डा. महेश परिमल
लो फिर आ रहा है, हिंदी दिवस. तय है कि वही सब कुछ होगा, जो होता आया है. सभाएँ, समारोह, हिंदी लेखन स्पर्धा, वाद-विवाद प्रतियोगिता, हिंदी में काम करने का संकल्प, ऍंगरेजी की गुलाम मानसिकता से बाहर निकलने का प्रण आदि वह सब कुछ होगा. भले ही इसका प्रतिफल कुछ न मिले, लेकिन कार्यक्रम तो होने ही हैं और होंगे. कोई बता सकता है कि हिंदी के अलावा किस भाषा का दिवस मनाया जाता है? हिंदी दिवस का आगमन हमेशा से श्राध्द पक्ष के आसपास ही होता है. क्या इससे नहीं लगता कि हम हिंदी का ही श्राध्द मना रहे हैं? हर साल लिए जाने वाले संकल्पों को याद किया जाए, तो न जाने कितने संकल्प दम तोड़ते दिखाई देंगे.
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम हर वर्ष हिंदी दिवस मनाते हैं. इस बहाने हम याद कर लेते हैं कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, इस देश की भाषा है, जन-जन की भाषा है, हमें इसे धारण करना चाहिए. हिंदी के लिए तैयार किए गए ये तमाम जुमले केवल हिंदी को जीवित रखने का एक उपक्रम मात्र ही है. देखा जाए, तो हिंदी की दशा हमारे देश के कर्णधारों की विफलता का एक जीता-जागता नमूना है. क्योंकि भारत का संविधान भाग 17 अनुच्छेद 343 (।) में स्पष्ट लिखा है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. इतने स्पष्ट निर्देशों के बाद भी आज ऍंगरेजी पूरे देश में इतनी हावी है कि उसके सामने हिंदी केवल छटपटाकर रह जाती है. हम भले ही लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति को दोष देते रहें, पर सच तो यह है कि इतने शिक्षाशास्त्रियों के देश में अभी तक ऐसी शिक्षा नीति नहीं बन पाई, जिससे देश के नागरिकों को अपनी भाषा में पढ़ने की छूट मिल सके. मैकाले को दोष देना उचित नहीं, क्योंकि उसने वही किया, जो उस समय की आवश्यकता था. पर स्वतंत्रता के 58 वर्षों बाद भी हम अपने देश की राष्ट्रभाषा में शिक्षा नहीं दे सकते, तो यह आखिर किसका दुर्भाग्य है?
मान लो कोई छात्र तकनीकी शिक्षा राष्ट्रभाषा में लेना चाहता है, या फिर कोई चिकित्सक इस देश की राष्ट्रभाषा में उपाधि प्राप्त करना चाहता है, तो क्या उसकी यह इच्छा पूर्ण होगी? अब इसे इस देश का दुर्भाग्य नहीं कहा जाए, तो और क्या कहा जाए कि इस देश में कोई उच्च शिक्षा अपनी राष्ट्रभाषा में प्राप्त नहीं कर सकता. हमारा देश जापान की तरह उसका इतना भी अनुकरण नहीं कर सकता कि उस देश में जो भी पुस्तक आए, वह पहले जापानी भाषा में अनूदित होगी, फिर सबके हाथों तक पहुँचेगी.
जो अपनी माँ का बीमार छोड़कर दूसरे की माँ की सेवा करता है, उसे क्या कहा जाए? निर्लज्ज या स्वार्थी? कुछ भी कह लो, पर सच तो यही है कि आज हमारे देश में जिस तेजी से ऍंगरेंजी का प्रभाव बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से हम गुलाम मानसिकता के शिकंजे में फँसते जा रहे हैं. शायद किसी को विश्वास न हो, पर यह सच है कि हमारे देश में ऍंगरेंजी जानने वाले आबादी का कुल चार प्रतिशत हैं, फिर भी हम ऍंगरेंजी के ंगुलाम हैं. यह तो ठीक वैसा ही हुआ कि मात्र दो लाख ऍंगरेंजों ने 33 करोड़ लोगों को शताब्दियों तक गुलाम बनाकर रखा. वे तो चले गए, पर पीछे बहुत-कुछ ऐसा छोड़ गए हैं, जिससे उबरना काफी मुश्किल है. हम भले ही कितना ही राग अलाप लें कि दूसरे देशों में हिंदी का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है, पर सच तो यह है कि हमारे ही देश में हमारी ही राष्ट्रभाषा की लगातार उपेक्षा हो रही है.
