एक अक्टूबर को वृध्द दिवस
डा. महेश परिमल
'माँ तुम इस माटी से कितना अच्छा चूल्हा बनाती हो कि लोग तो उसे मुझसे माँग ही लेते हैं.' बहू के ये प्यार भरे वाक्य सास को सदैव ही और भी अधिक काम करने के लिए प्रेरित करते. वह और अधिक मेहनत से बहू के लिए चूल्हा कनाती. गाँव से आई सास को यह शायद पता ही नहीं था कि शहरी बहू उसे किस तरह से बेवकूफ बना रही है. क्योंकि बहू से लोग चूल्हा तो ले जाते थे, पर उसके दाम भी चुकाते थे. ये बात सास को नहीं मालूम थी. इस तरह से बहू अनेक तरह से अपनी सास का शोषण करती और सास को इसकी भनक तक नहीं लगती.
ये है हमारे बुंजुर्गों की स्थिति! ये वही बुंजुर्ग हैं, जो आज कहीं-कहीं खून के ऑंसू रो रहे हैं. बचपन में यही संतान माँ के बिस्तर को गीला करती थी, आज उनकी ऑंखों को गीला करती हैं. वैसे वृध्दाश्रमों में भी यह पीढ़ी कोई अधिक सुखी नहीं है. सर्वेक्षण रिपोर्ट चाहे कुछ भी कहे, पर सच तो यह है कि वहाँ भी केवल धन का ही खेल है. कौन कितना मालदार है, या फिर किसकी कितनी रकम बैंक में जमा है. इसी आधार पर उनसे व्यवहार होता है. बुंजुर्ग अब हमारे लिए 'अनवांटेड' हो गए हैं. उन्हें हमारी जरूरत हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है. बार-बार हमें टोकते रहते हैं, वे हमें अच्छे नहीं लगते. हम स्वतंत्रता चाहते हैं, इसलिए हमने उन्हें अपनी मंर्जी से जीने के लिए छोड़ दिया. अब वे वहाँ खुश रहें और हम अपने में खुश रहें, बस......
ये विचार हैं आज के इस कंप्यूटर युग के एक युवा के. उन्हें याद नहीं है कि उसके माता-पिता ने उसे किस तरह पाला-पोसा. याद नहीं, ऐसी बात नहीं, बल्कि याद रखना ही नहीं चाहते. उनका मानना है कि उन्होंने हम पर एहसान नहीं किया, बल्कि अपनेर् कत्तव्य का पालन ही किया है. सभी माता-पिता अपने बच्चों का पढ़ाते-लिखाते हैं. उन्होंने कुछ अलग नहीं किया. ये हैं रफ-टफ दुनिया के युवा विचार. कुछ वर्ष बाद जब इन्हीं युवाओं पर परिवार की जिम्मेदारी आएगी, तब ये क्या सचमुच सोच पाएँगे कि हमारे माता-पिता ने हमें किस तरह बड़ा किया?
बड़े भाई के असामयिक निधन का दु:खद समाचार मिला, हृदय द्रवित हो उठा. मैं उनसे 14 घंटे दूर था. इसलिए उनकी अंत्येष्टि में शामिल नहीं हो पाया. अब मुश्किल यह थी कि निधन की सूचना पाने के बाद मुझे क्या करना चाहिए? घर में हम केवल चार प्राणी, कोई बुजुर्ग नहीं. वे होते तो हम शायद उनसे कुछ पूछ लेते, आखिर वे ही तो होते हैं हमारी परंपराओं और रीति-रिवाजों के जानकार. ऐसे में सहसा वह झुर्रीदार चेहरा हमारे सामने होता है, जिसकी गोद में हमारा बचपन बीता, जिनकी झिड़की हमें उस समय भले ही बुरी लगी हो, पर आज गीता के उपदेश से कम नहीं लगती. उनकी चपत ने हमें भले ही रुलाया हो, पर आज अकेलेपन में वही प्यार भरी हलकी चपत हमें फिर रुलाती है.
'वसुधैव कुटुम्बकम्' की अवधारणा खंडित हो चुकी है. एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोड़ना चाहते हैं. पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियाँ हाशिए पर चली जाती हैं. इसकी वजह भी हम हैं. हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते. इससे उस पोपले मुँह के अहम् को चोट पहुँचती है. उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता. भविष्य में जब कभी हमारा आज्ञाकारी पुत्र हमारी परवाह न करते हुए प्रेम विवाह कर लेता है और अपनी दुल्हन के साथ हमारे सामने होता है, हमसे आशीर्वाद की माँग करता है. तब हमें लगता है कि हमारे बुजुर्ग भी हमारे कारण इसी अंतर्वेदना की मनोदशा से गुजरे हैं. तब हमने उन्हें अनदेखा किया था.
