गुरुवार, 6 सितंबर 2007
रिश्तों की गरिमा खोता 'भाई'
डॉ. महेश परिमल
हर साल की तरह इस बार भी रक्षा बंधन का त्योहार आया और चला भी गया। बहुत ही कम लोगों ने इस दिन यह ध्यान दिया होगा कि इस दिन के लिए कई लोग अपने प्रचार के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि महिलाएँ जेल तक पहुँच जाती हैं कैदियों को राखी बाँधने। यह जानकारी हमें अखबार या टीवी से ही मिलती है। यानि कि इसमें भी प्रचार ? रिश्तों में यह कैसी विकृति? भाई-बहन का निष्पाप प्यार भी आजकल प्रचार की वेदी पर चढ़ गया है। अब तो भाई शब्द से ही डर लगने लगा है। बहन के इस भाई को कहीं किसी भाई की नजर न लग जाए? अब तो यह भाई ही सब-कुछ तय करने लगा है। पूरने समाज मेें ये भाई हावी हो गया है।आज जीवन की धरती पर रिश्तों की इंद्रधनुषी धूप ऐसी चटकी है कि हर रिश्ता अपने अर्थ खो रहा है. इन्हीं अर्थ खोते रिश्तों में एक रिश्ता है, भाई-बहन का. सदियों से चला आ रहा यह पवित्र रिश्ता श्रद्धा और मर्यादा से परिपूर्ण है. इस रिश्ते को लेकर न जाने कितनी ही बार भाइयों ने अपनी बहनों के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है, तो कई बार बहनों ने भी अपने धर्म का पालन किया है. भाई-बहन के इस अटूट रिश्ते पर अब उँगलियाँ उठने लगी हैं. अब तो कहीं भी कोई भी सुरक्षित नहीं है. न बहन और न ही भाई.
देखते ही देखते भाई शब्द ने अपनी परिभाषा बदल दी. अब तो भाई शब्द इतना डरा देता है कि जान हलक पर आकर अटक जाती है. बहन अपने भाई से छुटकारा पा सकती है, लेकिन कोई भी इंसान इस भाई से छुटकारा नहीं पा सकता. जिसकी कलाई में राखी बँधी है, वह तो है भाई, पर जिसके हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र है, वह भी तो कुछ है भाई. इस भाई के आगे रिश्तों की गुनगुनी धूप भी आकर सहम जाती है. इसके सामने कोई रिश्ता नहीं होता, इनका रिश्ता केवल अपराध से होता है. आज किसी बहन का भाई होना भले ही फख्र की बात न हो, पर दूसरे ही तरह का भाई होना फख्र की बात हो गई है. एक तरफ ये दूसरा भाई उतनी सहजता से प्राप्त नहीं होता, तो दूसरी तरफ ये ही भाई समाज में अपनी धाक जमाने के लिए काम भी आता है. एकमात्र बहन के यदि आठ भाई भी हुए, तो ये अकेला भाई उन सब पर हावी हो सकता है.
क्या करें, आज समाज का ढाँचा ही बदल गया है. संबंधों की पवित्रता पर अब विश्वास किसे है? हर कोई इसे दागदार बनाने में अपना योगदान दे रहा है. संबंध चाहे ईश्वर से हो या समाज से, इंसान ऐसा कोई भी मौका नहीं चूकना चाहता, जिससे उसका स्वार्थ सधे. स्वार्थ की यह बजबजाती नदी इतनी प्रदूषित हो गई है कि पूरा समाज ही इससे प्रभावित हो रहा है.
