शनिवार, 27 अक्तूबर 2007

शांति दूत बनते भारतीय चिकित्सक

डा. महेश परिमल
भला डाक्टर भी कभी शांतिदूत बन सकते हैं? यह प्रश्न भले ही अटपटा लगे, लेकिन यह सच है कि चिकित्सक भी दो देशों को करीब लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. कहा तो यह जाता है कि विदेशों में अच्छा इलाज होता है. यह सच हो सकता है, लेकिन ऐसा इलाज केवल वही लोग पा सकते हैं, जो ऐश्वर्यशाली हों, या फिर हमारे देश के नेता हों. आम आदमी को भला ऐसे महँगे इलाज कैसे प्राप्त हो सकते हैं? इसका दूसरा पहलू यह है कि पिछले कुछ माह से यह खबर बार-बार पढ़ने को मिली कि पाकिस्तान, बंगलादेश, नेपाल जैसे विकासशील देशों के कुछ मासूमों का इलाज भारतीय डाक्टरों ने किया, उनका यह ऑपरेशन सफल रहा. भारतीय डाक्टरों ने इस तरह से अपनी श्रेष्ठता का परिचय दिया. इन सफल ऑपरेशनों से यह सिध्द होता है कि अगर सुविधा और साधन मिले, तो भारतीय चिकित्सक भी विदेशी चिकित्सकों से लोहा ले सकते हैं.
यदि आज के कांन्वेंटी शिक्षा प्राप्त कर रहे किसी बच्चे को उसकी दादी गणेश जी की कथा सुनाए, और बताए कि शिवजी ने पहले क्रोध में आकर गणेश का मस्तक धड़ से अलग कर दिया और फिर पार्वती का रोना देखकर एक हाथी का मस्तक उस धड़ से जोड़ दिया. निश्चित ही यह सुनकर वह बच्चा अपनी दादी की खिल्ली उड़ाएगा. वह इस कहानी को कोरी गप्प समझेगा. लेकिन पुराणों में घटित यह घटना कोरी गप्प तो कतई नहीं है. हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास में कई ऐसी घटनाएँ हैं, जो चिकित्सकीय जगत के लिए आज भी हैरत में डालने वाली हैं. पुराणों में जो कुछ बताया गया है, आज उसका एक अंश ही प्रयुक्त हो रहा है. आज भी हमारे देश में कई ऐसी चिकित्सा पध्दति काम में लाई जा रही है, जिससे लोग लाभान्वित हो रहे हैं. मिट्टी, फूल, रंग, आदि प्राकृतिक चिकित्सा आज भी कई स्थानों में प्रचलित हैं.
कुछ वर्षों पहले पूर्वी भारत के एक हृदय विशेषज्ञ डा. बरुआ ने सूअर का हृदय मानव के शरीर में प्रत्यारोपित करने का अर्धसफल प्रयास किया था. अभी पिछले दिनों ही चेन्नई के डाक्टरों ने मात्र 32 दिनों के एक मासूम के हृदय में भैंस के गले की एक नस को प्रत्यारोपित कर उसे एक नया जीवन दिया. यह पूरी घटना हमें भले ही अवास्तविक लगती हो, किंतु यह बिलकुल सच है कि डाक्टरों ने उस मासूम को नया जीवन देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
पेलेस्टाइन के एक बच्चे को चेन्नई लाया गया, उस समय वह केवल 20 दिनों का ही था. उस बच्चे को 'ट्रंक्स आर्टेरियस' नामक गंभीर बीमारी थी. ऐसी बीमारी दस हजार बच्चों में से एक को होती है. उसके हृदय के स्थिति काफी गंभीर थी. उसके फेफड़ों तक पर्याप्त आक्सीजन और खून नहीं पहुँच पा रहे थे. फलस्वरूप बच्चा लगभग मृतप्राय था. बीस दिन के बच्चे की कल्पना कीजिए, कितना नाजुक होगा उसका शरीर. मक्खन के गोले जैसा मुलायम. उसकी हार्ट सर्जरी करना याने लोहे के चने चबाना जैसा था. परंतु डाक्टर चेरियन ने यह चुनौती स्वीकार कर ली. उन्होंने भैंस के गले की रक्तवाहिनी (नेक वेन विथ वाल्व) लेकर उसे बच्चे के शरीर पर प्रत्यारोपित किया गया, इससे उस मासूम को नया जीवन मिला.
