्तिष्क की क्षमता का क्षरण होने लगता है. ऐसे बच्चे जो किसी व्यस्त हवाई अड्डे के आसपास रहते हैं, उन्हें किसी पाठ को याद रखने में सामान्य बच्चों से अधिक कठिनाइयाँ होती है. इसी तरह कंठस्थ करने में भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. ऐसी स्थिति लंबे समय तक भी बनी रह सकती है.
शोर करके भक्ति करने वालों को अब सावधान हो जाना चाहिए. क्योंकि इससे हमारे आराध्य तो प्रसन्न नहीं होंगे, पर यह तय है कि भावी पीढ़ी को यह कतई मंजूर नहीं होगा कि कोई उनके सामने शोर करे. वे तो इसे बर्दाश्त ही नहीं कर पाएँगे. जिस तरह से आज की पीढ़ी को घर के पुरानी चीर्जें स्वीकार्य नहीं हैं, ठीक उसी तरह ये शोर करने वालों को भी सहन नहीं कर पाएगी, यह तय है. क्योंकि यह पीढ़ी शोर के दुष्परिणाम को बेहतर जान और समझ रही है. पहले शोर था, पर इतना कानफाड़ू और बेसुरा नहीं था, पर आज के शोर ने मन की शांति छीन ली है. बेचैन कर दिया है लोगों को इस शोर ने.
सरकार की इस दिशा में यदि नीयत साफ हो, तो वह धर्मस्थलों से उठने वाले शोर पर पहले लगाम लगाए. इसे वोट बैंक की नजर से न देखे. तभी वह पहला साहसभरा कदम उठा पाएगी. उसके बाद लोगों को शोर के दुष्परिणामों से अवगत कराया जाए. मन की शांति किससे मिलती है, यह बताया जाए. एक बार बच्चों को शहरी शोर से दूर ले जाकर प्रकृति का संगीत सुनाएँ और बताएँ कि यही है मन को सच्ची शांति देने वाला संगीत. तभी कुछ हो पाएगा. आइए आज से ही इस दिशा में हम पहला कदम उठाकर दम घोंटने वाले शोर को अलविदा कह सकें.
डॉ. महेश परिमल