भाई-बहन के पवित्र संबंधों को दर्शाने वाला त्योहार रक्षा बंधन भी आज पूरी तरह से व्यावसायिक हो गया है. राखी बाँधने के पहले ही बहन सोच लेती है कि इस बार भैया से क्या लेना है? ये तो है घर की बातें. हमारे समाज में ऐसे बहुत से महिला संगठन हैं, जो इस दिन विशेष रूप से सक्रिय हो जाते हैं. इन संगठनों की महिलाएँ भले ही अपने सगे भाइयों को राखी न बाँध पाएँ, पर शहर की जेल में जाकर वहाँ कैदियों को राखी बाँधना नहीं भूलती. आप शायद उन महिलाओं की पवित्र भावनाओं को समझ सकते हैं. आप शायद यही सोच रहे होंगे कि इससे कैदियों की कलाई सूनी न रह जाएँ, इसलिए इन महिलाओं का यह कार्य पुनीत है. लेकिन आज जब प्रचार और प्रसार की भूख अपना पंजा फैला रही है, तब भी क्या ऐसा सोचना उचित है. ये महिला संगठन चुपचाप अपना काम करे, तो इनकी पवित्र भावनाओं को समझा जा सकता है. पर इस काम को करने के पहले वे इसका खूब प्रचार करती हैं. राखी के दिन जेल जाने के पहले मीडिया को सूचित करना नहीं भूलती. राखी बाँधने का काम पूरा होते ही महिला आत्मसंतुष्टि का भाव लिए अपने घर पहुँचती हैं. सोचती हैं आज एक बड़ा काम हो गया. दिन में लोकल टीवी पर अपने आप को देखकर शायद इतरा भी लें. पर वह क्या सच्चा आत्म सुख प्राप्त कर पाती हैं. उन्हें तो यह भी नहीं मालूम होता कि आज कितनों को राखी बाँधी. चलो यह संख्या मालूम भी हो गई, पर क्या अपने सभी भाइयों के नाम जानती होंगी वे सभी?
एक दृश्य की कल्पना करें. राखी के दिन जिस महिला संगठन ने जेल जाकर कैदियों को राखी बाँधी थी, उस संगठन की अध्यक्ष के घर जन्म दिन की पार्टी चल रही है. इतने में जेल से अपनी सजा पूरी कर उसी दिन छूटने वाला एक कैदी वहाँ पहुँचकर अपनी कथित बहन को प्रणाम करता है और कहता है दीदी, पहचाना मुझे, मैं आ गया हूँ. क्या वह महिला उस कैदी को पहचानते हुए भी सबके सामने उसे भाई के रूप में स्वीकार करेगी?
बदलते जीवन मूल्यों के साथ आज सब कुछ बदल रहा है. अब न तो रिश्तों की गरिमा ही रह गई है और न ही रिश्तों की पवित्रता. अब तो ऐसे-ऐसे रिश्ते बन रहे हैं, जिसे कोई संबोधन ही नहीं दिया जा सकता. अपनी ही बेटी के साथ व्यभिचार करने वाले दुराचारी और हवसखोर पिता को क्या कहेंगे, कभी सोचा है किसी ने. यही नहीं आज तो रिश्तों की आड़ में जो कुछ अनुचित हो रहा है, उससे क्या लगता है कि समाज सही दिशा में जा रहा है?
अभी तो केवल 'भाई' शब्द ने ही अपनी पवित्रता खोई है, पर धीरे-धीरे ऐसे कई शब्द होंगे, जिनकी पवित्रता पर विश्वास करना मुश्किल होगा. इसे आधुनिकता की अंधी दौड़ कहें या समय की खुली माँग, कि आज हम इस बदलाव को महसूस करने के बाद भी इसे अनदेखा किए हुए हैं. हम अच्छी तरह से जानते हैं कि रिश्तों में परिवर्तन आ रहा है और तेजी से आ रहा है. फिर भी इस परिवर्तन के प्रति हमारी चुप्पी क्या ज्वार के पहले की शांत लहरों का परिचय दे रही है? यदि हाँ, तो नहीं चाहिए हमें ऐसा परिचय जो हमारे भीतर की कोमल भावनाओं को ही समाप्त कर दे.
हमारे रिश्तों की गहरी नदी जो यूं ही सूखती रही, तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब मानवता को सिसकने के लिए आंसुओं का भी अकाल होगा. बंजर हो जाएगी स्नेह की धरती और वीरान हो जाएगा हमारा जीवन. हम दूसरे देशों के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने की बातें करते हैं, हम चाँद-तारों को मुट्ठी में कैद करने की बातें करते हैं, इस ग्रह से दूर एक नए ग्रह की खोज और उस पर जीवन होने की बातें करते हैं, पर उसके पहले तो हमें अपने ही घर में खून के रिश्तों को गहरा बनाना होगा, एक दूसरे में भाई-चारा और स्नेह ढूँढना होगा, मानवता के लहू को अपने रग-रग में बहाना होगा और इसके भी पहले रिश्तों के मोती को अपनी हथेली पर सहेजना होगा, तभी मिलेगी रिश्तों को सही पहचान.
डॉ. महेश परिमल
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ललित निबंध
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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