मंगलवार, 9 अक्तूबर 2007

परदे के पीछे से झाँकती समाज की सच्चाई

डॉ. महेश परिमल
आज उपभोक्तावाद पूरे समाज पर बुरी तरह से हावी हो गया है, हर किसी को अपनी जरूरत के लिए जो मिल रहा है, उससे कुछ अधिक ही मिलने की चाहत रखता है. संतोषी जीव कोई भी नहीं है. यह सच हे कि असंतुष्टता ही मानव को आगे बढ़ाती है. पर आज पेट की भूख से कहीं ज्यादा भयावह चाहत की भूख पूरे समाज में पसर रही है. हर चीज बिकाऊ है, बस खरीददार चाहिए. चाहे वे ऑंसू हों, प्यार हो, शरीर हो, या फिर कोमल भावनाएँ ही क्यों न हों, हर चीज का बाजार है और उसे खरीदने के लिए लोग. अब तो ब्रिटनी की जूठी चाकलेट के लिए भी लोग टूट पड़ते हैं. इससे स्पष्ट है कि आज क्या ऐसी चीज है, जो बिक नहीं सकती?
घर में छोटी सी बिटिया यदि यह फरमाइश करे कि मुझे वह ड्रेस चाहिए, जो प्रीति जिंटा ने या ऐश्वर्या राय ने फिल्म में पहना है, या फिर रिमिक्स गानों में शेफाली जरीवाला ने पहना है, तो क्या आप एक पल चौंक नहीं जाएँगे? आप भले ही किसी बड़ी संस्था में चीफ एक्जीक्यूटिव ही क्यों न हों, पर बिटिया की लगातार नई फरमाइशों को पूरा नहीं कर पाएँगे. पैसे खत्म हो जाएँगे, पर फरमाइशें नहीं. ऐसे में बिटिया का रुठना स्वाभाविक है और आपका सोचना भी.
दुनिया लगातार बदल रही है और बदल गए हैं जीवन मूल्य. अब बच्चों के आदर्श महापुरुष और वीरांगनाएँ नहीं, बल्कि कम से कम कपड़े पहनने वाली नायिकाएँ, मॉडल और छोटे परदे के माध्यम से समाज में अपसंस्कृति फैलाने वाली रिमिक्स कन्याएँ और तन उघाड़ने वाले युवा होते हैं. ग्लेैमर की चकाचौंध में डूबे आज के युवाओं की बात ही निराली है. ये अपनी दिशा से अन्जान है. न इन्हें वर्तमान की चिंता है न भविष्य की. ग्लेमर की दुनिया में प्रवेश करने के लिए अपनी पूरी जायज-नाजायज शक्ति लगाने वाले ये युवा क्या करना चाहते हैं, नहीं मालूम. मंजिल ही स्पष्ट नहीं तो पड़ावों के क्या कहने?
समाज में फैली इस अपसंस्कृति का लाभ उठाने वाले भी कई लोग हैं. आए दिन अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में ऐसे विज्ञापन प्रकाशित होते ही रहते हैं, जिससे युवाओं को लुभाया जाता है. भटका युवा इसमें फँसकर अपना सबकुछ गँवा बैठता हैं. इसके बाद या तो वह आत्महत्या कर लेता है या फिर नशीली दवाओं का सेवन करते हुए अपराध की दुनिया में आश्रय पाता है. मुम्बई हो या कोलकाता, चेन्नई हो या दिल्ली, या फिर बैंगलोर, हैदराबाद, गोवा, जयपुर, भोपाल, नागपूर, अहमदाबाद कोई शहर ऐसा नहीं है, जहाँ रंगीन सपने न बेचे जाते हो. सपने सच करने की चाहत रखने वाले युवाओं के साथ जो कुछ भी होता है, वह तो कानून के दायरे में है, लेकिन जो ये सब करने के लिए उन्हें विवश करते हैं, उनके लिए हमारा संविधान खामोश है. इसलिए ये बेखौफ हो कर अपने कारनामों को अंजाम देते रहते हैं. सौंदर्य के नाम पर कामुकता बेचने वाले ये आदमखोर आज समाज को रसातल में ले जा रहे हैं. शहरों में जगह-जगह ऊग आए व्यूटीपार्लर, हैल्थ क्लब और व्यूटी क्लीनिकों की लगातार बढ़ती संख्या इस बात का परिचय देती है कि यहाँ जो होना चाहिए, वह नहीं होता. युवाओं की भटकन यहीं से शुरु होती है. इसमें उच्च वर्ग के युवा तो किसी तरह पार लग जाते हैं, किंतु मध्यम वर्ग के युवाओं की हालत बहुत ही दयनीय हो जाती है.
उच्चवर्ग के समाज में भटके युवाओं के आचरण को भी गर्व के साथ देखा जाता है. जवान बेटी का देर रात लड़खड़ाते कदमों से घर आना, उसके पर्स में गर्भ-निरोधक गोलियों का होना, पालकों को हैरत में नहीं डालता. इसे वे आज की जरूरत समझकर खामोश हो जाते हैं. पर मध्यम वर्ग की स्थिति बहुत भयानक होती है. एक तरफ उच्चवर्ग से प्रतिस्पर्धा और दूसरी तरफ आय के कम होते स्रोत युवाओं के भीतर की छटपटाहट को बढ़ा देते हैं. यही वह क्षण होता है, जब उनके कदम लड़खड़ा जाते हैं और वे विश्व के सबसे प्राचीन व्यवसाय में डूब जाते हैं. युवा तो खैर इस दलदल से कुछ हटकर स्वयं को अलग कर लेते हैं, किंतु युवतियों के लिए यह वन-वे है, जहाँ से ये कभी लौट कर नहीं आती.
रूप साम्राज्ञी बनने की लालसा में कब घर छूटा, माँ-बाप, भाई-बहन और रिश्तेदारों का साथ छूटा, इन सब कोमल संवेदनाओं से अछूती ये रूपबालाएँ एक अनजान डगर पर उसकी चकाचौंध में वशीभूत हो कर भटकती चली जाती हैं. कुछ ही समय में ये इतने आगे निकल जाती हैं कि वापस न आना ही उनकी नियति बन जाती है. सौंदर्य के बांजार की ये ललनाएँ समाज के कामांधों की काम वासनाओं का इस तरह से शिकार होती हैं कि उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं बचता. ऐसे में चलते जाना उनकी मजबूरी बन जाता है और वे चलते-चलते ऐसी अंधेरी गुफा में पहुंच जाती हैं, जहाँ मौत उनका इंतजार करती रहती है.
सवाल ये उठता है कि आखिर इतनी सामाजिक संस्थाएँ आखिर कर क्या रही हैं? पुलिस की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण है. वह आज अपराधियों के साये में अपना काम बखूबी कर रही है. मिलीभगत, साँठगाँठ, रिश्वतखोरी, चापलूसी, महीना, हफ्ता, वसूली आदि शद्व इनके आसपास ही रहते हैं. इस विभाग में जो ईमानदार हैं, उन्हें काम करने का अवसर नहीं मिलता और वे सुदूर किसी कस्बेनुमा शहर में अपना जीवन बिताने को विवश रहते हैं. क्योंकि मालदार थाने की बोली लगाने के लिए इनके पास ईमानदारी के अलावा और कोई धन नहीं होता. ये विभाग अब नकारा साबित हो चुका है. रही बात सरकारी संस्थाओं की, तो वे ऑंकड़ों से खेलना जानती हैं. अखबारों, टीवी पर अपना थोबड़ा दिखाने तक ही इनकी रुचि होती है. इन्हें अपने कवरेज से मतलब होता है, ताकि कतरनों को दिखाकर वे सरकार से और अधिक अनुदान ले सकें. ऐसे में कहाँ से उम्मीद रखी जाए कि भटके हुए युवाओं को कोई अच्छी राह दिखाए. आए दिन साधुओं द्वारा महिलाओं, युवतियों ओर बालाओं से किए जा रहे अनाचार की खबरें पढ़ने को मिल रही हैं, इससे ही समाज की जागरुकता का परिचय मिलता है. जब घर में ही युवा पुत्री सुरक्षित नहीं है, तो फिर कहाँ से यह विश्वास किया जाए कि बिटिया यहाँ सुरक्षित रहेगी.
ये सब तो समाज की एक इकाई हैं, पर सबसे महत्वपूर्ण हैं पालक. उन्हें इस बात पर जरा भी दु:ख नहीं होता कि स्टेज पर कैटवाक करने वाली उनकी बिटिया के अंगों पर क्या-क्या छींटाकसी नहीं हो रही है? वे खुद भी बिटिया को ऐश्वर्या राय बनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहते. बड़ा अच्छा लगता है उन्हें, जब बिटिया कमाना शुरू कर देती है. पर यह धन कहाँ से किस तरह आ रहा है, यह जानने की जुर्रत कोई पालक नहीं करना चाहता. जब संस्कार की बुनियाद ही गलत हो, तो फिर भवन को किस तरह दोषी माना जा सकता है. सामाजिक विषमताओं और विद्रुपताओं के बीच आज की पीढ़ी किस तरह अपने भविष्य का निर्माण करे, यह कोई बता सकता है भला? इसी समाज की एक और स्वच्छ तस्वीर भी है, किंतु कितने लोग सर्ुख्ाियाँ पाते हें? अपयश का प्रचार जोरशोर से होता है, किंतु ईमानदारी की चर्चा तक नहीं होती. यह बदले हुए परिवेश और नैतिक मूल्यों के बिना जिंदा रहने वाले समाज का सच है, जिसे हमें आज स्वीकारना ही होगा. इसे बदलने के लिए पहले खुद को बदलना होगा, तभी सही शुरुआत होगी.
नारी के इस विकृत और वीभत्स रूप को बदलने के लिए पहला प्रयास नारी को ही करना होगा. अश्लीलता,उन्मुक्तता, फूहड़ता, विचारों का हल्कापन ये सभी समाज का सच नहीं है. समाज का सच आज भी हमारी संस्कृति और सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है. इतिहास आज भी सीता, सावित्री, शकुंतला, कुंती के बलिदान की बात कहता है और इसे हमारा वर्तमान अब भी धीमी आवाज के साथ स्वीकारता है. हमें यह आवाज बुलंद करनी होगी. नई पौध को यह सीखाना होगा कि खुलापन शरीर का नहीं विचारों का होना चाहिए, क्योंकि शरीर का खुलापन उत्तेजना को जन्म देता है और उत्तेजना अस्थाई होती है. इसके विपरित विचारों का खुलापन पवित्र भावनाओं को स्थाई रूप से मन में आश्रय देता है. आज पूरी तरह से आधुनिक बाला पर कुरबान हुआ युवा भी कल जब विवाह बंधन में बंधना चाहता है, तो उसकी कल्पना में पत्नी के रूप में एक संस्कारी भारतीय नारी की ही तस्वीर होती है. वह प्रेमिका के रूप में तो नारी के अमर्यादित छवि को स्वीकार कर लेता है, किंतु पत्नी के रूप में बिल्कुल नहीं. यही है आज के युवा का सच. इस सच को स्वीकारते हुए नारी को अपनी छवि बदलनी ही होगी.
तो यह है उस जागरुक समाज की एक तस्वीर, जो सोया हुआ है. इसका जागना बहुत मुश्किल लग रहा है. जिन युवाओं के कांधे पर आज देश का भविष्य टिका हुआ है, वही आज अपने पथ से विचलित हो रहा है. उसे मालूम ही नहीं कि उसे जाना कहाँ है. नेताओं से किसी अच्छे कार्य की उम्मीद करना ही बेकार है, पुलिस बिक गई है, साधु-संन्यासी भोगी हो गए हैं, लालच में आकर न्यायाधीश भी अपने फैसले बदलने लगे है, ऐसे में किससे उम्मीद की जाए कि वे देश का भविष्य सँवारेंगे?
डॉ. महेश परिमल

Post Labels