हिंदी भले ही हमारी राष्ट्रभाषा हो, पर हमने सदैव ऍंगरेंजी पर ही अधिक ध्यान दिया. कारण स्पष्ट है, क्योंकि हमने कभी इसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा. हमारा बच्चा यदि हिंदी में कमंजोर हो, तो हम ध्यान नहीं देते, पर ऍंगरेंजी मेें कमजोर है, तो एक अच्छे शिक्षक की तलाश में जुट जाते हैं. हम अपने ही देश में हिंदी को अपमानित होता देख रहे हैं. अभी उस दिन ही देश की महान् लेखिका महादेवी वर्मा का जीवन चरित्र जानना चाहा. इंटरनेट पर कई साइट्स देखी, पर आश्चर्य सभी जगह उनका परिचय ऍंगरेंजी में ही मिला. हाँ हिंदी में उनकी कुछ कविताएँ अवश्य पढ़ने को मिली. यह है हमारे देश का दुर्भाग्य!
भाषा एक माध्यम है अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का. इससे विचारों को गति मिलती है. इसका सही उच्चारण और सही लिखने का ढंग इसे और प्रभावशाली बनाता है. वैसे पेट तो रद्दी भोजन से भी भर जाता है, फिर भी मानव सुस्वादु भोजन की चाहत क्यों रखता है? इसीलिए ना कि भोजन का पूरा स्वाद लेकर भूख को शांत किया जाए. यही स्थिति भाषा को भी लेकर है, पर हमारे देश में लोग अपनी राष्ट्रभाषा को लेकर उदासीन रहते हैं, यही उदासीनता ही हमें भाषा के प्रति अरुचि का भाव पैदा करती है.
भाषा एक प्रवाहमान नदी के समान है. इसमें जितने क्षेत्रों का पानी समाहित होगा, वह उतनी ही बोधगम्य होगी. इसकी गतिशीलता ही भाषा को सम्पन्न और बोधगम्य बनाती है. इसकी गति को रोकने से हमारा भला नहीं हो सकता, अपितु भाषा तेज गति से आगे बढ़कर अन्य क्षेत्रों के शब्दों को अपने में समाहित कर लेती है. आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषा के प्रति सचेत हों और उसके प्रयोग में भी अधिक से अधिक सावधानी बरतें. सावधानी न बरतने का ही प्रमाण है कि आज प्रसार माध्यमों में हिंदी और ऍंगरेंजी का इस तरह से मिश्रण किया जा रहा है कि हमें शर्म आती है कि हम हिंदी भाषी हैं. दूसरे देशों की ओर ध्यान दिया जाए, तो वे अपनी भाषा के प्रति बहुत ही सचेत हैं. भाषा की अवहेलना उन्हें कतई पसंद नहीं है. पर हम भारतीयों में अभी तक यह बात नहीं आई है.
डा. महेश परिमल
लो फिर आ रहा है, हिंदी दिवस. तय है कि वही सब कुछ होगा, जो होता आया है. सभाएँ, समारोह, हिंदी लेखन स्पर्धा, वाद-विवाद प्रतियोगिता, हिंदी में काम करने का संकल्प, ऍंगरेजी की गुलाम मानसिकता से बाहर निकलने का प्रण आदि वह सब कुछ होगा. भले ही इसका प्रतिफल कुछ न मिले, लेकिन कार्यक्रम तो होने ही हैं और होंगे. कोई बता सकता है कि हिंदी के अलावा किस भाषा का दिवस मनाया जाता है? हिंदी दिवस का आगमन हमेशा से श्राध्द पक्ष के आसपास ही होता है. क्या इससे नहीं लगता कि हम हिंदी का ही श्राध्द मना रहे हैं? हर साल लिए जाने वाले संकल्पों को याद किया जाए, तो न जाने कितने संकल्प दम तोड़ते दिखाई देंगे.
यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम हर वर्ष हिंदी दिवस मनाते हैं. इस बहाने हम याद कर लेते हैं कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है, इस देश की भाषा है, जन-जन की भाषा है, हमें इसे धारण करना चाहिए. हिंदी के लिए तैयार किए गए ये तमाम जुमले केवल हिंदी को जीवित रखने का एक उपक्रम मात्र ही है. देखा जाए, तो हिंदी की दशा हमारे देश के कर्णधारों की विफलता का एक जीता-जागता नमूना है. क्योंकि भारत का संविधान भाग 17 अनुच्छेद 343 (।) में स्पष्ट लिखा है कि संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी. इतने स्पष्ट निर्देशों के बाद भी आज ऍंगरेजी पूरे देश में इतनी हावी है कि उसके सामने हिंदी केवल छटपटाकर रह जाती है. हम भले ही लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति को दोष देते रहें, पर सच तो यह है कि इतने शिक्षाशास्त्रियों के देश में अभी तक ऐसी शिक्षा नीति नहीं बन पाई, जिससे देश के नागरिकों को अपनी भाषा में पढ़ने की छूट मिल सके. मैकाले को दोष देना उचित नहीं, क्योंकि उसने वही किया, जो उस समय की आवश्यकता था. पर स्वतंत्रता के 58 वर्षों बाद भी हम अपने देश की राष्ट्रभाषा में शिक्षा नहीं दे सकते, तो यह आखिर किसका दुर्भाग्य है?
मान लो कोई छात्र तकनीकी शिक्षा राष्ट्रभाषा में लेना चाहता है, या फिर कोई चिकित्सक इस देश की राष्ट्रभाषा में उपाधि प्राप्त करना चाहता है, तो क्या उसकी यह इच्छा पूर्ण होगी? अब इसे इस देश का दुर्भाग्य नहीं कहा जाए, तो और क्या कहा जाए कि इस देश में कोई उच्च शिक्षा अपनी राष्ट्रभाषा में प्राप्त नहीं कर सकता. हमारा देश जापान की तरह उसका इतना भी अनुकरण नहीं कर सकता कि उस देश में जो भी पुस्तक आए, वह पहले जापानी भाषा में अनूदित होगी, फिर सबके हाथों तक पहुँचेगी.
जो अपनी माँ का बीमार छोड़कर दूसरे की माँ की सेवा करता है, उसे क्या कहा जाए? निर्लज्ज या स्वार्थी? कुछ भी कह लो, पर सच तो यही है कि आज हमारे देश में जिस तेजी से ऍंगरेंजी का प्रभाव बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से हम गुलाम मानसिकता के शिकंजे में फँसते जा रहे हैं. शायद किसी को विश्वास न हो, पर यह सच है कि हमारे देश में ऍंगरेंजी जानने वाले आबादी का कुल चार प्रतिशत हैं, फिर भी हम ऍंगरेंजी के ंगुलाम हैं. यह तो ठीक वैसा ही हुआ कि मात्र दो लाख ऍंगरेंजों ने 33 करोड़ लोगों को शताब्दियों तक गुलाम बनाकर रखा. वे तो चले गए, पर पीछे बहुत-कुछ ऐसा छोड़ गए हैं, जिससे उबरना काफी मुश्किल है. हम भले ही कितना ही राग अलाप लें कि दूसरे देशों में हिंदी का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है, पर सच तो यह है कि हमारे ही देश में हमारी ही राष्ट्रभाषा की लगातार उपेक्षा हो रही है.
हिंदी भले ही हमारी राष्ट्रभाषा हो, पर हमने सदैव ऍंगरेंजी पर ही अधिक ध्यान दिया. कारण स्पष्ट है, क्योंकि हमने कभी इसे सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा. हमारा बच्चा यदि हिंदी में कमंजोर हो, तो हम ध्यान नहीं देते, पर ऍंगरेंजी मेें कमजोर है, तो एक अच्छे शिक्षक की तलाश में जुट जाते हैं. हम अपने ही देश में हिंदी को अपमानित होता देख रहे हैं. अभी उस दिन ही देश की महान् लेखिका महादेवी वर्मा का जीवन चरित्र जानना चाहा. इंटरनेट पर कई साइट्स देखी, पर आश्चर्य सभी जगह उनका परिचय ऍंगरेंजी में ही मिला. हाँ हिंदी में उनकी कुछ कविताएँ अवश्य पढ़ने को मिली. यह है हमारे देश का दुर्भाग्य!
भाषा एक माध्यम है अपने विचारों को अभिव्यक्त करने का. इससे विचारों को गति मिलती है. इसका सही उच्चारण और सही लिखने का ढंग इसे और प्रभावशाली बनाता है. वैसे पेट तो रद्दी भोजन से भी भर जाता है, फिर भी मानव सुस्वादु भोजन की चाहत क्यों रखता है? इसीलिए ना कि भोजन का पूरा स्वाद लेकर भूख को शांत किया जाए. यही स्थिति भाषा को भी लेकर है, पर हमारे देश में लोग अपनी राष्ट्रभाषा को लेकर उदासीन रहते हैं, यही उदासीनता ही हमें भाषा के प्रति अरुचि का भाव पैदा करती है.
भाषा एक प्रवाहमान नदी के समान है. इसमें जितने क्षेत्रों का पानी समाहित होगा, वह उतनी ही बोधगम्य होगी. इसकी गतिशीलता ही भाषा को सम्पन्न और बोधगम्य बनाती है. इसकी गति को रोकने से हमारा भला नहीं हो सकता, अपितु भाषा तेज गति से आगे बढ़कर अन्य क्षेत्रों के शब्दों को अपने में समाहित कर लेती है. आज आवश्यकता इस बात की है कि हम भाषा के प्रति सचेत हों और उसके प्रयोग में भी अधिक से अधिक सावधानी बरतें. सावधानी न बरतने का ही प्रमाण है कि आज प्रसार माध्यमों में हिंदी और ऍंगरेंजी का इस तरह से मिश्रण किया जा रहा है कि हमें शर्म आती है कि हम हिंदी भाषी हैं. दूसरे देशों की ओर ध्यान दिया जाए, तो वे अपनी भाषा के प्रति बहुत ही सचेत हैं. भाषा की अवहेलना उन्हें कतई पसंद नहीं है. पर हम भारतीयों में अभी तक यह बात नहीं आई है.
डा. महेश परिमल