बुधवार, 8 फ़रवरी 2017
कविता - मुठ्ठी भर मिट्टी - हंसराज सिंह वर्मा 'कल्पहंस'
मुठ्ठी भर मिट्टी... कविता का अंश...
मुठ्ठी भर मिट्टी स्वदेश की,
संग मैं अपने ले जाऊँगा।
उस अंजाने पराए देश में,
कुछ अपना, कुछ पहचाना ले जाऊँगा।
उस दूर देश में मां की गोद न सही,
उसके आंचल का चीर तो होगा।
मल लूंगा माथे पर आएगी जब यादे–वतन,
तन उद्विग्न, चित्त अशांत अधीर होगा।
अपने मकान के कोने में उसे सजाऊँगा,
निहारूंगा नित्य तब सुकून कितना मैं पाऊँगा।
सौंधी–सौधी सुगंध से महकेगा आंगन सारा,
बरसेगी असीम शांति, मिलेगा अक्षुण्ण सहारा।
पर मैं वह मिट्टी लूं कहाँ से?
रचा-बसा जिसमें मेरा भारत हो।
कण–कण में हो विविधता,
छलक–छलक उठे सौंदर्य,
रोम–रोम से झरती चाहत हो।
चलूं उठा लूं एक मुठ्ठी संसद के गलियारों से,
सुना संसद लघु भारत है।
बनता भारत उसके विचारों से,
मूढ़! कौन तुझे वहाँ जाने देगा?
मुठ्ठी भर मिट्टी तो दूर,
रत्ती भर हवा न लाने देगा।
ऐसा जकड़ा–जकड़ा मेरा भारत नहीं हो सकता।
हवा भी जहाँ पहरे में हो,
वहाँ प्रेम–बंधुत्व नहीं रह सकता।
क्यों न भर लूं एक मुठ्ठी, मंदिर के प्रांगण से!
नित्य पावन यह होती भागवत कथा के वाचन से।
शीतलता यह बहुत क्षीणकाय, पलती बडे़ नाज़ों से।
दहक उठती गिरजे की घंटी या अजान की आवाज़ों से।
इतना एकरंगी संवेदनाहीन,
मेरा भरत–पुरुष नहीं हो सकता।
लाख झंझावातों के भंवर में,
उसका इंद्रधनुष नहीं खो सकता।
बहुत सुहासित कण–कण शोभित, राजघाट की यह फुलवारी
भर लूं अंजुली क्या यहाँ से, सोया जहाँ प्रेम–पुजारी।
बापू नहीं, यहाँ हमने उनके सपनों को दफ़नाया है।
राख छुपाकर संगमरमर में आदर्शो का बाजार लगाया है।
विस्तृत फलक को संकुचित कर, देखा तनिक उजियारे में
वांछित मिट्टी को पाया मंैने, अपनी मैया के चौबारे में।
यह चूल्हा, जिसमें उनका सर्वस्व समाया,
झोंका अपना वजूद दीवारों को घर बनाया।
ममत्व का गूंथा आटा, अंकुर को वृक्ष बनाया।
त्याग की डाली खाद, फल को स्वादिष्ट बनाया।
यह चूल्हा जिसकी मिट्टी लाईं थीं वे उन खलिहानों से,
जिन्हें उर्वरा है बनाया, पुरखों ने अपने बलिदानों से।
खुरचन तनिक–सी इस चूल्हे की संग मैं अपने ले जाऊँगा,
अपने आराध्य को हो समर्पित स्वयं न्यौछावर मैं हो जाऊँगा।
इस कविता का आनंद आॅडियो की मदद से लीजिए...
संपर्क - ई–मेल : hamarahans@hotmail.com
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कविता,
दिव्य दृष्टि
जीवन यात्रा जून 1957 से. भोपाल में रहने वाला, छत्तीसगढ़िया गुजराती. हिन्दी में एमए और भाषा विज्ञान में पीएच.डी. 1980 से पत्रकारिता और साहित्य से जुड़ाव. अब तक देश भर के समाचार पत्रों में करीब 2000 समसामयिक आलेखों व ललित निबंधों का प्रकाशन. आकाशवाणी से 50 फ़ीचर का प्रसारण जिसमें कुछ पुरस्कृत भी. शालेय और विश्वविद्यालय स्तर पर लेखन और अध्यापन. धारावाहिक ‘चाचा चौधरी’ के लिए अंशकालीन पटकथा लेखन. हिन्दी गुजराती के अलावा छत्तीसगढ़ी, उड़िया, बँगला और पंजाबी भाषा का ज्ञान. संप्रति स्वतंत्र पत्रकार।
संपर्क:
डॉ. महेश परिमल, टी-3, 204 सागर लेक व्यू होम्स, वृंदावन नगर, अयोघ्या बायपास, भोपाल. 462022.
ईमेल -
parimalmahesh@gmail.com
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