डा. महेश परिमल
देश के किसी भी शहर का दृश्य ले लो, हर कोई भागा जा रहा है. तेंजी से भागा जा रहा है. आपाधापी मची है. किसी को इतनी फुरसत नहीें है कि थोड़ा रुककर साँस ले ली जाए. लोग ऐसे भाग रहे हैं, जैसे उनकी किस्मत ही भाग रही हो. यह तो तय है कि कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता. इसे सब जानते-समझते हैं. फिर भी लोग हैं कि भागे ही जा रहे हैं. विज्ञान भी प्रतिदिन तेंज से तेंज भागने वाले वाहनों का आविष्कार कर रहा है, फिर भी आदमी इससे भी तेंज वाहन की तलाश में है. इस भागम-भाग में लोगों को यह भी याद नहीं रह जाता कि वे आखिर जा कहाँ रहे हैं.
आजकल किसी से मिलो, वह यही शिकायत करता मिलेगा कि उसके पास समय नहीं है. सच कहा जाए तो जो व्यक्ति यह कह रहा है, यह भी सुनने के लिए सामने वाले व्यक्ति के पास समय नहीें है. सचमुच आज समय किसी के पास नहीं है. पत्नी के लिए पति के पास समय नही है, पत्नी भी घर के काम में इतनी उलझ जाती है कि उसके पास भी पति के लिए समय नहीं है. पिता के पास भी अपने बच्चों के लिए समय नहीं है, बच्चों को होमवर्क से ही फुरसत नहीं कि वे खेलने के लिए समय निकाल सकें. टीचर के पास भी इतना समय नहीं है कि वह बच्चों को बता सके कि होमवर्क कैसे बेहतर कर सकें. बॉस के पास कभी जाओ, तो वे फोन या मोबाइल से इतने चिपके रहेंगे कि उनके पास सामने आए कर्मचारी की बात सुनने के लिए समय नहीं है. यदि कभी कर्मचारी से बात शुरू हो भी गई, तो पता चलता है कि उसे मालिक या चेयरमेन ने बुला लिया है. बात शुरू होने के पहले ही खत्म हो गई. याने कहीं भी किसी को सुनने के लिए समय नहीं है.
इस तरह की शिकायत हर किसी को हर किसी से है. लोगों के पास सब-कुछ है, पर समय नहीं है. आखिर बात क्या है? लोगों के पास आखिर समय क्यों नहीं है? कोई बता सकता है. शायद किसी को यह बताने के लिए भी समय नहीं है, या फिर इस सवाल को जवाब ढूँढ़ने के लिए किसी के पास समय नहीं है. क्या आप जानते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? अगर आपके पास कुछ मिनट हो, तो आओ इस पर विचार करें.
दरअसल देखा जाए तो हम सब में आधुनिकता समा गई है, हममें एक पूरा महानगर समा गया है. शायद यह बात आपके गले न उतरे, पर यह सच है कि हम सब शहरों के ंगुलाम हो गए हैं. हम अपने साथ पूरा एक महानगर लेकर चल रहे हैं. जब तक यह आधुनिकता और यह महानगर हमारे भीतर है, हमारे पास समय नहीं है. अभी कुछ ही दिन पहले भाई-दूज था. मेरी पत्नीे अपने भाई को फोन से कह रही थी, भैया दिन को तो नहीं, पर शाम को घर आ जाना, यही से हम सब ढाबे चलेंगे, वहीं भोजन कर लेंगे. मैंने अपना माथा पीट लिया. ये क्या हो रहा है? बहन अपने भाई को भोजन पर बुला रही है, अपने हाथ से खाना बनाना तो दूर, सीधे ढाबे ले जाकर खाना खिला रही है. विरोध करना तो मुश्किल था. मैं भी चला उनके साथ ढाबे. शहर से काफी दूर निकल आए हम सब. रास्ते में डूबता सूरज देखना मुझे ही नहीं, सबको अच्छा लगा. बच्चों के लिए तो यह सब अनोखा था. चटख लाल सूरज उन्होंने देखा तो था, पर इस तरह नहीं. वे खुश थे. एक बात विशेष रूप से यह थी कि यहाँ बिलकुल भी शोर न था. हम सब एक ढाबे में रुके, भोजन करते-करते वहाँ काफी वक्त निकल गया. इस बीच सबने वहाँ सुकून महसूस किया. एक तो हमारे साथ शहरी शोर न था, दूसरे हम बहुत दिन बाद एक साथ कहीं निकल पाए थे. हम सब बहुत दिनों बाद इस तरह मिल रहे थे. हमारे बीच कई गिले-शिकवे थे, जो उस दिन लंबी बातचीत में दूर हो गए. शहर से दूर जाकर हम सब काफी करीब आ गए थे.