इस संबंध में डा. चेरियन ने बताया कि ट्रंक्स आटर्ेरियस से ग्रस्त मरीज के हृदय में शुद्ध-अशुध्द रक्त का मिश्रण हो जाता है. फ्रंटियर लाइफ लाइन अस्पताल और मीट प्रोडक्ट्स ऑफ इंडिया के बीच एक समझौता हुआ हे. मीट प्रोडक्ट्स ऑफ इंडिया के इस कतलखाने में रोज 30 सूअर और 300 दुधारु पशु (केटल) हलाल किए जाते हैं. यहाँ से अस्पताल को जानवरों के विभिन्न अंग प्राप्त हो जाते हैं. यदि किसी को वाल्व या किसी नस की आवश्यकता है, तो वहाँ से उक्त अंग लेकर अस्पताल की लेब में पूरी तरह से साफ और जंतुरहित कर उसका उपयोग मरीजों के अंगों में प्रत्यारोपित कर किया जाता है. यूरोप में भैंस के गले की रक्तवाहिनी का वाल्व 80 हजार रुपए से एक लाख रुपए में प्राप्त होता है, वही वॉल्व उन्हें यहीं भारत में 25 हजार रुपए में प्राप्त हो जाता है.
ऐसे ही एक अति विकट मामले में कोलंबो में रहने वाले भारतीय चिकित्सकों ने पाकिस्तान के एक मुस्लिम बच्चे को नया जीवन दिया. कराँची के खिजार रंजा के साथ कुदरत ने एक क्रूर मंजाक किया. एक तो उसका हृदय दाहिने तरफ था, दूसरा उसके हृदय में दो के बजाए एक ही चेम्बर था. इससे भी गंभीर बात यह थी कि उसके हृदय और फेफड़ोंके बीच सम्पर्क नहीं था. इससे खिजार की ंजिंदगी जोखिमभरी हो गई थी. इस मामले में चेन्नई और कोलंबो के अपोलो अस्पताल के चिकित्सकों ने वीडियो कांफ्रेंस की. इसके बाद ऑपरेशन का निर्णय लिया. चार घंटे तक चले इस ऑपरेशन के बाद खिजार को नई ंजिंदगी मिली. खिजार रंजा के पिता की ऑंखें हर्ष के ऑंसुओं में डूब गई. धर्म के नाम पर खून की होली खेलने वाले आतंकवादी क्या इस बात को समझ पाएँगे?
भारतीय चिकित्सकों की इस उपलव्धि को देखते हुए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि हमारे देश में भी चिकित्सकों में भी प्रतिभा है. वे भी कुछ अनोखा कर सकते हैं. बस उन्हें तलाश है चुनौतियों की. विदेशों जैसी सुविधा उन्हें भी मिल जाए, तो वे बहुत कुछ कर सकते हैं. डाक्टर को लोग भगवान का दूसरा रूप मानते हैं, लेकिन डाक्टर चेरियन और उसके साथियों ने जो कुछ किया, वह तो उससे भी बढ़कर है. उनके सामने तो मरीज केवल मरीज के रूप में था, अपनी जाति को लेकर कोई मरीज उनके सामने नहीं आया. इस आधार पर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भारतीय पुराणों में जो कुछ लिखा गया है, वह कतई गलत नहीं है. आज भले ही वह साहित्य हमारे देश में उपलव्ध न हो, पर यह सच है कि कभी भारतीय चिकित्सा पध्दति की शालीन परम्परा कायम थी.
डा. महेश परिमल,

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