संभव है अपने बुजुर्ग की उस मनोदशा को आपके पुत्र ने समझा हो और आपको उनकी पीड़ा का आभास कराने के लिए ही उसने यह कदम उठाया हो. ऐसा क्यों होता है कि जब बुजुर्ग हमारे सामने होते हैं, तब ऑंखों में खटकते हैं. वे जब भी हमारे सामने होते हैं, अपनी बुराइयों के साथ ही दिखाई देते हैं. बात-बात मेंं हमें टोकने वाले, हमें डाँटने वाले और परंपराओं का कड़ाई से पालन करते हुए दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करने वाले बुजुर्ग हमें बुरे क्यों लगते हैं? आखिर वही बुजुर्ग चुपचाप अपनी गठरी समेटकर अनंत यात्रा में चले जाते हैं, तब हमें लगता है कि हम अकेले हो गए हैं. अब वह छाया हमारे सर पर नहीं रही, जो हमें ठंडक देती थी, दुलार देती थी, प्यार भरी झिड़की देती थी.
यही समय होता है पीढ़ियों के द्वंद्व का. एक पीढी हमारे लिए छोड़ जाती है जीने की अपार संभावनाएँ, अपने पराक्रम से हमारे बुजुर्गों ने हमें जीवन की हरियाली दी, हमने उन्हें दिए कांक्रीट के जंगल. उन्होंने दिया अपनापन और हमने दिया बेगानापन. वे हमारी शरारतों पर हँसते-हँसाते रहे, हम उनकी इच्छाओं को अनदेखा करते रहे. वे सभी को एक साथ देखना चाहते थे, हमने अपनी अलग दुनिया बना ली. वे जोड़ना चाहते थे, हमारी श्रध्दा तोड़ने में रही. घर में एक बुजुर्ग की उपस्थिति का आशय है कई मान्यताओं और परंपराओं का जीवित रहना. साल में एक बार अचार या बड़ी का बनना, या फिर बच्चों के लिए रोज ही प्यारी-प्यारी कहानियाँ सुनना, बात-बात में ठेठ गँवई बोली के मुहावरों का प्रयोग या फिर लोकगीतों की हल्की गूँज. यह न हो तो भी कभी-कभी गाँव का इलाज तो चल ही जाता है. पर अब यह सब कहाँ?
अब यह बात अलग है कि स्वयं बुजुर्गों ने भी कई रुढ़िवादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नातिन या पोते की बाइक पर पीछे निश्ंचित होकर बैठ जाते हैं. यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा. पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं. पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह ंगलत है. पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है. कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का काँधा नहीं होता. बुजुर्ग या तो संसार छोड़ चुके होते हैं या गाँव में एकाकी जीवन बिताना प्रारंभ कर देते हैं.
आज उनकी सुनने वाला कोई नहीं है. उनके पास अनुभवों का भंडार है, उनके दिन, रातों के कार्बन लगी एक जैसी प्रतियों से छपते रहते हैं. कही कोई अंतर नहीं. वे अपने समय की तुलाना आज के समय के साथ करना चाहते हैं, उनके ंफर्क को रेखांकित करना चाहते हैं, पर किससे करें? उनके अंधिकांश मित्र छिटक चुके होते हैं. यदि आप किसी बुजुर्ग के पास बैठकर उसे अपनी बात कहने का अवसर दें और उसकी अभिव्यक्ति का आनंद महसूस करें, तो आप पाएँगे कि आपने बिना कुछ खर्च किए परोपकार कर दिया है. फिर शायद उन्हें कराहने की जरूरत नहीं पड़े और न बिना बात बड़बड़ाने की. दिन में आपने जिस बुंजुर्ग की बात ध्यान से सुनी हो, उसे रात में चैन की नींद लेते हुए देखें, तो ऐसा लगेगा कि जैसे आपका छोटा-सा बच्चा नींद में मुस्करा रहा हो.
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं. उनके पोपले मुँह से आशीर्वाद के शब्द को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएँ हैं. दादी माँ का केवल 'बेटा' कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं. यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दे, तो समझो हम निहाल हो गए. लेकिन वृध्दाश्रमों की बढ़ती संख्या इस बात का परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए असामाजिक हो गए हैं. हमने उन्हें दिल से तो निकाल ही दिया है, अब घर से भी निकालने लगे हैं. इसके बाद भी इन बुजुर्गाें के मुँह से आशीर्वाद स्वरूप यही निकलता है कि जैसा तुमने हमारे साथ किया, ईश्वर करे तुम्हारा पुत्र तुम्हारे साथ वैसा न करे. देखा..... झुर्रीदार चेहरे की दरियादिली?
डा. महेश परिमल