लौटने के बाद मैंने महसूस किया कि आज क्या बात है, दिल इतना हलका क्यों लग रहा है? इतनी दूर जाकर आ जाने के बाद भी थकान नहीं है. सब कुछ सामान्य लग रहा था. कहाँ तो मैं परंपराओं से बँधकर पत्नी पर झुँझला रहा था और कहाँ अब ये राहत महसूस कर रहा हूँ. इसकी वजह केवल यही थी कि हम बहुत दिनों बाद साथ-साथ रहे. उस वक्त हमारे बीच न तो आधुनिकता थी और न ही एक पूरा महानगर. ढाबे पर जाकर भोजन करने को आप भले ही आधुनिकता कह लें, पर घर से बाहर जाने को आधुनिकता नहीं कह सकते.
उस दिन हम सबके पास समय था. हमारी छुट्टी थी. हमने शांत होकर दिन बिताने का उपाय ढूँढ़ा था. हमने परस्पर समय माँगा था, जो हमें मिला. हमें समय मिला, इसलिए हम करीब आए. हमने समय न माँगा होता, तो शायद हम करीब न आ पाए होते. उस दिन समय हम पर नहीं, हम समय पर हावी थे. बस यहीं हमने ढँढ़ लिया, हमारे भीतर भागने वाले व्यक्ति को. हम तो भागना नहीं चाहते थे, हमारे भीतर पसरा हमारा महानगर, हमारी आधुनिकता हमें हमसे ही दूर कर रही थी.
जिस तरह हर शहर का एक भूगोल होता है, उसी तरह हर शहर का अपना एक मिजाज होता है, उसे भागने वाले लोग ही पसंद हैं. वह स्वयं भी रुकना नहीं चाहता. वह भी भागना चाहता है. उसे भी आधुनिक बनना है. जितना अधिक वह आधुनिक होगा, उतने ही उसे भागने वाले लोग मिलेंगे. भागना उसकी प्रवृत्ति है और भागते रहना उसकी विवशता. इसी विवशता में डूब जाता है इंसान. तब फिर कहाँ रह पाता है, पल दो पल के लिए भी कुछ सोचने विचारने का समय. बहुत समय देते हैं हम अपने इस शहर को. कभी भीतर के गाँव को भी समय दो. यह वही गाँव है, जहाँ की माटी ने हमें इतना मंजबूत बनाया कि आज हम शहर से टक्कर ले रहे हैं. वह गाँव जो कभी अपना था, आज हमारे ही भीतर कहीं दुबक गया है, वह गाँव महानगर के आधुनिकता में दब गया है. अब कहाँ वह अमरैया और कहाँ खेत-खलिहान. अब तो कंक्रीट के जंगल हैं और ऊँची-ऊँची गगनचुम्बी इमारतें. हमारा गाँव इसी में तो दबा है. आओ आज हम उसे बाहर निकालें, उस खुली हवा में लाएँ, उसे अपने भीतर महसूस करें. फिर देखो हम सबके पास समय ही समय होगा. एक ऐसा समय जिसमें रहकर हम अपने आप से तो बात कर ही सकेंगे.
डा. महेश परिमल
बुधवार, 31 अक्तूबर 2007
कोई मुझे थोड़ा-सा समय दे दे
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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सर, आपने बिल्कुल सही लिखा है. इस कदर भागम-पेल मची कोई सही ग़लत नही देख रहा, कोई समय नही देख रहा. बस दौड़ रहें है एक अंतहीन दौड़. दो लाईने दे रहा हूँ.
जवाब देंहटाएं"अब होने लगी तरक्की और बाज़ार की बातें
काम से यारों अब ये शहर भी गया."
मैंने सारी भागमभाग से समय निकालकर आपका पूरा लेख पढ़ डाला।
जवाब देंहटाएंकाश कि छोटी जगहों, जो गाँव से भी छोटी हैं, में भी जैसा आप कह रहे हैं सबके पास समय होता ! परन्तु यह आवश्यक नहीं है ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती